।। ॐ तत् सत् ।।
॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥
🙏 जय राधेश्याम 🙏
🙏 जय सियाराम 🙏
🙏 जय गौरीशंकर 🙏
🙏 जय माता दी 🙏
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।
हे प्रभु करो हृदय में वास । माँ हमें अपने आँचल में छुपा लो |
मेरी भावनाओं का एहसास मेरी सखी को करादो
मेरे प्यारे अंकल जी,
आशा है आप सबका स्वास्थ्य अच्छा होगा। प्रभु जी मेरे परिवार की रक्षा करें, मार्ग दर्शन करें और अपनी अनुपायनी भक्ति प्रदान करें।
आशा है आप सब भी कभी-कभी माता की आरती देखते हैं। मैं मम्मी पापा के साथ नियम से देखता हूं और आरती लेते समय मम्मी, पापा, नानी, नाना, अज्जी, ताता, आप, आंटीजी, नानी, नाना, दादी, दादा, शुभम, प्रिया दीदी, श्री और मेरी सखी शिवानी के लिए प्रार्थना कर्ता हू. प्रार्थना करता हूं कि मेरी सखी और मेरी बीच, माता और प्रभु जैसा प्रेम हो। मेरा परिवार फिर सात आ जाये।
जब भी मैंने अपनी बात कहने की कोशिश की कुछ न कुछ हो गया, और मेरी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि अपनी भावनाओं का एहसास करा पाउ। हर कोई पहले से मुझे गलत मान के बैठा था और वही साबित करने में लगा रहता था। मेरे प्रेम पे लगते निराधार आरोपों और एक अपराधी की तरह व्यवहार से गुस्से में और कुछ समझ नहीं आया और मैं और टूट गया। मैं कुछ समझ पाओ इसे पहले सब बिखर गया। वर्षो से चिंतन में पढ़ा था कि कैसे अपनी बात कहूं, पर बुद्धि ने साथ ना दिया। आस लगाए बैठा था कि आप का गुस्सा शांत हो जाएगा और आप मुझे समझने की कोशिश करेंगे, पर एसा ना हुआ। पूरा जीवन व्यर्थ होता जान पड़ रहा है और चिंता में डूबा जा रहा हू।
आप तो मुझे बचपन से जानते हैं। अपने उस छोटे चुनमुन पर दया कर के अपने दोस्त के पत्र के लिए थोड़ा समय निकल के शांति से पढ़िएगा।अभी तक अपनी सखी के साथ खेलने के लिए तड़प रहा है। आपकी बड़ी कृपा होगी अगर कुछ देर, जो हुआ भूल कर, शांत मन से इसे पढ़े। मेरी सखी तो मेरी एक बात भी सुनने को तैयार नहीं, आप कह रहे थे कि मेरा मैसेज देख के ही गुस्सा हो जाती है, इस लिए आप की शरण में आया हूं।आप के चरणों में याचना है मेरी भावनाएं मेरी सखी तक पोहचा दीजिए। मीनू को कहिए कि थोड़ी देर के ले क्रोध और समाज को किनारे रख दे और मेरी भावनाओं को समझने का प्रयास करें। आप की लाडली आप से अति प्रेम करती है, आप की बात सुनेगी।
भावनाओं को शब्दों में कहा नहीं जा सकता, इस लिए प्रभु से प्रार्थना है कि मेरे भाव आप के माध्यम से मेरी सखी तक पोहचादे।
मैं लिखने में कामजूर रहा हूं और मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं तो गलतिया होगी, पर फिर भी पूरा पढ़िएगा। वाल्मिकी जी, व्यास जी, सुखदेव जी, नारद जी, सूत जी, तुलसीदास जी और रवीन्द्र जी से प्रार्थना है शक्ति दे।एक बार में समझ ना आए तो दोबारा पड़ लीजिएगा। ना समझ आ रहा हो तो सुधार करने का अवसर दीजिएगा। मुझसे बात नहीं करना चाहिए तो मैसेज ही कर लीजिएगा। थोड़ा लम्बा है पर इतने सालो से बोहत कुछ कहने को था।
जब भी अवसर मिले मेरी सखी को हमारे मंदिर में दर्शन करा आएगा। जब भी जाता हूं, जैसे भोले बाबा कह रहो मेरी बेटी नियम से मुझे जल चढ़ाने और आरती करने आती थी, तुम्हारे करण नियम टूट गया। काश बचपन के वो दिन ही वापस आ जाए जब मैं उसके साथ आरती करता था और आप जय कारा लेते थे।
10 साल का था जब पता भी नहीं चला, कब आपकी लाड़ली मीनू की ख़ुशी, चिंता, उसकी भलाई के लिए सोचना, ये भावनाए मेरे अंतर में उत्पन हो गई।पता ही नहीं चल कब खुशियां उसके बिना अधूरी लगने लगी। उसकी खुश देख कर, अपनी परेशानी बुल जाता। ऐसा लग ता कि वो खुश है तो सब सही है। मंदिर में उसके साथ आरती गा के अतियंत आनंद आता। कहीं घुमने जाता तो यही ख्याल आता कि मेरी सखी ये देख कर कितानी खुश होती, क्या कहती। अपनी सुविधाए खटकति थी. मम्मी पापा सोचते हैं कि वह एक ज़रूरतमंद मित्र की सहायता कर रहे हैं, पर मैं अपने समझ कर उनका प्रोत्साहन करता था। कलेजे को कुछ ठंडक मिलती थी। मुझे पता भी नहीं चला, कब सब को अपना परिवार मनेगा और हमेशा रहेंगे।
एक बार जब आप के घर आया था तो बुखार में सो रही थी, उसका ख्याल न रख पाने की बेबसी में अंदर ही अंदर बहुत तड़पा। जब आपका एक्सीडेंट हुआ था तब भी बहुत बेबस था उसका और आप का ख्याल क्या हलचा भी ना ले पाया। मम्मी पापा देखने गए थे, पर साथ नहीं ले गए और मैंने कुछ कह भी नहीं पाया। घर बैठे बैठे बस प्रार्थना करता रहा। आशा है अब आप का हाथ पूरा ऊपर उठ जाता है। जब आप उसके साथ हाथ पकड़ कर घुंमने वाला खेल खेलते समय पार्क की दीवार के पास चले जाते तो डर लगता था। एक बार अयप्पा स्वामी प्रसाद जो दिया था उसमें नारियल खराब था, पापा ने दूसरा भिजवाया तो आप को बताने के बाद भी आप ने उसको चाख के देखने को दिया और इतना खराब था कि मुंह बना के थूकने चली गई। आप पर बहुत क्रोध आया था।
एक बार जब मेरी सखी ने नाना को कहा था ये मेरे भी नाना हैं, तो अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई थी।
मोहल्ले के इतने बचे मेरे साथ केलने आथे थे। शुभम अक्सर आता था पर, जिसके साथ खेलने को मेरा दिल उमड़ रहा था वो कभी नहीं आई। जन्माष्टमी में भी जब आप झांकी सजाने आए थे बीच में कभी आजा थी, पर साथ मिलके कभी प्रभु का श्रृंगार नहीं किया। इतनी बार पार्क में सुंदरकांड का पाठ हुआ पर कभी साथ-साथ नहीं पढ़ा। छोटे बच्चों के साथ बहुत खेलती थी। छोटे से दिव्यांश को काई बात उठा के लेते जाते देखा। रो रो के उसको मरता रहता फिर भी उठाये लिए जाती।बचपन में जब भी बैडमिंटन खेला आप के साथ। आप की लाडली भी वही रहती, आप के साथ खेलती, पर मेरे साथ नहीं खेलती। यही सोचता रहता कि मेरा साथ क्यों नहीं खेलती। एक बार आप सब पहले वाले घर पर बारिश का आनंद ले रहे थे, मुझे छज्जे पे देख कर बुलाया। सोचा पहली बार मेरी सखी के साथ खेलने को मिलेगा, पर परीक्षा निकट होने के कारण मां ने जाने नहीं दिया। ऐसे ही उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा देखने बिना अंतर शांत हो गया था, आप के पार्क के दूसरे तरफ जाने के बाद और भी कम दिखाई देती। मेरे जन्मदिन पर भी बस आख़िर में आप सब के साथ खाना खाने अजाती थी।आप इतनी बार घर आये पर आपके साथ भी नहीं आती। आप को कुछ बताने आती भी तो ज्यादा देर नहीं रहती। आप से मित्रता भी इतनी गहरी हो गई है, विश्वास टूटने पर भी आस है कि मेरा मित्र मुझे समझेगा। हमेशा से आप से इरशा भी रही। मेरी मम्मी जैसे पापा पापा करती रहती थी, वो भी आप से चिपकी रहती थी। जैसे नाना नानी साथ थे, निरनय लिया था आप को भी साथ रखुनगा, उससे आप को दूर नहीं कर सकता। मन ही मन आप को चुनौति भी दे दी थी कि सिद्ध कर दिखाना है कि आप से ज्यादा प्यार करता हूं, इतना कि एक दिन आप से पहले मेरे हृदय से लगेगी। यहीं सोचता रहता है कि कैसे आप से भी ज्यादा खुश रखू। मेरा पूरा बचपन ऐसे ही अनुभव और भावनाओं में बीता जो उस समय समझ ना आए।
एक बार आप ने मजाक में पापा से कहा कि मुझे शुभम के साथ एक्सचेंज कर ले, तो पापा ने कहा कि मीनू के साथ एक्सचेंज करेंगे तो तैयार है। बहुत अच्छा लगा कि एक दिन जब मेरी सखी मेरा साथ स्वीकार कर लेगी तो एक तरह से ये सत्य हो जाएगा और मेरी सखी को भी वो प्यार मिलेगा जो मुझे मिलता रहा है।
बचपन में नानी नान, अज्जी, मम्मी पापा, से बहुत प्यार मिला। इतने रिश्ते आते रहते थे, बहुत स्नेह मिला। प्रभु ने कोई कमी नहीं राखी, पर उस प्यार को मेरी सखी के साथ बाटे बिना, साथ बिना सब अधूरा ही लगेगा।
उस उमर मे तो समझ ही नहीं आया कि ये क्या भावना है। हमेशा से मैं अपनी बात सही से नहीं कह पता थी। एक अजीब सा डर भी बैठा था कि मेरी सखी किसी बात पर मुझसे रूठ न जाए और कहीं चली न जाए। इस डरमे में कभी उससे बात भी नहीं कर पाया। पता नहीं क्यों उसने भी मुझसे कभी बात नहीं की। अंदर ही अंदर मेरा डर और चिंता बढ़ती जा रही थी। अंदर से ये लगा कि, जबतक थोड़ी समझ ना आ जाए, दिल पर पत्थर रखना ही सही होगा। भावनाओ को दबते दबते पता ही नहीं चला मैं ही कब दब गया।
जब थोडा बडा हुआ तो मेरी हालत ऐसी थी कि मैं पास दुकान से जा के कुछ ला भी नहीं पता था। आप ने तो मेरा बचपन देखा ही है। डर लगता था कि कभी अपने पैरों पे खड़ा भी हो पाऊंगा। दुनिया असली पहलु देखा कर दुनिया से मन हटने लगा था। अंदर से ये आया कि ऐसी दुनिया मेरी सखी को मेरे साथ की आवश्यकता पड़ेगी। मुझे उसका साथ देने लायक बनाना है, उसकी रक्षा करनी है। ऐसी दुनिया में उसके और परिवार के लिए जीना है। पता ही नहीं चला कब वो मेरे जीवन जीन और आगे बढ़ने का आधार बन गई।
उस समय याही मन में आया कि बिना लायक बने मेरी भावनाएं व्यर्थ हैं। अभी किस आधार पर क्या कहूं।इतने बड़े दयित्व उठाने का वचन और आप को आश्वासन देने के लिए आधार नहीं है।
किसी तरह आप की लाडली का साथ देने के लायक बन जाउ, इसी को लक्ष्य बना कर कठिनाइयों का सामना किया। जब भी हिम्मत टूटने लगी, प्रभु से प्रार्थना की, मैं अपने लिए नहीं, आप की बेटी के लिए ये सब कर रहा हूं, शक्ति दो, मार्ग दर्शन करो। वचन दिया कि उसके भले के लिए जीवन समर्पित कर दूंगा, सबका ख्याल रखूंगा, बस इस लायक बना दो। घर से दूर जा कर यही सोच कर बढ़ता रहा है कि मुझे इस लायक बनाना है कि मेरी सखी का ख्याल रख पाओ, उसके सपने पूरे कर पाओ, दुनिया घूमा पाओ। काई अवसर आए जब परेशानियो का सामना कैसे करु समझ नहीं आया, पर राम भरोसे बढ़ तो पता ही नहीं चला कब वे पर हो गई। मेरी सखी की चिंता लगी रहती थी। कभी-कभी ही आप लोगो का हाल चल मिल पता था। प्रभु का ही आसरा था.
एक बार दुर्गा पूजा के पंडाल में गए थे, तब उसका निचला ओंठ बीच में काटा हुआ था। क्या हो गया चिंता हो रही थी. सिर्फ सर्दी में जैसे ओंठ फट जाता है वैसे ही या कोई चोट तो नहीं। पुछ भी नहीं पाया. मम्मी ने आइसक्रीम लेन को कहा तो आना कानी ना कर के हिम्मत कर के लाया पर उसको पसंद नहीं आई। सही से याद नहीं पर स्ट्रॉबेरी फ्लेवर थी जो उसे पसंद नहीं।
एक बार जब कुकरैल पार्क देखने गए तो उसको झूला भी ना झूला पया। वापस आ के बोल रही थी पीठ दर्द हो रही है। आंटीजी कह रही थी कपडे फलाने गई थी तो जीने पे फिसल गई। फिर बेबस था कि मेरी सखी का ख्याल नहीं रख पा रहा, मालिश भी नहीं कर सकता। नानी नाना मामी पापा की जब भी मालिश करता हूं सब कहते हैं अच्छा सा करता हूं। एक बार आप का सर दर्द हो रहा था तो मालिश की थी। मेरी सखी का ख्याल रखने का प्रभु को वचन तो दे दिया पर कुछ कर ना पाया। बस उसके लिए प्रार्थना ही करता रह गया।
कंप्यूटर भी यही सोच के दिलवाया था और आ के सही करता रहा कि मेरी सखी कि पढ़ाई में कुछ मदद हो जाए, जीवन सुधर जाए। आपने भी कुछ कंप्यूटर कोर्स करवाया था। उस समय भी उससे सीधे बात करने की हिम्मत नहीं कर पाया। आप के माध्यम से ही क्या करना है पता चलता था। जितनी भी बार आया, एक मेहमान जैसा खाना पीने से ज्यादा बात नहीं हुई। उसने भी सीधे कुछ मुझसे बात नहीं की, पता नहीं क्यों। पता नहीं मेरी मेहनत पढाई में कितना काम ऐ।
सोचा था प्रिया दीदी की शादी में आर्थिक रूप से आप का सहयोग करूंगा और तयारी में हाथ बताऊंगा पर तब तक नौकरी नहीं लगी थी, फिर कुछ कर ना पाया। नानी के साथ सबकी फोटो देख कर अच्छा लाया। लेकिन उसके बाद मेरी सखी का नंबर है और मैं अभी तक अपने जोड़े पर खड़ा भी नहीं हो पाया हूं सोच कर बहुत डरा हुआ था। सब परिश्रम व्यार्थ न रह जाय।
प्रभु की कृपा से इंटर्नशिप में तीन ऐसे गुरु मिले जिन्हों ने जो वर्षों तक यूनिवर्सिटी में नहीं सिखाया, कुछ समय में ही सिखाया। माता सरस्वती ने जीवन भर कृपा बनाई राखी और ज्ञान अर्जित करने में रुचि बनी रही, अपने आप ही उत्तर मिल जाते। दिन रात मेहनत करी, सबका सहयोग रहा। प्रभु की कृपा से अच्छी नौकरी लग गई और अच्छी सैलरी भी बिना मांगे ही मिल गई। मेरी सखी के सहारे और सबके आशीर्वाद से यहां तक पाहुंचा हूं। मेरी सखी ही मेरी भक्ति का भी आधार है। मम्मी पापा और नानी नाना ने बचपन से पूजा पाठ तो सिखाया था, लेकिन प्रभु के चरणों में अनुराग, चरित्र और लीलाओं को सुनने की लालसा, और प्रभु का गुणगान वा भजनो का आनंद मेरी सखी के लिए प्रार्थना करते करते उत्पन्न हुआ। माता की आरती देखते समय ये मन ते आता है कि, हम दोनो माता के भवन के पास ही पले बड़े हुए होते और निश दिन आरती में जाते। किसी दिन थक जाती तो पेठ पे उठ के ले जाता। माता का दरबार में बैठे लोगों को देख मां से यहीं पुचता हूं कि वो दिन कब आएगा जब सबके साथ मैं भी दरबार में आऊंगा। जैसे भोले बाबा माता तो प्रभु को कथा सुनाते हैं, मैं भी मेरी सखी के साथ प्रभु के विभिन्य चार्टरो की कथा श्रवण करु। पूरे परिवार को साथ में तीर्थ यात्रा पे लेजौ।
बीच में एक बार जब आया था तो गोमती के किनारे घूम गए, वहा भी मुझसे दूर रही। सही से याद नहीं आ रहा पर उसने चॉकलेट आइसक्रीम खाई थी। वाहा पे जो आप के साथ हाथ में हाथ डाल के एक तरफ आपकी लाडली और दूसरी तरफ मेरी जो फोटो ली थी अभी भी आप के नंबर पर वही है।
जब चंद्रिका देवी गे वहां भी उसका वाहवार कुछ अजीब सा था। आप के गाव में खिची तस्वीर में आप के हृदय से लगी हुई बहुत आनंद में थी। वाह भाव को प्रत्यक्ष देखने के लिए जब रास्ते में खेत में आपस में वही दोहरावया।
एक बार होली पर भी आप के साथ डांस कर के आपके हृदय से लगी हुई बहुत खुश थी। यहीं खुशी को देखने के लिए ही तो क्या करू सोचता रहता हूं।
नौकरी लगने पर आत्म विश्वास हुआ कि माई इतने बड़े दयित्व को उठान लायक हू और आप को अश्वस्थ कर सकता है कि निश्चिंत हो कर अपनी लाड़ली का दयितवा मुझे सूप देजिये, सबका ख्याल रखुना। मम्मी, पापा और आप को बहुत परिश्राम करते देखा है। लगा कि अब आप सबको आराम दे पाऊं गा।
हमें वर्ष आपे उसका जन्मदिन नानी के साथ मनाया था। फोटो देख कर बहुत ख़ुशी हुई थी। सोचा था मेरी सखी मेरा साथ स्वीकार कर लेगी तो सबसे पहले नानी को बताऊंगा। सोच था कहूँगा ये मेरी सखी हाँ। नानी से बहुत प्यार मिला, मैं सोच रहा था जल्दी ही मेरी सखी को भी वही प्यार मिलेगा। नानी के हाथ का खाना मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, सोच था नानी से कहूँगा मेरी सखी को खाना बनाना सिखादो। सोचा नानी के आशीर्वाद से सब जल्दी ही संपन्न हो जाएगा। डोनो साथ में नानी की सेवा करेंगे। पर पहली सैलरी आने और मेरे घर आने से पहले ही नानी नहीं रही। काय काहू पता नहीं.
बचपन से ही आप के घर की हालत देख के मेरी चिंता थी। आप सबका जीवन सुधारने को तो हमेशा से व्याकुल था। जब आप लोग घर आये तो कुछ शांति मिली। मैं तो यहीं सोच रहा था कि मेरा परिवार पास है, प्रभु ने बिनती सुन ली।
जब मन थोड़ा शांति हुआ और दिसंबर 2017 में मैं घर आया तो समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे मेरी सखी की भावनाएं समझ और अपने दिल की बात काहू। बचपन का वो धर अभी भी बैठा था। क्यों की माई सही से अपनी बात बोल नहीं पाता और अक्सर मेरी बातों का लोग गलत मतलब निकाल लेते हैं, और भी डर लगता था। हमेशा से ही वो आप लोगो के सामने तो एक मेहमान की तारा मुझ से खाना पीना पूछ लेती, पर जब कोई ना हो तो मुझसे कोई मतलब ही नहीं। एक बार जब नानी के साथ फोटो खींच रहे थे, जब आप बैठे तो सीधी बैठी थी, जब मैं आया तो ठेड़ा हो के बैठ जाई। काई बार में सामने खड़ा होता हो तो ऐसा व्यवहार किया कि मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है उसके लिए। मुझे हमेशा से ही कुछ नज़रअंदाज़ करती थी। जब गुमने गए तो हमेशा मुझसे दूरी बना के रखी थी। कभी कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया। जब नौकरी लगने के बाद सबको कपडे गिफ्ट चाहिए थे तो जान बुच के उसको नहीं किया था कि पूछेगी मेरा गिफ्ट कहा है। हर के भेजा भी तो एक बार पहन कर दिखाया भी नहीं। पता नहीं पहना भी या फेंक दिया।
उस दिन जनेश्वर पार्क में थोड़ा बैडमिंटन केला। बाद में जब भी उसकी तरफ देखा तो कुछ प्रतिक्रिया ही नहीं दी। सामने खड़ा था तो ऐसे की मैं हूं ही नहीं। जिसने लिया इतने वर्ष सदाश किया, पूरा जीवन उसकी भली के लिए समर्पित करने का प्रभु को वचन दे दिया, उसका ये विवाह देख कर टूटने लगा। मेरे जीवन का आधार हिलने लगा।
उसके बाद जब फन मॉल गए वाहा 99 स्टोर में कुछ चॉपिंग बॉक्स देख रही थी। मन में आया की दिला दू, पर मुँह से शब्द नहीं निकले। फिर अंदर ही अंदर घुट के रह गया कि उसके लिए इतना भी नहीं कर पाया।
ऊपर से जिस दिन फिल्म देखने गए, उसकी थुड्डी पे डबल चिन देखा कर मेरा कलेजा फट सा गया। माँ के मोटेपे के कारण से होने वाली परेशानिया पता थी। मेरी सखी की सेहत की चिंता में डब जया। इसीलिये मैं बार बाए बैडमिंटन खेलने के लिए प्रोत्साहन कर रहा था।
उस दिन बड़े इमामबाड़े में भी हर समय मुझसे दूर भागती रही। भूल भुलैया से बाहर आते समय बहुत भीड़ थी और उसमें सिडिया उतरना था। डर लग रहा था कि धक्का मुक्की में कुछ अनहोनी न हो जाए। मैं सबसे आगे था तो धीरे-धीरे पीछे देखते देखते हुए, सब को साथ और मेरी सखी की रक्षा का ध्यान रखते अया। मेरे पीछे ही थी, सोच रहा था डर से हाथ पकड़ लेगी, पर नहीं पकड़ा। बाद में छोटा इमामबाड़ा में पीछे-पीछे जा रहा था तो ऐसा मूड कर देखा कि एक पल मेरा दिल बिखर गया। अगले ही दिन कानपुर चली गई और मैं सोच के, चिंता में डूब गया कि मुझसे ऐसा क्या हो गया जो ऐसा देखा। जिसकी मुस्कराहट को देखने के लिए मैं इतना तड़पता हूं, उसने ऐसा मुंह क्यों बनाया।
अन्दर से टूटा हुआ, कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसका बरताओ देख कर मेरा दिल बिखर गया था। दुनिया की मुसीबत और समाज का सामना करने के लिए तैयार था पर उसके ऐसे व्यवहार के लिए नहीं। उसी चिंता में उस पल को याद कर कर के 3 दिन घर में सोच-सोच के टहलता रहा। अकाल काम नहीं कर रही थी, कुछ समझ नहीं आया।
कितने वर्ष से सोच रहा हूँ पर समझ नहीं आया। मेरी सखी तक मेरी क्षमा याचना पहुचा दीजिए कि अंजने में उस दिन कुछ गलती हो गई तो मुझे क्षमा कर दे। मुझसे कुछ गलती हो गई तो डेटा क्यू नहीं, तमाचा क्यू नहीं मारा। क्या मैं इस लायक भी नहीं?
अंदर ही अंदर चिंता खाती रही। एक तरफ उसकी सेहत की चिंता और उसका मेरे प्रति व्यवहार। चिंता छुपाए नहीं छुपी और क्या करु बूढ़ी भी काम नहीं कर रही थी। माँ भी बुझे परशानी देखा कर परेशान हो गई और कुछ समझ नहीं आ रहा था।
उस दिन बैडमिंटन खेलते समय जोर जोर से मैं इस लिया मर रहा था कि गुस्से में दैट दे गी। एक बार शटल उसके लग भी गई 😭, फिर भी कुछ ना बोली।
तबियत ठीक न होने के कारण जब वो कुछ दिन बैडमिंटन खेलने नहीं आया तो और भी चिंता में डूब गया। आप भी उन दिनों व्यस्त थे और मुझसे बात करने का समय नहीं निकला। एक दिन मिले तो हिम्मत करके आप से पूछा क्या हुआ था, उसका स्वस्थ ठीक तो है, तो आपने कहा कुछ नहीं। जरे जरे से मैं उस की चिंता में पड़ जाता हूं और आपका ध्यान तो जैसे उसके स्वस्थ पर था ही नहीं। मोटी हो रही है आंटीजी तो कह रही थी, पर आप का ध्यान तो अपनी बेटी की तरफ था ही नहीं। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करु। जाते समय आपको बैडमिंटन दे के आया था कि काम से कम एक चिंता तो काम हो SMS करें कि कोशिश कर रहा था कि "हानी करा बाबू" से कुछ सीख के अपनी बेटी की सेहत पर ध्यान दीजिए, मेरा कलेजा फट ज राहा हे। फोटो से दिखाने की कोशिश कर रहा था कि देखिए कैसे मुझे नजरंदाज करती है। बुद्धि काम नहीं कर रही थी, किन शब्दों में काहू समझ नहीं आया। आशा कर रहा था मेरा मित्र समझ जाएगा, नहीं तो मुझसे बात तो करेगा।
चिंता कम न हुई ऊपर से जब आपने सीधे मां को मैसेज दिखाया तो पता नहीं उन्हो ने क्या समझा, और मेरे कुछ कहने से पहले ही मुझे पापी और पापा ने अप्राही घोषित कर दिया। उसके बारे में मेरा सोचना भी मेरे लिए पाप कह दिया। जो प्रेम मेरे जीने और सफलता का कारण है। जो प्रीम मेरे जीवन और भक्ति का आधार है उसपर लगे अरोपों ने मेरी बुद्धि को निश्कृत कर दिया। क्यों की सारी गलती मेरी थी मेरा रोना भी गलत था और रो के अपने माता पिता को परेशान कर रहा था। बचपन में जब भी मन व्याकुल होता था तो नानी के पल्लू में जा छुपता था। इतने सालो में तो चेन से रो भी नहीं पाया। अपने तो देखा था जब आप को ऊपर बुलाया तो, रो रो के मेरा क्या हाल था। मैं कुछ बोलने लायक नहीं रहा। वर्षा तक सोचता रहा कि ऐसा क्या है जो मुझे समझ नहीं आ रहा है और माता पिता दोनों इतने क्रोध में हैं। आत्मा तो कह रही थी मेरा प्रेम गलत नहीं है, लेकिन बार-बार डांट खाने के बाद, करण ना समाज आने पे आपसे क्या कहु समाज नहीं आया। मैं तो वैसे भी अपने भाव सही से नहीं कह पाता हूँ। आप भी मुझसे रुष्ट ना हो जय। काम से काम आप लोग पास तो है। संबंध न बिगडे इसलिये मैं ने शांत रहना उचित समझा।
अपने दिल पर पत्थर रखने का बोहत प्रयास किया पर उसकी चिंता और प्रेम मे मेरा अंतर की पीड़ा नहीं छुपी। करण समाज भी नहीं आ रहा तो क्या करू समाज नहीं आया।
मेरा ऐसा मानना है कि प्रभु के रिश्ते बनने के लिए कर्णो मैं 2 ये है कि धर्म मार्ग और भक्ति मार्ग पर साथ दे। एक भटके तो दूसरा संभल ले और एक दूसरे को प्रभु की याद दिलाते रहें। भजन मेरे कठिन समय के साथी रहे हे. यही सोच के कम से कम अपना एक दयित्व पूरा कर लो और मेरी सखी को प्रभु की याद दिलाता राहु आप को भजन भेजो। ये भी सोच रहा था कि, हो सकता है प्रभु माता के प्रेम और चरित्र सूर्य कर चमत्कार हो जाए और उसको मेरा प्रेम का एहसास हो जाए।
मुझे अंदर ही अंदर घुटता देख मुझे बिना बताए, मां ने उससे कुछ बात की। पता नहीं उसने मुझे क्यों बुरा कहा और गुस्सा हो गया। जब मुझे बताया गया, तो सुन कर मेरा ही मुझ पर से विश्वास हिल गया। मैंने तो कुछ सोच भी नहीं, अपने अंतर के भावनाओं में अपना सब कुछ आपी सखी को समर्पित कर दिया था। समझ नहीं आया क्यों मेरा मेरी सखी के बारे में सोचना भी पाप है। क्यों उसने ऐसा कहा. जिसको खुशियां देने के लिए दिन रात मेहनत की, उसकी भलाई के लिए सोचता रहता हूं, उसने रो कर कहा कि मेरे कारण उसकी बदनामी हो जाएगी। हमेशा की तरह सोच-सोच कर हार गया, समझ ना आया।
माँ ने ये भी कहा कि उसने बोला कि मैंने उसके पैर छुए तो मुझसे विवाह कैसे हो सकता है। काश मुझे ऐसा आनंद दाई पल याद होता, पर याद कर के थक गया। वैसे भी चरण स्पर्श तो अपना आदर सत्कार दर्शना है। मैं नहीं मानता कि पति पत्नी के चरण स्पर्श नहीं कर सकते। अगर मुझ से कोई भूल हो जाए तो उसको मनाने के लिए उसे चरनो भी पकर लूंगा। मोच लग गई तो अच्छे से मालिश करूंगा।
ये भी कहा कि मुझे शुभम जैसा मानती है। कश मुझ से कभी स्नेह दिखता है। कभी अपनी मरजी से मुझसे मिलने आई होती। कभी मेरा साथ अच्छे से खेला होता। मैं तो बचपन में अपनी सखी के साथ, कुछ बात कर ने, खेलने को तड़प रहा हूं। मैं तो डर मे कभी उसका नाम भी नहीं ले पाया। पता नहीं आप ने कभी ध्यान दिया या नहीं। अब भी उसका नाम मुँह में आते आते रुक जाता है। आदत से मजबूर इस पत्र में भी उसका नाम जादा नहीं लिखा पाया। कभी उसका हलचल भी नहीं पूछ पाया। अंदेशा हो गया कि मीनू घर का नाम है पर कभी असली नाम पूछने की हिम्मत नहीं हुई। जब पापा ने फिल्म में लिखा तब पता चला। बहुत ख़ुशी हुई थी कि माता के नाम पर आपने शिवानी रखा है जिसमे बाबा का नाम भी है।जैसे माता के नाम के आगे प्रभु का नाम से सीता राम है, एक दिन शिवानी के आगे अभिषेक होगा। मेरी सखी के बारे में जानने को ऐसे कितने प्रश्न हैं जिनके लिए व्याकुल रहा हूं।
बचपन में जब आप मंदिर के सामने वाले घर में रहते थे, एक बार आप ने मुझे उसके साथ खड़ा किया था और कहा था साथ में कितने अच्छे लग रहे हैं। अंदर से एक आनंद की अनुभूति हुई थी, पर अगले ही पल अपने वो कह दिया। उस समय तो समझ नहीं आया कि मैं एक पल खुश था और अगला पल जैसा अनहोनी हो गया। बुद्धि तो उस उमर में कुछ समझ नहीं पाई, पर आत्मा जिसकी कोई उमर नहीं होती कुछ अंदेशा हो गया था इसका गलत अर्थ निकलेगा।
आप तो कहते हैं मेरे माता पिता को अपना माता पिता सा सम्मान देते हैं। माँ ने उसे कहे कुछ गलत बाते भी बताई। जब आपकी लाडली माँ से इतनी गलत तरह से बात कर रही थी, अपना रोका क्यों नहीं? जो भी गुस्सा मुझ पर करना चाहता था, माँ पे क्यू।
और पता नहीं क्या कहा जो मुझे समझ भी ना आया। मेरी मां ने भी उसका पक्ष ले कर मेरे प्यार को गलत कह दिया। बचपन का वो डर आज सत्य हो गया था। जैसा आत्मा ये पहले से उसकी जानती थी ये होने वाला है। पता नहीं पिछले जन्म का कोई श्राप था या क्या। जीवन का कारण ही समाप्त हो गया था। पता नहीं उसने क्या कहा कि मैं अपनी माँ की गोद में भी शरण न ले पाया। विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरी सखी मुझ से इतनी घृणा है कि मुझ से एक बार बात भी नहीं करना चाहती है।
तब से वो हमेशा गुस्से में ही रही और मेरी बात सुनने को तैयार नहीं थी।
उसी उलझन में मन में आया फेसबुक पे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज कर देखता हूं, मुझसे तोडा भी स्नेह होगा स्वीकार कर लेगी। पर बात और बिगड गई। पता नहीं क्यों आप लोगो ने मेरा वो फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेजा गलत कह दिया। वो भी पता नहीं क्यों इतना गुस्सा थी। आप ने पता नहीं क्या बोला मम्मी पापा सर पकड़ के बैठ गए। मेरा धर्म उसका सही राह पर साथ देना है तो गलत रहा से उसको रोका भी है, यही सोच कर हिम्मत कर के इतने वॉशो में पहली बार फोन किया। उसको समझने के लिए किया था, पर माता पिता का हाल देख के क्रोध पर नियंत्रण नहीं रहा और ज्यादा ही डांट दिया। उसने क्षमा तो माँग ली पर वही पहली और अब तक की आखिरी बात है। जब उससे कुछ बात हुई तो वो एक दांत थी और मैंने उसे रुला दिया। अभी तक दिल में लगता है। ना चाहते हुए मेरी सखी, माता, पिता को काई बार रुला दिया। प्रभु क्षमा कर दो।
अभी तक पापा ने मेरी सखी को क्षमा नहीं कीया। जब पापा कहते हैं कि मैं ऐसी लड़की, जिसने तुम्हारी मां के साथ ऐसा व्यवहार किया है, सोच भी केयसे सकती हूं तो मेरा दिल रुक सा जाता है। उससे केहेयेगा उसकी नाराजगी तो मुझसे है, मेरे माता पिता से बात कर लिया करले। माँ से बहुत प्यार मिला है, मैं तो चाहता था मेरी सखी को भी मिले, पर उल्टा हो गया।
जीने की इच्छा जाती रही. माता पिता का बुढ़ापे में ख्याल कौन रखेगा, उनकी तो कोई और संतान नहीं। मेरे बिना उनका क्या हो गा. प्रभु ने भी, माता के वियोग में इतने वर्षो राज्य किया और दिनेतव ख़तम होने तक शरीर नहीं त्यागा। काम से काम जब तक दयितवा नहीं पूरा होता, प्राणो को कैसे भी तरह रोक के रखना होगा।
कोविड समय आप सबकी चिंता लगी रहती थी। प्रभु की कृपा से ऐसी नौकरी थी कि घर बैठे काम करना था। सैलरी भी इतनी अच्छी थी कि अकेले ही सबकी जरूरत पूरी कर सकती था। बोहत बार फोन उठाया, कहने के लिए कि आप सब ऑफिस मत जाइए, मैं राशन बुक करा दूंगा और जो भी खर्चा है मुझसे ले लीजिएगा। पर कह नहीं पाया। थोड़ा मेरी सखी पे गुस्सा भी आया कि मेरे हाथ ऐसे बंद दिए हैं कि लायक हो के भी अपनों का ख्याल नहीं रख पा रहा हूं। बोहत बेबस महसुस हो रहा था। इधर पापा भी रोकने पर भी बार-बार खेत जा रहे थे तो चिंता और थी। फिर वो हुआ जिसका डर था. आप को कोविड हुआ सुन कर चिंताओ ने घेर लिया। एक तरफ आप की चिंता, दूसरी तरफ किसी और को ना फेल जाए। पता नहीं अपने पापा की चिंता में क्या हाल हो गा। मैंने प्रभु को वचन दिया था मेरी सखी के हर सुख दुख में उसका साथ दूंगा, पर डर के मारे कि आप लोग मेरे फोन से उल्टा और परेशान तो नहीं हो जाएंगे, हाल चल भी ना पूछ पाया। बेबसी बहुत व्यकुल कर रही थी। फिर प्रार्थना करता ही रह गया, कुछ कर नहीं पाया। माँ से आप का हाल चल पता चला, एक बार बात हुई और आप सही हो गए तो कुछ शांति मिली। आशा है कि आप को अब लंबी सांस लेने में दिक्कत नहीं होती। आप के इलाज के लिए कुछ कर भी नहीं पाया। सर्दियों में प्रदूषण बढ़ने पर बहुत चिंता होती है। जानकीपुरम तरफ जादा ही प्रदुषण दिखता है।
जब हर कोई मुझे पहले से ही अपराधि मन के बैठा था तो मेरी भावनाएं किस के क्या समझ आती। हर कोई जो मन ऐ मुझ पर आरेप लगा देता। आप लोगो की तो कोई बात समझ में नहीं आई। एक दिन माँ ने मुझसे बात करने को कहा तो पता नहीं क्या-क्या कह कर गुस्से में चली गई। मेरी सखी क्यों मुझ से इतनी रुष्ट है कि मुझे अपनी बात कहने का एक अवसर भी नहीं देना चाहती है ये सोच कर यह सालो से तड़प रहा है।
उसकी बात सुनकर तो और भी कुछ कहने लायक ही नहीं बचा था। अगली बार आरती के समय भी उसका मुख पर पहले जैसी मुस्कान नहीं थी। कहते हैं प्रभु को देख कर माता का मुख तेज से उज्वलित हो जाता है। मैं भी उस दिन की प्रतीक्षा में था जब मुझे देख कर मेरी सखी का मुंह खिल उठेगा। उसका विपरीत हो गया। दोबारा कभी उसके सामने मुंह उठाने की हिम्मत नहीं हुई। आरती गाने में भी वो लय नहीं थी. ऐसे जल्दी जल्दी गा रही थी कि मैं जल्दी चला जाउ।
उस दिन दिव्यांश के घर की छत पर नए साल की पार्टी में भी उसके सामने जाने की हिम्मत नहीं हुई। मम्मी पापा जबरदस्ती ले गए तो जैकेट में मुंह छिपलिया था। वासे भी हर साल के अंत आते आते, उसके व्यवहार की याद मुझे और भी तड़पता है।
काम से काम अभी भी आप लोग घर पर हैं और रिश्ते इतने बिगाड़े नहीं हैं। उसकी ख़ुशी के लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूँ फिर भी कुछ हल चल तो मिलता रहता है। काम में मन लगना काठिन था, फिर भी यही सोच की इस लायक बने रहना, अपने माता पिता की जरुरत और अगर आप लोगो को कोई आवश्यकता हो तो मैं तैयार रहु।
पापा के स्ट्रोक और हार्ट पल्स की समस्या और माँ के टिनिटस ने चिंता बढ़ा दी। माँ ताने तो मरती थी, अब पापा की हालत के लिए मुझे दोष भी देना लगी। मानसिक संतुलन रखना और मुश्किल हो गया।
माँ का वर्षो से पशुपति नाथ मंदिर जाने की इच्छा थी। कुछ दिन छूट पड़ी तो प्लान बना लिया। सोचा था बाबा से प्रार्थना करके और प्रसाद खा के सब कुछ शांत हो जायेंगे। कुछ अनबन सुलझ जाएगी. शयन काल की नदी तट पर होने वाली आरती दिखाने के लिए आपने वीडियो कॉल किया था। सोचा मुझसे बात नहीं तो कम से कम आरती तो देखेंगे। ऐसा क्या गुस्सा की आरती के बीच में ही कॉल काट दी। मंदिर दिखाने के लिए बगल की पहाड़ी के ऊपर से फोटो भेजी थी। इतने वर्षो में जहां भी दर्शन करने गया हूं सबके लिए प्रार्थना की और यहीं कहा कि अगली बार मेरी सखी और समस्त परिवार के साथ आउ, कृपा करो। सब की फोटो भी भेजी। पता नहीं आपने कभी देखी कि नहीं।
समय के साथ ये गुत्थी सुलझ जाएगी, यही सोच कर सब प्रभु को सूप दिया था। पर विश्वास में कुछ शायद कमी रह गई थी, ऐसा ना हुआ। बाबा का प्रसाद खा के शांत हो जायेंगे। पर शांत होने की जगह और बिगड गया। अभी तक का तो समाज में नहीं आया था, एक बार फिर मेरे कुछ बोले, करे बिना अनबन बढ़ गई और मेरा परिवार बिखर गया। आप के घर से जाने की तयारी कर रहे हे, सु कर प्रणो का आधा जाता रह। हमेशा की तारा मेरी हालत कुछ कहने लायक नहीं रही। इतने वशो से अपनी भावनाएं दबाते-दबाते, अंदर ही अंदर रोता रह गया।
चिंता खाए जा रही थी आप लोग किस हाल में हैं। प्रभु ने मेरी सखी का ख्याल रखने लायक तो बना दिया था और मां की प्रार्थनाओं से उम्मीद से काई गुणा मिल गया था। कहते हैं मेहनत से जो मिल जाए उसे ही प्रभु की इच्छा समाज कर संतोष कर लेना चाहिए, इस लिए मेहनत करता रहा और ऑफिस में कभी मंगा नहीं, फिर भी प्रमोशन मिलता गया। अच्छे लोगो का साथ रहा। प्रभु की बड़ी कृपा थी, लेकिन आज जीवन भर की मेहनत जैसी मिट्टी मिल गई थी। जिसका साथ जन्म जन्मांतर देना था वो और दूर चली गई। प्रभु ने कृपा की फिर भी मेरी झोली खाली रह गई।
इतने सालों से फोन नहीं किया था कि गुस्सा हो के चले ना जाए। आप के घर से जाने के बाद, शांत रहने का कारण नहीं था। मै फोन करके बस आप सबका हाल चाल ही तो पूछता था।। कुछ तो शांति मिल जाती थी। मैंने ऐसा क्या कहा जो आपने कुछ दिनों में फोन उठाकर बंद कर दिया? मेरी सखी तो मुझसे बात नहीं करना चाहती थी, अब मेरा मित्र भी। एक बार फिर समाज ना आया कि मुझसे गलती क्या हुई।
जब से आप सब गए हैं, मेरी सखी की और आप सबकी चिंता लगी रहती है। मिलने को दिल उमरता रहता है। मम्मी पापा परेशा ना होए इस लिए अपने दिल पर पत्थर रखने की बहुत कोशिश की पर समय के साथ और भी मुश्किल हो गया। गलती से किसी से बात करते समय हंसी निकल भी जाती है तो अंदर से लगता है आत्मा कोस रही हो पता नहीं किस हाल में है और तुम हंस रहे हो। घुमने जाओ तो यहीं सोचता रहता हूं मेरी सखी होती है तो कितनी खुश होती, ये दृश्य देख के क्या कहती। हर अनुभव मेरी सखी की ही याद दिलाती है। दो पल चेन नहीं। चिंता में कहीं मन नहीं लगता.
मैं माता सबरी की तारा चुन चुन के, सुप्रभात और शुभ संध्या के रूप में भजन एसएमएस करता रहा हूं। पता नहीं आप सुनते हैं कि मुझे कब से ब्लॉक कर चुके हैं। प्रभु की कृपा मेरी सखी तक पोहचने के लिए मैं काम से कम भजन तो भेज सकता हूँ ना? मेरी सखी को सुनाते रहेंगे तो आपका आभारी रहूंगा। आप ही उसको भेज दीजिए गा। मेरे पास उसका नंबर नहीं और मुझे ऑनलाइन ब्लॉक कर रखा है। होता भी तो बिना देखे डिलीट कर देगी।
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मामी पापा ने ऐसी ऐसी बाते कहा राखी थी भजनों के सिवा मैसेज में भी कुछ नहीं पाया। कहा कि मीनू मान भी गई तो आप सब कभी नहीं मानेंगे। पता नहीं आप गुस्सा हो जायेंगे तो मेरे साथ-साथ, मम्मी पापा को भी गुंडे, पुलिस पता नहीं क्या-क्या कर देंगे।
आप एक दिन जब आये थे तो फिर मेरे प्रेम को गलत और अरोपो को सुन कर गुस्से में फिर दिमाग ने काम नहीं किया। मेरे कुछ कहने से पहले ही हर बार के रास्ते में अरोपी या नालक घोषी कर दिया गया। आपको कहीं जाना था तो आपने कहा था कि कुछ दिन मैं वापस आऊंगा। उसके बाद फिर आप मिलने भी नहीं आये। जब भी लखनऊ आया तो आप आने की प्रतीक्षा करता रहा। मम्मी पापा कहते हैं जिनके लिए इतना सब किया एक बार हाल चल भी नहीं पूछते। मुझसे गुस्सा है तो मम्मी पापा से बात क्यों नहीं करते।
आखरी बार आंटी जी की हलचल मिला तो पैरों में दर्द था। कह रही थी नए घर में दरवाजा खोलने के लिए बहुत बार जीना उतरना पड़ता है। आशा है सही हो गया होगा। मामी का घुटने का दर्द मालिश कर कर के सही कर दिया। आपके भी सर पे एक बार मालिश करने का अवसर मिला था, पर आंटीजी की सेवा का अवसर कभी नहीं मिला।
काई बार मन में आया के साईं मंदिर में ही आप से मिल लू। मम्मी पापा और आप परेशान न हों, तो कभी हिम्मत नहीं हुई। इस में साईं बाबा से मिलना भी रह गया। आप जब गुरुवार को फोटो डालते हैं उसमें ही चरण छू लेता हूं। जब भी आप और आंटी जी किस फोटो में देखते हैं चरण छू लेता हूं। मेरी सखी से भी क्षमा माँग लेता हूँ। श्री भी इतनी बड़ी हो गई, एक बार भी नहीं मिला। अंदर तो आज भी वही आप का मित्र चुनमुन है, बच्चों को बड़ा देखो तो पता चलता है कितना समय निकल गया।
माँ पापा की जितनी सेवा करु, जितना भी उनकी जरुरत का ख्याल रखू, उन्हें ख़ुशी नहीं मिलती। वे भी क्या करें समाज के लोग भी ऐसे बटे, कुछ जाने बिना उनको दोष देते हैं। दर्द होने पर कितनी भी सेवा करु मालिश करु, एक बात के आगे सब व्यर्थ है। मन शांत नहीं रहता, इस डर से गाड़ी नहीं चल रहा था, उनके लिए हिम्मत कर के सीख भी लिया और गाड़ी खरीद के तनाव भी ले लिया। पापा के हार्ट प्रॉब्लम में जितना घर से हॉस्पिटल तक सब देका, सही इलाज और कम परेशानी के लिए हो जो हो सका। पहले वाले घर में काई परेशानी की वजह से उनकी सेहत खराब हो रही थी, जब प्रमोशन हुआ तो हिम्मत कर के नया घर भी ले लिया। उस घर में जो उनको समस्या होती थी ध्यान में रख के इस घर में समर्थ अनुसु सुधार किया। स्वस्थ तो सुधर गया पर चैन काहा से लाउ। मम्मी पापा अपनी इच्छा को दबाते हैं इसलिए जबदस्ती पूरा करता हूं तो मेरा स्वार्थ हो जाता है। उनके लिया सांसारिक चीजों में मन को भटकने की कोशिश की, भटकने की जगह अंतर की पेड़ा और बढ़ गई और ऊपर से अरोप और लग गए कि मैंने अपना शौक पूरा किया और पैसे खर्च किए। सब ऐसे कहते जसे मैं जान बुच के परेशान कर रहा हूं। मेरी साल्ही की चिंता में अपने आप को शांत नहीं रख पता हु इसला मतलब ये नहीं की मुझे सबकी चिंता नहीं। मम्मी पापा ने बहुत प्यार दिया है। मेरे लिए बहुत परिश्रम किया, अपनी खुशियाँ नहीं सोची। पर इस समाज का मोह और दूसरे क्या सोचेंगे, मेरी भावनाएं नहीं समझ आई हैं। मैं ही पहले कटघरे में होता हूं। अपने दिल को कितना कुचलू।
बचपन से आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा ये क्या समाज का मोह है जिसका आगे किसी को कुछ दिखता ही नहीं। ये समाज तो हमेशा से ही निर्दयी, अत्याचारी रहा है और कलि प्रभाव से अब और भी। पहले मेरी सीता माता और प्रभु को इतना रुलाया। फ़िर मेर मम्मी पापा और नाना नानी। मुझे रुलाता आया है. पता नहीं मेरी सखी के दिमाग में क्या भरा गया है जो बदनामी के डर में मुझे एक अवसर भी नहीं दिया कुछ कहने का। प्रभु इस दानव का कोई समाधान नहीं?
मेरे प्रभु ने मुझे अच्छा परिवार दिया और बहुत कृपा की है, बस इतनी सी और प्रार्थना है कि माया के परदे हटा ले और मेरी सखी को मेरे प्रेम की भावना का एहसास हो जाए। सब ये सोचे कि प्रभु क्या कहेंगे नकी लोग क्या। प्रभु को मुंह दिखा ने लायक बने नाकी समाज को। प्रभु के आश्रित जिए न समाज के। मेरा परिवार साथ आ जाए और सब साथ में प्रभु भजन करें।
प्रभु क्या तुहारे इस समाज में जन्म-जन्मांतर का साथ, जीवन को समर्पित करना और अपने साथी की खुशी के लिए जीना केवल कहने की बात है? इनका असल जीवन में कोई महत्व नहीं? क्या जीवन भर के निर्णय में इनका कोई मोल नहीं? जब से इस रिश्ते की समझ आई है, यहीं आधार रहे हैं, और उसी अनुसर अपने को अपनी सखी के लिए अपने आप को ढाला है। प्रभु के चरित्रो से भी यही समझ आया। रवीन्द्र जैन जी ने भी विवाह को दयित्वा कहा है, और उसे उठाने के लिए जीवन भर मेहनत की।
जब मम्मी पापा किसी और की बात करते हैं तो लगता है जैसे मुझे अंदर से चीरा जा रहा हो। आप सबको कैसे समझाऊ की स्वर्ग का राज्य भी मेरी आत्मा को शांति न देगा। मेरी सखी के साथ बिना, उसे ख़ुश देखे बिना चैन नहीं। चैन, सुख, शांति, संसार और परलोक के भोग सब किस काम के?
कोई मेरी भावनाएं समाज ने कोशिश नहीं करता, बस मुझे ही गलत साबित करने में लगा रहता है। मेरी सखी के प्रति भावनाओ के बारे में कुछ कहूं तो सब कहते हैं माता पिता की कदर नहीं। जो भी माता पिता के लिए करु पर मुझे नालयक ही दोषी कर दिया जाता है। कुछ भी कहु घूम फिर के बात वही पूछ जाती है तो शांत ही रहता हूँ। भजनो के सहारे ऑफिस के काम में समय किसी का तारा निकलता रहा हूं।
आप के रिटायरमेंट की फोटो देख कर चिंता और बढ़ गई। पता नहीं आप की आर्थिक स्थिति कैसी है। आप पहले ही इतनी जगह दौड़ते रहते थे। फिर बेबसी ने घेर लिया. मैं कुछ नहीं कर पा रहा पर आशा प्रभु ने शुभम को इस लायक बना दिया होगा कि आप का ख्याल रखें। पता नहीं ऑफिस के लिए फॉर्मल शर्ट और लैपटॉप कितना काम आया।
सोचा था आप का गुस्सा शांत हो तो मुझे कुछ कहने का अवसर देंगे। यही सोच के बैठा था कि प्रभु के घर देर है, अंधेरा नहीं। एक दिन आप मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश करेंगे। मेरी सखी शांत हो के, एक बार मुझे कुछ कहने का अवसर देगी।
16 नवंबर को चक्कर आया था. काई दिनों से कुछ सही नहीं लग रहा था। मन भटक रहा था और भजनों में ध्यान नहीं लग रहा था।
पर फिर सब गलत हो गया। कुछ दिन बाद सुबह आप का स्टेटस देख कर मेरा हृदय ऐसी धड़कने लगा कि कंठ में आ गया हो। मेरे तो प्राण कंठ ला दिये। माँ पा का स्मरण आया तो प्रभु का सुमिरन करके हेरिडियों को कुछ नयनत्रित किया। उस समय लेता हुआ था वरना ना जाने क्या होता। पूरा जीवन व्यतित हुआ जा रहा था। अब उसका ख्याल कैसे रख पाऊंगा, उसका साथ कैसे दे पाऊंगा। पता नहीं मेरी सखी किन हालातों में होगी. मैं तो मेरी सखी के लिए समाज से लड़ने को तैयार हूं, पर मेरी सखी ने ही हाथ बांध दिया है। समाज की गलत परम्पराओं से उसकी रक्षा कैसे कर पाऊंगा। कैसी समाज की रीत के नाम पर गलत थोपे जाने से बचूंगा। कैसे मेरी सखी की ख़ुशी सुनसाची करु। कैसे दुनिया घुमाऊंगा. आप ही उसकी सेहत का ख्याल नहीं रखते, कैसे उसका ख्याल रख पाऊंगा।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।। दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।। दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
हर बार की तरह आपके भजन भजे कि मुझ पर कुछ तरस आ जाए तो एकबार मुझे बात करने का अवसर देंगे लेकिन आपने मुझे ब्लॉक कर दिया।
मेरी आत्मा मेरी सखी की चिंता में विदीर्ण हो रही है। पता नहीं उसके साथ कोई जोर जबरदस्ती तो नहीं हो रही। समाज में बहुत गलत परंपरा और प्रथा के नाम पर लड़की पर अत्याचार होता है और उनको तरह तरह के बातों से सही दर्शन जाता है। इस लिए अपनी सखी को बचाने के लिए मैंने अपने सम्मान के मोह को दबा दिया था। प्रतिज्ञा के थी कि चाहे कोई क्या कहे, नाम कलंकित या जो भी समाज में कहता है क्यों न हो जय, सिर्फ वह करुगा जो मेरी सखी के हित में है। प्रभु से प्रार्थना है मेरी प्रतिज्ञा की लाज रख और मेरी सखी पर आंच नहीं आने देंगे। आशा है आप भी अपने पिता धर्म को प्रथमिकता दे रहे होंगे। क्योंकि आप पर मेरा विश्वास कामजोर को चुका है, दो पल भी शांति नहीं है। रात दिन यहीं चिंता खाए जा रही है। मेरे जन्म का नाम जीवन है, पर इस समय जीवन शून्य हो रहा है। मेरा संपूर्ण परिश्रम शून्य हो रहा है। मेरी सखी से मिले बिना शांति नहीं मिलेगी।
संसार की माया के लिए कहा गया है: पुत्र, प्रतिष्ठा, संपदा, ये इच्छाए तीन, कोन है जिसकी बुद्धि को कारा ती नहीं मालेन। मोहक माया नाम का ये संक्रमण रोग, एक दूसरे से इसे धारण करते लोग। कोई युक्ति न आये काम, वही बचे जिन्हे राखे राम।
चिंता हो रही है कि इनके आगे मेरी सखी के लिए सही निर्णय लिया जा रहा है कि नहीं। पता नहीं कैसे लोग उसके साथ कैसा व्यवहार हो गा। काई घरो में मर पीट होती है, सोच के आत्मा देहल जाती है। पता नहीं आप लोगो ने उसके दिमाग में चुप चाप सहलाना जैसा क्या-क्या भर दिया हो गा। अपनी लाडली को आत्मरक्षा प्रशिक्षण नहीं कराइए हो तो करा दीजिये। अपने मन को यही समझाता आया हूं कि अपनी इच्छा त्याग के अपनी सखी और परिवार के लिए जीना है। मैं तो उसके गुरने से हाय ठर्रा जाता हूं। कैसे अपनी सखी के लिए कुछ करो। पता नहीं मेरी सखी का भविष्य में क्या है।
हे माँ कालरात्रि, आप ऐसे घोर स्वरूप से भय और कल भी भय से थरथरते हैं, अपने बच्चों की रक्षा के लिए ही तो लेती हैं। मेरी सखी की रक्षा के लिए साथ ही रहना। मार्ग दर्शन करना, उचित निर्णय लेने की शक्ति देना।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे | ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे | ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे |
हे शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी हरि, विलाम्ब न कर्ण। जैसे गज और द्रौपदी की पुकार पे गये थे, बिना पुकारे ही चले जाना। मेरी सखी की ओर से मई पुकारता हूं। हे गोविन्द, हे दामोदर, हे माधव।गोविन्द दामोदर माधवेति। गोविन्द दामोदर माधवेति। गोविन्द दामोदर माधवेति ।
गोविन्द गोविन्द हरे मुरारे गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण । गोविन्द गोविन्द रथाङ्ग-पाणे गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
श्री कृष्ण विष्णो मधु-कैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे। त्रायस्व मां केशव लोकनाथ गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
प्राणेश विश्वम्भर कैटभारे वैकुण्ठ नारायण चक्र-पाणे। जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
हे प्रभु जो भी तोड़े बोहत पुण्य है अर्जित और भविष्य में अर्जित होंगे, सब तुम को समर्पित। रक्षा करो रक्षा. मेरी सखी, मेरे परिवार की रक्षा करो।
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा । बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात् । करोमि यद्यत्सकलं परस्मै । नारायणयेति समर्पयामि ॥
मैंने प्रभु को मेरी सखी मीनू का ख्याल रखने का, जन्म जन्मांतर साथ देने का और अपनी परवाह किया बिना उसके लिए उचित करने का वचन दिया है और उसका पालन करना मेरा धर्म है। प्रभु मेरे परिवार को साथ ले आओ, सबकी सेवा, तुहारी सेवा मन करुंगा।
वो खुशियां जिसमें मेरी सखी साथ ना हो आत्मा को चुभते रहा है और रहेगा। चिंताओ की चिता निरंतर जलती रहती है। मेरी सखी के बिना कुशिया व्यर्थ है। मैं बड़ा आदमी बन जाऊं, मेरा नाम हूं, विदेश में काम करना, आधी इच्छा को दबा दिया कि चरण के कभी अपने परिवार के लिए निर्णय लेने में बटका ना दे। मेरे लिए तो दिन रात परिश्राम कर्ता आया हूं कि मेरी सखी की खुशी के लिए जो भी हो सके करू और अपनों के लिए जीवन समर्पित कर पाउ। सब मिल जुल के रहे. सब का ख्याल रख पौ।
आप की लाडली का हर कदम पे साथ दूंगा गा और हमारे जीवन के निर्णयों में साथ रखूंगा। हर धार्मिक कार्य मेरी सखी के साथ ही सिद्ध होंगे। प्रभु का सुमिरन और प्रभु की याद दिलाता रहूंगा। गलत राह पे बढ़े तो, चाहे जीतना रोये, खीच के सही राह पे लाऊँगा। अगर मेरी सखी से कोई गलती हो जाए तो उसको सुधारने में सहयोग करूंगा। चाहे समाज के डर से सब उसका साथ ना दे मैं दूंगा। समाज और परंपरा के नाम पर कोई गलत प्रतिबंध और जबरदस्ती न करूंगा, न होने दूंगा। उसके भले के आगे अपने परिणम पर ध्यान नहीं दूंगा। सब की जरुरत और खुशियों के लिए मेहनत करता रहूंगा। प्रभु की बनाई सुंदर दुनिया घुमाऊंगा। जो भी मुझमें सुधार की उम्मीद है, दिल से प्रयास करूंगा। जीवन भर बुरी आदतों से दूर रहा हूं, अगर कोई भूल मुझसे हो गई है तो सुधार करूंगा। मेरे माता पिता के साथ-साथ आप सबका भी ख्याल रखेंगे और तीर्थ यात्रा पर ले जायेंगे। आपने तो देखा ही है मैंने नाना नानी का कितना ख्याल रखा। मानता हूं कि अभी तक मेरी सखी की भावना नहीं समझ पाया हूं, पूरा प्रयत्न करूंगा, मेरी सखी अवसर तो दे। वचनो या मुझमे जो मीनू सुधार चाहती है करुंगा। अगर लखनऊ में रहना चाहती है तो वही आ जायेंगे। वैसे भी सबका बेंगलुरु में मन नहीं लगता। जीवन भर रुलाती रहेगी फिर प्रेम कम ना हुा और ना होगा। पूरा जीवन मेरी सखी और परिवार के लिए समर्पित। प्रभु मेरे वचनों की रक्षा करे।
इतने वशो से घुट घुट के जी राहु फिर भी प्रभु को मेरी सखी के प्रति प्रेम भाव देने के लिए धन्यवाद ही दिया है और प्रार्थना है जन्म जन्मांतर तक मेरी सखी का प्रेम और अपनी भक्ति प्रदान करे।
माँ कहती है की मैं लड़कियों की भावना नहीं समझता, जान के भी क्या करूँ मुझे तो बस मेरी सखी की भावना समझना है। जरूरी नहीं वो आम लड़कियो जैसी हो।मुझे तो हमेशा से अनोखी लागी है। और जनता भी कैसे, जिसे बचपन से बात करना चाहता हूं, उससे बात न कर पाने के लिए किसी से बात करने का मन ही नहीं करता। कॉलेज, ऑफिस में जो भी मुझसे प्रश्न पूछने आते थे बता दिया, ज्ञान प्रभु के प्रसाद की तरह बांट दिया, औपचारिकता के लिए बात कर ली।
इतने वॉशो में मम्मी पापा के लिए अपने आप को शांत करने की बहुत कोशिश की लेकिन अंतर की पीड़ा और बढ़ गई। मेरी सखी की चिंता निरंतर लगी रहती है। कहीं घुमने में भी अंदर ही अंदर गुट्टा रहता है। गलती से हंसी निकल जाती है तो यही आता है कि उसके लिए कुछ नहीं और हंस रहे हो। अब तो झूठी हंसी भी दिखना मुश्किल हो रहा है।
आप सब मेरी सोच को दोष देते रहते हैं। इसमे सोच क्या है, ये तो मेरे अंतर के भाव हैं। प्रभु के भरोसे और आत्मा की आवाज पर विश्वास कर के जिया हू। शूरवती बचपन तो जादा याद नहीं, शेष जीवन इन्हीं बावनो में रहा हूं। यहीं मेरे जीवन का सत्य और आधार। क्या करूं अपने परिवार को साथ देखने के आगे मुझे आप सबके तर्क समझ नहीं आता। नहीं समझ आता है भावनाओ को तर्को में कैसे समझाऊ।
प्रेम में करण और क्या पाया कहा से लाओ, और सब वही पूछते हैं। मेरे प्रेम को सब एकतरफ़ा कहते हैं। पता नहीं प्रेम में न्यूटन का लॉ कब से आ गया। प्रेम में बदले में कितना मिला से क्या मतलब.
माता पार्वती ने भी तो प्रतिज्ञा की थी - जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
माना कि मेरे संघर्ष की माता के ताप से कोई तुलना नहीं, पर मुझसे जितना हो सके अपनी सखी के लिए जीवन समर्पित किया।
राम जी ने भी तो माता सीता के द्वार होने पर सब सुख त्याग दिये थे।
मैंने अपना जीवन अपनी सखी के लिए समर्पित कर के क्या गलत किया? क्यों मेरी सखी हर किसी की तरह मुझे अप्राधि की तरह देखती है? मुझे बचपन से जन्ती है फिर भी एक बार भी मुझे समझने का प्रयास नहीं किया। आप ने भी क्यों नहीं उसे समझा कि बार शांति से मुझसे बात कर ले।
आशा करता हूं मेरे अंकलजी हानि कारक बापू से कुछ सीख के, बिना समाज और अपनों की जिद की परवाह, अपनी लाडली के जीवन भर के लिया उचित निर्णय लेंगे। आप उसका सही से ख्याल नहीं रखते फिर भी आपसे बहुत प्यार करती है (जिसके लिए मैं तड़प रहा हूं)। आशा है अपने पिता होने के धर्म का उछित निर्वाहन करियेगा।
अपनी लाडली को समझाइये गा कि मुझ पर जितना क्रोध करना है करले, मेरे माता-पिता से रिश्ते बनाए रखें। माँ तो अब भी उसको सही और मेरे प्यार को ही गलत कहती है। कहती है सारे अधिकार लड़कियाँ के है, एक बार मना कर दिया तो मुझे अपनी बात कहने का भी अधिकार नहीं। क्या लड़का होना ही मेरा अपराध है. मृत्यु दंड देने से भी पहले अपराध की बात सुनी जाती है। मेरी तो दोनो माँ मेरी भावनाएं नहीं समझती, मुझे ही दोष देती है।
उस दिन मेरी सखी ने मुझे ऐसे मूड के देखा था, 7 साल हो रही, यहीं सोचता रहा क्यू। मन को संसार के विचारों में भटका के मम्मी पापा को थोड़ी देर खुश कर ने के लिए कोष करता रहा पर अंत की पीड़ा ज्यादा देर नहीं छुपी। मन हमेशा विचलित हो रहा है, बस प्रभु भजन और जब वो आपके हृदय से लगी होती उस खुशी को याद कर के कुछ शांति मिलती थी।
प्रभु का ध्यान कर के सोता हूं फिर भी अजीब से ही स्वप्न आते हैं जो समझ भी नहीं आते। स्वप्न में भी मन एक जगह नहीं रहता, भटकता रहता है। स्वप्न में भी कभी बात नहीं कर पाया। बस एक बार बचपन में आप के साथ उस स्कूटर पर दोनों कहीं जा रहे थे। बाद में हमेशा मुझसे दूर ही भागती दिखी, चेहरा भी सही से नहीं दिखा। उठ के भी ऐसा लगता है एक दुस्वप्न से उठ कर दूसरे में आ गया। कोई उत्साह नहीं, शक्ति नहीं, किसी तरह प्रभु से प्रार्थना कर के दिनचार्य शुरू करता हूं अब वो मुश्किल हो रहा है।
मानता हूँ मैं कोई श्रेष्ठ पुरुष नहीं। मुजमे कै कमिया है। आत्मा बचपन से विचलित रही, मन पर नियंत्रण नहीं, भटकता रहता है और सहज ही क्रोध आ जाता है। समय के साथ चिड़चिड़ा होता गया। क्या करूं मेरे अपने ही मेरी भावनाओं को नहीं समझते, मुझ पर विश्वास नहीं करते। सोचता था कोई नहीं तो मेरी सखी मुझे समझेगी, पर एक अवसर भी ना दिया। उसपर से भावुक हो कर कुछ सही से बोल नहीं पता। मेरी सखी के साथ और दांत से सही हो जाऊंगा। एक बार आत्मा शांत हो जाएगी तो मन नियन्त्रण में आ जाएगा और अपनी जिम्मेदारीया अच्छे से उठाऊंगा।
मेरी सखी से कुछ पाने की इच्छा नहीं, बस यही सोचता रहता हूं कि उसके लिए क्या करूं। मेरी मीनू जैसी है वैसी ही अच्छी है। कभी उसके गुन अवगुन नहीं तोले। हममें जो सुधार की आवश्यकता सुधार लूंगा. प्रभु की बेटी में तो प्रभु और माँ की झलक दिखती है।मैं तो प्रभु से कहता हूं कि हम दोनों को अपने रंग में रंग दो। चाहे जीवन भर मुझे रुलाते रहे, जितना डांटे पर मुझसे दूर ना भागे। हमेशा उसके भले के लिए ही सोचूंगा। मेरे सुख दुख पर उसका पूरा अधिकार है। चाहे खुश रखे या दुखी, उसपे दुलार ही आएगा, पर माँ पर क्रोध करने का अधिकार नहीं। बस सबका ख्याल रखने में मेरा साथ दे, और सबको साथ रखो।
मुझे मेरी सखी की चिंता और उसके लिए कुछ न कर पाने की असहायता जीवन भर तड़पने को ना छोड़ो।
जो भी करता आया हूं मेरी सखी का भला सोच कर और अपने परिवार को फिर से साथ लाने के लिए। बुद्धिमती, गलतफैमियो और अंजने में जो आप सब को परेशान करा उसके लिए क्षमा मांगते हैं। अपने इस पगले मित्र को क्षमा कर दीजिए।
कभी उससे ना अकेला मिला ना कोशिश की। जो भी हुआ आप सब के सामने, उसके भाव से उसकी भावनाएँ समझने की कोशिश की। एक बार संजोग से जब स्कूल जाने के लिए ऑटो के लिए कड़ा था तो उसी समय वो भी आई, फिर भी हम ऑटो में साथ नहीं बैठे। उसने भी कुछ पत्रकारिता नहीं की, बस बैठ के चली गई। मैसेज भी आप कर सकते हैं. ऑनलाइन भी कभी बात नहीं हुई. उसने मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट भी एक्सेप्ट नहीं की और फिर ब्लॉक कर दिया। उसकी प्रोफ़ाइल पर जन्मतिथि सार्वजनिक थी, हटाने को बता दीजियेगा। इंस्टाग्राम में काई फोटो थी, उसमें से बस भगवान की फोटो को लाइक करें तो ब्लॉक कर दिया। काई प्रश्नो में से एक ये भी है कि क्या वो पेंटिंग्स मेरी सखी ने बनाई थी। अगर हां तो जननी की इच्छा है कि बनते समय उनके पीछे क्या सोच और भावनाएं थीं। जितना याद करता हूं ऐसे कोई प्रश्न आते रहते हैं पर कोई गुत्थी सुलझती नहीं। कहि जीवन भर इन्ही में पड़ा न रह जाउ।
मुझे इन सब की ज्यादा समझ तो नहीं पर, जहां तक लगता है आप ने जो भी उसे सिखाया है उसने पालन किया है। अगर मुझ पर होने वाले परनमो का पता होता तो भी आप की लाडली आप का मान रखती। आशा है आप ने कभी उस पे सदेह कर के उसे को डांटा या मारा नहीं किया होगा। आप के मन में उसकी प्रति कोई सन्देश नहीं होंगे। चाहे मेरी भावनाए ना समझ पाए, आशा है अपनी लाडली की भावनाए समझ में आती है।
आप ही एक मेरे ऐसे मित्र हैं जिनसे जी भर के जीवन में बात की, समय बिताया। आप का मीनू के पिता होना प्रभु का बनाया एक शुभ सहयोग समझ। आप से दोनों रिश्ते, जिनके मेरे दिल में अपनी जगह है, इसके लिए सबसे ज्यादा विश्वास भी आप पर ही था। मन का विश्वास तो नहीं रहा, पर दिल में वो भावना अभी है। यहीं आस लग रही है कि मेरे अंकलजी मेरी भावनाएं समझेंगे और मीनू को समझेंगे। आप भी बस मुझे गलत सिद्ध करने में लगे रहो। अब लगता है जैसे लोग मेरे प्रेम को एक तरफा, क्या ये मित्रता भी एक तरफा थी क्या?
मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो? मुझे किस अपराध की सजा दे रहे हैं? माई इतना नालायक हुआ क्या जो मेरी सखी से मिलना क्या एक बार शांति से बात भी नहीं करने का मौका दिया? क्यों कोई मेरी सखी को समझता है कि एक बार शांति से मुझसे बात कर ले? मुझे जितना डांटना है डांट लीजिये पर ब्लॉक नहीं। अपने ने मुझे बेटा कहा है, तोदी दया कर दीजिये।🙏
बस मम्मी पापा के लिए सासे चल रही है, और कोई उत्साह नहीं। राम जी जैसे माता के बिना, सुख त्याग कर, यंत्र चरित की तरह आपके कर्तव्य के पूर्ण होने तक प्रजा का पालन करते रहे, वही स्थिति में हूं। मम्मी पापा कि जितना हो सके सवा करता हूं बस खाना नहीं बना पाता हूं। खाना बनाओ तो मेरी सखी के हाथ का खाने का मन करता है और मन स्थिर नहीं रहता। मेरी सखी के बिना क्या भविष्य का सोचु, किस आधार पर निर्णय लू। मम्मी पापा के लिए देखे हुए सपने उन्हें मेरी गुटन देख कर खुशी नहीं देते, बाकी तो अपने नहीं अपनी सखी के लिए देखे थे, उसके बिना क्या सपने।
पूरा जीवन अपनी सखी के लायक बनने में लगा दिया। उसे को ही अपना साथी मान के जिया हू। दोस्तों से भी ज्यादा लगाओ नहीं रखा की, उसमें कहीं अपनों का ख्याल रखने में कमी ना हो जाए। इतने सालो में 2-3 बार ही हुआ है जब मम्मी पापा के बिना कहीं घूमने गए, वो भी क्यों कि उनकी जाने की इच्छा नहीं थी। जब तक पूरा परिवार साथ न हो और मेरी सखी का हाथ मेरे हाथ में न हो (फिर आप से इरशा हो रही है) सुंदर दृश्य देख कर भी न देखा जैसा ही है। गूगल मैप्स में जहां गया वो भी जाने वाली के शेरनी में है, क्यों कि जब तक मेरी सखी को ले नहीं जाउंगा, ना जाने के समान है। बहुत समय तक अपने कमरे तक और किसी चीज को अधूरा रहने दिया था, कि मेरी सखी के साथ सजूंगा, पर मम्मी पापा को करा न बता पाने से हर कर बनाना पड़ा। आत्मा भी बार-बार मन को खींच कर मेरी सखी, परिवार और प्रभु भक्ति की और लाती रही, जैसे कोई अंदर दैट रहा हो। मेरी सखी के आधार बिना अंतर्द्वंद बढ़ न जाए। पूरा जीवा मेरी सखी को ध्यान में रख के जिया हूँ, अब कुछ समझ नहीं आ रहा।
हे प्रभु, ऐसा कौन सा पाप है जो किसी को मेरी भावनाएँ समाज नहीं आती, सब मेरे प्रेम और समर्पण, को गलत कहता है? ये कैसी माया है? नर्क में दंड भोग लूंगा, मेरे परिवार को साथ लेओ। मेरी सखी की रक्षा करो, मेरे प्रेम का एहसास करादो।
उस दिन आप ने फोन पे जो कहा उसने और चिंता में डाल दिया था। महीना भर हो रहा है माता की आरती, द्वारकाधीश का लाइव प्रसारण, भजन, भागवत, रामचरितमानस पढ़ने, दान, पूजा में लगा हूं। जब तक करता हूं चिंता कुछ कम होती है पर उठते ही फिर सब घेर लेता है।
मुझ पर दया करके मेरी प्रार्थना, मेरी सखी तक पोहचा दिजिए गा कि क्रोध त्याग और समाज किनारे कर के शांति से मेरी भावनाओं को समझ ने का प्रयास करें। उसको अपना ख्याल रखने को कहियेगा। कहिएगा एक बार मुझसे मिलके बात कर ले। ना चाहते हुए काई बार मेरी सखी को रुला दिया, उसके लिए क्षमा प्रार्थना। बचपन से मेरी सखी के साथ कुछ समय, बात करने को तड़प रहा हूं। साथ खेलने का अवसर बचपन में न मिला, बड़े होका भी वो गिंती के दिन। मेरी सखी ने तो मुझे कुछ कहा ने का एक अवसर भी नहीं दिया। ये सोच कर कि मेरे बारे में क्या सोचती होगी मेरा दिल बैठा जा रहा है। पहली और अभी तक का आखिर बार व्यवाहरिक बातों के अलावा कुछ शब्द कहे तो वो माता पिता की दशा देख कर क्रोध निकली डांट थी। मैंने ही उसको रुला दिया था। मेरी सखी ने तो मुझे सीधे डांटना ने लायक भी नहीं समझा, जो बोला मां से बोला और चली गई। कुछ नहीं तो मुझे एक बार जी भर के डांट ले। क्या मेरे लिए दिल में इतनी भी जगह नहीं। मारी सखी चाहे जितने कटोर वचन कहे प्यार दुलार में कमी नहीं आएगी, हा चिंता अवसये बढ़ जाती है। कमसे कम इतना तो बता दे मुझसे क्या गलती हुई, क्यों मुझसे इतना गुस्सा के एक बार शांति से मुझे कुछ कहने का अवसर भी नहीं दिया। नहीं तो अंतिम समय तक इस चिंता में पद रहुगा। कैसे समझौ मेरी सखी के ऐसे बरतौ से मेरे ऊपर क्या बेटी है। कम से कम हलचल तो मिलता रहे। अगर कोई परेशानी तो कुछ सहायता तो कर पाउ। मेरी आत्मा को कुछ तो शांति दे दीजिए 🙏।
मेरी सखी से मेरी ओर से पूछ लीजिये गा - मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अकेले में कभी मिले नहीं और अब आप मिलने भी नहीं देंगे। पता नहीं अगर दिल में मेरे लिए एक कोना भी जगह होगी तो सबके सामने काहे की नहीं। जीवन भर सत्य क्या है सोचा रह जाऊंगा.
इतने वॉशो से मुझे रुला रही है, फिर भी प्रेम कम ना हुआ और ना कभी होगा।
सोचा था मेरी सखी के साथ कुछ समय बिताऊंगा। वो मुझसे बात करेगी, मुझे समझेगी, फिर निर्णय लेगी। परिस्थतिया सब उलजति रहि।
आशा है आप अपनी लाड़ली को निर्लय लेने के लिए अभय प्रदान करें गे
भक्ति की रीत है - राम राम रटते रहो, जब तक घट में प्राण । कभी तो दीन दयाल के भनक पड़ेगी कान ॥
प्रेम की भी यही रीत है. अगर इसके बाद भी आप की लाडली को मेरा साथ देने वाला नहीं तो सदा से मेरी सखी के लिए प्रार्थना करता आया हूं और सदा कर्ता रहूंगा। जीवन भर मम्मी, पापा, मेरी सखी, सबके लिए दान, पूजा, आदि करता रहूंगा। माता की आरती के समय सब के लिए प्रार्थना करता रहूंगा। सोच था जो मेरे लिए प्रथा करेगी, उसको मुझसे कोई मतलब नहीं तो अपने लिए क्या प्रार्थना करो। जैसा प्रभु नचाये नाचना है। जीवन भर त्यार रहूंगा कि उसको मेरी आवश्यकता पड़े तो उसका साथ देने में पाहुंच जाउ। ईश्वर से प्रार्थना है कि ऐसा अवसर आने से पहले अपनी लाडली की रक्षा करे। परंतु प्रारब्ध के खेल को समझना असंभव है, इस लिया प्रेमी के नाते मेरा धर्म है उसकी भलाई के लिए जो होसके करना। डिप्रेशन की दवा तो खा ही रहा है, प्रभु चाहे दवाइयो के सहारे ही इस लायक बनाएं रखना कि माता पिता के सेवा और मेरी सखी और सब के लिए प्रार्थना करता हरु। मेरी सखी की चिंता में और कुछ न कर पाने की असहायता से अंतिम सास तक शांति न मिलेगी।
कभी-कभी जब अवसर मिले संदेशों में ही सही, सबका हलचल बता दिया जाएगा। आपके संदेश की प्रतीक्षा रहेगी। माता की आरती देखते रहिये गा और जयकारा लगाइये गा। इसी बहाने कुछ साथ में करेंगे।
आप सबकी बड़ी कृपा होगी अगर शांति से बैठ कर एक दूसरे की बात सुनकर अनबन सुलझे। अगर मेरी सखी का साथ नहीं तो कम से कम मेरा परिवार तो साथ रहेगा। अगर आपको अब भी लगता है मैं गलत हूं तो इसकी सजा मेरे माता पिता को ना दे।🙏
मेरी सखी के मुख से आरती फिर से सुनने का बड़ा मन कर रहा है। सोचा एक समय आएगा जब निश दिन साथ में करेंगे। सोच था साथ में भागवत महापुराण या रामायण पढ़ेंगे। साथ में प्रभु भजन करेंगे, माता की आरती देखेंगे। साथ में पार्षद बनके प्रभु को भोग लगाएंगे। कितने मंदिरों में कह के आया हूं मेरी सखी को ले के संपूर्ण परिवार सही आऊंगा। धार्मिक कार्य भी उसकी के साथ बिना नहीं संपन्न होंगे। एक साथ बाबा को जल भी नहीं चढ़ाया और एक साथ में आरती भी नहीं। मेरी सखी की ख़ुशी के लिए कुछ कर भी नहीं पाया। मेरी सखी को समझ भी नहीं पाया। कितना कुछ है पूछने को, बात करने को। उसके बारे में कुछ सही से जान भी नहीं पाया, समझ भी नहीं पाया। और भी बहुत कुछ है 22 सालो में कहने को पर मति साथ नहीं दे रही। काल की गति भी कुछ अजीब सी है। अभी तक तो यही आस थी कि मेरे अंकल जी अपनी लाडली का ख्याल रख रहे हैं। एक दिन मेरी सखी को मेरे प्रेम का एहसास होगा। अब कहा से जीने की शक्ति अर्जित करो।
मेरी सखी के साथ बिताये ख़ुशी के पल कुछ ज्यादा नहीं। जिनमे मेरा दिल तोड़ा और मैं तड़पता रहा वो भी याद करता रहता हूँ। आप को दी हुई चुनौती के लिए एक प्रयास भी ना कर पाया, कुछ कह ना पाया।
आप का मित्र चुनमुन
हे मुरलीधर, हमारे हदीयों में निष्काम प्रेम की मुरली बजाओ। हमें अपने रंग में रंग दो।
ॐ नमः शिवाय
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण
हरिः शरणम्
ॐ हरिहरः नमो नमः
ॐ तत् सत् । ॐ तत् सत् । ॐ तत् सत्
December 29, 2024 - रात
रात भर किसी अनहोनी की घबराहट में निकली।रात बहार प्रार्थना करता रहा।
December 29, 2024 - दिन
पास के हनुमान जी के मंदिर प्रार्थना की। घर चुनते समय पास में मंदिर देख कर यहीं आया था कि मेरी सखी सात नियम से आया करूंगा।
मंदिर के सामने बैठे तो मम्मी ने कहा कि जो भी भेजना है भगवान के सामने भेज दो और पत्र लिखना बंद करो। अभी भी कुछ लिखने को बाकी था तो नहीं भेजना चाह रहा था पर रात के घबराहट में ये भी आ रहा था कि भेजदू। जब दुबारा कहा तो प्रभु के आज्ञा समझ के भेजने से रोक ना पाया।
January 3, 2025 - रात
आज सपने में अपने अंकलजी से बहुत प्रार्थना की पर कहते रहे मीनू नहीं मानती तो क्या करे। उसके साथ खेल ने के लिए बैडमिंटन ले के नीचे आया। बैडमिंटन ले के बाहर तो आई पर दरवाजा बंद करे मुड़ के देखा तो पार्क में अपनी किसी सहेली के साथ खेल रही थी। अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था तभी एक कुत्ता आके पीछे के तरफ़ भोंकने लगा। पीछे देखा तो कोहरा था और एक भूत जैसा कुछ आया। भूत को लात मारी और नींद खुल गई। पीछे मुड़ के देख भी नहीं पाया मेरी सखी ठीक तो है। फिर रात भर भगवान का नाम लेते, इधर उधर करवट बढ़ता रहा। सपने में भी मेरी सखी के साथ नहीं खेल पाया। 😭
January 3, 2025 - सुबह:
अंकलजी से पूछा सब कुशल तो है
January 3, 2025 - दिन:
अंकल जी ने लिखा “सब ठीक है”
January 3, 2025 - शाम:
अंकलजी का मम्मी के पास कॉल आया। मीनू बात करने को तैयार थी. ऑडियो कॉल थी तो बात करते समय, भाव भी नहीं देख सका। कह तो रही थी इस समय अकेली है पर राम जाने।
मेरी सखी से बात कर के कुछ चिंता काम हुई। मैं समझना चाहता था कि समाज और दूसरे क्या कहेंगे की चिता ना करे। कहने वाले तो कुछ ना करो तो भी बहुत से बातें करते हैं। उसने उन्ही शब्दों में वही बात कह दी। काहे की कोई दबाव नहीं है, मम्मी पापा के सिवा किसी की चिंता नहीं है। सब अपनी मर्जी से कर रहे हैं।
मेरी सखी कहा थी मैं जो मन में होता है कह देती हूं। हे प्रभु, प्रार्थना है मेरी सखी शिवानी को सत्यवादी बनाये रखना। निसंकोच जो मन, दिल और अंतर में हो सबसे कह दे।मेरी सखी ने अगर कभी असत्ये बोला है या बोले तो ऐसा दंड देना कि कभी असत्ये बोलने का सोचे भी ना।
मेरी सखी की तरह अपने अंतर की बात सही से नहीं कह पाता। इतना भावुक हो जाता है कि दिमाग कम नहीं करता, रोना आ जाता है, शब्द समझ में नहीं आते। इस लिए जब थोड़ा शांत होता हूं तो लिखता हूं।
मेरी सखी ने कहा कि कोई दबाव में नहीं है। हे प्रभु, प्रार्थना है कि मेरी सखी शिवानी कभी समाज, परंपरा, रीती, प्रेयजन और कोई दबाव में ना आए। माता शक्ति देना।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरन्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
हे प्रभु, मेरे अंकलजी, आंटीजी और मम्मी पापा और हमारी भी समाज की मोह माया से रक्षा करो। सब तुम्हारी शरण ले कर सदैव सत्य व्रत का पालन करें।
जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा । सत्यनारायण स्वामी, जन पातक हरणा ॥ जय लक्ष्मी रमणा ।लक्ष्मीनारायण नारायण हरी हरी।बद्रीनारायण नारायण हरी हरी।जय श्री सत्यनारायण।
पता नहीं मेरे सखी के प्रारब्ध में क्या है। उस दिन तो कहा कि अपने जीवन से खुश है, आगे राम ही जाने। प्रभु रक्षा और कल्याण करने वाले तो तुम ही हो। बस इतनी प्रार्थना थी कि मुझे मध्यम बना दो।
मेरी सखी कह रही थी बी.एड. कर रही हूँ। हे प्रभु, मेरी सखी का मार्ग दर्शन करना और सद् ज्ञान अर्जित करने में कोई बाधा नहीं आना देना। मेरी सखी ब्रह्म का जाने, अनुसर आचरण करे और निष्काम भाव से सबमें ज्ञान बाटे।
कहती है मेरे पत्र का निष्कर्ष ये समझ आया कि मुझे लगता है उसपे कोई दबाव। बाकी पत्र के बारे में कुछ कहा ही नहीं। मेरे प्रश्नों के उत्तर भी नहीं दिये जायेंगे। पता नहीं पूरा पड़ा भी नहीं. बस मेरी बातों को काट कर मम्मी पापा और अपने नाम पर मुझे इमोशनल ब्लैकमेल कर रही थी। हे प्रभु मेरी सखी की कथनी करनी एक क्यो नहीं। कुछ समझ नहीं आया।
जब पूछा कि समाज की चिंता नहीं तो बदनामी होगी क्यों कहा था। तो कहती है मेरा तत्पर्य मम्मी पापा क्या सोचेंगे था, उनसे कभी कोई बात नहीं छुपाई। पता नहीं इसका क्या मतलब है. इसमें छुपने की क्या बात है? खुद कह रही थी मम्मी पापा के दबाव में नहीं, काई फोटो देख कर, सोच समझ कर अपनी मर्जी से निर्णय ले लिया है। फिर मुझे कुछ सोचे बिना समझे बिना क्यों ना कर दिया। अगर हां कर देती तो अंकल जी, आंटी जी क्यों नाराज हो जाते? "सोच के भी ग्लानी होती है" क्यों कहा था पूछने की हिम्मत नहीं होई। पूछता भी तो पता नहीं घुमा फिराके क्या कहती। रमः जाने सत्य क्या है ।
पूछती है क्या कभी उसने ऐसा कुछ किया कि मुझे लगे वो मुझसे प्यार करती है? याही तो जानना चाहता था. खुद कहती है मम्मी पापा के दबाव में नहीं अपनी मर्जी से, तो मुझे क्यों बिना सोचे तुरेंट मन कर दिया? और ऐसा भी तो कुछ नहीं किया की जो कह रही है मान लू।
मेरी सखी ने कहा था कि ऐसा कुछ नहीं जो मैं उसके लिए कर सकूँ। आत्म निर्भर है. जो है उसमें मैं ही खुश हूं. भरे गिलास में पने दाल के क्या फ़ायदा. जिसकी जरूरत है उसके लिए कर। हे प्रभु, मेरी सखी शिवानी को संतोषी बनाये रखना। मेरी सखी के लिए दान आदि करता आया हूं, आगे भी करता रहूंगा।
अभी भी कोई बात समझ में नहीं आई है। प्रश्नो के उत्तर तो कम मिले, प्रश्न और बढ़ गए।पत्र में लिखे हुए प्रश्नों का उत्तर भी नहीं दिया। जो पहले लिख चुका था वही पूछ रही थी।पता नहीं सही से पढ़ा भी कि मुझे दोबारा मैसेज करने से रोकने के लिए जितना जानना था बस उतना ही पढ़ा।
इतने वर्षों में माँ कहती रही मेरी सखी ने मन कर दिया तो कुछ नहीं हो सकता। मुझसे बात करने को भी तैयार नहीं।अंकलजी भी कह रहे हमारे लिए तो अच्छा ही है पर मीनू इस बारे में कुछ कहो तो गुस्सा हो जाती है। उसदिन अंकलजी कह रहे थे कि केवल मैसेज देख कर गुस्सा हो गई। एक बार आंटीजी भी बता रही थी कि रो-रो के कह रही थी कि "चुनमुन ऐसा सोच भी कैसे सकता है, मेरा तो लोगों पर से विश्वास उठ गया है" और पता नहीं क्या-क्या जो समझ ना आया।उस दिन फोन पर भी अंकलजी ने कहा था कि एक बार बात करा देंगे, पर आंटी जी पीछे से मन कर रही थीं।ऑनलाइन भी मुझे ब्लॉक कर दिया। इतने वर्षों से मैं सोच सोच के तड़पता रहा की मेरी सखी मुझसे इतना गुस्सा क्यों है, लेकिन मेरी सखी कह रही थी कि मुझसे तो कभी गुस्सा ही नहीं थी मैंने ही उससे बात नहीं की। बाबा के प्रसाद का भी तिरस्कार कर दिया, बात करने को भी तैयार नहीं थी और कहती है कभी गुस्सा ही नहीं थी।
इतने वर्षों में सबने मेरे प्रेम को गलत और मुझसे एक अपराध की तरह व्यवहार किया। हर कोई मुझे ही दोष देता रहा, और मेरी सखी ऐसी बात करती है कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। मैं तो अन्दर से इतना टूट गया था तो क्या बात करता। खुद कहती है मैं उसके लिए शुभम जैसा हूं, अगर मुझसे गुस्सा नहीं थी और मेरी इतनी चिंता थी तो खुद क्यों मुझसे बात नहीं की। हर दिन आरती में मुझे मुँह लटकाये देखा ही होगा, फिर भी मुझसे बात नहीं की और बड़ी बड़ी बातें करती है।
सबके सामने माँ ने मुझसे बात करने को कहा था तो माँ पे गुस्सा कर के चली गई थी। उस समय भी मुझसे गुस्से में ही सही दो शब्द भी नहीं कहे। पूछा तो कहती है मुझे तो याद नहीं। पत्र में जो लिखा वो तो जैसा कभी हुआ ही नहीं। क्यू मेरे पास जाने पे दूर भागती थी, क्यों जब उसकी तरफ देखो तो रिएक्ट नहीं करती थी, क्यू उस दिन पीछे मुड़ के ऐसे देखा कि मेरा दिल बिखर गया, कुछ नहीं बताया। पूछता तो उसके लिए भी कह देती याद नहीं।रामः ही जाने सत्य क्या है
मेरी सखी कह रही थी मेरे जीवन के लक्ष्य हैं उनके आधार पर निर्णय लिया है। ऐसा क्या है जो मेरा साथ नहीं संपूर्ण हो सकता। मुझमें क्या कमी है. जानती है बचपन में कैसा था। कितना डरपोक था, किसी अंजान से बात नहीं कर पता था, अकेले कहीं जा नहीं पता था।मेरी सखी के लिए जीवन भर संघर्ष किया। मेरी सखी के जीवन लक्ष्य के लिए ही तो संघर्ष किया है कि कभी किसी कदम पर मेरी सहायता की अवस्यकता पड़े तो मैं इस लायक हूं।ऐसा क्या है जो मैं सुधार या सीख नहीं सकता। मुझे एक अवसर भी नहीं दिया। बिना बात करे ना कर दिया।
उसके लिए सोचते सोचते अपने लक्ष्य का मोह जात रहा। अगर कोई पूछे अगले कुछ सालो में अपने आप को कहा देख ते हो, तो क्या कहूं। मैं तो वहां होना चाहता हूं जहां मेरी सखी और मेरी सखी ने मुझे अपने जीवन में स्थान देने लायक क्या मुझे परखने से भी मना कर दिया।
लोग निवेश और रिटायरमेंट प्लानिंग के बारे में बात करते हैं। माई किस आधार पर करू. बस मम्मी पापा की जरुरत और इच्छा पूरी हो जाए और मेरी सखी और अंकलजी आंटीजी को कोई मदद चाहिए हो तो मैं लायक रहु। उसके लिए भी क्या करना है पता नहीं, मेरी सखी ने मुझे अपने लक्ष्य और इच्छाओ के बारे में बताया लेकिन समझा नहीं। कह रही थी मुझे और समय भी नहीं दे सका, उसकी अपने जीवन में बहुत कुछ है। सब राम भरोसे है. बस सबके लिए प्रार्थना और दान, किसी की सहायता आदि करता रहूंगा।
कह रही थी आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर है, माता पिता से भी पैसे नहीं लेती। आशा है मेरे अंकलजी, आंटीजी के लिए भी अपनी कमाई का उपयोग करती होंगी। जब अंकल जी प्रिया दीदी की शादी की तयारी कर रहे थे तो उनकी मदद करने लायक न होने से मैं बेबस महसुस कर रहा था, पर वो चार जोड़ी जूतो के लिए जिद कर रही थी। उस दिन मेरी सखी पे बहुत क्रोध आया था।मैंने तो पैसे के मामले में मम्मी पापा से मेरा तेरा नहीं किया, और ना मेरी सखी और अंकलजी आंटीजी के साथ करुंगा। जो भी है परिवार की अवश्यकता पूरी करने के लिए। जिसको जब अवश्यकता हो एक दूसरे से ले ले। मम्मी पापा संकोच करते हैं तो प्रयास यहीं रहता है कि उनको कहने से पहले जरूरते पूरी कर दूं। बचपन से देख रहा हूं उन्हें सस्ती चीजों में जुगाड़ से काम चलाने की आदत है और फिर बाद में परेशान हो जाते हैं, इस लिए जबरदस्त अच्छा दिलाता हूं।
अगर इतने ही आर्थिक रूप से संपन्न है तो मेरे अंकल जी को रिटायरमेंट के बाद रविवार को भी नौकरी क्यों करनी पड़ रही है? इतनी ही आत्मनिर्भर है तो खुद ही क्यों सब खर्चे नहीं उठाती, मेरे अंकलजी को क्यो परेशान कर रही है? किस हक से बड़ी बड़ी बात करती है। किस हक से कहती है मम्मी पापा मेरे लिए सब कुछ है। बाप बेटी बस बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, राम ही जाने सत्य क्या है।
मेरे भी हाथ बांध दिए हैं। ऊपर से कहती है ऐसा कुछ नहीं जो मैं कर सकता हूं, मेरी चिंता व्यर्थ है।कैसे चिंता ना करूं?
कहती थी शुभम की शादी हो जाए, मम्मी पापा की सेवा करने वाली आ जाए, अपनी भी कुछ सेवा करालू, फिर जाऊंगी। मैं तो प्रतीक्षा में तड़पता रहा और खुद भूल गई। अब मम्मी पापा की चिंता नहीं है, बस बड़ी-बड़ी बातें करती है।
माता लक्ष्मी हमपे उचित कृपा बनाये रखना। गणेशजी हमें सद कर्म करने के लिए सद बुद्धि देते रहना। हे प्रभु, हमारा मार्गदर्शन करो।
मेरी सखी कह रही थी मुझे शुभम जैसा मानता है इस लिए संभव नहीं। कभी मुझे वैसा स्नेह तो दिखाया नहीं। सबके सामने तो मुझसे थोड़ी व्यवहारिक बात कर ली, अगर कोई ना हो तो उसकी ओर देखो भी तो नजरंदाज कर देती थी। कभी खुद मेरे साथ खेलने क्या मिलने नहीं आई। मुझसे तो सही से बात करना नहीं आता, लेकिन खुद तो इतनी बता रही है फिर भी मुझसे कुछ खास बात नहीं की। इतने सालो घर से दूर रहा कभी मेरा हाल चल नहीं लिया। ऑनलाइन भी मुझे दोस्त नहीं बनाया, उल्टा ब्लॉक कर दिया।भगवान की चित्रकारी पर लाइक किया तो प्राइवेट कर दी। मैं जब भी घर आया तो कुछ खास बात नहीं थी।उस दिन अंकलजी भी कह रहे थे कि हम ही मीनू को कहते थे मुझसे बात करे, ताकि ये ना हो कि मीनू चुनमुन से बात नहीं करती। उसको कंप्यूटर सिखाने की पहल अंकलजी ही करते थे। खुद कंप्यूटर के बारे में जानने के लिए भी स्वयं कुछ नहीं पूछा।उस दिन जब मैं रो रहा था तो अंकल जी ने मुझे उठा के मेरे पास बैठे थे, खुद दूर बैठ कर हंस रही थी।मैं तो अंतर्मुखी हूं इसके लिए कैसे बात करना है पता नहीं, लेकिन खुद तो इतना बहिर्मुखी है फिर भी हर दिन आरती के बाद भी कुछ मुझसे बात नहीं की। बचपन से मेरी सखी से बात करने को कितना तड़पता रहा हूं।यश कंधा लड़ा के पूछता था आज खाने में क्या है, तो हंस के पूछती थी क्या खाना है। मैं गलती से भी पास आ जाउ तो दूर हट जाती थी।उस दिन इमामबाड़े घूमते समय भी जैसे ही मेरे पास जाता तो भाग के दूसरी ओर चली जाती। मेरी सखी का ऐसा बरताव देख कर मेरे दिल पर क्या बीती है मैं ही जानती हूं और बड़ी-बड़ी बातें करती है।एक बार मैं दरवाज़े पे खड़ा था तो आइ और हटो कह कर किनारे करने की जगह चुप चाप खड़ी रही।उस दिन शुभम और यश उसका हाथ मरोड़ के परेशान कर रहे थे तो अंकलजी ने मुझे रोकने के लिए भेजा तो मुझे रुकवाने को कहने की जगह कुछ नहीं बोली, पापा पापा करते रहे।मेरे जन्मदिन की एक फोटो में मेरे बाईं ओर खड़े हुए चेहरे पर अजीब भाव है।बचपन से मेरी सखी के साथ होली खेलने तो तड़प रहा हूं।कभी राखी तो बांधी नहीं. एक बार पापा ने अंकलजी से पूछा था तो अंकलजी ने कहा था "मीनू से नहीं प्रिया से बंधवाने का हम भी सोच रहे थे"। 2-3 बार पापा ने उसके पैर चुने को कहा तो आंटीजे ने काई बार कहा बस एक ही महीना तो बड़ी है। खुद कह रही थी पहले भी मुझसे बात नहीं होती थी और अब भी नहीं हो रही तो क्या बदल गया।ऊपर से कहती है उसके जीवन के लक्ष्य हैं और उसमें मेरे लिए जगह नहीं।नौकरी लगने के बाद अपनी मेहनत की कमाई से दिए हुए कपड़े एक बार पहन के भी नहीं दिखाये, पता नहीं एक बार भी पहना या क्या करा?
इतने सालों से सोच सोच कर मैं तड़पता रहा कि मीनू मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती है, क्यू मुझसे दूर भागती है, क्यू ऐसे मूड के देखा, क्यू मुझसे बात करने की जगह गुस्सा हो के चली गई और अपने पापा की तरह बस बड़ी-बड़ी बातें करती है। वैसे भी विवाह तो एक ही गोत्र के भाई बहनो में वरजीत है। हमार तो कोई ऐसा रिश्ता नहीं।क्यू कहती है मेरा साथ देने का सोच भी नहीं सकती?
एक तरफ बात तो अपने पापा जैसे बड़ी-बड़ी कर रही थी कि मेरे मम्मी पापा और मेरी कितनी चिंता है और ये भी कहती है कि मुझसे बात करने के लिए दोबारा टाइम नहीं निकल सकती। मुझे उसका हाल चल लेनेका भी हक नहीं। मुझसे नहीं मेरे मम्मी पापा का तो हाल चल इतने सालो में लिया नहीं।मैं तो ले रहा था तो अंकलजी ने फोन उठाकर बंद कर दिया।
माँ पे किया गुस्सा और गलत बातें भी याद नहीं। उसके लिए लगाई हुई डांट भी याद नहीं। कहती है मैंने ही गुस्से में फोन रख दिया बात नहीं की। मुझे नहीं लगता पत्र सही से पढ़ा। पापा कहते हैं इतनी गलत तरह से बात की और उनकी परवरिश पर सवाल उठाया, और उसे याद भी नहीं। हे प्रभु, मेरी सखी शिवानी को अपनी गलतियों का एहसास दिला दो। इसके लिए उचित दंड का अधिकारी है। पश्यताप होना आवश्यक है।
अगर मेरी इतनी ही परवाहा थी तो माँ से ये क्यों कहा कि "आपकी बात नहीं सुनता तो आपको समस्या है, मैं क्या करूँ"?
हे प्रभु, क्यों हर कोई मेरी सखी की निराधार बातों को सही और मेरे प्रेम को गलत कहता है? प्रभु सत्ये क्या है? क्यू मेरी सखी मेरी भावनाओं से ऐसे खिलवाड करती है। क्यों मेरा दिल तोड़ता है और ऊपर से इमोशनल ब्लैकमेल। अगर मुझसे गुस्सा है तो गुस्सा क्यों नहीं करती? मुझसे कुछ गलती हो गई तो डांटा क्यों नहीं?
बचपन से अंदर ही अंदर तड़पता रहा हूं और मेरी भावनाएं किसी की समझ में नहीं आतीं। इस लिए मेरे प्रेम को जब गलत कहा जाता है तो क्रोध आ जाता है। हे प्रभु, इतने वर्षो में सब पर क्रोध के लिए क्षमा कर दो।
कह रही थी कि कोई दबाव में नहीं अच्छे से देख परख के अपना जीवन साथी चुना है। मुझे तो अवसर भी नहीं दिया. मुझसे बात किये बिना ही उठ कर चली गई थी। मेरी भावनाएं जाने बिना ही ना कर दिया था। मुझे बचपन से जनन्ती है फिर भी मेरी भावनाएं नहीं समझ पाई, पता नहीं किसी अंजन को कितना समझा हो गा। पूर्ण जीवन समर्पित कर, अपनी इच्छा त्याग अपनी सखी के लिए जीने के लिए परिश्रम किया। इस लायक भी बन गया कि मेरी सखी के साथ-साथ पूरे परिवार को दुनिया घुमा पाउ, जादा तार इच्छाए पूरी कर पाउ। कोई कमी रह गई थी तो बताई तो जी जान से सुधार करता है। मुझे एक अवसर भी नहीं समझ आया।
मैंने तो जिसको बचपन से खुश देखना चाहा, जिसकी खुशियों के लिए सोचता रहा, जिसके सात सात उसके परिवार को भी अपना माना, जिसके लिए अपनी खुशियों और लक्ष्यों को भी त्यागने को तैयार रहा, जिसको साथ रख कर सारे धमीक करना चाहता था, जिस्की भलाई के लिए प्रभु से प्रार्थना करता रहा, जिसके कल्याण के लिए प्रभु को आधे क्या सारे पुण्य के फल समर्पित कर दिए, जिसको दुनिया घुमाना चाहता था, जिसको पता नहीं कब अपना जीवन समर्पित कर दिया, उसी को बचपन में ही अपना जीवन साथी बाना ने का निश्चय कर के प्रभु को वचन दे दिया था।
इस पवित्र बंधन का एक महापोर्न पहलू, रामायण के निम्लिखित अति सुंदर प्रसंग में दर्शन दिया गया है।
हे प्रभु, पता नहीं किन आधारों पर निर्णय ले लिया है, अगर समझ ना हो तो मेरी सखी शिवानी को इस जीवन भर के निर्णय का महत्व सिखादो।तुम ही जानो उचित क्या है. मानता हूँ मेरी सखी को सही से नहीं समझा, क्या करूं मुझे तो अवसर देने लायक़ भी नहीं समझ।
कहती है मैं कोई चीज नहीं जो दुकान से ले आओ। मैंने कब कहा, लेकिन मेरा दिल भी कोई फुटबॉल नहीं जो देखते ही बिना सोंचे लात मार दी। मैं तो चाहता था कि मेरी सखी मेरी भावनाएँ समझे, मुझे जाने, मेरे साथ कुछ समय बिताए और निर्णय ले। एक अवसर भी नहीं दिया. कहती है इस बारे में सोच भी नहीं सकती।
खुद कहती है कि उसकी भावनाएँ नहीं बदलेंगी और मेरे लिए उसके जीवन में जगह नहीं और मुझसे कहती है कि उसकी ख़ुशी के लिए मैं अपनी भावनाएँ बदल लूँ और किसी और को जगह दे दूँ। ना मेरी भावनाए समझी ना मुझे उसकी बात समझ आती है।समझी होती तो जानती कि दावा और काउंसलिंग से मन शांत हो भी जाए और झूठी हंसी वापस आ जाए, तब भी अंतर हमेशा अशांत रहेगा, आत्मा एक कोने में घुटती रहेगी।मेरी सखी की चिंता और उसे खुश देखे बिना चित्त को शांति नहीं। अंकलजी को दी हुई चुनती पूरी किए बिना अंदर ही अंदर तड़पता रहूंगा।
मेरी सखी कहती है हम में से एक को अपनी भावनाएँ दबानी होंगी। मेरी सखी को कैसे कह सकता हूँ दबादो. प्रभु तुमसे भी यही प्रार्थना है कि मेरी सखी कभी अपनी भावनाएं न दबाए। बचपन से तो अपनी भावनाएं दबाता आया हूं, अब तो मेरे जीवन हो गया है, बाकी का जीवन भी मेरी सखी के लिए दबा लूंगा। पर ये भावनाएँ बदल नहीं सकतीं।
मेरी सखी की ऐसी क्या भावना है जिसके आगे मेरा प्रेम, पूरा जुव्वन का संघर्ष, समर्पण सब व्यर्थ है।ऐसा तो नहीं है किसी और से प्यार करती है, खुद कह रही थी मम्मी पापा जो रिस्ते लाए थे उन में से ही अपनी मर्जी से देख समझ के चुना है तो मेरे बारे में सोचने से भी क्यों मन कर दिया? अंकलजी कह रहे हमारे लिए तो अच्छा ही है पर मीनू इस बारे में कुछ कहो तो गुस्सा हो जाती है। कहती हैं मम्मी पापा ही मेरे लिए सब कुछ, तो अपने प्यारे पापा के कहने पर भी मेरे बारे में ना विचार के गुस्सा क्यों?
कहती है उसकी खुशी के लिए उसे भूल जाओ। मेरी भावनाएं समझ में आती हैं तो समझती हूं कि ये संभव नहीं। जैसे प्रभु के हृदय में सदेव महालक्ष्मी माता का वास है, मेरे हृदय में सदेव मेरे प्रभु और माता के साथ उनकी लाडली शिवानी का वास रहेगा। जैसे अपने पापा ने हृदय से लगती रहती है, मेरे हृदय मेरे सखी प्रभु के हृदय से लगती रहती है।
जो प्रेम मुझे प्रभु की याद दिलाता रहता है।जिसने मुझे अपनी जोड़ी पे काढ़े होने की हिम्मत बंधाई राखी। जिसके सहारे मैं आज जो बन पाया। जिसने संसार में भटकने से बचाया और बुरी आदतों से दूर रखा। कैसे मेरी सखी को भूल सकता हूँ।
मारी सखी का साथ देने के लिए संसार के भोगो और कामनाओं को स्वीकार करके सांसारिक गृहस्थ आश्रम का पालन कर सकता हूं। मेरी सखी के बिना ये सब नहीं भाएंगे, अंदर ही अंदर चुभेंगे । पभु से अपने लिए खुशियां नहीं मांगी, यहीं कहा कि चाहे अपने परिवार के लिए जीवन भर धर्म मार्ग पर संघर्ष करना पड़े, मेरी सखी और मेरा परिवार साथ रहे, सबके प्रति अपने दयितवो को पूरा करते हुए सब का ख्याल रखू। सबका कल्याण करो, भक्ति मार्ग प्रदर्शित करो और अपनी अनुपायेनी भक्ति प्रदान करो।
कह रही थी कि खुद अपना ख्याल रख सकती है और मेरी ज़रूरत नहीं। फोटो में तो और भी मोटी लग रही थी और इतना मेकअप थोप रखा था। हंसी भी कुछ अजीब सी थी. मन में आया कि तिरुपति ले जाके सर मुंडवा के दर्शन करवाउ तो रूप का मोह और दिखावा चला जाए। मेरी सखी को तो बचपन से देख रहा हूं, इतनी प्यारी लगती है, क्यों बेकार में मेकअप से द्वाचा से खिलवाड।किसी ने रोका क्यों नहीं?
मैं होता तो कभी मेकअप ना करने देता। हे प्रभु, जो अपने जीवन लक्ष्य की बात कर रही थी उसमें ये दिखावा भी है क्या? हे परभू, मेरी सखी की अपनी माया से रक्षा करो।
जब नारदजी भोले बाबा के गुण बता रहे थे तो माता पिता परेशान हो रहे थे, पर माता पार्वती अंदर ही अंदर खुश हो रही थी। जब सप्त ऋषियों ने अवगुण गिंते हु वे, कामदेव को जलाने वाले शिवजी संसारी नहीं हो सकतर और अयोग्ये वर है कहा तो माता ने कहा था:
सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ।। तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ।। हमरें जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ।। जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ।। तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ।। तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ।। तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ।। गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ।।
माता तुम्हारे नाम से मेरी सखी का नाम शिवानी है, मेरी सखी को भी अपने जैसा ही गुण देना। शकी देना. मार्ग दर्शन करते रहना।
मेरी सखी ने ही मेरे हाथ बांध दिये हैं, आशा है अपने साथ मेरे अंकलजी, आंटीजी का भी ख्याल रखेगी।
मेरी सखी कह रही थी अब हम बच्चे नहीं रह रही। क्या करूं वो छोटा चुनमुन अभी तक अपनी सखी के साथ बात करने, समय बिताने, खेलने, घूमने को तड़प रहा है।क्या करु बाप बेटी ने मिल कर बचपन से मेरे साथ ऐसा किया। एक ओर प्रभु मुझे प्रेम की भावना में डूबते रहे और उनकी लाडली ने मुझे तिनके का भी सहारा न दिया। चाहे जितना तड़पु ये कम ना होगा। यहीं मेरे जीवन का सत्य है। प्रभु का बाल कांड माता का दयितवा उठा के ही संपूर्ण हुआ था, तो मेरी सखी के साथ बिना कैसे हो सकता है?
मैं तो बचपन से उस समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब मैं मेरी सखी के साथ बेरोक टोक समय बिता सकता हूं, बात कर सकता हूं, जी भर के खेल सकता हूं, घुमने जा सकता हूं। हर समय मेरी सखी मेरे साथ हो, मुझे देख के खुश हो, अंकलजी की तरह मेरे हृदय से लगी रहे। जैसे घूमते समय अपने पापा से चिपकी रहती है, मेरे साथ भी रहे।
पता नहीं हर कोई ये क्यों सोचता है कि मेरी सखी से दूर रह कर मैं उसे भूल जाऊंगा। दूरियों ने मेरे प्रेम को और गहरा ही किया है। जितना मम्मी पापा के लिए अपनी भावनाएँ दबाने की कोशिश की और मन को सांसारिक चीज़ों में लगाया, उतना ही प्रेम डूब गया और अपने से घृणित हो गई और अंदर ही अंदर घुट के रोता रहा। दूरियो ने चिंताओ को और बड़ाया ही है।
पता नहीं क्यों हर कोई सोचता है शादी से कुछ बदल जाएगा, ये भावनाएं तो सदैव ही रहेंगी। मेरी सखी के लिए प्रार्थना करना नहीं छूटेगा, बस जो बची कुछ मेरी सखी के साथ, हमारा सुखी जीवन होगा की इच्छा है वो जाति रहेगी। वैसे भी बचपन से घुट घुट के जीने की आदत हो गई है। मेरी सखी कहती है उसकी खुशी के लिए किसी और को स्थान दे दो, अगर ऐसा हो भी गया तो प्रभु और मेरी सखी के स्थान के आगे वह कुछ नहीं होगा।मेरे हृदय में मेरे प्रभु और मेरी सखी का स्थान ऐसे मिले हैं अलग नहीं होना असम्भव है। ऐसे में कौन मेरे साथ खुश रह सकता है। मेरी सखी के लिए किसी का जीवन बर्बाद करके मेरी सखी को कैसे पाप का भागी बन सकता है। मेरी सखी की ये इच्छा पूरी नहीं कर सकता।मेरी सखी मीनू के लिए प्रार्थना करना नहीं छोड़ सकता।
अंकलजी और मेरी सखी मीनू कहती है कि मैं आगे बढ़ जाऊं तो सब पहले जैसा हो जाएगा और मां भी उनका समर्थन करती है। तो सब यही चाहते हैं कि क्या पहले जैसे मैं जीवन भर अंदर ही अंदर मेरी सखी के साथ के लिए तड़पता रहु।
मेरी सखी आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की बड़ी-बड़ी बातें कर रही थी। अच्छा है, पर डर लगता है कि कहीं ये अभिमान तो नहीं। हे प्रभु, अगर मेरी सखी को कभी भी अभिमान हो तो उसे नष्ट करना मे विलाम्भ ना करना, क्योंकि अभिमान को अपनी शक्ति से जीता नहीं तुहारी कृपा से ही बचा जा सकता है।
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत । चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ।।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
मैंने तो कभी मेरी सखी के बिना आत्मनिर्भरता का सोचा ही नहीं। मेरा जीवन तो मेरी सखी साथ ही पूरा हो सकता है।
हे प्रभु, हमारे काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि दोष निवारो। रक्षा करो। त्राहि त्राहि भगवंत ।
मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी।राम सियाराम, सियाराम जय जय राम। राम सियाराम, सियाराम जय जय राम
हरि पद पंकज प्रक्षालन से प्रकट हुई माँ गंगा । ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी। श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि॥ जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग॥जय जय जननी हराना अघखानी। आनंद करनी गंगा महारानी॥ धनि मइया सुरसरि सुख दैनि।धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी॥
माँ गंगा हमारे तन, मन और अंतर को पावन करे। जय जय माँ गंगा।यमुनाजी हमारे हृदयो में भक्ति प्रवाहित करे।जय जय माँ यमुना।
मेरी सखी कह रही थी लोगो से बात करो तो कुछ होगा। मम्मी पापा और पहले जिस से भी बात की ना मैंने सही से बोल पाया ना किसी को मेरी भावना समझ आई।सब बस समाज और स्वार्थ के तर्क करते और मेरा दिल दुखाता है। डॉक्टर भी बस तर्क देते हैं भावनाए कोई नहीं समझते।।और कोशिश कर के देख लूँगा पर अब उम्मीद नहीं है कि कभी किसी को मेरी भावनाएं समझ आएंगी। मेरी सखी को मेरी भावनाएं नहीं समझ आई तो किसी और को समझा के भी क्या होगा।। वैसे भी मुझे लोग क्या सोचेंगे कि चिंता नहीं, मम्मी पापा ही समाज के दर से बात करने से मन करते हैं।
एक ओर कहती है मेरे लिए मम्मी पापा सब कुछ है और दूसरी या कहती है सब अपनी मर्जी से कर रही हूं, मम्मी पापा भी मुझ पर दबाव नहीं बना सकते, आत्मनिर्भर हूं। मुझसे बात भी अपनी मर्जी से कर रही है लेकिन दोबारा बात करने के लिए टाइम नहीं निकल सकता।
माँ ने मुझे डांटने को कहा फिर भी नहीं डांटा।
अंकलजी कहते हैं हम देहाती सोच वाले हैं और बेटी को भी वही सिखाया है, पर मेरी सखी तो बड़ी बड़ी मॉडर्न बातें करती है, बस मेरे बारे में बात करते समय अंकल जी जैसे। कुछ समझ नहीं आता मेरी सखी के अंतर में क्या चल रहा है।
हे प्रभु, मैंने जब कहा कि मैं उसका जीवन भर साथ देना चाहता हूं तो, मेरी सखी ने उदासीन वाणी में क्या कहा कि कौन किसी के जीवन भर साथ देता है? मन की ये तुम्हारी इच्छा पेनिरभर है, पर जीवन भर तो यही प्रार्थना करता आया और वही प्रयास रहेगा। मेरी सखी के अंतर में क्या चल रहा है?
हे प्रभु, विवाह को पवित्र बंधन कहा गया है। अपना जीवन एक दूसरे को समर्पित कर के वचनों में बाँध कर साथ-साथ जीवन को जीता है। एक दूसरे को सद मार्ग पे रखते हैं, सुख दुःख साथ भोगते हैं।उसके कल्याण के लिए तुम्हारी स्मरण करता रहूंगा। मेरी सखी आत्मनिर्भरता में विश्वास करती है तो ठीक है, पर परिस्थिती अंकुल न हो और कभी आवश्यकता पड़े तो साथ रहूंगा। कभी संसार की माया में फंस के गलत कदम उठ गया तो रोकने और सुधारने को रहूंगा।मन की तुम्हारा निर्धारित काल और माया को जान नहीं सकता, परंतु प्रार्थना और प्रयास तो जितना हो सके मेरी सखी का साथ और वाचिनो को निभाना का रहेगा। मेरी सखी ऐसी निराशाजनकबात क्यों कर रही थी? क्या है तो मैं जानता नहीं, समझ नहीं पा रहा हूं?
हे राम:, मेरी सखी ऐसा क्यों कह रही थी कि मैं उसे नहीं भूला तो जीवन में यही पछतावा रहेगा की दुखी हू। इसमें मेरी सखी क्यों आपने आप को दोषी मानती है? मैं ही अपने भयने सही से व्यक्त नहीं कर पाया।पछताप तो मुझे जीवन भर रहेगा कि अपनी भावनाएँ मेरी सखी तक पोहचा ना पाया, अपने वचनों को पूरा करने का प्रयास भी नहीं कर पाया। मेरी सखी ने कुछ गलत नहीं किया तो पछतावा क्यू, और अगर किया है तो मेरी सखी शिवानी के कल्याण के लिए उचित दंड देकर सद मार्ग पे ले आओ।मेरी सखी को अपने तक पोहचादो।
सुख के लिए कैसे अपनी सखी को भूल सकता हूं? कैसे मेरी सखी के लिए प्रार्थना करना बंद कर सकता हूँ? हर कोई मेरी ख़ुशी की बात करता है, पर क्यूँ नहीं समझता कि मेरी सखी की बिना अंदर ख़ुशी मुझे कैसी चुभती है।
काई प्रश्न उठते रहते हैं. कई अनसुलझी गुत्थियाँ हैं।मेरी सखी को बचपन से जाना, समझना चाहता हूं। अभी भी लग रहा है कुछ है जो मेरी सखी बता नहीं पा रही। मेरी सखी ने कहा था कि मन में जो होता है हमेशा से कह दिया है, पर दिल की बात के बारे में कुछ नहीं कहा। मेरी सखी किसी अंतर्द्वंद में तो नहीं। बार-बार कह रही थी मम्मी पापा ही सब कुछ है। अपने माता-पिता के लिए कोई समझौता तो नहीं कर रही।राम ही जाने।
उस दिन बात करते समय उसकी आवाज रुआसी हो गई थी। पता नहीं चेहरे पर कैसा भाव था। अब बात करने की भी हिम्मत नहीं है। बात करु भी तो पता है घुमा फिरा के क्या उत्तर दे गी। रामः ही जाने सत्य क्या है। ना चाहते हुए भी मेरी सखी को काई बार रुला चूका हूं।मेरी भावनाएं नहीं तो समझी नहीं, अपनी भावनाएं नहीं समझतीं हो तो प्रभु समझ देना।
मेरी सखी कह रही थी कि मेरे भेजे हुए भजन देख कर आंटीजी की पल्स बढ़ जाती है तो अब भजन भी नहीं भेजा जा सकता। आदत से आंटीजी कहता हूँ पर मेरी सखी की माँ भी मेरी माँ है। पता नहीं क्यू मेरे भेजे हुए भजन उनको परेशान कर देते हैं। ऐसा क्या करण है? क्या इसी कारण मेरी सखी मेरा साथ देने का सोच भी नहीं सकती। मुझे एक अवसर भी नहीं दिया।एक झटके में ना कर दिया। मेरी सखी भी कह रही थी समाज की चिंता नहीं, बस अपने मम्मी पापा की चिंता है।
हे प्रभु, क्यू मेरी दोनों माँ मेरी भावनाओ को नहीं समझती, क्यू मेरे प्रेम को ही गलत कहती है? क्यू मुझे ही दोष देती है?
प्रभु तक पहुंचने का मार्ग दुर्गम है। सोचा था मेरी सखी के साथ से कुछ सहज हो जाएगा। उनकी लाडली ख्याल रखूंगा, और अपनी और मेरी सखी के माता-पिता की सेवा से प्रभु प्रसन्न हो जाएंगे।जैसे वैकुण्ठधाम के वासी “वैकुण्ठधाममें अपनी प्रियाओंके सहित अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करते रहते हैं”, वैसे ही मैं भी मेरी सखी शिवानी के साथ अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करूँगा। रामेश्वरम जैसी माता के बने शिवलिंग की प्रभु और माता ने पूजा की थी, मैं भी मेरी सखी के साथ करूँगा। ऑनलाइन दान तो करता हूं पर पता नहीं उससे कितना किसी का भला होता है।सोचा था मेरी सखी का साथ होगा तो जान समझ के मिल कर कुछ अच्छे काम करेंगे। चाहे काई जन्म लग जाए, दोनों साथ प्रभु चरणो तक पोहच जाएंगे।
हे प्रभु, मेरी सखी को तुम्हारी याद भी दिला नहीं सकता, तुम ही मेरी सखी को अपने चरणों तक पहुंचा दो। चाहे मेरे लिए दिल में जगह नहीं, अपना वास बनाये रखना। चाहे मुझे भूल जाए, तुम्हें ना भूले। तुम्हें दिए वचन पूरे नहीं कर पा रहे हैं, तब भी दया कर दो।
मैं हरि, पतित पावन सुने। मैं पतित, तुम पतित-पावन, दोउ बानक बने॥ ब्याध गनिक अगज अजामिल, साखि निगमनि भने। और अधम अनेक तारे, जात कापै गने॥ जानि नाम अजानि लीन्हें नरक जमपुर मने। दास हम सरन आयो राखिये अपने॥
श्रीराम ही औषधि, राम ही मूल, राम ही करें व्यथा सब दूर
मधुराधिपते करो सब मधुरं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा। विजयते गोपाल चूड़ामणि।जय श्रीकृष्ण
January 17, 2025
आज सपने में मेरी सखी पार्क में खड़ी थी। मैं देख रहा था पर कुछ प्रतिक्रिया नहीं दी।आस पास ही घूमता रहा पर एक बार मेरी ओर देखा भी नहीं।
सपने में भी मेरी सखी से बात नहीं कर पाया।
डॉक्टर कहते हैं कि खेल कूद में मन लगाओ, पर वो भी तो मुझे मेरी सखी की याद दिलाती है। मैं बचपन से तो मेरी सखी के साथ खेलना चाहता हूं। माँ कहती है बच्चों के साथ खेलने में मन लगाओ, पर बच्चों को देख के मेरी सखी की वो ख़ुशी याद आती है जब वो बच्चों के साथ खेलती थी और मैं सोचता था कि मेरे साथ भी ऐसे ही खेलें।
January 20, 2025
श्रीमद्भागवतमहापुराण पाठ कर प्रश्न और बढ़ा गए हैं। इस श्वेत वराह कल्प में बागवान के स्वयंभू मनुवंतर में सबसे पहले भगवान् कपिल के रूप में जन्म लिया।देवहूति जी को उनकी माता और कर्दम जी पिता पिता होने का सौभाग्य मिला। “देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह” अध्यायः मे राजा स्वायम्भुव मनु जी ने कर्दम जी के गुणों और पुत्री की भावनाये समझ कर अपनी कन्या का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म विधिसे विवाह के लिये प्रस्ताव रखा था।
मनुस्मृतिमें आठ प्रकारके विवाहोंका उल्लेख पाया जाता है—(१) ब्राह्म, (२) दैव, (३) आर्ष, (४) प्राजापत्य, (५) आसुर, (६) गान्धर्व, (७) राक्षस और (८) पैशाच। इनमें पहला सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसमें पिता योग्य वरको कन्याका दान करता है।
देवहूति जी ने नारदजीके मुखसे कर्दम जी के शील, विद्या, रूप, आयु और गुणोंका वर्णन सुना, तभीसे यह आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर लिया। माता पारवती ने भी भोले बाबा के गुणों को सुनकर ही उनको पति बनानेका निश्चय कर लिया था।
मेरी सखी ने क्यों मेरी भावनाएं और मुझे जाने बिना, मेरे बारे में सोचने से भी मना कर दिया? मेरा प्रेम जो मेरे जीवन और सफलता का आधार है, बिना विचारे लात मार दी? क्यों हर कोई मेरी सखी के इस व्यवहार को सही कहता है? ऐसा तो नहीं है किसी और से प्यार करती है, खुद कह रही थी मम्मी पापा जो रिस्ते लाए थे उन में से ही अपनी मर्जी से देख समझ के चुना है तो मेरे बारे में सोचने से भी क्यों मन कर दिया? अंकलजी क्यों कह रहे हमारे लिए तो अच्छा ही है पर मीनू इस बारे में कुछ कहो तो गुस्सा हो जाती है? कहती हैं मम्मी पापा ही मेरे लिए सब कुछ, तो अपने प्यारे पापा के कहने पर भी मेरे बारे में ना विचार के गुस्सा क्यों?
अंकलजी एक ओर कहते हैं ये तो हमारे लिए अच्छा ही होगा, दूसरी ओर कहते हैं हम कभी ऐसा सोच भी नहीं सकते थे। क्यू अपनी पुत्री के लिए योग्य जीवन साथी के लिए मेरे बारे में सोचने से भी मन कर दिया? क्या मैं इतना अयोग्य हूँ कि मैं विचारने लायक भी नहीं?
पूरा जीवन मेरी सखी के साथ देने योग्य बनने के लिए संघर्ष करता रहा।मेरी सखी के पावरी को अपना माना। यही सोचता रहा कि इस योग्य बन जाउ कि अंकलजी निश्चिंत हो कर अपनी पुत्री का दायित्व मुझे सौपदे। उन्हें विश्वास करा सकू कि मैं उनकी लाडली का हर कदम पर साथ दूंगा और खुश रखूंगा। मेरी सखी भी मेरी भावनाओं को समझ कर प्रसन्न हो और मुझे परख कर मेरा साथ स्वीकार करे। अगर कोई कमी रह गई थी तो उसके लिए सुधार करने को तत्पर रहा। मेरी सखी के लिए अपनी इच्छा और लक्ष्य को त्यागने को तैयार रहा। बुरी आदतो से दूर रहा। हमेशा मेरी सखी और परिवार के लिए प्रार्थना करता रहा। मेरी सखी ने कभी बताया नहीं कि कैसा जीवन साथी चाहती है, पर जितना समझ में आया किया और अपने को मेरी सखी की पसंद अनुसर बदलने को तैयार था।मुझमें क्या कमी है, क्या गलती हो गई, जो सुधरी भी नहीं जा सकती? क्यू पिता और पुत्री ने मेरी योग्यता को परखने से भी मना कर दिया। इतने वर्षों से प्रीतीक्षा कर रहा हूँ, एक अवसर भी नहीं दिया।
माना कि विवाह का निर्णय लेने का अधिकार मेरी सखी का है, पर क्या मेरा इतना जानने का भी अधिकार नहीं है कि मेरी सखी ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया?
क्यू हर कोई मुझे गलत साबित करने में लगा रहता है? क्यू मेरी भावनाएं जो बचपन में अपने आप उत्पन हुई, जिन पर मेरा कोई नियन्त्रण नहीं, उन्हें मेरी गलती कहा जाता है? क्यू मेरे संपूर्ण जीवन के आधार को एक गलती समझ कर भूल जाने को कहा जाता है?
विवाह पश्चात तप किया और प्राप्त हुई सिद्धिया बरबा आपस में ग्रहण की। उसके पश्चात पवित्र बिंदु सरोवर में स्नान कर, तीर्थ स्तनो और आलोकी दर्शन स्तनो में विहार किया।मेरा भी मेरी सखी के साथ तप और विहार करना चाहता हूँ। मेरी सखी के बिना तो सुनंदा दृश्य भी कष्टदायक है।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के “महाराज पृथुकी यज्ञशालामें श्रीविष्णुभगवान्का प्रादुर्भाव” अध्यायः मे
“महाराज पृथुने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान्का पूजन किया और क्षण-क्षणमें उमड़ते हुए भक्तिभावमें निमग्न होकर प्रभुके चरणकमल पकड़ लिये। श्रीहरि वहाँसे जाना चाहते थे; किन्तु पृथुके प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदलके समान नेत्रोंसे उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँसे जा न सके । आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रोंमें जल भर आनेके कारण न तो भगवान्का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जानेसे कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदयसे आलिंगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये । प्रभु अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीको स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुडजीके ऊँचे कंधेपर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रोंके आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टिसे उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे” उस के पश्चात महाराज पृथुने जो भगवान् से कहा उस अति सुंदर भावनाओ को पढ़ कर अश्रु आ गए। महाराज ने भी वही प्रभु से प्रार्थना की जो मैं और मेरी सखी के लिए करता हूं।बस अंतर इतना है कि मेरी सखी के साथ छोटे बच्चों के रूप में माता लक्ष्मी के निर्देशानुसार हमारे छोटे-छोटे हाथों से प्रभु की सेवा करेंगे तो कलह नहीं होगा।
एक दो बार जब अंकलजी के घर गया तो पूजा कर रहे थे और मेरी सखी पुस्तक से कथा पढ़ रही थी। उस दिन की प्रतीक्षा करता रहा हूँ जब मुझे भी सुनायेगी। मैं तो सही से पढ़ नहीं पाता। ये प्रसंग पढ़ते समय यहीं आ रहा था कि मेरी सखी के मुख से और भी सुंदर और आनंदविभोर होगा।मेरी सखी मेरे प्रभु की याद दिलाती है और मेरे प्रभु मेरी सखी की।दोनों के दिए चाहे सुख हो या दुख, अपने हृदय से लगा कर रखता हूं।
बार-बार यही विचार आता है कि मीनू की क्या प्रतिक्रिया होती, क्या विचार होते, क्या कहती? रामः ही जाने ।
हरिः ॐ तत्सत्।
January 23, 2025
आज सपने में किसी को मेरी भावनाएँ समझ नहीं आ रही हैं और मैं कारन रो रहा था। रो रो के इतना बुरा हाल हो गया था कि सीधे तरफ के दांत चूर चूर हो कर गिरने लगे। फिर एहसास हुआ ये स्वप्न है. उथने की कोसिस की पर वापस दूसरे स्वपन में भी वही होने लगा। ऐसे ही काई बार एक स्वप्न से दूसरे में भटकता रहा और दंत टूट कर गिरता रहा। पहले भी काई बार ऐसा हुआ है कि स्वप्न ने एहसास हुआ कि मैं स्वप्न देख रहा हूं और स्वप्न की काई परत से उठ ते उठ ते, घबराके के नींद से उठ कर बैठ गया। पर इस बार नहीं जग पाया. किसी दूसरे स्वप्न में पहुच गया और भूल गया स्वप्न देख रहा। इस बार मैं दर्शक था और कुछ अंजन लोग टेबल टेनिस खेल रहे थे उसके बाद क्या हुआ कुछ समाज नहीं आया।
हे प्रभु, अंकलजी और मीनू क्यों सोचते हैं मुझसे दूरी बनाने से और ब्लॉक कर देने से मैं उन्हें भूल जाऊंगा। मेरी भावनाएं जो पचपन से हैं कैसे बदल सकती हैं। समय ने तो इन्हें गहरा और मेरी चिंता को बस बढ़ाया है। मेरी सखी मेरी भावनाएं नहीं समझती और उससे जुड़े प्रश्नों ने मुझे अंदर से और तोड़ा ही है।कहती है औरो से बात करो, पर मेरे प्रश्नों का उत्तर मेरी सखी सिवा और कौन दे सकता है? तुम तो कुछ कहते नहीं।
January 25, 2025
आज सपने में लखनऊ गया तो वाह युद्धभूमे जैसी परिस्थितिया थी। विचित्र आधुनिक सैनिक घूम रहे थे। पार्क में पहुचा तो सब ठीक था। मंदिर में भोले बाबा के दर्शन करे, तभी वहा मीनू और शुभम आयें। झगड़ा हुआ और भोले बाबा के आगे सरा झुकाके, सब साफ-साफ सत्य बताने को विश्वास करने की कोशिश की, पर वही घुमा फिरा के बातें करती रही। गुस्से में रोता रह गया पर कुछ सही से नहीं बताया। नींद खुल गई और फिर सोता जागता रहा और प्रभु से पूछता रहा सत्य क्या है।रामः ही जाने सत्य क्या हैं।रामः नाम ही सत्य हैं, बाक़ी कुछ समझ नहीं आ रहा।
January 26, 2025
आज भी स्वप्न में मेरा रोता रहा और किसी को मेरी भावनाएं समझ में नहीं आईं। मा सबको मेरे प्रेम को मेरी गलती कह कर मुझे ही दोष दे रही थी। सब बस समाज और स्वार्थ के तर्क करते रहें।नींद खुल गई और फिर सोता जागता रहा।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथ पञ्चमोऽध्यायः “ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना” मे
पुराणपुरुष श्रीआदिनारायण ने ऋषभावतार मे उपदेश दिया की “जो अपने प्रिय सम्बन्धीको भगवद्भक्तिका उपदेश देकर मृत्युकी फाँसीसे नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है। जिन्होंने इस लोकमें अध्ययनादिके द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्तिको धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणोंसे सम्पन्न हैं—उन ब्राह्मणोंसे बढ़कर और कौन हो सकता है”
हे प्रभु, तुम्हारी माया के आगे किसी को मेरी बात समझ नहीं आती, इसके लिए सबके लिए प्रार्थना करता हूं। तुम ही सबका मार्गदर्शन करो. कैसे किसी को भूल जाऊ, कैसे तुमको दिए वचन भूल जाऊ, कैसे मेरी सखी के लिए प्रार्थना न करु।हम सबको भी पवित्र गुणोंसे से सम्पन्न कर अपनी भक्ति प्रदान करो।हम सब कल्याण के लिए उचित करो।
आज अपार्टमेंट की सोसायटी में झंडा आरोहण का समारोह था। सब परिवार को देख कर यही मन मुझे आ रहा था कि मैं भी मेरी सखी और परिवार के साथ भाग लेता।सब कुछ मेरी सखी की ही याद दिलाता है। मीनू के साथ बिना कुछ अच्छा नहीं लगता। क्यू कहती है मेरा साथ देने की विचार भी नहीं कर सकती?
January 28, 2025
आज सपने में रो रो के सीधे तरफ के नीचे के दांत टूट के निकल आये। मेरी सखी अपने जीवन लक्ष्यों की बस बड़ी-बड़ी बातें करती रही, कुछ सही से नहीं बताया।
हे प्रभु, मैं तो जीवन भर परिश्रम कर रहा हूं कि मेरी सखी का साथ दे सकु, इस लायक हूं कि मेरी सखी को कभी सहायता की आवश्यकता हो तो कर पाउ। मेरा जीवन तो मेरी सखी और परिवार के लिए ही समर्पित है। मेरी सखी के ऐसे क्या लक्ष्य हैं जिन्हे मुझसे चर्चा कीये बिना ही कह दिया उन में मेरी कोई जगह नहीं। मुझमे क्या कमी है जो सुधर नहीं सकती। क्यू में विचारने योगे भी नहीं? मीनू क्यों मेरे साथ ऐसा व्यवहार?
January 29, 2025
प्रभु की कृपा से आज के शुभ दिन मौनी अमावस्या पर जब महाकुंभ चल रहा है, श्रीमद्भागवतमहापुराण का “अथ सप्तदशोऽध्यायः गंगाजीका विवरण और भगवान् शंकरकृत संकर्षणदेवकी स्तुति” पढ़ने को मिला।
“जब राजा बलिकी यज्ञशालामें साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णुने त्रिलोकीको नापनेके लिये अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें पैरके अँगूठेके नखसे ब्रह्माण्डकटाहका ऊपरका भाग फट गया। उस छिद्रमें होकर जो ब्रह्माण्डसे बाहरके जलकी धारा आयी, वह उस चरणकमलको धोनेसे उसमें लगी हुई केसरके मिलनेसे लाल हो गयी। उस निर्मल धाराका स्पर्श होते ही संसारके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नामसे न पुकारकर उसे ‘भगवत्पदी’ ही कहते थे।”
हे प्रभु, कृपा करो कि मैं भी मेरी सखी शिवानी, हमारे माता पिता और समस्त परिवार जानो सही तुम्हारे चरण जल में स्नान कर पूजन करे। हमें अपनी भक्ति प्रदान करो। भगवान सूर्यनारायण हमारा मार्गदर्शन करे।
सब पे कृपा करो प्रभु।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
January 30, 2025
श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथैकोनविंशोऽध्यायः “किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन” मे
किम्पुरुषवर्षमें श्रीलक्ष्मणजीके बड़े भाई, आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम भगवान् श्रीरामके चरणोंकी सन्निधिके रसिक परम भागवत श्रीहनुमान्जी अन्य किन्नरोंके सहित अविचल भक्तिभावसे उनकी उपासना करते हैं ।।१।। वहाँ अन्य गन्धर्वोंके सहित आर्ष्टिषेण उनके स्वामी भगवान् रामकी परम कल्याणमयी गुणगाथा गाते रहते हैं। श्रीहनुमान्जी उसे सुनते हैं और स्वयं भी इस मन्त्रका जप करते हुए इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं ।।२।। ‘हम ॐकारस्वरूप पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीरामको नमस्कार करते हैं। आपमें सत्पुरुषोंके लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयतचित्त, लोकाराधनतत्पर, साधुताकी परीक्षाके लिये कसौटीके समान और अत्यन्त ब्राह्मणभक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज रामको हमारा पुनः-पुनः प्रणाम है’ ।।३।। ‘भगवन्! आप विशुद्ध बोधस्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूपके प्रकाशसे गुणोंके कार्यरूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंका निरास करनेवाले, सर्वान्तरात्मा, परम शान्त, शुद्ध बुद्धिसे ग्रहण किये जानेयोग्य, नाम-रूपसे रहित और अहंकारशून्य हैं; मैं आपकी शरणमें हूँ।।४।।प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसोंके वधके लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्योंको शिक्षा देना है! अन्यथा, अपने स्वरूपमें ही रमण करनेवाले साक्षात् जगदात्मा जगदीश्वरको सीताजीके वियोगमें इतना दुःख कैसे हो सकता था ।।५।।आप धीर पुरुषोंके आत्मा* और प्रियतम भगवान् वासुदेव हैं; त्रिलोकीकी किसी भी वस्तुमें आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीताजीके लिये मोहको ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजीका त्याग ही कर सकते हैं ।।६।। आपके ये व्यापार केवल लोकशिक्षाके लिये ही हैं। लक्ष्मणाग्रज! उत्तम कुलमें जन्म, सुन्दरता, वाक्चातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि—इनमेंसे कोई भी गुण आपकी प्रसन्नताका कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखानेके लिये ही आपने इन सब गुणोंसे रहित हम वनवासी वानरोंसे मित्रता की है ।।७।। देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य—कोई भी हो, उसे सब प्रकारसे श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नररूपमें साक्षात् श्रीहरि ही हैं और थोड़े कियेको भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधामको सिधारे थे, तब समस्त उत्तरकोसलवासियोंको भी अपने साथ ही ले गये थे’ ।।८।।
हे प्रभु, अगर आपकी लाडली ही मुझे त्याग दे तो अपने को कैसे संभालू? रक्षा करो प्रभु।
पाहि, पाहि राम ! पाहि रामभद्र, रामचंद्र ! सुजस स्त्रवन सुनि आयो हौँ सरन ।
February 1-2, 2025
बहन की शादी थी, जाने की हिम्मत नहीं थी पर नाना नानी से बहुत समय से मिला नहीं था, और भी कोई रिश्ते आ रहे थे तो मन भी नहीं कर सकता था।
प्रभु मेरी बहन साक्षी और जीजाजी पर कृपा करो और मार्गदर्शन करो।
बचपन से इतने नानी नाना घर आते रहते थे, सबसे बहुत प्यार मिला।सोचा था मीनू के साथ सबका आशीर्वाद ले कर हमारे विह्वित जीवन का प्रारंभ करूंगा। सब मेरी शादी की बात कहते थे। एक-एक कर कितने प्रभु तुम्हारे पास चले गये। नवंबर 2024, तो बड़ा ही घातक था। गोपाल नाना और शानू मामी के पापा नहीं रहें। लखनऊ जा कर पता चला बगल में एक अंकल भी कुछ समय पहले नहीं रहे। जब वाह था शरद मामा नहीं रहे। वॅप्स आ कर तो मेरे ही प्राण कण्ठ आ गये।
मम्मी पापा सबके साथ मिल कर खुशुया मन्ने को कह रहे थे पर सब कुछ तो मुझे मीनू की याद दिला रहा था। किसी तरह आसुओ को बहने से रोक रहा था पर पता नहीं क्यों सिर्फ बायीं आंख भरी हुई थी। झूठी हंसी भी कैसे लाऊ समझ नहीं आ रहा था, मौसी और नाना के कहने पर भी मुस्कुरा नहीं पाया। हे प्रभु, मेरे करण और लोग परेशान हो गए, क्षमा करदो। प्रभु तुम्हारी कृपा से नानी की कुछ सेवा करने को मिला। हे प्रभु, नानी नाना का स्वास्थ्य अच्छा करो, और सबको अपनी भक्ति प्रदान करो। सब पे कृपा करो।
मीनू के साथ के जो सपने देखा थे, जिस समय की प्रतीक्षा बचपन से रही है, याद आ रहे थे।किसी तरह प्रभु को स्मरण कर अपने को कुछ शांत किया।
वापस आते समय गाड़ी में भजन सुनते प्रभु से पूछ रहा था कि परिस्थितिया क्यू ऐसे उलझा दी है।माता, बाप बेटी मिलके मेरी भावनाओं से ऐसे क्यों खेलती है, क्यू रुलातो हो और रोने भी नहीं देते। इस बस सिर्फ दाहिनी आंख में आसु आ रहे थे। किसी तरह रोका।
ओ, पालनहारे, निर्गुण और न्यारे, तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं। हमरी उलझन सुलझाओ भगवन, तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं
February 5, 2025
बहुत समय से माता वैष्णो देवी के दर्शन करने का मन है। उस दिन अंकलजी से बात करने के बाद जब मन अति विचलित था और भी जाना चाहता था पर सर्दी में मम्मी पापा को ले जा नहीं सकता था और अकेले माँ ने जाने नहीं दिया।
आज स्वप्न में मम्मी पापा के साथ माता वैष्णो देवी के दर्शन करने जा रहा था। माँ को हेलीकॉप्टर से भेज दिया था, मैं और पापा पेडल चढ़ रहे थे। लंबी लाइन थी, पर कुछ समय में ही उप्पर पहुंच गए, जहां मा प्रतीक्षा कर रही थी। साथ कपूर से माता के पर्वत की आरती उतारी और मंदिर की या जा रहे थे कि स्वप्न बदल गया। उसके बाद में मेरे प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए अंकल जी से बात करने का प्रयास कर रहा था पर मुझे सब जगह ब्लॉक कर रखा था। उसी उलझन में तड़पते-तड़पते नींद खुल गई, कोई राह नहीं मिली।
मां अब और विलम्भ ना करो, जल्दी मेरी सखी और संपूर्ण परिवार के साथ अपने दरबार में दर्शन के लिए बुलावा भेज दो। दर्शन दो माँ, हमें दर्शन दो।मेरी सखी को ले कर मेरे घर आ जाओ माँ। हमें अपने आंचल की छाया में रखो।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के षष्ठः स्कन्धः अथ द्वितीयोऽध्यायः “विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण और अजामिलका परमधामगमन” मे
क्योंकि भगवन्नामोंके उच्चारणसे मनुष्यकी बुद्धि भगवान्के गुण, लीला और स्वरूपमें रम जाती है और स्वयं भगवान्की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।। बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियोंने पापोंके बहुत-से प्रायश्चित्त—कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चितोंसे पापीकी वैसी जड़से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान्के नामोंका, उनसे गुम्फित पदोंका उच्चारण करनेसे होती है। क्योंकि वे नाम पवित्रकीर्ति भगवान्के गुणोंका ज्ञान करानेवाले हैं ।।
यदि प्रायश्चित्त करनेके बाद भी मन फिरसे कुमार्गमें—पापकी ओर दौड़े, तो वह चरम सीमाका—पूरा-पूरा प्रायश्चित्त नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित्त करना चाहें कि जिससे पापकर्मों और वासनाओंकी जड़ ही उखड़ जाय, उन्हें भगवान्के गुणोंका ही गान करना चाहिये; क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है ।।
इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चित्तोंके द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापोंसे मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान्के चरणोंकी सेवासे वह भी शुद्ध हो जाता है ।।
जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृतको उसका गुण न जानकर अनजानमें पी ले तो भी वह अवश्य ही पीनेवालेको अमर बना देता है, वैसे ही अनजानमें उच्चारण करनेपर भी भगवान्का नाम* अपना फल देकर ही रहता है (वस्तुशक्ति श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं करती) ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—
यद् गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम् ।
ऋणमेतत् प्रवृद्धं मे हृदयान्नापसर्पति ।।
‘मेरे दूर होनेके कारण द्रौपदीने जोर-जोरसे ‘गोविन्द, गोविन्द’ इस प्रकार करुण क्रन्दन करके मुझे पुकारा। वह ऋण मेरे ऊपर बढ़ गया है और मेरे हृदयसे उसका भार क्षणभरके लिये भी नहीं हटता । ‘नामपदैः’ कहनेका यह अभिप्राय है कि भगवान्का केवल नाम ‘राम-राम’, ‘कृष्ण-कृष्ण’, ‘हरि-हरि’, ‘नारायण नारायण’ अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये—पापोंकी निवृत्तिके लिये पर्याप्त है। ‘नमः नमामि’ इत्यादि क्रिया जोड़नेकी भी कोई आवश्यकता नहीं है। नामके साथ बहुवचनका प्रयोग—भगवान्के नाम बहुत-से हैं, किसीका भी संकीर्तन कर ले, इस अभिप्रायसे है। एक व्यक्ति सब नामोंका उच्चारण करे, इस अभिप्रायसे नहीं। क्योंकि भगवान्के नाम अनन्त हैं; सब नामोंका उच्चारण सम्भव ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि भगवान्के एक नामका अच्चारण करनेमात्रसे सब पापोंकी निवृत्ति हो जाती है। पूर्ण विश्वास न होने तथा नामोच्चारणके पश्चात् भी पाप करनेके कारण ही उसका अनुभव नहीं होता।
भगवान् शंकर पार्वतीके प्रति कहते हैं—
ईशोऽहं सर्वजगतां नाम्नां विष्णोर्हि जापकः । सत्यं सत्यं वदाम्येव हरेर्नान्या गतिर्नृणाम् ।।
‘सम्पूर्ण जगत्का स्वामी होनेपर भी मैं विष्णुभगवान्के नामका ही जप करता हूँ। मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ, भगवान्को छोड़कर जीवोंके लिये अन्य कर्मकाण्ड आदि कोई भी गति नहीं है।’ श्रीमद्भागवतमें ही यह बात आगे आनेवाली है कि सत्ययुगमें ध्यानसे, त्रेतामें यज्ञसे और द्वापरमें अर्चा-पूजासे जो फल मिलता है, कलियुगमें वह केवल भगवन्नामसे मिलता है। और भी है कि कलियुग दोषोंका निधि है, परन्तु इसमें एक महान् गुण यह है कि श्रीकृष्ण-संकीर्तनमात्रसे ही जीव बन्धनमुक्त होकर परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।
वर्तमानं च यत् पापं यद् भूतं यद् भविष्यति । तत्सर्वं निर्दहत्याशु गोविन्दानलकीर्तनम् ।।
फिर भी भगवत्प्रेमी जीवको पापोंके नाशपर अधिक दृष्टि नहीं रखनी चाहिये; उसे तो भक्ति-भावकी दृढ़ताके लिये, भगवान्के चरणोंमें अधिकाधिक प्रेम बढ़ता जाय, इस दृष्टिसे अहर्निश नित्य-निरन्तर भगवान्के मधुर-मधुर नाम जपते जाना चाहिये। जितनी अधिक निष्कामता होगी, उतनी-ही-उतनी नामकी पूर्णता प्रकट होती जायगी, अनुभवमें आती जायगी ।
हे प्रभु, सोचा था तुम्हारे नाम की महिमा मेरी सखी शिवानी के सात पढ़ूंगा, पर आज अकेले ही। मीनू के मुख से और भी सुंदर लगता, मुझे तो लय से पढ़ना नहीं आता। तुम ही अपनी लाडली के हृदय और जीभ पर अपना नाम सदा के लिए बसा दो। चाहे मेरी सखी मुझे भूल जाए तुम्हार नाम लेना ना कभी भूले। हम सब पर ऐसी कृपा करो कि तुम्हारा नाम रम जाए।
संकल्प नारायण शब्द मथ्रं विमुक्त दुखो सुखिनो भवन्थ
नारायण नारायण
सूरदास के कहे वाकये याद आ गये:
हस्तमुच्छिद्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम् । हृदयात् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ।
जिसका हिन्दी रूपांतरण छन्द इस प्रकार है: बांह छुडाये जात हो, निबल जान जो मोहे ह्रदय से जो जाओगे, सबल समझूंगा में तोहे
हे प्रभु, हमारे विश्वास को भी इतना बल दो कि हब भी ये कह पाये।
रुक्मणि सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमश्रये
राम राम हरि हिर कृष्ण कृष्ण हरि हरि श्रीसत्यनारायण हरि हरि
February 6, 2025
आज कोई सपने आये। कुछ में मीनू मुझसे दूर भागती और नजरंदाज करती रहती है। कुछ में घुमा फिराके वही बड़ी-बड़ी बाते। बार-बार नींद खुलती रही। राम ही जाने सत्य क्या है?
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥
अर्थ : शिवजी माता पार्वतीजी से कतहे हैं कि श्रीराम नाम के मुख में विराजमान होने से राम राम राम इसी द्वादश अक्षर नाम का जप करो। हे पार्वति! मैं भी इन्हीं मनोरम राम में रमता हूं। यह राम नाम विष्णु जी के सहस्रनाम के तुल्य है। भगवान राम के 'राम' नाम को विष्णु सहस्रनाम के तुल्य कहा गया है।
राम राम राम राम नाम तारकम्। राम कृष्ण वासुदेव भक्ति मुक्ति दायकम्। जानकी मनोहरम सर्वलोक नायकम्। शङ्करादि सेव्यमान पुण्यनाम कीर्तनम्॥
श्रीसत्यनारायण हरि हरि
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के षष्ठः स्कन्धः अथ तृतीयोऽध्यायः “यम और यमदूतोंका संवाद” मे
दूतो! मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता—सब-के-सब सत्त्वप्रधान होनेपर भी उनकी मायाके अधीन हैं तथा भगवान् कब क्या किस रूपमें करना चाहते हैं—इस बातको नहीं जानते। तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है ।।१४-१५।।
भगवान्के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। दूतो! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं—ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज) ।।२०-२१।। इस जगत्में जीवोंके लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य—परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान्के चरणोंमें भक्तिभाव प्राप्त कर लें ।।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथ चतुर्थोऽध्यायः दक्षके द्वारा भगवान्की स्तुति और भगवान्का प्रादुर्भाव
दक्ष प्रजापतिने इस प्रकार स्तुति करते हुए कहा — इसलिये आप साकार, निराकार दोनोंसे ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं ।।३२।। प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलोंका भजन करते हैं, उनपर अनुग्रह करनेके लिये आप अनेक रूपोंमें प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओंके अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन्! आप मुझपर कृपा-प्रसाद कीजिये ।।
हे प्रभु, सब पर कृपा कीजिये।मेरी सखी शिवानी और समस्त परिवार के साथ हम भी आपके चरणकमलोंका भजन करते रहे
जय जय राम सियाराम राम, जय जय राम सियाराम
February 7, 2025
आज ऑफिस में टीम आउटिंग थी। लंच के बाद खेलने गए। गोकार्टिंग, बॉलिंग, एयर राइफल, लेजर टैग था। सब मीनू की याद दिला रहे थे. कब से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब मैं मेरी सखी के साथ केलुन गा।
हे प्रभु, तुम्हें आकार दयालु कहते हैं, हम पर भी थोड़ा दया कर दो।
February 8, 2025
आज भी कई सपने में मीनू और मम्मी पापा को मेरी भावनाएं समझ नहीं आ रही थीं। मैं अंदर ही अंदर रोता रहा और बार बार नींद खुलती रही।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथ सप्तमोऽध्यायः “बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग और विश्वरूपका देवगुरुके रूपमें वरण” मे
इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरुका सत्कार ही किया। यहाँतक कि वे अपने आसनसे हिले-डुलेतक नहीं ।।७-८।। त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजीने देखा कि यह ऐश्वर्यमदका दोष है! बस, वे झटपट वहाँसे निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये ।।९।। परीक्षित्! उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। वे भरी सभामें स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे
‘हाय-हाय! बड़े खेदकी बात है कि भरी सभामें मूर्खतावश मैंने ऐश्वर्यके नशेमें चूर होकर अपने गुरुदेवका तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है ।।११।। भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्गकी राजलक्ष्मीको पानेकी इच्छा करेगा? देखो तो सही, आज इसीने मुझ देवराजको भी असुरोंके-से रजोगुणी भावसे भर दिया ।।१२।। जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसीके आनेपर राजसिंहासनसे न उठे, वे धर्मका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते ।।१३।। ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्गकी ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरकमें गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थरकी नावकी तरह डूब जाते हैं ।।१४।। मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञानके अथाह समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणोंमें अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा’
हे प्रभु, जब स्वयं देवराज इंद्र जी आपकी माया में फंस कर दुख मार्ग से भटक जाते हैं तो हम मूर्खो तो पता ही नहीं की कितने भटके हैं। हमें तो अपनी गलती की समाज भी नहीं तो पश्यताप में क्या है। हे प्रभु, हमारे दुष्कर्मो को क्षमा कर, हमारा मार्ग दर्शन कराओ। इस लोक की माया ही से व्याकुल है, स्वर्ग की माया से दूर ही रखना। कृपा हरि कृपा. त्राहि त्राहि भगवंता।
आज बड़े मामा और पापा ने जबरदस्त खाना बनवाया। नानी और मीनू के बहुत याद आ रही थी। बचपन में नानी को रोटी बेल कर देता था। नानी के हाथ का खाना आनंद दाई था। सोचा था नानी के से पुछ पुछ के मीनू के साथ खाना बनाना सीखूंगा। राम ही औषधि राम ही मूल, राम ही करें व्यथा सब दूर, जप के अपने आपको संभला।
पहले नानी प्रभु तुम्हारे पास चली गई और मन पूरी तरह शांत नहीं हुआ था कि कुछ माहिनो में मीनू ने मेरा दिल ऐसा तोड़ा। ऊपर से बात ऐसी करती है जैसे वो सब हुआ ही नहीं।
हे सत्यनारायण, आपकी लाडली क्यों घुमा फिराका बात करती है और मेरा दिल दुखती है?
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथाष्टमोऽध्यायः “नारायणकवचका उपदेश” मे
ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ विष्णवे नमः ॐ मः अस्त्राय फट्
‘भगवान् श्रीहरि गरुड़जीकी पीठपर अपने चरणकमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथोंमें शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकारसे, सब ओरसे मेरी रक्षा करें ।।१२।। मत्स्यमूर्ति भगवान् जलके भीतर जलजन्तुओंसे और वरुणके पाशसे मेरी रक्षा करें। मायासे ब्रह्मचारीका रूप धारण करनेवाले वामनभगवान् स्थलपर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रमभगवान् आकाशमें मेरी रक्षा करें ।।
जिनके घोर अट्टहाससे सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियोंके गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियोंके शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानोंमें मेरी रक्षा करें ।।१४।। अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान् मार्गमें, परशुरामजी पर्वतोंके शिखरोंपर और लक्ष्मणजीके सहित भरतके बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवासके समय मेरी रक्षा करें ।।१५।। भगवान् नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकारके प्रमादोंसे मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्वसे, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योगके विघ्नोंसे और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धनोंसे मेरी रक्षा करें ।।१६।। परमर्षि सनत्कुमार कामदेवसे, हयग्रीवभगवान् मार्गमें चलते समय देवमूर्तियोंको नमस्कार आदि न करनेके अपराधसे, देवर्षि नारद सेवापराधोंसे* और भगवान् कच्छप सब प्रकारके नरकोंसे मेरी रक्षा करें ।।
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्यसे, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वोंसे, यज्ञभगवान् लोकापवादसे, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टोंसे और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पोंके गणसे मेरी रक्षा करें ।।१८।। भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञानसे तथा बुद्धदेव पाखण्डियोंसे और प्रमादसे मेरी रक्षा करें। धर्मरक्षाके लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकालके दोषोंसे मेरी रक्षा करें ।।१९।। प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आनेपर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहरके पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहरको भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०।। तीसरे पहरमें भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकालमें ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्तके बाद हृषीकेश, अर्धरात्रिके पूर्व तथा अर्धरात्रिके समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१।। रात्रिके पिछले प्रहरमें श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, उषाकालमें खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदयसे पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओंमें कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२।। ‘सुदर्शन! आपका आकार चक्र (रथके पहिये)-की तरह है। आपके किनारेका भाग प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान्की प्रेरणासे सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायुकी सहायतासे सूखे घास-फूसको जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु-सेनाको शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३।। कौमोदकी गदा! आपसे छूटनेवाली चिनगारियोंका स्पर्श वज्रके समान असह्य है। आप भगवान् अजितकी प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहोंको अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओंको चूर-चूर कर दीजिये ।।
शंखश्रेष्ठ! आप भगवान् श्रीकृष्णके फूँकनेसे भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओंका दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियोंको यहाँसे झटपट भगा दीजिये ।।२५।। भगवान्की प्यारी तलवार! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान्की प्रेरणासे मेरे शत्रुओंको छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान्की प्यारी ढाल! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप-दृष्टि पापात्मा शत्रुओंकी आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदाके लिये अंधा बना दीजिये ।।२६।। सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियोंसे हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मंगलके विरोधी हों—वे सभी भगवान्के नाम, रूप तथा आयुधोंका कीर्तन करनेसे तत्काल नष्ट हो जायँ ।।२७-२८।। बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रोंसे जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारणके प्रभावसे हमें सब प्रकरकी विपत्तियोंसे बचायें ।।२९।। श्रीहरिके नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंको सब प्रकारकी आपत्तियोंसे बचायें ।।३०।। ‘जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तवमें भगवान् ही हैं’—इस सत्यके प्रभावसे हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायँ ।।३१।। जो लोग ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टिमें भगवान्का स्वरूप समस्त विकल्पों—भेदोंसे रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्तिके द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियोंको धारण करते हैं, यह बात निश्चितरूपसे सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपोंसे हमारी रक्षा करें ।।३२-३३।। जो अपने भयंकर अट्टाहाससे सब लोगेंके भयको भगा देते हैं और अपने तेजसे सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशामें, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर—सब ओर हमारी रक्षा करें’ ।।
February 9, 2025
आज स्वप्न में मम्मी पापा के साथ वैष्णो देवी माता के दर्शन करने जा रहा था। माता का पर्वत दिख रहा था, तभी अचानक समतल रस्ते में एक विचित्र खाई जैसी आ गई। पापा ने कहा माता का नाम ले के चलते हैं जो होगा देखा जाएगा। उसमें गए तो किसी दूसरे लोक में पहुंच गए और किसी ने कहा और किसी को दर्शन के लिए लाना है? फिर पार्क में पहुंच गया। वाह मीनू, अंकलजी और आंटीजी थे। सब को माता के दर्शन करने को मनाया। सब हाथ पकड़ के माता के दर्शन के लिए काढ़े हुए और लग ही रहा था कि कोई शक्ति वापस ले जा रही है कि नींद खुल गई।स्वप्न में भी आज सब के साथ माता के दरबार नहीं पहुंच पाया।माता कृपा करो, हम सबको दर्शन दो।
पता नहीं हर कोई मुझे अपने बारे में ही सोचने को क्यों कहता है। मेरी सखी को मेरे प्रेम की कदर नहीं तो क्या मेरी सखी के कल्याण के लिए प्रार्थना कैसे न करूँ। ये प्रेम ही तो मुझे प्रभु की याद दिलाता है और प्रभु कीर्तन और लीला श्रवण का आनंद देता है। मेरी भक्ति में अभी इतनी शक्ति है, इसके बिना तो जगत के माया भटक जाऊंगा।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथैकादशोऽध्यायः “वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति” मे वृत्र उवाच
जो पुरुष भगवान्से अनन्यप्रेम करते हैं—उनके निजजन हैं—उन्हें वे स्वर्ग, पृथ्वी अथवा रसातलकी सम्पत्तियाँ नहीं देते। क्योंकि उनसे परमानन्दकी उपलब्धि तो होती ही नहीं; उलटे द्वेष, उद्वेग, अभिमान, मानसिक पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हात लगते हैं ।। हमारे स्वामी अपने भक्तके अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी प्रयासको व्यर्थ कर दिया करते हैं और सच पूछो तो इसीसे भगवान्की कृपाका अनुमान होता है। क्योंकि उनका ऐसा कृपा-प्रसाद अकिंचन भक्तोंके लिये ही अनुभवगम्य है, दूसरोंके लिये तो अत्यन्त दुर्लभ ही है ।।२३।। (भगवान्को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुरने प्रार्थना की—) ‘प्रभो! आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्यभावसे आपके चरणकमलोंके आश्रित सेवकोंकी सेवा करनेका अवसर मुझे अगले जन्ममें भी प्राप्त हो। प्राणवल्लभ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणोंका स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हींका गान करे और शरीर आपकी सेवामें ही संलग्न रहे ।।२४।। सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डलका साम्राज्य, रसातलका एकच्छत्र राज्य, योगकी सिद्धियाँ—यहाँतक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ।।२५।। जैसे पक्षियोंके पंखहीन बच्चे अपनी माँकी बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँका दूध पीनेके लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतमसे मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती है—वैसे ही कमलनयन! मेरा मन आपके दर्शनके लिये छटपटा रहा है ।।२६।। प्रभो! मैं मुक्ति नहीं चाहता। मेरे कर्मोंके फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकना पड़े, इसकी परवा नहीं। परन्तु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनिमें जन्मूँ, वहाँ-वहाँ भगवान्के प्यारे भक्तजनोंसे मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे।
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ । जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ।। यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ । गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ।।
हे प्रभु, इस माया जनित संसार में हम अपने अहंकार से ही अटके हैं। हे प्रभु, हम सबका कल्याण करो।पता नहीं मेरी सखी किन हालातों में है और आगे क्या रचा है। हम सबपे कृपा करो।
February 10, 2025
हे नारायण,
मेरे भावनाओं से क्या प्रयोग कर रहो हो! आज तो आसु भी रोक ना सका. ऊपर से मम्मी ने भी देख लिया। अब तो मेरी सखी की और चिंता हो रही है। मम्मी पापा कुछ कहते हैं, अंकलजी, आंटीजी कुछ और, मीनू कहती कुछ और मेरे साथ व्याहवार कुछ और। पता नहीं सबके अंतर में क्या है, सत्य क्या है?
आज के बारे में लिखने की शक्ति नहीं। माता बाप बेटी को डांटो ना। बेटी घुमा फिराके मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करती है, बाप ऐसा लिलया करता है कि मैं प्रेम और चिंता में और डब जाता हूं।
February 11, 2025
कल मम्मी, बड़े मामा मामी को मूवी दिखाने ले गई थी। मामा जादा देर प्रतीक्षा नहीं करना चाहते थे तो जो अगला शो "सनम तेरी प्रशंसा" का था लिया। मूवी की कहानी तो मेरे प्रेम, प्रश्न और चिंता को और भी बढ़ा दिया। बहुत कोशिश की आसुओ को रोकने की, पर रोक ना पाया, और माँ ने भी देख लिया। पता नहीं प्रभु क्या लीला कर रहे हैं। पता नहीं क्यों सब सोचते हुए खेल कूद, सोशल इवेंट्स, टीवी, मूवी से मैं शांत हो जाऊंगा, सब कुछ तो मीनू की याद फैलाते हैं, और देखे हुए सपनों को ताजा कर देते हैं। बस श्रीमद्भागवतमहापुराण के कुछ सुंदर प्रसंग ही कुछ शांति देते हैं, पर वो भी कुछ देर तक ही।
हे प्रभु, संभल लो इसे पहले ये जीवन भर का पछतावा बन जाए।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के अथ षोडशोऽध्यायः “चित्रकेतुका वैराग्य तथा संकर्षणदेवके दर्शन” में देवर्षि नारदने यों उपदेश किया—
मनसहित वाणी आपतक न पहुँचकर बीचसे ही लौट आती है। उसके उपरत हो जानेपर जो अद्वितीय, नाम-रूपरहित, चेतनमात्र और कार्य-कारणसे परेकी वस्तु रह जाती है—वह हमारी रक्षा करे ।।
यद्यपि आप आकाशके समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त हैं, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्तिसे नहीं जान सकतीं और प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ अपनी क्रियारूप शक्तिसे स्पर्श भी नहीं कर सकतीं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।
जिसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं, वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि अवस्थाओंमें आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तवमें आपसे पृथक् उनका कोई अस्तित्व नहीं है ।।२४।। ॐकारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुषको नमस्कार है। श्रेष्ठ भक्तोंका समुदाय अपने करकमलोंकी कलियोंसे आपके युगल चरणकमलोंकी सेवामें संलग्न रहता है। प्रभो! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ’ ।।
February 12, 2025
हे राम!
कुछ समझ नहीं आ रहा । सोचा था आज सुबह जल्दी उठ कर नहा लूँगा।
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
परंतु अजीब से सपने आए, कुछ समझ नहीं आया, और मन सपने में भी व्याकुल था और दिन भर व्याकुल रहा। बार बार यही प्रश्न घूम रहा था मीनू क्यू ने मेरे साथ क्यू ऐसा व्यवहार किया!
रक्षा करो प्रभु
हे भोले बाबा बचपन में मीनू के साथ तुम्हारी आरती करता था, जीवन भर हम एक साथ आरती करते रहे। कृपा करो
February 13, 2025
आज सपने में मीनू और अंकलजी को समझने की कोशिश है कि वो गलत सोचते हैं कि दूरी और समय के साथ मैं भूल जाऊंगा या मेरी भावनाएं बदल जाएंगी। इसे से तो बस मेरी चिंता ही बढ़ती रहती है और मैं अंदर ही अंदर तड़पता रहता हूं।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराण के षष्ठः स्कन्धः अथैकोनविंशोऽध्यायः “पुंसवन-व्रतकी विधि” में प्रभु के इस पवित्र व्रत के बारे में पढ़ा जो पत्नी पति के साथ करती है। मीनू के साथ बिना संभव नहीं।
प्रातःकाल कुछ भी खानेसे पहले ही भगवान् लक्ष्मी-नारायणकी पूजा करे ।।३।। इस प्रकार प्रार्थना करे— ‘प्रभो! आप पूर्णकाम हैं। अतएव आपको किसीसे भी कुछ लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियोंके स्वामी और सकल-सिद्धिस्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ।।४।। मेरे आराध्यदेव! आप कृपा, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आदि समस्त गुणोंसे नित्ययुक्त हैं। इन्हीं भगों—ऐश्वर्योंसे नित्ययुक्त रहनेके कारण आपको भगवान् कहते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं ।।५।। माता लक्ष्मीजी! आप भगवान्की अर्द्धांगिनी और महामाया-स्वरूपिणी हैं। भगवान्के सारे गुण आपमें निवास करते हैं। महाभाग्यवती जगन्माता! आप मुझपर प्रसन्न हों। मैं आपको नमस्कार करती हूँ’ ।।
इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचित्तसे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि ।’ ‘ओंकारस्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतियोंके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तमको और उनकी महाविभूतियोंको मैं नमस्कार करती हूँ और उन्हें पूजोपहारकी सामग्री समर्पण करती हूँ’
दस बार पूर्वोक्त मन्त्रका जप करे और फिर इस स्तोत्रका पाठ करे— ।।१०।।
‘हे लक्ष्मीनारायण! आप दोनों सर्वव्यापक और सम्पूर्ण चराचर जगत्के अन्तिम कारण हैं—आपका और कोई कारण नहीं है। भगवन्! माता लक्ष्मीजी आपकी मायाशक्ति हैं। ये ही स्वयं अव्यक्त प्रकृति भी हैं। इनका पार पाना अत्यन्त कठिन है ।।११।।
प्रभो! आप ही इन महामायाके अधीश्वर हैं और आप ही स्वयं परमपुरुष हैं। आप समस्त यज्ञ हैं और ये हैं यज्ञ-क्रिया। आप फलके भोक्ता हैं और ये हैं उसको उत्पन्न करनेवाली क्रिया ।।१२।।
माता लक्ष्मीजी तीनों गुणोंकी अभिव्यक्ति हैं और आप उन्हें व्यक्त करनेवाले और उनके भोक्ता हैं। आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं और लक्ष्मीजी शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण हैं। माता लक्ष्मीजी नाम एवं रूप हैं और आप नाम-रूप दोनोंके प्रकाशक तथा आधार हैं ।।१३।।
प्रभो! आपकी कीर्ति पवित्र है। आप दोनों ही त्रिलोकीके वरदानी परमेश्वर हैं। अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा-अभिलाषाएँ आपकी कृपासे पूर्ण हों’ ।।१४।।
।। हरिः ॐ तत्सत् ।।
February 14, 2025
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः ॥
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराणम् सप्तमः स्कन्धः अथ प्रथमोऽध्यायः “नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजयकी कथा” में प्रभु के अवतारों का करण, प्रभु लेलाये और प्रभु कैसे सबका कल्याण करते हैं, पढ़ कर आखें भर आएं और अति आनंद की अनुभूति हुई।
हे प्रभु, वो दिन कब आयेगा जब मैं मीनू के साथ, मीनू के मुख से ये सब श्रवण करूंगा?
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन्! भगवान् तो स्वभावसे ही भेदभावसे रहित हैं—सम हैं, समस्त प्राणियोंके प्रिय और सुहृद् हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभावसे अपने मित्रका पक्ष ले और शत्रुओंका अनिष्ट करे, उसी प्रकार इन्द्रके लिये दैत्योंका वध क्यों किया? ।।१।। वे स्वयं परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओंसे कुछ लेना-देना नहीं है। तथा निर्गुण होनेके कारण दैत्योंसे कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है ।।२।। भगवत्प्रेमके सौभाग्यसे सम्पन्न महात्मन्! हमारे चित्तमें भगवान्के समत्व आदि गुणोंके सम्बन्धमें बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये ।।३।।
श्रीशुकदेवजीने कहा—महाराज! भगवान्के अद्भुत चरित्रके सम्बन्धमें तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया; क्योंकि ऐसे प्रसंग प्रह्लाद आदि भक्तोंकी महिमासे परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवणसे भगवान्की भक्ति बढ़ती है ।।४।। इस परम पुण्यमय प्रसंगको नारदादि महात्मागण बड़े प्रेमसे गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण-द्वैपायन मुनिको नमस्कार करके भगवान्की लीला-कथाका वर्णन करता हूँ ।।५।। वास्तवमें भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृतिसे परे हैं। ऐसा होनेपर भी अपनी मायाके गुणोंको स्वीकार करके वे बाध्य-बाधकभावको अर्थात् मरने और मारनेवाले दोनोंके परस्पर-विरोधी रूपोंको ग्रहण करते हैं ।।६।।
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण—ये प्रकृतिके गुण हैं, परमात्माके नहीं। परीक्षित्! इन तीनों गुणोंकी भी एक साथ ही घटती-बढ़ती नहीं होती ।।७।। भगवान् समय-समयके अनुसार गुणोंको स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुणकी वृद्धिके समय देवता और ऋषियोंका, रजोगुणकी वृद्धिके समय दैत्योंका और तमोगुणकी वृद्धिके समय वे यक्ष एवं राक्षसोंको अपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं ।।८।। जैसे व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयोंमें रहनेपर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परन्तु मन्थन करनेपर वह प्रकट हो जाती है—वैसे ही परमात्मा सभी शरीरोंमें रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परन्तु विचारशील पुरुष हृदयमन्थन करके—उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओंका बाध करके अन्ततः अपने हृदयमें ही अन्तर्यामीरूपसे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं ।।९।। जब परमेश्वर अपने लिये शरीरोंका निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी मायासे रजोगुणकी अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियोंमें रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुणकी सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुणको बढ़ा देते हैं ।।१०।। परीक्षित्! भगवान् सत्यसंकल्प हैं। वे ही जगत्की उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रकृति और पुरुषके सहकारी एवं आश्रयकालकी सृष्टि करते हैं। इसलिये वे कालके अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है। राजन्! ये कालस्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुणकी वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओंका बल बढ़ाते हैं और तभी वे परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्योंका संहार करते हैं। वस्तुतः वे सम ही हैं ।।११।।
राजन्! इसी विषयमें देवर्षि नारदने बड़े प्रेमसे एक इतिहास कहा था। यह उस समयकी बात है, जब राजसूय यज्ञमें तुम्हारे दादा युधिष्ठिरने उनसे इस सम्बन्धमें एक प्रश्न किया था ।।१२।। उस महान् राजसूय यज्ञमें राजा युधिष्ठिरने अपनी आँखोंके सामने बड़ी आश्चर्य-जनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्णमें समा गया ।।१३।।
वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटनासे आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिरने बड़े-बड़े मुनियोंसे भरी हुई सभामें; उस यज्ञमण्डपमें ही देवर्षि नारदसे यह प्रश्न किया ।।१४।।
युधिष्ठिरने पूछा—अहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्णमें समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तोंके लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान्से द्वेष करनेवाले शिशुपालको यह गति कैसे मिली? ।।१५।। नारदजी! इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकालमें भगवान्की निन्दा करनेके कारण ऋषियोंने राजा वेनको नरकमें डाल दिया था ।।१६।। यह दमघोषका लड़का पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र—दोनों ही जबसे तुतलाकर बोलने लगे थे, तबसे अबतक भगवान्से द्वेष ही करते रहे हैं ।।१७।। अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्णको ये पानी पी-पीकर गाली देते रहे हैं। परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभमें कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरककी ही प्राप्ति हुई ।।१८।। प्रत्युत जिन भगवान्की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हींमें ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये—इसका क्या कारण है? ।।१९।। हवाके झोंकेसे लड़खड़ाती हुई दीपककी लौके समान मेरी बुद्धि इस विषयमें बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटनाका रहस्य समझाइये ।।२०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजाके ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिरको सम्बोधित करके भरी सभामें सबके सुनते हुए यह कथा कही ।।२१।।
नारदजीने कहा—युधिष्ठिर! निन्दा, स्तुति, सत्कार और तिरस्कार—इस शरीरके ही तो होते हैं। इस शरीरकी कल्पना प्रकृति और पुरुषका ठीक-ठीक विवेक न होनेके कारण ही हुई है ।।२२।। जब इस शरीरको ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभावका मूल है। इसीके कारण ताड़ना और दुर्वचनोंसे पीड़ा होती है ।।२३।।
जिस शरीरमें अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीरके वधसे प्राणियोंको अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान्में तो जीवोंके समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। वे जो दूसरोंको दण्ड देते हैं—वह भी उनके कल्याणके लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान्के सम्बन्धमें हिंसाकी कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है ।।२४।। इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभावसे या वैरहीन भक्तिभावसे, भयसे, स्नेहसे अथवा कामनासे—कैसे भी हो, भगवान्में अपना मन पूर्णरूपसे लगा देना चाहिये। भगवान्की दृष्टिसे इन भावोंमें कोई भेद नहीं है ।।२५।।
युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभावसे भगवान्में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोगसे नहीं होता ।।२६।। भृंगी कीड़ेको लाकर भीतपर अपने छिद्रमें बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेगसे भृंगीका चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है ।।२७।। यही बात भगवान् श्रीकृष्णके सम्बन्धमें भी है। लीलाके द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान् ही तो हैं। इनसे वैर करनेवाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हींको प्राप्त हो गये ।।२८।। एक नहीं, अनेकों मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान्में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान्को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे ।।२९।। महाराज! गोपियोंने भगवान्से मिलनके तीव्र काम अर्थात् प्रेमसे, कंसने भयसे, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओंने द्वेषसे, यदुवंशियोंने परिवारके सम्बन्धसे, तुमलोगोंने स्नेहसे और हमलोगोंने भक्तिसे अपने मनको भगवान्में लगाया है ।।३०।। भक्तोंके अतिरिक्त जो पाँच प्रकारके भगवान्का चिन्तन करनेवाले हैं, उनमेंसे राजा वेनकी तो किसीमें भी गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकारसे भगवान्में मन नहीं लगाया था)। सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान् श्रीकृष्णमें तन्मय कर देना चाहिये ।।३१।।
महाराज! फिर तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णुभगवान्के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणोंके शापसे इन दोनोंको अपने पदसे च्युत होना पड़ा था ।।३२।।
राजा युधिष्ठिरने पूछा—नारदजी! भगवान्के पार्षदोंको भी प्रभावित करनेवाला वह शाप किसने दिया था तथा वह कैसा था? भगवान्के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसारमें आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है ।।३३।। वैकुण्ठके रहनेवाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणोंसे रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीरसे सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये ।।३४।।
नारदजीने कहा—एक दिन ब्रह्माके मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकोंमें स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठमें जा पहुँचे ।।३५।।
यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परन्तु जान पड़ते हैं ऐसे मानो पाँच-छः बरसके बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालोंने उनको भीतर जानेसे रोक दिया ।।३६।। इसपर वे क्रोधित-से हो गये और उन्होंने द्वारपालोंको यह शाप दिया कि ‘मूर्खो! भगवान् विष्णुके चरण तो रजोगुण और तमोगुणसे रहित हैं। तुम दोनों इनके समीप निवास करनेयोग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँसे पापमयी असुरयोनिमें जाओ’ ।।३७।। उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठसे नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओंने कहा—‘अच्छा, तीन जन्मोंमें इस शापको भोगकर तुमलोग फिर इसी वैकुण्ठमें आ जाना’ ।।३८।।
युधिष्ठिर! वे ही दोनों दितिके पुत्र हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटेका हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवोंके समाजमें यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे ।।३९।। विष्णुभगवान्ने नृसिंहका रूप धारण करके हिरण्यकशिपुको और पृथ्वीका उद्धार करनेके समय वराहावतार ग्रहण करके हिरण्याक्षको मारा ।।४०।।
हिरण्यकशिपुने अपने पुत्र प्रह्लादको भगवत्प्रेमी होनेके कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं ।।४१।।
परन्तु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान्के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदयमें अटल शान्ति थी। भगवान्के प्रभावसे वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरहसे चेष्टा करनेपर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालनेमें समर्थ न हुआ ।।४२।।
युधिष्ठिर! वे ही दोनों विश्रवा मुनिके द्वारा केशिनी (कैकसी)-के गर्भसे राक्षसोंके रूपमें पैदा हुए। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातोंसे सब लोकोंमें आग-सी लग गयी थी ।।४३।। उस समय भी भगवान्ने उन्हें शापसे छुड़ानेके लिये रामरूपसे उनका वध किया। युधिष्ठिर! मार्कण्डेय मुनिके मुखसे तुम भगवान् श्रीरामका चरित्र सुनोगे ।।४४।।
वे ही दोनों जय-विजय इस जन्ममें तुम्हारी मौसीके लड़के शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके चक्रका स्पर्श प्राप्त हो जानेसे उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादिके शापसे मुक्त हो गये ।।४५।।
वैरभावके कारण निरन्तर ही वे भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयताके फलस्वरूप वे भगवान्को प्राप्त हो गये और पुनः उनके पार्षद होकर उन्हींके समीप चले गये ।।४६।।
अंकलजी किस आधार से कहते हैं कि मेरी भावनाएं बदल जाएंगी तो सब पहले जैसा हो जाएगा। कैसे सब पहले जैसे एक घर में साथ रहेंगे? कैसे मीनू के साथ प्रतिदिन आरती कर पाऊंगा? कैसे साथ तीर्थ, घुमने, फिल्म जायेंगे? कैसे पहले की तरह मीनू के साथ बैडमिंटन आदी, खेल पाऊंगा?
सब मेरी भावनाओं को समझे बिना बस निराधार बातें करते हैं।
February 15, 2025
ॐ श्री परमात्मने नमः
आज श्रीमद्भागवतमहापुराणम् सप्तमः स्कन्धः अथ चतुर्थोऽध्यायः “हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन” में
नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपुके बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणोंमें सबसे बड़े थे। वे बड़े संतसेवी थे ।।३०।। ब्राह्मणभक्त, सौम्यस्वभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियोंके साथ अपने ही समान समताका बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे ।।३१।। बड़े लोगोंके चरणोंमें सेवककी तरह झुककर रहते थे। गरीबोंपर पिताके समान स्नेह रखते थे। बराबरीवालोंसे भाईके समान प्रेम करते और गुरुजनोंमें भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनतासे सम्पन्न होनेपर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छूतक नहीं गयी थी ।।३२।। बड़े-बड़े दुःखोंमें भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोकके विषयोंको उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मनमें किसी भी वस्तुकी लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वशमें थे। उनके चित्तमें कभी किसी प्रकारकी कामना नहीं उठती थी। जन्मसे असुर होनेपर भी उनमें आसुरी सम्पत्तिका लेश भी नहीं था ।।३३।। जैसे भगवान्के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लादके श्रेष्ठ गुणोंकी भी कोई सीमा नहीं है। महात्मालोग सदासे उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं ।।३४।। युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तोंका चरित्र सुननेके लिये जब उन लोगोंकी सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तोंको प्रह्लादके समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है ।।
उनकी महिमाका वर्णन करनेके लिये अगणित गुणोंके कहने-सुननेकी आवश्यकता नहीं। केवल एक ही गुण—भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमाको प्रकट करनेके लिये पर्याप्त है ।।३६।।
युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपनमें ही खेल-कूद छोड़कर भगवान्के ध्यानमें जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्णके अनुग्रहरूप ग्रहने उनके हृदयको इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत्की कुछ सुध-बुध ही न रहती ।।३७।। उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोदमें लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातोंका ध्यान बिलकुल न रहता ।।३८।। कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावनामें उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोरसे रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेकसे ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यानके मधुर आनन्दका अनुभव करके जोरसे गाने लगते ।।३९।। वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जाका त्याग करके प्रेममें छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीलाके चिन्तनमें इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हींका अनुकरण करने लगते ।।४०।। कभी भीतर-ही-भीतर भगवान्का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्दमें मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे भरे रहते ।।४१।। भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओंके संगसे ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्दमें मग्न रहते ही थे; जिन बेचारोंका मन कुसंगके कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे ।।४२।। युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान्के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटिके महात्मा थे।
अथ पञ्चमोऽध्यायः “हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रह्लादजीके वधका प्रयत्न” में
प्रह्लादजीने कहा— जैसे चुम्बकके पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणिभगवान्की स्वच्छन्द इच्छाशक्तिसे मेरा चित्त भी संसारसे अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है
प्रह्लादजीने कहा—पिताजी! विष्णुभगवान्की भक्तिके नौ भेद हैं—भगवान्के गुण-लीला-नाम आदिका श्रवण, उन्हींका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान्के प्रति समर्पणके भावसे यह नौ प्रकारकी भक्ति की जाय, तो मैं उसीको उत्तम अध्ययन समझता हूँ ।।२३-२४।।
अथ षष्ठौऽध्यायः “प्रह्लादजीका असुर-बालकोंको उपदेश” में
प्रह्लादजीने कहा— समस्त प्राणियोंपर दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं ।।२४।।
आदिनारायण अनन्तभगवान्के प्रसन्न हो जानेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोकके लिये जिन धर्म, अर्थ आदिकी आवश्यकता बतलायी जाती है—वे तो गुणोंके परिणामसे बिना प्रयासके स्वयं ही मिलनेवाले हैं। जब हम श्रीभगवान्के चरणामृतका सेवन करने और उनके नाम-गुणोंका कीर्तन करनेमें लगे हैं, तब हमें मोक्षकी भी क्या आवश्यकता है ।।२५।। यों शास्त्रोंमें धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों पुरुषार्थोंका भी वर्णन है। आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविकाके विविध साधन—ये सभी वेदोंके प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरिको आत्मसमर्पण करनेमें सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ।।२६।। यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगोंको बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायणने नारदजीको उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगोंको प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान्के अनन्यप्रेमी एवं अकिंचन भक्तोंके चरणकमलोंकी धूलिसे अपने शरीरको नहला लिया है ।।२७।। यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है। इसे मैंने भगवान्का दर्शन करानेवाले देवर्षि नारदजीके मुँहसे ही पहले-पहल सुना था ।।
आज प्रह्लाद जी के गुणोंका वर्णन पढ़ कर आनंद की अनुभूति हुई। प्रभु हम बच्चों की रक्षा करो। प्रभु मेरी सखी के साथ मुझे भी अपनी गोद में लेकर आलिंगन करो। क्षमा कर सब दोष हमारे हम सबको अपनी भक्ति प्रदान करो।
प्रभु जय जय द्वारिका नाथ। प्रभु जय जय द्वारिका नाथ। प्रभु जय जय द्वारिका नाथ
February 16, 2025 -
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती । प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ।।
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ।।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ।।
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।।
अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ।।
आज श्रीमद्भागवतमहापुराणम् सप्तमः स्कन्धः अथ सप्तमोऽध्यायः “प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भमें प्राप्त हुए नारदजीके उपदेशका वर्णन” में
यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मोंकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियोंका प्रवाह बंद कर देनेके लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपायसे और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान्में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाय, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान्ने कही है ।।२९।। गुरुकी प्रेमपूर्वक सेवा, अपनेको जो कुछ मिले वह सब प्रेमसे भगवान्को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओंका सत्संग, भगवान्की आराधना, उनकी कथावार्तामें श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओंका कीर्तन, उनके चरणकमलोंका ध्यान और उनके मन्दिरमूर्ति आदिका दर्शन-पूजन आदि साधनोंसे भगवान्में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ।।३०-३१।।
जब भगवान्के लीलाशरीरोंसे किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रोंको श्रवण करके अत्यन्त आनन्दके उद्रेकसे मनुष्यका रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओंके मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोरसे गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागलकी तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भावसे लोगोंकी वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान्में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और संकोच छोड़कर ‘हरे! जगत्पते!! नारायण’!!! कहकर पुकारने लगता है—तब भक्तियोगके महान् प्रभावसे उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भावकी ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार—भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्युके बीजोंका खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान्को प्राप्त कर लेता है ।।३४-३६।।
अपने हृदयमें ही आकाशके समान नित्य विराजमान भगवान्का भजन करनेमें कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समानरूपसे समस्त प्रणियोंके अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उनको छोड़कर भोगसामग्री इकट्ठी करनेके लिये भटकना—राम! राम! कितनी मूर्खता है ।।३८।।
अरे भाई! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँतिकी विभूतियाँ—और तो क्या, संसारका समस्त धन तथा भोगसामग्रियाँ इस क्षणभंगुर मनुष्यको क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं ।।३९।। जैसे इस लोककी सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञोंसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक—एक-दूसरेसे छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा। न किसीने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्माकी प्राप्तिके लिये अनन्य भक्तिसे उन्हीं परमेश्वरका भजन करना चाहिये ।।
भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानोंसे सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतोंका अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्तिसे ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं ।।५१-५२।।
इस संसारमें या मनुष्य-शरीरमें जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्यभक्ति प्राप्त करे। उस भक्तिका स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओंमें भगवान्का दर्शन ।।५५।।
तत्पश्चात अथाष्टमोऽध्यायः “नृसिंहभगवान्का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध एवं ब्रह्मादि देवताओंद्वारा भगवान्की स्तुति” में नृसिंहभगवान् का प्रादुर्भाव पढ़ और माँ को सुना कर रोम-रोम खिल उठ। प्रभु कृपा करो, मेरी सखी शिवानी के मुख से तुहारी लीला हमारा पूरा परिवार और संबंध सुने।
जब प्रह्लादजी के पिता ने पूछा— “मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूतेपर निडरकी तरह मेरी आज्ञाके विरुद्ध काम किया है?’।।७।।
प्रह्लादजीने कहा— दैत्यराज! ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवोंको भगवान्ने ही अपने वशमें कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसारके समस्त बलवानोंके बल भी केवल वही हैं ।।८।। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियोंके इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोंके द्वारा इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणोंके स्वामी हैं ।।९।। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मनको सबके प्रति समान बनाइये। इस संसारमें अपने वशमें न रहनेवाले कुमार्गगामी मनके अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मनमें सबके प्रति समताका भाव लाना ही भगवान्की सबसे बड़ी पूजा है ।।१०।। जो लोग अपना सर्वस्व लूटनेवाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओंपर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियोंके प्रति समताका भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञानसे पैदा होनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहरके शत्रु तो रहें ही कैसे ।।११।।
हिरण्यकशिपुने कहा—रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकनेकी भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैरकी बातें बका करते हैं ।।१२।। अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसीको जगत्का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता? ।।१३ ।। अच्छा, तुझे इस खंभेमें भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिसपर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है ।।१४।। इस प्रकार वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान्के परम प्रेमी प्रह्लादको बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोधके मारे वह अपनेको रोक न सका, तब हाथमें खड्ग लेकर सिंहासनसे कूद पड़ा और बड़े जोरसे उस खंभेको एक घूँसा मारा ।।१५ ।। उसी समय उस खंभेमें एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालोंके लोकमें पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादिको ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकोंका प्रलय हो रहा हो ।।१६।। हिरण्यकशिपु प्रह्लादको मार डालनेके लिये बड़े जोरसे झपटा था; परन्तु दैत्यसेनापतियोंको भी भयसे कँपा देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्दको सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करनेवाला कौन है? परन्तु उसे सभाके भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा ।।१७।।
इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थोंमें अपनी व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खंभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंहका ही था और न मनुष्यका ही ।।१८।।
जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करनेवालोकी इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभेके भीतरसे निकलते हुए उस अद्भुत प्राणीको उसने देखा। वह सोचने लगा—अहो, यह न तो मनुष्य और न पशु; फिर यह नृसिंहके रूपमें कौन-सा अलौकिक जीव है! ।।१९।। जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुनमें लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोनेके समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेनेसे गरदनके बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ।।२०।। दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवारकी तरह लपलपाती हुई छूरेकी धारके समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहोंसे उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपरकी ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़की गुफाके समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ोंसे उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी ।।२१।। विशाल शरीर स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी । छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमाकी किरणोंके समान सफेद रोएँ सारे शरीरपर चमक थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुधका काम देते थे ।।२२।। उनके पास फटकनेतकका साहस किसीको न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा—हो-न-हो महामायादेवी विष्णुने ही मुझे मार डालनेके लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालोंसे हो ही क्या सकता है ।।२३।। इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमें गदा लेकर नृसिंहभगवान्पर टूट पड़ा। परन्तु जैसे पतिंगा आगमें गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान्के तेजके भीतर जाकर लापता हो गया ।।२४।।
समस्त शक्ति और तेजके आश्रय भगवान्के सम्बन्धमें ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है; क्योंकि सृष्टिके प्रारम्भमें उन्होंने अपने तेजसे प्रलयके निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकारको भी पी लिया था। तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोधसे लपका और अपनी गदाको बड़े जोरसे घुमाकर उसने नृसिंहभगवान्पर प्रहार किया ।।२५।। प्रहार करते समय ही—जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्ने गदासहित उस दैत्यको पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथसे वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीडा करते हुए गरुड़के चंगुलसे साँप छूट जाय ।।२६।। युधिष्ठिर! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलोंमें छिपकर इस युद्धको देख रहे थे । उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपुने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान्के हाथसे छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपुने भी यही समझा कि नृसिंहने मेरे बलवीर्यसे डरकर ही मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया है। इस विचारसे उसकी थकान जाती रही और वह युद्धके लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ।।२७।। उस समय वह बाजकी तरह बड़े वेगसे ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवारके पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उसपर आक्रमण करनेका अवसर ही न मिले। तब भगवान्ने बड़े ऊँचे स्वरसे प्रचण्ड और भयंकर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपुकी आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेगसे झपटकर भगवान्ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहेको पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपुके चमड़ेपर वज्रकी चोटसे भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये जोरसे छटपटा रहा था। भगवान्ने सभाके दरवाजेपर ले जाकर उसे अपनी जाँघोंपर गिरा लिया और खेल-खेलमें अपने नखोंसे उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं ।।२८-२९।।
उस समय उनकी क्रोधसे भरी विकराल आँखोंकी ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभसे फैले हुए मुँहके दोनों कोने चाट रहे थे। खूनके छींटोंसे उनका मुँह और गरदनके बाल लाल हो थे। हाथीको मारकर गलेमें आँतोंकी माला पहने हुए मृगराजके समान उनकी शोभा हो रही थी ।।३०।। उन्होंने अपने तीखे नखोंसे हिरण्यकशिपुका कलेजा फाड़कर उसे जमीनपर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर भगवान्पर प्रहार करनेके लिये आये। पर भगवान्ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातोंसे और नखरूपी शस्त्रोंसे चारों ओर खदेड़-खदेड़कर उन्हें मार डाला ।।३१।।
युधिष्ठिर! उस समय भगवान् नृसिंहके गरदनके बालोंकी फटकारसे बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रोंकी ज्वालासे सूर्य आदि ग्रहोंका तेज फीका पड़ गया। उनके श्वासके धक्केसे समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनादसे भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाड़ने लगे ।।३२।। उनके गरदनके बालोंसे टकराकर देवताओंके विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरोंकी धमकसे भूकम्प आ गया, वेगसे पर्वत उड़ने लगे और उनके तेजकी चकाचौंधसे आकाश तथा दिशाओंका दीखना बंद हो गया ।।३३।। इस समय नृसिंहभगवान्का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपुकी राजसभामें ऊँचे सिंहासनपर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयंकर चेहरेको देखकर किसीका भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे ।।३४ ।।
युधिष्ठिर! जब स्वर्गकी देवियोंको यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकोंके सिरकी पीड़ाका मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्धमें भगवान्के हाथों मार डाला गया, तब आनन्दके उल्लाससे उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ।।३५।।
आकाशमें विमानोंसे आये हुए भगवान्के दर्शनार्थी देवताओंकी भीड़ लग गयी। देवताओंके ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं ।।३६।। तात! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान्के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगोंने सिरपर अंजलि बाँधकर सिंहासनपर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान्की थोड़ी दूरसे अलग-अलग स्तुति की ।।३७-३९।।
ब्रह्माजीने कहा—प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्तिका कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणोंके द्वारा आप लीलासे ही सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंगसे करते हैं—फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।४०।।
श्रीरुद्रने कहा—आपके क्रोध करनेका समय तो कल्पके अन्तमें होता है। यदि इस तुच्छ दैत्यको मारनेके लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरणमें आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्तकी रक्षा कीजिये ।।४१।।
इन्द्रने कहा—पुरुषोत्तम! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तवमें आप (अन्तर्यामी)-के ही हैं। दैत्योंके आतंकसे संकुचित हमारे हृदयकमलको आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादिका राज्य हमलोगोंको पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब कालका ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या? स्वामिन्! जिन्हें आपकी सेवाकी चाह है, वे मुक्तिका भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगोंकी तो उन्हें आवश्यकता ही क्या ।।४२।।
ऋषियोंने कहा— पुरुषोत्तम! आपने तपस्याके द्वारा ही अपनेमें लीन हुए जगत्की फिरसे रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजः स्वरूप श्रेष्ठ तपस्याका उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्यने उसी तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल! उस तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे लिये फिरसे उसी उपदेशका अनुमोदन किया है ।।४३।।
पितरोंने कहा—प्रभो! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थमें या संक्रान्ति आदिके अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखोंसे उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मोंके एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव! हम आपको नमस्कार करते हैं ।।४४।
सिद्धोंने कहा—नृसिंहदेव! इस दुष्टने अपने योग और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी। अपने नखोंसे आपने उस घमंडीको फाड़ डाला है। हम आपके चरणोंमें विनीतभावसे नमस्कार करते हैं ।।४५।।
विद्याधरोंने कहा—यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरताके घमंडमें चूर था। यहाँतक कि हम लोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ।।४६।।
नागोंने कहा—इस पापीने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियोंको भी छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियोंको बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं ।।४७।।
मनुओंने कहा—देवाधिदेव! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्यने हमलोगोंकी धर्ममर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें? ।।४८।।
प्रजापतियोंने कहा—परमेश्वर! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देनेसे हम प्रजाकी सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीनपर सर्वदाके लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो! आपका यह अवतार संसारके कल्याणके लिये है ।।४९।।
गन्धर्वोंने कहा—प्रभो! हम आपके नाचनेवाले, अभिनय करनेवाले और संगीत सुनानेवाले सेवक हैं। इस दैत्यने अपने बल, वीर्य और पराक्रमसे हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशाको पहुँचा दिया। सच है, कुमार्गसे चलनेवालेका भी क्या कभी कल्याण हो सकता है? ।।५०।।
चारणोंने कहा—प्रभो! आपने सज्जनोंके हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्रसे छुटकारा मिल जाता है ।।५१।
यक्षोंने कहा—भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मोंके कारण हमलोग आपके सेवकोंमें प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपुने हमें अपनी पालकी ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृतिके नियामक परमात्मा। इसके कारण होनेवाले अपने निजजनोंके कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है ।।५२।।
किम्पुरुषोंने कहा—हमलोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषोंने इसका तिरस्कार किया—इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष— असुराधमको नष्ट कर दिया ।।५३।।
वैतालिकोंने कहा—भगवन्! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञोंमें आपके निर्मल यशका गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्टने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्यकी बात है कि महारोगके समान इस दुष्टको आपने जड़मूलसे उखाड़ दिया ।।५४।।
किन्नरोंने कहा—हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगारमें ही काम लेता था । भगवन्! आपने कृपा करके आज इस पापीको नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें ।।५५।।
भगवान्के पार्षदोंने कहा—शरणागतवत्सल! सम्पूर्ण लोकोंको शान्ति प्रदान करनेवाला आपका यह अलौकिक नृसिंहरूप हमने आज ही देखा है। भगवन्। यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादिने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धारके लिये ही इसका वध किया है ।।५६।।
अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई, फिर भी प्रभु अपने अंतर की बात तुम से ना काहू तो किस्से काहू। मेरी भावनाएं किसी के समझ में नहीं आतीं। सोचा था काम से काम मीनू मेरी भावनाए समझेगी, पर। सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता । गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता ।।
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई । जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ।।
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा । अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ।।
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ।।
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा । सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ।।
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा । मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा ।।
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना । जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ।।
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा । मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ।।
दो०—जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह । गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ।। १८६ ।।
February 16, 2025 - संध्या
अथ नवमोऽध्यायः प्रह्लादजीके द्वारा “नृसिंहभगवान्की स्तुति” में
नारदजी कहते हैं— ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’ ।।३।। भगवान्के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरेसे भगवान्के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टांग लोट गये ।।४।। नृसिंहभगवान्ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है ।।५।।
भगवान्के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मग्न होकर भगवान्के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दाश्रु झरने लगे ।।६।। प्रह्लादजी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनोंसे भगवान्को देख रहे थे। भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान्के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणीसे स्तुति की ।।७।।
प्रह्लादजीने कहा—ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर-जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं? ।।८।। मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग—ये सभी गुण परमपुरुष भगवान्को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैं—परन्तु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ।।९।।
मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता ।।१० ।। सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुखका सौन्दर्य दर्पणमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान्के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है ।।११।। इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होनेपर भी मैं बिना किसी शंकाके अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान्की महिमाका वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमाके गानका ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्रमें पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ।।१२।।
मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं? ।।१६।।
अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ ।।१७।। प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं। अहेतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य हैं।
दूसरे संसारी जीवोंके समान आपमें छोटे-बड़ेका भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्पवृक्षके समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजनसे ही प्राप्त होता है। सेवाके अनुसार ही जीवोंपर आपकी कृपाका उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है ।।२७ ।।
भगवन्! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदिमें आप ही कारणरूपसे थे, अन्तमें आप ही अवधिके रूपमें रहेंगे और बीचमें इसकी प्रतीतिके रूपमें भी केवल आप ही हैं। आप अपनी मायासे गुणोंके परिणाम-स्वरूप इस जगत्की सृष्टि करके इसमें पहलेसे विद्यमान रहनेपर भी प्रवेशकी लीला करते हैं और उन गुणोंसे युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हैं ।।३० ।। भगवन्! यह जो कुछ कार्य-कारणके रूपमें प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं।
आप इस मूढ़ जीव-जातिकी यह दुर्दशा देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये। इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन्! इन प्राणियोंको भी अब पार लगा दीजिये ।।४१।। जगद्गुरो! आप इस सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्थामें इन जीवोंको इस भव-नदीके पार उतार देनेमें आपको क्या प्रयास है? दीनजनोंके परमहितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषोंके विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनोंकी सेवामें लगे रहते हैं, इसलिये पार जानेकी हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती ।।४२।। परमात्मन्! इस भव-वैतरणीसे पार उतरना दूसरे लोगोंके लिये अवश्य ही कठिन है, परन्तु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणीमें नहीं, आपकी उन लीलाओंके गानमें मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृतको भी तिरस्कृत करनेवाली—परमामृतस्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियोंके लिये शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगानसे विमुख रहकर इन्द्रियोंके विषयोंका मायामय झूठा सुख प्राप्त करनेके लिये अपने सिरपर सारे संसारका भार ढोते रहते हैं ।।४३।। मेरे स्वामी! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दुसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता। और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता ।।४४।।
वेदोंने बीज और अंकुरके समान आपके दो रूप बताये हैं—कार्य और कारण। वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपोंको छोड़कर आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठ-मन्थनके द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तवमें ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ।।४७।। अनन्त प्रभो! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण—सब कुछ केवल आप ही हैं। और तो क्या, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है ।।४८।। समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन्! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जाननेमें समर्थ नहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं।
परम पूज्य! आपकी सेवाके छः अंग हैं—नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मोंका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोंका चिन्तन और लीला-कथाका श्रवण। इस षडंगसेवाके बिना आपके चरणकमलोंकी भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्तिके बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसोंके ही सर्वस्व हैं ।।५०।।
नारदजी कहते हैं—इस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित भगवान्के स्वरूपभूत गुणोंका वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान्के चरणोंमें सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान्का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नतासे बोले ।।५१।।
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा—परम कल्याण-स्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ! मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ ।।५२।। आयुष्मन्! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणीके हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती ।।५३।।
मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं ।।५४।।
असुरकुलभूषण प्रह्लादजी भगवान्के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगोंको प्रलोभनमें डालनेवाले वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की ।।५५।।
हे प्रभु, कैसे बस अपने कल्याण का सोंचू। मीनू, हमरे माता पिता सबको अपनी भक्ति प्रदान करो। सब प्राणियो का कल्याण करो।
अथ दशमोऽध्यायः “प्रह्लादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा” में
नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेम- भक्तिका विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान्से बोले ।।१।।
प्रह्लादजीने कहा—प्रभो! मैं जन्मसे ही विषय-भोगोंमें आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरोंके द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगोंके संगसे डरकर, उनके द्वारा होनेवाली तीव्र वेदनाका अनुभव कर उनसे छूटनेकी अभिलाषासे ही आपकी शरणमें आया हूँ ।।२।। भगवन्! मुझमें भक्तके लक्षण हैं या नहीं—यह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान माँगनेकी ओर प्रेरित किया है। ये विषय- भोग हृदयकी गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले हैं ।।३।। जगद्गुरो! परीक्षाके सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगोंमें फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है? वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ।।४ ।। जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ।।५।। मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं ।।६।। मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमें कभी किसी कामनाका बीज अंकुरित ही न हो ।।७।।
हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य—ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं ।।८।। कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ।।९।। भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदयमें विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणोंमें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ।।१०।।
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा—प्रह्लाद! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नताके लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियोंके समस्त भोग स्वीकार कर लो ।।११।। समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके भोक्ता ईश्वरके रूपमें मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदयमें मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मोंके द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका क्षय कर देना ।।१२।। भोगके द्वारा पुण्यकर्मोंके फल और निष्काम पुण्यकर्मोंके द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे ।।१३।। तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जायगा ।।१४।।
नारदजी कहते हैं— इस प्रकार भगवान्के वे दोनों पार्षद जय और विजय दितिके पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान्से वैरभाव रखते थे। उनके हृदयमें रहनेवाले भगवान्ने उनका उद्धार करनेके लिये उन्हें मार डाला ।।३५।।
ऋषियोंके शापके कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिरसे कुम्भकर्ण और रावणके रूपमें राक्षस हुए। उस समय भगवान् श्रीरामके पराक्रमसे उनका अन्त हुआ ।।३६।। युद्धमें भगवान् रामके बाणोंसे उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्मकी भाँति भगवान्का स्मरण करते-करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े ।।३७।। वे ही अब इस युगमें शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें पैदा हुए थे। भगवान्के प्रति वैरभाव होनेके कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये ।।३८।। युधिष्ठिर! श्रीकृष्णसे शत्रुता रखनेवाला सभी राजा अन्तसमयमें श्रीकृष्णके स्मरणसे तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापोंसे सदाके लिये मुक्त हो गये। जैसे भृंगीके द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भयसे ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है ।।३९।। जिस प्रकार भगवान्के प्यारे भक्त अपनी भेद-भावरहित अनन्य भक्तिके द्वारा भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान्के वैरभावजनित अनन्य चिन्तनसे भगवान्के सारूप्यको प्राप्त हो गये ।।४०।।
युधिष्ठिर! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ।।४८।। बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ।।४९।। शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके, फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।।५०।।
राजा युधिष्ठिरने पूछा—नारदजी! मयदानव किस कार्यमें जगदीश्वर रुद्रदेवका यश नष्ट करना चाहता था और भगवान् श्रीकृष्णने किस प्रकार उनके यशकी रक्षा की? आप कृपा करके बतलाइये ।।५२।।
नारदजीने कहा—एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे शक्ति प्राप्त करके देवताओंने युद्धमें असुरोंको जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियोंके परमगुरु मयदानवकी शरणमें गये ।।५३।।
शक्तिशाली मयासुरने सोने, चाँदी और लोहेके तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं ।।५४।। युधिष्ठिर! दैत्यसेनापतियोंके मनमें तीनों लोक और लोकपतियोंके प्रति वैरभाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानोंके द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे ।।५५।। तब लोकपालोंके साथ सारी प्रजा भगवान् शंकरकी शरणमें गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! त्रिपुरमें रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अतः देवाधिदेव! आप हमारी रक्षा कीजिये’ ।।५६ ।
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरने कृपापूर्ण शब्दोंमें कहा—‘डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर तीनों पुरोंपर छोड़ दिया ।।५७।।
उनके उस बाणसे सूर्यमण्डलसे निकलनेवाली किरणोंके समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमेंसे मानो आगकी लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरोंका दीखना बंद हो गया ।।५८।।
उनके स्पर्शसे सभी विमानवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन दैत्योंको उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृतके कुएँमें डाल दिया ।।५९।।
उस सिद्ध अमृत-रसका स्पर्श होते ही असुरोंका शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्रके समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलोंको विदीर्ण करनेवाली बिजलीकी आगकी तरह उठ खड़े हुए ।।६०।।
इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि महादेवजी तो अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये इन्होंने एक युक्ति की ।।६१।।
यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्नके समय उन तीनों पुरोंमें गये और उस सिद्धरसके कुएँका सारा अमृत पी गये ।।६२।।
यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनोंको देख रहे थे, फिर भी भगवान्की मायासे वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जाननेवालोंमें श्रेष्ठ मयासुरको यह बात मालूम हुई, तब भगवान्की इस लीलाका स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत-रक्षकोंसे उसने कहा—‘भाई! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनोंके लिये जो प्रारब्धका विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है?’ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने अपनी शक्तियोंके द्वारा भगवान् शंकरके युद्धकी सामग्री तैयार की ।।६३-६५।।
उन्होंने धर्मसे रथ, ज्ञानसे सारथि, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया ।।६६।। इन सामग्रियोंसे सज-धजकर भगवान् शंकर रथपर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शंकरने अभिजित् मुहूर्तमें धनुषपर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानोंको भस्म कर दिया। युधिष्ठिर! उसी समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैकड़ों विमानोंकी भीड़ लग गयी ।।६७-६८।। देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्दसे जय-जयकार करते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं ।।६९।। युधिष्ठिर! इस प्रकार उन तीनों पुरोंको जलाकर भगवान् शंकरने ‘पुरारि’की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकोंकी स्तुति सुनते हुए अपने धामको चले गये ।।७०।। आत्मस्वरूप जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी मायासे जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओंका गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ? ।।७१।।
कितने पर्व निकल गए, कुछ ही दिनों में विजया एकादशी, शिवरात्रि, होली आने वाली है। प्रभु ऐसी कृपा करो कि मेरी सखी शिवानी के साथ पूजन करु और कर्ता रहूँ । चिंता और प्रश्नो की ज्वाला शांत नहीं हो रही, सत्ये क्या है?
जय पुरारि, हर हर माहादेव
ॐ मृत्युंजय महादेव त्राहिमां शरणागतम जन्म मृत्यु जरा व्याधि पीड़ितं कर्म बंधनः॥
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ॥
February 17, 2025
आज सपने में मीनू घर के प्रवेश वाले कमरे में मिली। मैंने पूछा कि मेरा पत्र सही से पूरा पढ़ा तो कुछ हिच किचा के हा कहा। दुबारा पूछने पे कहा फिर से पढ़ेगी। पत्र है या फिर से भेजो तो कहा मुझे व्हाट्सएप कर दो और तीन नंबर दे के चली गई। फिर अगले सपने में किसी फैक्ट्री में सुरक्षा रोबोट, कर्मचारी रोबोट पर प्रहार कर रहे थे और छोटा सा रोबोट किसी तरह वेंटिलेशन पाइप से भाग लेने का प्रयास कर रहा था। उसके बुरे घर के सामने पार्क में कुछ ड्रोन उड़ रहे थे। ऑनलाइन समाचारों में देख ही रहा था कि क्या हो रहा है, डर से नींद खुल गई।
हे प्रभु, रक्षा करो, जीवन दुस्वप बन कर न रह जाये!
अथैकादशोऽध्यायः मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
नारदजीने कहा—युधिष्ठिर! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मोंके मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत्के कल्याणके लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्तिके द्वारा अपने अंशसे अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रममें तपस्या कर रहे हैं। उन नारायणभगवान्को नमस्कार करके उन्हींके मुखसे सुने हुए सनातनधर्मका मैं वर्णन करता हूँ ।।५-६।। युधिष्ठिर! सर्ववेदस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जाननेवाले महर्षियोंकी स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसादकी उपलब्धि हो, वह कर्म धर्मके मूल हैं ।।७।।
युधिष्ठिर! धर्मके ये तीस लक्षण शास्त्रोंमें कहे गये हैं—सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचितका विचार, मनका संयम, इन्द्रियोंका संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओंकी सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगोंकी चेष्टासे निवृत्ति, मनुष्यके अभिमानपूर्ण प्रयत्नोंका फल उलटा ही होता है—ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियोंको अन्न आदिका यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्योंमें अपने आत्मा तथा इष्टदेवका भाव, संतोंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्णके नाम-गुण-लीला आदिका श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण—यह तीस प्रकारका आचरण सभी मनुष्योंका परम धर्म है। इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं ।।८-१२।।
धर्मराज! जिनके वंशमें अखण्डरूपसे संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजीने संस्कारके योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्मसे शुद्ध द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमोंके विशेष कर्मोंका विधान है ।।१३।।
अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना—ये छः कर्म ब्राह्मणके हैं। क्षत्रियको दान नहीं लेना चाहिये। प्रजाकी रक्षा करनेवाले क्षत्रियका जीवन-निर्वाह ब्राह्मणके सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदिके द्वारा होता है ।।१४।।
वैश्यको सर्वदा ब्राह्मणवंशका अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापारके द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्रका धर्म है द्विजातियोंकी सेवा। उसकी जीविकाका निर्वाह उसका स्वामी करता है ।।१५।। ब्राह्मणके जीवन-निर्वाहके साधन चार प्रकारके हैं—वार्ता१, शालीन,२ यायावर३ और शिलोञ्छन४। इनमेंसे पीछे-पीछेकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं ।।१६।। निम्नवर्णका पुरुष बिना आपत्तिकालके उत्तम वर्णकी वृत्तियोंका अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मणकी शेष पाँचों वृत्तियोंका अवलम्बन ले सकता है। आपत्तिकालमें सभी सब वृत्तियोंको स्वीकार कर सकते हैं ।।१७।।
ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत—इनमेंसे किसी भी वृत्तिका आश्रय ले, परन्तु श्वानवृत्तिका अवलम्बन कभी न करे ।।१८।। बाजारमें पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतोंमें पड़े हुए अन्न (शिल)-को बीनकर ‘शिलोञ्छ’ वृत्तिसे जीविका-निर्वाह करना ‘ऋत’ है। बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्तिके द्वारा जीवन-निर्वाह करना ‘अमृत’ है। नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘यायावर’ वृत्तिके द्वारा जीवन-यापन करना ‘मृत’ है। कृषि आदिके द्वारा ‘वार्ता’ वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है ।।१९।। वाणिज्य ‘सत्यानृत’ है और निम्नवर्णकी सेवा करना ‘श्वानवृत्ति’ है। ब्राह्मण और क्षत्रियको इस अन्तिम निन्दित वृत्तिका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है ।।२०।। शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्य—ये ब्राह्मणके लक्षण हैं ।।२१।।
युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना—ये क्षत्रियके लक्षण हैं ।।२२।। देवता, गुरु और भगवान्के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम—इन तीनों पुरुषार्थोंकी रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता—ये वैश्यके लक्षण हैं ।।२३।। उच्च वर्णोंके सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामीकी निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रोंसे रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ, ब्राह्मणोंकी रक्षा करना—ये शूद्रके लक्षण हैं ।।२४।।
युधिष्ठिर! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते—उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसंकर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं ।।३०।।
महाराज! जिस प्रकार बार-बार बोनेसे खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अंकुर उगना बंद हो जाता है, यहाँतक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है—उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओंका खजाना है, विषयोंका अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगोंसे ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालनेसे आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह बुझ जाती है ।।३३-३४।। जिस पुरुषके वर्णको बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवालेमें भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझना चाहिये ।।३५।।
१. यज्ञाध्ययनादि कराकर धन लेना। २. बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसीमें निर्वाह करना। ३. नित्यप्रति धान्यादि माँग लाना। ४. किसानके खेत काटकर अन्न घरको ले जानेपर पृथ्वीपर जो कण पड़े रह जाते हैं, उन्हें ‘शिल’ तथा बाजारमें पड़े हुए अन्नके दानोंको ‘उञ्छ’ कहते हैं। उन शिल और उञ्छोंको बीनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोञ्छन’ वृत्ति है।
दिन भर यहीं प्रश्न घूमते रहे, क्यू मीनू मेरे साथ ऐसा व्यवहार करती है और कहती है कुछ और है? क्यों अंकलजी, आंटीजी ऐसी बातें कर रहे थे कि मुझसे गुस्सा है, ग्रणा करती है? उस दिन भी मुझसे बात ना करके गुस्से से उठ कर चली गई थी। किसकी क्या बात सत्य है? हे सत्येनारायण! तुम्हारी लाडली ने मुझसे सत्य नहीं बोला ये सोच के ही आत्मा कपजती है। सत्ये क्या है?
अथ द्वादशोऽध्यायः ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
अथ त्रयोदशोऽध्यायः यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद
अच्युतम केशवं राम नारायणं, कृष्ण दमोधराम वासुदेवं हरिं, श्रीधरं माधवं गोपिका वल्लभं, जानकी नायकं रामचंद्रम भजे।
अच्युतम केसवं सत्य भामधावं, माधवं श्रीधरं राधिका अराधितम, इंदिरा मन्दिरम चेताना सुन्दरम, देवकी नंदना नन्दजम सम भजे।
विष्णव जिष्णवे शंखिने चक्रिने, रुकमनी रागिने जानकी जानए, वल्लवी वल्लभा यार्चिधा यात्मने, कंस विध्वंसिने वंसिने ते नमः।
कृष्ण गोविन्द हे राम नारायणा, श्री पते वासु देवा जीता श्री निधे, अच्युतानंता हे माधव अधोक्षजा, द्वारका नायका, द्रोपधि रक्षक।
राक्षस क्शोबिता सीताया शोभितो, दंडा करण्या भू पुण्यता कारणा, लक्ष्मना नान्वितो वानरी सेवितो, अगस्त्य संपूजितो राघव पातु माम।
धेनु कृष्टको अनिष्ट क्रुद्वेसिनाम, केसिहा कंस ह्रुद वंसिका वाधना, पूतना नसाना सूरज खेलनो, बाल गोपलका पातु माम सर्वदा।
विध्यु दुध्योतवत प्रस्फुरा द्वाससम, प्रोउद बोधवल् प्रोल्लसद विग्रहं, वन्याय मलय शोभि थोर स्थलं, लोहिन्तङ्ग्रि द्वयम् वारीजक्षं भजे।
कन्चितै कुण्डलै ब्रज मानानानां, रत्न मोउलिं लसद कुण्डलं गण्डयो, हार केयुरगं कङ्कण प्रोज्वलम्, किङ्किणी मञ्जुल स्यमलं तं भजे।
प्रभु जय जय द्वारिका नाथ
February 18, 2025
आज भी दुस्वप्नों में सोता जागता रहा। लखनऊ भी नहीं पहुंच पाया। फ्लाइट भी नहीं पकड़ पाया। कुछ समझ नहीं आ रहा।
ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु॥
हे भोले बाबा, हमारे तन, मन, इन्द्रियों के विकारो का नाश कर हमारा कल्याण करो। रक्षा करो प्रभु, रक्षा करो।
विष्णुपाद प्रसूतानी वैष्णवी नाम धारिणी । पहिमाम सर्वतो रक्षे गंगा त्रिपथ गामिनी ।।
माता गंगा, हम तन मन शुद्ध करदो। मैया कृपा करो.
हे प्रभु इस माया रूपी संसार में हमारी उंगली पकड़े रहना।
मेरा कोई ना सहारा बिन तेरे, घनश्याम सांवरिया मेरे
अथ चतुर्दशोऽध्यायः गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
बुद्धिमान् पुरुष वर्षा आदिके द्वारा होनेवाले अन्नादि, पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होनेवाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकारके धन भगवान्के ही दिये हुए हैं—ऐसा समझकर प्रारब्धके अनुसार उनका उपभोग करता हुआ संचय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधुसेवा आदि कर्मोंमें लगा दे ।।७।। मनुष्योंका अधिकार केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उनकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये ।।८।।
पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषोंके द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम (शालग्राम क्षेत्र), नैमिषारण्य, फाल्गुनक्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दुसरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान् सीतारामजीके आश्रम—अयोध्या, चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुलपर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान्के अर्चावतार हैं—वे सब-के-सब देश अत्यन्त पवित्र हैं। कल्याणकामी पुरुषको बार-बार इन देशोंका सेवन करना चाहिये। इन स्थानोंपर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्योंको उनका हजारगुना फल मिलता है ।।३०-३३।।
अभी तुम्हारे इसी यज्ञकी बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकोंके रहनेपर भी अग्रपूजाके लिये भगवान् श्रीकृष्णको ही पात्र समझा गया ।।३५।। असंख्य जीवोंसे भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप महावृक्षके एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी पूजासे समस्त जीवोंकी आत्मा तृप्त हो जाती है ।।३६।। उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदिके शरीररूप पुरोंकी रचना की है तथा वे ही इन पुरोंमें जीवरूपसे शयन भी करते हैं। इसीसे उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है ।।३७।।
युधिष्ठिर! त्रेता आदि युगोंमें जब विद्वानोंने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरेका अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगोंने उपासनाकी सिद्धिके लिये भगवान्की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की ।।३९।। तभीसे कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्रीसे प्रतिमामें ही भगवान्की पूजा करते हैं। परन्तु जो मनुष्यसे द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमाकी उपासना करनेपर भी सिद्धि नहीं मिल सकती ।।४०।। युधिष्ठिर! मनुष्योंमें भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणोंसे भगवान्के वेदरूप शरीरको धारण करता है ।।४१।।
अथ पञ्चदशोऽध्यायः गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
अधर्मकी पाँच शाखाएँ हैं—विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्मके समान ही इनका भी त्याग कर दे ।।१२।। अपने-अपने स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते ।।१४।। धर्मात्मा पुरुष निर्धन होनेपर भी धर्मके लिये अथवा शरीर-निर्वाहके लिये धन प्राप्त करनेकी चेष्टा न करे।
शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।।७७।।
Ved Vyas(Gita Press Gorakhpur). Bhagavat Mahapuran Vyakhya Sahit Part 01 (Skand 1,2,3,4,5,6,7,8), Code 0026, Sanskrit Hindi, Gita Press Gorakhpur (Official) (Hindi Edition) (Function). Kindle Edition.
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February 19, 2025
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
गजेन्द्र मोक्ष कारिणम, नमामि श्रीविहारिणम॥
यथा तथा यथा तथा तदैव कृष्ण सत्कथा , मया सदैव गीयताम् तथा कृपा विधीयताम. प्रमानिकाश्टकद्वयम् जपत्यधीत्य यः पुमान , भवेत् स नन्द नन्दने भवे भवे सुभक्तिमान ॥
आज श्रीमद्भागवतमहापुराणम् अष्टमः स्कन्धः अथ प्रथमोऽध्यायः “मन्वन्तरोंका वर्णन”
राजा परीक्षित्ने पूछा— ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तरमें महामहिम भगवान्के जिन-जिन अवतारों और लीलाओंका वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धासे उनका श्रवण करना चाहते हैं ।।२।।
भगवन्! विश्वभावनभगवान् बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ।।३।।
श्रीशुकदेवजीने कहा—इस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी ।।४।।
स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूतिसे कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान्ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था ।।५।।
परीक्षित्! भगवान् कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान् यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भसे अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ।।६।। परीक्षित्! भगवान् स्वायम्भुव मनुने समस्त कामनाओं और भोगोंसे विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपाके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये ।।७।। परीक्षित्! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैरसे खड़े रहकर सौ वर्षतक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्की स्तुति करते थे ।।८।।
मनुजी कहा करते थे—जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं—वही परमात्मा हैं ।।९।। यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्वमें रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी—सब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं।
जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँसे? जिनका न कोई अपना है और न पराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्वके आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर—सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ।।१२।।
यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभसे पूर्णकाम होनेके कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अतः उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं ।।१५।।
वे बिना किसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोंके द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोंके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभुकी शरणमें हूँ ।।१६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्तसे इस मन्त्रमय उपनिषत्-स्वरूप श्रुतिका पाठ कर रहे थे। उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस खा डालनेके लिये उनपर टूट पड़े ।।१७।।
यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओंके साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालनेके निश्चयसे आये हुए असुरोंका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे ।।१८।।
परीक्षित्! दूसरे मनु हुए स्वारोचिष। वे अग्निके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे—द्युमान्, सुषेण और रोचिष्मान् आदि ।।१९।। उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे ।।२०।। उस मन्वन्तरमें वेदशिरा नामके ऋषिकी पत्नी तुषिता थीं । उनके गर्भसे भगवान्ने अवतार ग्रहण किया और विभु नामसे प्रसिद्ध हुए ।।२१।। वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हींके आचरणसे शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियोंने भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया ।।२२।।
तीसरे मनु थे उत्तम। वे प्रियव्रतके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे—पवन, सृंजय, यज्ञहोत्र आदि ।।२३।। उस मन्वन्तरमें वसिष्ठजीके प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे। सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओंके प्रधान गण थे और इन्द्रका नाम था सत्यजित् ।।२४।। उस समय धर्मकी पत्नी सूनृताके गर्भसे पुरुषोत्तमभगवान्ने सत्यसेनके नामसे अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नामके देवगण भी थे ।।२५।। उस समयके इन्द्र सत्यजित्के सखा बनकर भगवान्ने असत्यपरायण, दुःशील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणोंका संहार किया ।।२६।।
चौथे मनुका नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तमके सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे ।।२७।। सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओंके प्रधान गण थे। इन्द्रका नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तरमें ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे ।।२८।। परीक्षित्! उस तामस नामके मन्वन्तरमें विधृतिके पुत्र वैधृति नामके और भी देवता हुए। उन्होंने समयके फेरसे नष्टप्राय वेदोंको अपनी शक्तिसे बचाया था, इसीलिये ये ‘वैधृति’ कहलाये ।।२९।। इस मन्वन्तरमें हरिमेधा ऋषिकी पत्नी हरिणीके गर्भसे हरिके रूपमें भगवान्ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतारमें उन्होंने ग्राहसे गजेन्द्रकी रक्षा की थी ।।३०।।
राजा परीक्षित्ने पूछा—मुनिवर! हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान्ने गजेन्द्रको ग्राहके फंदेसे कैसे छुड़ाया था ।।३१।। सब कथाओंमें वही कथा परम पुण्यमय, प्रशंसनीय, मंगलकारी और शुभ है, जिसमें महात्माओंके द्वारा गान किये हुए भगवान् श्रीहरिके पवित्र यशका वर्णन रहता है ।।३२।।
अथ द्वितीयोऽध्यायः “ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना”
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! क्षीरसागरमें त्रिकूट नामका एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था।
परीक्षित्! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्धकी प्रेरणासे एक बलवान् ग्राहने क्रोधमें भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात् विपत्तिमें पड़कर उस बलवान् गजेन्द्रने अपनी शक्तिके अनुसार अपनेको छुड़ानेकी बड़ी चेष्टा की, परन्तु छुड़ा न सका ।।२७।।
दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चोंने देखा कि उनके स्वामीको बलवान् ग्राह बड़े वेगसे खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं। उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बड़ी विकलतासे चिग्घाड़ने लगे। बहुतोंने उसे सहायता पहुँचाकर जलसे बाहर निकाल लेना चाहा, परन्तु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे ।।२८।।
गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राहको बाहर खींच लाता तो कभी ग्राह गजेन्द्रको भीतर खींच ले जाता। परीक्षित्! इस प्रकार उनको लड़ते-लड़ते एक हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे। यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये ।।२९।।
अन्तमें बहुत दिनोंतक बार-बार जलमें खींचे जानेसे गजेन्द्रका शरीर शिथिल पड़ गया। न तो उसके शरीरमें बल रह गया और न मनमें उत्साह। शक्ति भी क्षीण हो गयी। इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा। इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होनेके स्थानपर बढ़ गयी, वह बड़े उत्साहसे और भी बल लगाकर गजेन्द्रको खींचने लगा ।।३०।।
नीर पिवन हेतु गयो सिन्धू के किनारे, सिन्धु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे।हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥
चार पहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे, नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे।हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥
द्वारिका में शब्द गयो शोर भयो द्वारे, शंख चक्र गदा पद्म गरुड़ तजि सिधारे।हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥
सूर कहे श्याम सुनो शरण हैं तिहारे, अबकी बेर पार करो नन्द के दुलारे। हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥
हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे। अब तो जीवन हारे, प्रभु शरण हैं तिहारे ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
February 20, 2025
कल प्रभु हरि ने कैसे गजेंद्र और ग्रह का उद्धार किया, पढ़ कर मन कुछ शांत हुआ था पर आज सपने में फिर ने मेरा बचपन का दर सत्य हो गया और फिर मुझे उससे प्रेम कर्ता हुआ सुन कर मीनू फिर से गुस्से से चली गई और मैं प्रतीक्षा में तड़पता हारा की मीनू कब शांत हो के मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश करेगी।
मन पछितैहै अवसर बीते। दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥१॥
हे द्वारकाधीश, मेरी सखी मुझे बार-बार तुहारा स्मरण कराती रहती है, पर शांत मन से तुम्हारा सुमिरन नहीं कर पाता हूं। वो दिन कब आएगा जब मैं मीनू के साथ शांति से निशदिन तुहारा भजन करूंगा? इतने दिनों से तुम्हारा ध्वजा आरोहन देख रहा हूँ, कब मैं मीनू के साथ आ कर तुम्हारे दर्शन और ध्वजा चढ़ाऊंगा?
अथ पञ्चमोऽध्यायः देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान्की स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—
पाँचवें मनुका नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामसके सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे ।।२।
उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओंके प्रधान गण थे। परीक्षित्! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे ।।३।
उनमें शुभ्र ऋषिकी पत्नीका नाम था विकुण्ठा। उन्हींके गर्भसे वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ अपने अंशसे स्वयं भगवान्ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया ।।४।।
उन्हींने लक्ष्मीदेवीकी प्रार्थनासे उनको प्रसन्न करनेके लिये वैकुण्ठधामकी रचना की थी। वह लोक समस्त लोकोंमें श्रेष्ठ है ।।५।।
उन वैकुण्ठनाथके कल्याणमय गुण और प्रभावका वर्णन मैं संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। भगवान् विष्णुके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वीके परमाणुओंकी गिनती कर ली हो ।।६।। छठे मनु चक्षुके पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे ।।७।। इन्द्रका नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस मन्वन्तरमें हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे ।।८।। जगत्पति भगवान्ने उस समय भी वैराजकी पत्नी सम्भूतिके गर्भसे अजित नामका अंशावतार ग्रहण किया था ।।९।। उन्होंने ही समुद्रमन्थन करके देवताओंको अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचलकी मथानीके आधार बने थे ।।१०।।
राजा परीक्षित्ने पूछा—
आप भक्तवत्सल भगवान्की महिमाका ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुननेके लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघानेका तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनोंसे यह संसारकी ज्वालाओंसे जलता जो रहा है ।।१३।।
यद्यपि उनकी दृष्टिमें न कोई वधका पात्र है और न रक्षाका, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदरका पात्र ही—फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये समय-समयपर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणको स्वीकार किया करते हैं ।।२२।। उन्होंने इस समय प्राणियोंके कल्याणके लिये सत्त्वगुणको स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत्की स्थिति और रक्षाका अवसर है। अतः हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्माकी शरण ग्रहण करते हैं।
जीव अपने पुरुषार्थसे नहीं, उनकी कृपासे ही उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ।।३०।। प्रभो! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रोंसे देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये ।।४५।।
अथ षष्ठोऽध्यायः “देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थनके लिये उद्योग करना”
ब्रह्माजीने कहा—जो जन्म, स्थिति और प्रलयसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणोंसे रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्दके महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है—उनपर ऐश्वर्यशाली प्रभुको हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं ।।८।।
आपमें ही पहले यह जगत् लीन था, मध्यमें भी यह आपमें ही स्थित है और अन्तमें भी यह पुनः आपमें ही लीन हो जायगा। आप स्वयं कार्य-कारणसे परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य हैं—वैसे ही जैसे घड़ेका आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है ।।१०।।
कमलनाभ! जिस प्रकार दावाग्निसे झुलसता हुआ हाथी गंगाजलमें डुबकी लगाकर सुख और शान्तिका अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भावसे हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी! हमलोग बहुत दिनोंसे आपके दर्शनोंके लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ।।१३।।
आप ही हमारे बाहर और भीतरके आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्यसे आपके चरणोंकी शरणमें आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अतः इस विषयमें हमलोग आपसे और क्या निवेदन करें ।।१४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—
परीक्षित्! समस्त देवताओंके तथा जगत्के एकमात्र स्वामी भगवान् अकेले ही उनका सब कार्य करनेमें समर्थ थे, फिर भी समुद्रमन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओंको सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे ।।१७।।
श्रीभगवान्ने कहा—ब्रह्मा, शंकर और देवताओ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याणका यही उपाय है ।।१८।। इस समय असुरोंपर कालकी कृपा है। इसलिये जबतक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवोंके पास जाकर उनसे सन्धि कर लो ।।१९।। देवताओ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं* ।।२०।। तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालनेका प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है ।।२१।। पहले क्षीरसागरमें सब प्रकारके घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागकी नेती बनाकर मेरी सहायतासे समुद्रका मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमादका समय नहीं है। देवताओ! विश्वास रखो—दैत्योंको तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको ।।२२-२३।। देवताओ! असुरलोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्तिसे सब काम बन जाते हैं, क्रोध करनेसे कुछ नहीं होता ।।२४।।
पहले समुद्रसे कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। और किसी भी वस्तुके लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तुकी कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये ।।२५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवताओंको यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीचमें ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीलाका रहस्य कौन समझे ।।२६।।
वह सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको चकनाचूर कर डाला ।।३५।।
उन देवता और असुरोंके हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये ।।३६।
उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वतके गिरनेसे पिस गये हैं। अतः उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे देवताओंको इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीरमें बिलकुल चोट ही न लगी हो ।।३७।।
इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेलमें एक हाथसे उस पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरोंके साथ उन्होंने समुद्रतटकी यात्रा की ।।३८।।
पक्षिराज गरुड़ने समुद्रके तटपर पर्वतको उतार दिया। फिर भगवान्के विदा करनेपर गरुड़जी वहाँसे चले गये ।।३९।।
February 21, 2025 - प्रातः
शिवम् शंकरम शम्भू मिश्नमीदे |
आज सपने में अकेला पता नहीं कहा विचार रहा था और संसार में युद्ध, वैर, झूठ, बेमानी से मन खिन्न और चिंता से भर गया। मेरी सखी के लिए तो इस संसार में जीने और कुछ अच्छा करने का उत्साह किया था। हे प्रभु, जब मेरी सखी ही नहीं कहदिया मेरी उसके जीवन में जगह नहीं तो कहां से जीने का उत्साह लाउ?
अथ सप्तमोऽध्यायः “समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शंकरका विषपान” में
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृतमें तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगोंने वासुकि नागको नेतीके समान मन्दराचलमें लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्दसे अमृतके लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया।
परीक्षित्! जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्रमें डूबने लगा ।।६।। उस समय भगवान्ने देखा कि यह तो विघ्नराजकी करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारण किया और समुद्रके जलमें प्रवेश करके मन्दराचलको ऊपर उठा दिया। भगवान्की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसंकल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी ।।८।। देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र-मन्थनके लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान्ने जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचलको धारण कर रखा था ।।९।। परीक्षित्! जब बड़े-बड़े देवता और असुरोंने अपने बाहुबलसे मन्दराचलको प्रेरित किया, तब वह भगवान्की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान्को उस पर्वतका चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो ।।१०।।
साथ ही समुद्रमन्थन सम्पन्न करनेके लिये भगवान्ने असुरोंमें उनकी शक्ति और बलको बढ़ाते हुए असुररूपसे प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओंको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमें निद्राके रूपसे ।।११।।
इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थिर हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।१२।। इस प्रकार भगवान्ने पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरोंके शरीरमें उनकी शक्तिके रूपमें, पर्वतमें दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनागमें निद्राके रूपमें—जिससे उसे कष्ट न हो—प्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया।
इस प्रकार देवता और असुरोंके समुद्रमन्थन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजितभगवान् समुद्रमन्थन करने लगे ।।१६।।
मेघके समान साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर, कानोंमें बिजलीके समान चमकते हुए कुण्डल, सिरपर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रोंमें लाल-लाल रेखाएँ और गलेमें वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत्को अभयदान करनेवाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डोंसे वासुकिनागको पकड़कर तथा कूर्मरूपसे पर्वतको धारणकर जब भगवान् मन्दराचलकी मथानीसे समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराजके समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे ।।१७।।उसी समय पहले-पहल हालाहल नामका अत्यन्त उग्र विष निकला ।।१८।।
वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असह्य विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसीके द्वारा त्राण न मिलनेपर भगवान् सदाशिवकी शरणमें गये ।।१९।। भगवान् शंकर सतीजीके साथ कैलास पर्वतपर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकोंके अभ्युदय और मोक्षके लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियोंने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया ।।२०।। प्रजापतियोंने भगवान् शंकरकी स्तुति की—देवताओंके आराध्यदेव महादेव! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। त्रिलोकीको भस्म करनेवाले इस उग्र विषसे आप हमारी रक्षा कीजिये ।।२१।। सारे जगत्को बाँधने और मुक्त करनेमें एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागतकी पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं ।।२२।।
प्रभो! अपनी गुणमयी शक्तिसे इस जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेके लिये आप अनन्त, एकरस होनेपर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं ।।२३।। आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियोंके द्वारा आप ही जगत्रूपमें भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं ।।२४।। समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानोंके मूल स्रोत स्वतःसिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत्के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा शब्दादि विषयोंके भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियोंकी वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल हैं, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है।
आप जब समस्त प्रपंचसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है ‘शिव’। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ।।२९।।
शिवजीने कहा—देवि! यह बड़े खेदकी बात है। देखो तो सही, समुद्रमन्थनसे निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है ।।३७।। ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन-दुःखियोंकी रक्षा करें ।।३८।। सज्जन पुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा करते हैं ।।३९।। उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ।।४०।। उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ।।४०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—विश्वके जीवनदाता भगवान् शंकर इस प्रकार सती देवीसे प्रस्ताव करके उस विषको खानेके लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदयसे इस बातका अनुमोदन किया ।।४१।।
भगवान् शंकर बड़े कृपालु हैं। उन्हींकी शक्तिसे समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विषको अपनी हथेलीपर उठाया और भक्षण कर गये ।।४२।। वह विष जलका पाप—मल था। उसने शंकरजीपर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परन्तु वह तो प्रजाका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरके लिये भूषणरूप हो गया ।।४३।। परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजाका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदयमें विराजमान भगवान्की परम आराधना है ।।४४।।
देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे ।।४५।।
जय नीलकंठ, जय गौरीशंकार
February 21, 2025 - संध्या
अथाष्टमोऽध्यायः समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना” मे माता लक्ष्मी की कथा में भी माता ने आपके गुणों को देख कर ही आप का वरके रूपमें चुना था।
इसके बाद शोभाकी मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुईं। वे भगवान्की नित्यशक्ति हैं। उनकी बिजलीके समान चमकीली छटासे दिशाएँ जगमगा उठीं ।।८।। स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठनेके लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियोंने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेकके लिये सोनेके घड़ोंमें भर-भरकर पवित्र जल ला दिया ।।१०।।
पृथ्वीने अभिषेकके योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओंने पंचगव्य और वसन्त ऋतुने चैत्र-वैशाखमें होनेवाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये ।।११।।
वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणोंसे नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदिमें कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला ।।१९।।
(वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोधपर विजय नहीं प्राप्त की है। किन्हींमें ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे कामको नहीं जीत सके हैं। किन्हींमें ऐश्वर्य भी बहुत है; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस कामका, जब उन्हें दूसरोंका आश्रय लेना पड़ता है ।।२०।। किन्हींमें धर्माचरण तो है; परन्तु प्राणियोंके प्रति वे प्रेमका पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्तिका कारण नहीं है। किन्हीं-किन्हींमें वीरता तो अवश्य है, परन्तु वे भी कालके पंजेसे बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओंमें विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधिमें ही तल्लीन रहते हैं ।।२१।। किसी-किसी ऋषिने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील-मंगल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हींमें शील-मंगल भी है परन्तु उनकी आयुका कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हींमें दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमंगल-वेषमें रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु—उनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं ।।२२।।
इस प्रकार सोच-विचारकर अन्तमें श्रीलक्ष्मीजीने अपने चिर अभीष्ट भगवान्को ही वरके रूपमें चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तवमें लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसीसे उन्होंने उन्हींको वरण किया ।।२३।। लक्ष्मीजीने भगवान्के गलेमें वह नवीन कमलोंकी सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे अपने निवासस्थान उनके वक्षःस्थलको देखती हुई वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं ।।२४।।
जगत्पिता भगवान्ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियोंकी अधिष्ठातृदेवता श्रीलक्ष्मीजीको अपने वक्षःस्थलपर ही सर्वदा निवास करनेका स्थान दिया। लक्ष्मीजीने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणाभरी चितवनसे तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजाकी अभिवृद्धि की ।।२५।। उस समय शंख, तुरही, मृदंग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व अप्सराओंके साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा ।।२६।। ब्रह्मा, रुद्र, अंगिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान्के गुण, स्वरूप और लीला आदिके यथार्थ वर्णन करनेवाले मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे ।।२७।।
हे प्रभु! क्या मैंने इतना नालायक, अवगुणी हुई कि मीनू ने मेरे साथ का सोचने से भी मन कर दिया और करण भी स्पास्ट नहीं बताया? हे लक्ष्मीकांतम! भोले बाबा ने कैसे संसार के सभी प्राणियों की रक्षा की थी पढ़ कर के कुछ मन शांत हुआ था, अब मन में फिर सवालों की आंधी चल रही है कि क्यू मीनू मेरे साथ ऐसा व्यवहार करती है?
मेरे सब गुण दोष समर्पित हों, करतार तुम्हारे हाथों में॥
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥
February 22, 2025 -
अथ द्वादशोऽध्यायः “मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना” मे
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् शंकरने यह सुना कि श्रीहरिने स्त्रीका रूप धारण करके असुरोंको मोहित कर लिया और देवताओंको अमृत पिला दिया, तब वे सतीदेवीके साथ बैलपर सवार हो समस्त भूतगणोंको लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं ।।१-२।। भगवान् श्रीहरिने बड़े प्रेमसे गौरी-शंकरभगवान्का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुखसे बैठकर भगवान्का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले ।।३।।
श्रीमहादेवजीने कहा—समस्त देवोंके आराध्यदेव! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थोंके मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं ।।४।।
इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य आपसे ही होते हैं; परन्तु आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं। आपके अविनाशी स्वरूपमें द्रष्टा, दृश्य, भोक्ता और भोग्यका भेदभाव नहीं है। वास्तवमें आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं ।।५।।
आप निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परन्तु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। आप समस्त जीवोंके शुभाशुभ कर्मका फल देनेवाले स्वामी हैं। परन्तु यह बात भी जीवोंकी अपेक्षासे ही कही जाती है; वास्तवमें आप सबकी अपेक्षासे रहित, अनपेक्ष हैं ।।७।।
स्वामिन्! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैत—जो कुछ है, वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणोंके रूपमें स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्णमें कोई अन्तर नहीं है,—दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगोंने आपके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण आपमें नाना प्रकारके भेदभाव और विकल्पोंकी कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आपमें किसी प्रकारकी उपाधि न होनेपर भी गुणोंको लेकर भेदकी प्रतीति होती है ।।८।। प्रभो! कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई आपको प्रकृति और पुरुषसे परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—इन नौ शक्तियोंसे युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदिके बन्धनसे रहित, पूर्वजोंके भी पूर्वज, अविनाशी पुरुषविशेषके रूपमें मानते हैं ।।९।। प्रभो! मैं, ब्रह्मा और मरीचि आदि ऋषि—जो सत्त्वगुणकी सृष्टिके अन्तर्गत हैं—जब आपकी बनायी हुई सृष्टिका भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त मायाने अपने वशमें कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मोंमें लगे रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या ।।१०।।
प्रभो! आप जब गुणोंको स्वीकार करके लीला करनेके लिये बहुत-से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतारका भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूपमें ग्रहण किया था ।।१२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान् शंकरने विष्णुभगवान्से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीरभावसे हँसकर शंकरजीसे बोले ।।१४।।
श्रीविष्णुभगवान्ने कहा—शंकरजी! उस समय अमृतका कलश दैत्योंके हाथमें चला गया था। अतः देवताओंका काम बनानेके लिये और दैत्योंका मन एक नये कौतूहलकी ओर खींच लेनेके लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था ।।१५।। देवशिरोमणे! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परन्तु वह रूप तो कामी पुरुषोंका ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभावको उत्तेजित करनेवाला है ।।१६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान् शंकर सती देवीके साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे ।।१७।। इतनेमें ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँतिके वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलोंसे भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवनमें एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है।
गेंदसे खेलते-खेलते उसने तनिक सलज्जभावसे मुसकराकर तिरछी नजरसे शंकरजीकी ओर देखा। बस, उनका मन हाथसे निकल गया। वे मोहिनीको निहारने और उसकी चितवनके रसमें डूबकर इतने विह्वल हो गये कि उन्हें अपने-आपकी भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणोंकी तो याद ही कैसे रहती ।।२२।। एक बार मोहिनीके हाथसे उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसीके पीछे दौड़ी।
उन्होंने देखा कि अरे, भगवान्की मायाने तो मुझे खूब छकाया! वे तुरंत उस दुःखद प्रसंगसे अलग हो गये ।।३५।। इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान्की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान्की शक्तियोंका पार कौन पा सकता है ।।३६।। भगवान्ने देखा कि भगवान् शंकरको इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुषशरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नतासे उनसे कहने लगे ।।३७।।
श्रीभगवान्ने कहा—देवशिरोमणे! मेरी स्त्रीरूपिणी मायासे विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठामें स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्दकी बात है ।।३८।।
मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी मायाके फंदेमें फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके ।।३९।। यद्यपि मेरी यह गुणमयी माया बड़ों-बड़ोंको मोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदिके लिये समयपर उसे क्षोभित करनेवाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छाके विपरीत वह रजोगुण आदिकी सृष्टि नहीं कर सकती ।।४०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् विष्णुने भगवान् शंकरका सत्कार किया। तब उनसे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणोंके साथ कैलासको चले गये ।।४१।। भरतवंशशिरोमणे! भगवान् शंकरने बड़े-बड़े ऋषियोंकी सभामें अपनी अर्द्धांगिनी सती देवीसे अपने विष्णुरूपकी अंशभूता मायामयी मोहिनीका इस प्रकार बड़े प्रेमसे वर्णन किया ।।४२।। ‘देवि! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णुकी माया देखी? देखो, यों तो मैं समस्त कलाकौशल, विद्या आदिका स्वामी और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस मायासे विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अतः वे मोहित हो जायँ—इसमें कहना ही क्या है ।।४३।। जब मैं एक हजार वर्षकी समाधिसे उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमामें बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है’ ।।४४।।
बोले बाबा की ये लीला पढ़ो ऐसा लगा कि वाह हमें ये स्मरण करा रहे हैं कि प्रभु की माया सर्वव्यापी है। इस से प्राण स्वयं नहीं बच सकते, ये बस प्रभु के ही शरण से कल्याण काई होती है। रक्षा करो प्रभु। हे दयानिधान! दया
February 23, 2025
जय रामारमेश, जय उमामहेश
आज सपने में रोते-रोते मंदिर धोते समय आस पास, जहां पे पुराना शिवलिंग मिट्टी के नीचे है, बहुत प्लास्टिक पड़ी दिखी। सब साफ कर के रोते रोते बगल के आम के पेड़ के नीचे मिट्टी में पगलो की तरह पड़ा था। मीनू बच्चों के साथ पूजा करने आई और मेरा उपहास कर के जाने लगी। भाग कर उसके समान गया तो कुछ प्रतिक्रिया किये बिना चल गयी। बाद में अंकलजी से इस विषय में बात की और पूछा कि आप उस दिन क्यों कह रहे थे कि आस पास के लोग क्या कहेंगे? अंकलजी ने उस दिन की तरह कहा हम तो देहाती सोच वाले हैं। गुस्से में मैंने कहा आप कलयुगी देहाती सोच वाले है, आज से अपने को ब्राह्मण मत कहिएगा और सपना समाप्त हो गया।
हे प्रभु! कुछ समझ नहीं आ रहा।
अथ त्रयोदशोऽध्यायः आगामी सात मन्वन्तरोंका वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! विवस्वान्के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें (वैवस्वत) मनु हैं। यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका कार्यकाल है। उनकी सन्तानका वर्णन मैं करता हूँ ।।१।। वैवस्वत मनुके दस पुत्र हैं—इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करूष, पृषध्र और वसुमान ।।२-३।। परीक्षित्! इस मन्वन्तरमें आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ऋभु—ये देवताओंके प्रधान गण हैं और पुरन्दर उनका इन्द्र है ।।४।। कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज—ये सप्तर्षि हैं ।।५।। इस मन्वन्तरमें भी कश्यपकी पत्नी अदितिके गर्भसे आदित्योंके छोटे भाई वामनके रूपमें भगवान् विष्णुने अवतार ग्रहण किया था ।।६।।
परीक्षित्! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें सात मन्वन्तरोंका वर्णन सुनाया; अब भगवान्की शक्तिसे युक्त अगले (आनेवाले) सात मन्वन्तरोंका वर्णन करता हूँ ।।७।।
आठवें मन्वन्तरमें सावर्णि मनु होंगे। उनके पुत्र होंगे निर्मोक, विरजस्क आदि ।।११।। परीक्षित्! उस समय सुतपा, विरजा और अमृतप्रभ नामक देवगण होंगे। उन देवताओंके इन्द्र होंगे विरोचनके पुत्र बलि ।।१२।।
विष्णुभगवान्ने वामन अवतार ग्रहण करके इन्हींसे तीन पग पृथ्वी माँगी थी; परन्तु इन्होंने उनको सारी त्रिलोकी दे दी। राजा बलिको एक बार तो भगवान्ने बाँध दिया था, परन्तु फिर प्रसन्न होकर उन्होंने इनको स्वर्गसे भी श्रेष्ठ सुतल लोकका राज्य दे दिया। वे इस समय वहीं इन्द्रके समान विरजमान हैं। आगे चलकर ये ही इन्द्र होंगे और समस्त ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण इन्द्रपदका भी परित्याग करके परम सिद्धि प्राप्त करेंगे ।।१३-१४।।
गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यशृंग और हमारे पिता भगवान् व्यास—ये आठवें मन्वन्तरमें सप्तर्षि होंगे। इस समय ये लोग योगबलसे अपने-अपने आश्रममण्डलमें स्थित हैं ।।१५-१६।।
देवगुह्यकी पत्नी सरस्वतीके गर्भसे सार्वभौम नामक भगवान्का अवतार होगा। ये ही प्रभु पुरन्दर इन्द्रसे स्वर्गका राज्य छीनकर राजा बलिको दे देंगे ।।१७।। परीक्षित्! वरुणके पुत्र दक्षसावर्णि नवें मनु होंगे। भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि उनके पुत्र होंगे ।।१८।। पार, मरीचिगर्भ आदि देवताओंके गण होंगे और अद्भुत नामके इन्द्र होंगे। उस मन्वन्तरमें द्युतिमान् आदि सप्तर्षि होंगे ।।१९।। आयुष्मान्की पत्नी अम्बुधाराके गर्भसे ऋषभके रूपमें भगवान्का कलावतार होगा। अद्भुत नामक इन्द्र उन्हींकी दी हुई त्रिलोकीका उपभोग करेंगे ।।२०।।
दसवें मनु होंगे उपश्लोकके पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें समस्त सद्गुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्मान्, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओंके गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु ।।२१-२२।। विश्वसृज्की पत्नी विषूचिके गर्भसे भगवान् विष्वक्सेनके रूपमें अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्रसे मित्रता करेंगे ।।२३।। ग्यारहवें मनु होंगे अत्यन्त संयमी धर्मसावर्णि। उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे ।।२४।। विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओंके गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे और वैधृत नामके इन्द्र होगें ।।२५।। आर्यककी पत्नी वैधृताके गर्भसे धर्मसेतुके रूपमें भगवान्का अंशावतार होगा और उसी रूपमें वे त्रिलोकीकी रक्षा करेंगे ।।२६।। परीक्षित्! बारहवें मनु होंगे रुद्रसावर्णि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे ।।२७।। उस मन्वन्तरमें ऋतुधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण। तपोमूर्ति, तपस्वी आग्नीध्रक आदि सप्तर्षि होंगे ।।२८।।
दसवें मनु होंगे उपश्लोकके पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें समस्त सद्गुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्मान्, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओंके गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु ।।२१-२२।। विश्वसृज्की पत्नी विषूचिके गर्भसे भगवान् विष्वक्सेनके रूपमें अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्रसे मित्रता करेंगे ।।२३।। ग्यारहवें मनु होंगे अत्यन्त संयमी धर्मसावर्णि। उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे ।।२४।। विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओंके गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे और वैधृत नामके इन्द्र होगें ।।२५।। आर्यककी पत्नी वैधृताके गर्भसे धर्मसेतुके रूपमें भगवान्का अंशावतार होगा और उसी रूपमें वे त्रिलोकीकी रक्षा करेंगे ।।२६।। परीक्षित्! बारहवें मनु होंगे रुद्रसावर्णि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे ।।२७।। उस मन्वन्तरमें ऋतुधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण। तपोमूर्ति, तपस्वी आग्नीध्रक आदि सप्तर्षि होंगे ।।२८।।
महाराज! चौदहवें मनु होंगे इन्द्रसावर्णि। उरु, गम्भीर, बुद्धि आदि उनके पुत्र होंगे ।।३३।। उस समय पवित्र, चाक्षुष आदि देवगण होंगे और इन्द्रका नाम होगा शुचि। अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध और मागध आदि सप्तर्षि होंगे ।।३४।। उस समय सत्रायणकी पत्नी वितानाके गर्भसे बृहद्भानुके रूपमें भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे तथा कर्मकाण्डका विस्तार करेंगे ।।३५।।
परीक्षित्! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य—तीनों ही कालमें चलते रहते हैं। इन्हींके द्वारा एक सहस्र चतुर्युगीवाले कल्पके समयकी गणना की जाती है ।।३६।।
अथ षोडशोऽध्यायः कश्यपजीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
अथ सप्तदशोऽध्यायः भगवान्का प्रकट होकर अदितिको वर देना
तब पुरुषोत्तमभगवान् उसके सामने प्रकट हुए। परीक्षित्! वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, चार भुजाएँ थीं और शंख, चक्र, गदा लिये हुए थे ।।४।। अपने नेत्रोंके सामने भगवान्को सहसा प्रकट हुए देख अदिति सादर उठ खड़ी हुई और फिर प्रेमसे विह्वल होकर उसने पृथ्वीपर लोटकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया ।।५।। फिर उठकर, हाथ जोड़, भगवान्की स्तुति करनेकी चेष्टा की; परन्तु नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ आये, उससे बोला न गया। सारा शरीर पुलकित हो रहा था, दर्शनके आनन्दोल्लाससे उसके अंगोंमें कम्प होने लगा था, वह चुपचाप खड़ी रही ।।६।। परीक्षित्! देवी अदिति अपने प्रेमपूर्ण नेत्रोंसे लक्ष्मीपति, विश्वपति, यज्ञेश्वर-भगवान्को इस प्रकार देख रही थी, मानो वह उन्हें पी जायगी। फिर बड़े प्रेमसे, गद्गद वाणीसे, धीरे-धीरे उसने भगवान्की स्तुति की ।।७।।
जब ब्रह्माजीको यह बात मालूम हुई कि अदितिके गर्भमें तो स्वयं अविनाशी भगवान् आये हैं, तब वे भगवान्के रहस्यमय नामोंसे उनकी स्तुति करने लगे ।।२४।।
ब्रह्माजीने कहा—समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन्! आपकी जय हो। अनन्त शक्तियोंके अधिष्ठान! आपके चरणोंमें नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव! त्रिगुणोंके नियामक! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार प्रणाम हैं ।।२५।।
पृश्निके पुत्ररूपमें उत्पन्न होनेवाले! वेदोंके समस्त ज्ञानको अपने अंदर रखनेवाले प्रभो! वास्तवमें आप ही सबके विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। ये तीनों लोक आपकी नाभिमें स्थित हैं। तीनों लोकोंसे परे वैकुण्ठमें आप निवास करते हैं। जीवोंके अन्तःकरणमें आप सर्वदा विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वव्यापक विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ ।।२६।। प्रभो! आप ही संसारके आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्तशक्ति पुरुषके रूपमें आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिनकेको बहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूपसे संसारका धाराप्रवाह संचालन करते रहते हैं ।।२७।। आप चराचर प्रजा और प्रजापतियोंको भी उत्पन्न करनेवाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव! जैसे जलमें डूबते हुएके लिये नौका ही सहारा है, वैसे ही स्वर्गसे भगाये हुए देवताओंके लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं ।।२८।।
अथाष्टादशोऽध्यायः वामनभगवान्का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशालामें पधारना
भगवान्के लघुरूपके अनुरूप सारे अंग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे। उन्हें देखकर बलिको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामनभगवान्को एक उत्तम आसन दिया ।।२६।। फिर स्वागत-वाणीसे उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और संगरहित महापुरुषोंको भी अत्यन्त मनोहर लगनेवाले वामनभगवान्की पूजा की ।।२७।। भगवान्के चरणकमलोंका धोवन परम मंगलमय है। उससे जीवोंके सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान् शंकरने अत्यन्त भक्तिभावसे उसे अपने सिरपर धारण किया था। आज वही चरणामृत धर्मके मर्मज्ञ राजा बलिको प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे उसे अपने मस्तकपर रखा ।।२८।।
अथैकोनविंशोऽध्यायः भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना, बलिका वचन देना और शुक्राचार्यजीका उन्हें रोकना
श्रीभगवान्ने कहा—राजन्! संसारके सब-के-सब प्यारे विषय एक मनुष्यकी कामनाओंको भी पूर्ण करनेमें समर्थ नहीं हैं, यदि वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला—सन्तोषी न हो ।।२१।। जो तीन पग भूमिसे सन्तोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षोंसे युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाय तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मनमें सातों द्वीप पानेकी इच्छा बनी ही रहेगी ।।२२।।
जो कुछ प्रारब्धसे मिल जाय, उसीसे सन्तुष्ट हो रहनेवाला पुरुष अपना जीवन सुखसे व्यतीत करता है। परन्तु अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला तीनों लोकोंका राज्य पानेपर भी दुःखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदयमें असन्तोषकी आग धधकती रहती है ।।२४।। धन और भोगोंसे सन्तोष न होना ही जीवके जन्म-मृत्युके चक्करमें गिरनेका कारण है। तथा जो कुछ प्राप्त हो जाय, उसीमें सन्तोष कर लेना मुक्तिका कारण है ।।२५।। जो ब्राह्मण स्वयंप्राप्त वस्तुसे ही सन्तुष्ट हो रहता है, उसके तेजकी वृद्धि होती है। उसके असन्तोषी हो जानेपर उसका तेज वैसे ही शान्त हो जाता है जैसे जलसे अग्नि ।।२६।।
अथ विंशोऽध्यायः भगवान् वामनजीका विराट्रूप होकर दो ही पगसे पृथ्वी और स्वर्गको नाप लेना
राजा बलिने कहा—भगवन्! आपका कहना सत्य है। गृहस्थाश्रममें रहनेवालोंके लिये वही धर्म है जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविकामें कभी किसी प्रकार बाधा न पड़े ।।२।। परन्तु गुरुदेव! मैं प्रह्लादजीका पौत्र हूँ और एक बार देनेकी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अतः अब मैं धनके लोभसे ठगकी भाँति इस ब्राह्मणसे कैसे कहूँ कि ‘मैं तुम्हें नहीं दूँगा’ ।।३।। इस पृथ्वीने कहा है कि ‘असत्यसे बढ़कर कोई अधर्म नहीं है। मैं सब कुछ सहनेमें समर्थ हूँ, परन्तु झूठे मनुष्यका भार मुझसे नहीं सहा जाता’ ।।४।। मैं नरकसे, दरिद्रतासे, दुःखके समुद्रसे, अपने राज्यके नाशसे और मृत्युसे भी उतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मणसे प्रतिज्ञा करके उसे धोखा देनेसे डरता हूँ ।।५।। इस संसारमें मर जानेके बाद धन आदि जो-जो वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा दान आदिसे ब्राह्मणोंको भी सन्तुष्ट न किया जा सका, तो उनके त्यागका लाभ ही क्या रहा? ।।६।। दधीचि, शिबि आदि महापुरुषोंने अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणोंका दान करके भी प्राणियोंकी भलाई की है। फिर पृथ्वी आदि वस्तुओंको देनेमें सोच-विचार करनेकी क्या आवश्यकता है? ।।७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— राजा बलि बड़े महात्मा थे। अपने गुरुदेवके शाप देनेपर भी वे सत्यसे नहीं डिगे। उन्होंने वामनभगवान्की विधिपूर्वक पूजा की और हाथमें जल लेकर तीन पग भूमिका सङ्कल्प कर दिया ।।१६।। उसी समय राजा बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, जो मोतियोंके गहनोंसे सुसज्जित थी, वहाँ आयी। उसने अपने हाथों वामनभगवान्के चरण पखारनेके लिये जलसे भरा सोनेका कलश लाकर दिया ।।१७।। बलिने स्वयं बड़े आनन्दसे उनके सुन्दर-सुन्दर युगल चरणोंको धोया और उनके चरणोंका वह विश्वपावन जल अपने सिरपर चढ़ाया ।।१८।।
इसी समय एक बड़ी अद्भुत घटना घट गयी। अनन्त भगवान्का वह त्रिगुणात्मक वामनरूप बढ़ने लगा। वह यहाँतक बढ़ा कि पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु-पक्षी, मनुष्य, देवता और ऋषि—सब-के-सब उसीमें समा गये ।।२१।। ऋत्विज्, आचार्य और सदस्योंके साथ बलिने समस्त ऐश्वर्योंके एकमात्र स्वामी भगवान्के उस त्रिगुणात्मक शरीरमें पंचभूत, इन्द्रिय, उनके विषय, अन्तःकरण और जीवोंके साथ वह सम्पूर्ण त्रिगुणमय जगत् देखा ।।२२।। राजा बलिने विश्वरूपभगवान्के चरणतलमें रसातल, चरणोंमें पृथ्वी, पिंडलियोंमें पर्वत, घुटनोंमें पक्षी और जाँघोंमें मरुद्गणको देखा ।।२३।। इसी प्रकार भगवान्के वस्त्रोंमें सन्ध्या, गुह्यस्थानोंमें प्रजापतिगण, जघनस्थलमें अपनेसहित समस्त असुरगण, नाभिमें आकाश, कोखमें सातों समुद्र और वक्षःस्थलमें नक्षत्रसमूह देखे ।।२४।।
उन लोगोंको भगवान्के हृदयमें धर्म, स्तनोंमें ऋत (मधुर) और सत्य वचन, मनमें चन्द्रमा, वक्षःस्थलपर हाथोंमें कमल लिये लक्ष्मीजी, कण्ठमें सामवेद और सम्पूर्ण शब्दसमूह उन्हें दीखे ।।२५।। बाहुओंमें इन्द्रादि समस्त देवगण, कानोंमें दिशाएँ, मस्तकमें स्वर्ग, केशोंमें मेघमाला, नासिकामें वायु, नेत्रोंमें सूर्य और मुखमें अग्नि दिखायी पड़े ।।२६।। वाणीमें वेद, रसनामें वरुण, भौंहोंमें विधि और निषेध, पलकोंमें दिन और रात। विश्वरूपके ललाटमें क्रोध और नीचेके ओठमें लोभके दर्शन हुए ।।२७।। परीक्षित्! उनके स्पर्शमें काम, वीर्यमें जल, पीठमें अधर्म, पदविन्यासमें यज्ञ, छायामें मृत्यु, हँसीमें माया और शरीरके रोमोंमें सब प्रकारकी ओषधियाँ थीं ।।२८।। उनकी नाड़ियोंमें नदियाँ, नखोंमें शिलाएँ और बुद्धिमें ब्रह्मा, देवता एवं ऋषिगण दीख पड़े। इस प्रकार वीरवर बलिने भगवान्की इन्द्रियों और शरीरमें सभी चराचर प्राणियोंका दर्शन किया ।।२९।।
इसी समय भगवान्के पास असह्य तेजवाला सुदर्शन चक्र, गरजते हुए मेघके समान भयंकर टंकार करनेवाला शार्ङ्गधनुष, बादलकी तरह गम्भीर शब्द करनेवाला पांचजन्य शंख, विष्णुभगवान्की अत्यन्त वेगवती कौमोदकी गदा, सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल और विद्याधर नामकी तलवार, अक्षय बाणोंसे भरे दो तरकश तथा लोकपालोंके सहित भगवान्के सुनन्द आदि पार्षदगण सेवा करनेके लिये उपस्थित हो गये। उस समय भगवान्की बड़ी शोभा हुई। मस्तकपर मुकुट, बाहुओंमें बाजूबंद, कानोंमें मकराकृति कुण्डल, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि, कमरमें मेखला और कंधेपर पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ।।३०-३२।।
वे पाँच प्रकारके पुष्पोंकी बनी वनमाला धारण किये हुए थे, जिसपर मधुलोभी भौंरे गुंजार कर रहे थे। उन्होंने अपने एक पगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली, शरीरसे आकाश और भुजाओंसे दिशाएँ घेर लीं; दूसरे पगसे उन्होंने स्वर्गको भी नाप लिया। तीसरा पैर रखनेके लिये बलिकी तनिक-सी भी कोई वस्तु न बची। भगवान्का वह दूसरा पग ही ऊपरकी ओर जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोकमें पहुँच गया ।।३३-३४।।
अथैकविंशोऽध्यायः बलिका बाँधा जाना
भगवान् ब्रह्माकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। वे विष्णुभगवान्के नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करनेके बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूपभगवान्के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्यपाद्यसे पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्तिसे उन्होंने भगवान्की स्तुति की ।।३।।
ब्रह्माके कमण्डलुका वही जल विश्वरूप भगवान्के पाँव पखारनेसे पवित्र होनेके कारण उन गंगाजीके रूपमें परिणत हो गया, जो आकाशमार्गसे पृथ्वीपर गिरकर तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं। ये गंगाजी क्या हैं, भगवान्की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति ।।४।।
नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वत—ये सभी भगवान्के पार्षद दस-दस हजार हाथियोंका बल रखते हैं।
February 24, 2025
हरि ॐ नमो नारायणा
अथ द्वाविंशोऽध्यायः बलिके द्वारा भगवान्की स्तुति और भगवान्का उसपर प्रसन्न होना
प्रभो! मेरे पितामह प्रह्लादजीकी कीर्ति सारे जगत्में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपुने आपसे वैर-विरोध रखनेके कारण उन्हें अनेकों प्रकारके दुःख दिये। परन्तु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आपपर ही निछावर कर दिया ।।८।। उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीरको लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमाके समान भगवान्के प्रेमपात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे ।।१२।। राजा बलिने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमलके समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं ।।१३।।
बलि इस समय वरुणपाशमें बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लादजीके आनेपर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओंसे चंचल हो उठे, लज्जाके मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ।।१४।। प्रह्लादजीने देखा कि भक्तवत्सल भगवान् वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेमके उद्रेकसे प्रह्लादजीका शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखोंमें आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदयसे सिर झुकाये अपने स्वामीके पास गये और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया ।।१५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! प्रह्लादजी अंजलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान् ब्रह्माजीने वामनभगवान्से कुछ कहना चाहा ।।१८।। परन्तु इतनेमें ही राजा बलिकी परम साध्वी पत्नी विन्ध्यावलीने अपने पतिको बँधा देखकर भयभीत हो भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान्से बोली ।।१९।।
विन्ध्यावलीने कहा—प्रभो! आपने अपनी क्रीडाके लिये ही इस सम्पूर्ण जगत्की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपनेको इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी मायासे मोहित होकर अपनेको झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे? ।।२०।।
ब्रह्माजीने कहा—समस्त प्राणियोंके जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्डका पात्र नहीं है ।।२१।। इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्यसे च्युत नहीं हुआ है ।।२२।। प्रभो! जो मनुष्य सच्चे हृदयसे कृपणता छोड़कर आपके चरणोंमें जलका अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादलसे भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। फिर बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दुःखका भागी कैसे हो सकता है? ।।२३।।
श्रीभगवान्ने कहा—ब्रह्माजी! मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धनके मदसे मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगोंका तिरस्कार करने लगता है ।।२४।। यह जीव अपने कर्मोंके कारण विवश होकर अनेक योनियोंमें भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपासे मनुष्यका शरीर प्राप्त करता है ।।२५।। मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदिके कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है ।।२६।। कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि उत्पन्न करके मनुष्यको कल्याणके समस्त साधनोंसे वंचित कर देते हैं; परन्तु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते ।।२७।। यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दुःख भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ ।।२८।।
इसका धन छीन लिया, राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके आक्षेप किये, शत्रुओंने बाँध लिया, भाई-बन्धु छोड़कर चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ीं—यहाँतक कि गुरुदेवने भी इसको डाँटा-फटकारा और शापतक दे दिया। परन्तु इस दृढव्रतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका उपदेश किया; परन्तु इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा ।।२९-३०।।
अतः मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओंको भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तरमें यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ।।३१।। तबतक यह विश्वकर्माके बनाये हुए सुतललोकमें रहे। वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओंसे पराजय और किसी प्रकारके विघ्नोंका सामना नहीं करना पड़ता ।।३२।। [बलिको सम्बोधित कर] महाराज इन्द्रसेन! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ उस सुतललोकमें जाओ जिसे स्वर्गके देवता भी चाहते रहते हैं ।।३३।। बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरोंकी तो बात ही क्या है! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञाका उल्लंघन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ।।३४।। मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरोंकी और भोगसामग्रीकी भी सब प्रकारके विघ्नोंसे रक्षा करूँगा। वीर बलि! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ।।३५।। दानव और दैत्योंके संसर्गसे तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा वह मेरे प्रभावसे तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ।।३६।।
अथ त्रयोविंशोऽध्यायः बलिका बन्धनसे छूटकर सुतललोकको जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब सनातन पुरुष भगवान्ने इस प्रकार कहा, तो साधुओंके आदरणीय महानुभाव दैत्यराजके नेत्रोंमें आँसू छलक आये। प्रेमके उद्रेकसे उनका गला भर आया। वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीसे भगवान्से कहने लगे ।।१।।
बलिने कहा—प्रभो! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेमात्रकी चेष्टाभर की। उसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणोंके शरणागत भक्तोंको प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओंपर आपने जो कृपा कभी नहीं की वह मुझ-जैसे नीच असुरको सहज ही प्राप्त हो गयी ।।२।।
श्रीभगवान्ने कहा—बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोकमें जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलिके साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति-बन्धुओंको सुखी करो ।।९।। वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथमें लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शनके परमानन्दमें मग्न रहनेके कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायँगे ।।१०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समस्त दैत्यसेनाके स्वामी विशुद्धबुद्धि प्रह्लादजीने ‘जो आज्ञा’ कहकर, हाथ जोड़, भगवान्का आदेश मस्तकपर चढ़ाया। फिर उन्होंने बलिके साथ आदिपुरुष भगवान्की परिक्रमा की, उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोककी यात्रा की ।।११-१२।। परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीहरिने ब्रह्मवादी ऋत्विजोंकी सभामें अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्यजीसे कहा ।।१३।। ‘ब्रह्मन्! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करनेमें जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टिसे सुधर जाती है’ ।।१४।।
शुक्राचार्यजीने कहा—भगवन्! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकारसे यज्ञेश्वर यज्ञ-पुरुष आपकी पूजा की है—उसके कर्ममें कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है? ।।१५।। क्योंकि मन्त्रोंकी, अनुष्ठान-पद्धतिकी, देश, काल, पात्र और वस्तुकी सारी भूलें आपके नामसंकीर्तनमात्रसे सुधर जाती हैं; आपका नाम सारी त्रुटियोंको पूर्ण कर देता है ।।१६।। तथापि अनन्त! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करूँगा। मनुष्यके लिये सबसे बड़ा कल्याणका साधन यही है कि वह आपकी आज्ञाका पालन करे ।।१७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— इसके बाद प्रजापतियोंके स्वामी ब्रह्माजीने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अंगिरा, सनत्कुमार और शंकरजीके साथ कश्यप एवं अदितिकी प्रसन्नताके लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अभ्युदयके लिये समस्त लोक और लोकपालोंके स्वामीके पदपर वामनभगवान्का अभिषेक कर दिया ।।२०-२१।। परीक्षित्! वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मंगल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्ग—सबके रक्षकके रूपमें सबके परम कल्याणके लिये सर्वशक्तिमान् वामन-भगवान्को उन्होंने उपेन्द्रका पद दिया। उस समय सभी प्राणियोंको अत्यन्त आनन्द हुआ ।।२२-२३।।
भगवान्की लीलाएँ अनन्त हैं, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है वह मानो पृथ्वीके परमाणुओंको गिन डालना चाहता है। भगवान्के सम्बन्धमें मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठने वेदोंमें कहा है कि ‘ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान्की महिमाका पार पा सके’ ।।२९।।
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं ।।५।।
वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित—निर्गुण हैं ।।६।। परीक्षित्! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ।।७।। प्रलयकाल आ जानेके कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया ।।८।। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने दानवराज हयग्रीवकी यह चेष्टा जान ली। इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ।।९।।
कमलनयन प्रभो! जैसे देहादि अनात्मपदार्थोंमें अपनेपनका अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है ।।३०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्यभगवान्ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमें विहार करनेके लिये उनसे कहा ।।३१।।
श्रीभगवान्ने कहा—सत्यव्रत! आजसे सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमें डूब जायँगे ।।३२।। उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशिमें डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी ।।३३।।
उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना ।।३४।। उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढ़कर चारों ओर विचरण करना ।।३५।। जब प्रचण्ड आँधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुम लोग वासुकिनागके द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना ।।३६।।
सत्यव्रत! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्रमें विचरण करूँगा ।।३७।। उस समय जब तुम प्रश्न करोगे तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे ।।३८।।
उनकी आज्ञासे राजाने भगवान्का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान् प्रकट हुए। मत्स्यभगवान्का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था ।।४४।। भगवान्ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकिनागके द्वारा भगवान्के सींगमें बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रतने प्रसन्न होकर भगवान्की स्तुति की ।।४५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब राजा सत्यव्रतने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तमभगवान्ने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्वका उपदेश किया ।।५४।।
भगवान्ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं ।।५५।।
सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया ।।५६।।
इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान्ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये ।।५७।।
भगवान्की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए ।।५८।।
।। इत्यष्टमः स्कन्धः समाप्तः ।।
।। हरिः ॐ तत्सत् ।।
षट्पदी
अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णाम् । भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ।।१।।
दिव्यधुनीमकरन्दे परिमलपरिभोगसच्चिदानन्दे । श्रीपतिपदारविन्दे भवभयखेदच्छिदे वन्दे ।।२।
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् । सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ।।३।।
उद्धृतनग नगभिदनुज दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे । दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं भवतिरस्कारः ।।४।।
मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवतावता सदा वसुधाम् । परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतोऽहम् ।।५।।
दामोदर गुणमन्दिर सुन्दरवदनारविन्द गोविन्द । भवजलधिमथनमन्दर परमं दरमपनय त्वं मे ।।६।।
नारायण करुणामय शरणं करवाणि तावकौ चरणौ । इति षट्पदी मदीये वदनसरोजे सदा वसतु ।।७।।
कैवल्याष्टकम्
मधुरं मधुरेभ्योऽपि मङ्गलेभ्योऽपि मङ्गलम् । पावनं पावनेभ्योऽपि हरेर्नामैव केवलम् ।।१।।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मायामयं जगत् । सत्यं सत्यं पुनः सत्यं हरेर्नामैव केवलम् ।।२।।
स गुरुः स पिता चापि सा माता बान्धवोऽपि सः । शिक्षयेच्चेत्सदा स्पर्तुं हरेर्नामैव केवलम् ।।३।।
निःश्वासे न हि विश्वासः कदा रुद्धो भविष्यति । कीर्तनीयमतो बाल्याद्धरेर्नामैव केवलम् ।।४।।
हरिः सदा वसेत्तत्र यत्र भागवता जनाः । गायन्ति भक्तिभावेन हरेर्नामैव केवलम् ।।५।।
अहो दुःखं महादुःखं दुःखाद् दुःखतरं यतः । काचार्थं विस्मृतं रत्नं हरेर्नामैव केवलम् ।।६।।
दीयतां दीयतां कर्णो नीयतां नीयतां वचः । गीयतां गीयतां नित्यं हरेर्नामैव केवलम् ।।७।।
तृणीकृत्य जगत्सर्वं राजते सकलोपरि । चिदानन्दमयं शुद्धं हरेर्नामैव केवलम् ।।८।।
February 24, 2025 - रात्रि
श्रीमद्भागवतमहापुराणम् नवमः स्कन्धः अथ प्रथमोऽध्यायः “वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युम्नकी कथा” मे
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! तुम मनुवंशका वर्णन संक्षेपसे सुनो। विस्तारसे तो सैकड़ों वर्षमें भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।।७।। जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, प्रलयके समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था ।।८।। महाराज! उनकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसीमें चतुर्मुख ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ ।।९।। ब्रह्माजीके मनसे मरीचि और मरीचिके पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदितिसे विवस्वान् (सूर्य)-का जन्म हुआ ।।१०।। विवस्वान्की संज्ञा नामक पत्नीसे श्राद्धदेव मनुका जन्म हुआ।
अथ द्वितीयोऽध्यायः पृषध्र आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार जब सुद्युम्न तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये, तब वैवस्वत मनुने पुत्रकी कामनासे यमुनाके तटपर सौ वर्षतक तपस्या की ।।१।। इसके बाद उन्होंने सन्तानके लिये सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिकी आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिनमें सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे ।।२।।
अथ तृतीयोऽध्यायः महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्यातिका वंश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदोंका निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अंगिरागोत्रके ऋषियोंके यज्ञमें दूसरे दिनका कर्म बतलाया था ।।१।।
परीक्षित्! शर्यातिके तीन पुत्र थे—उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्तसे रेवत हुए ।।२७।। महाराज! रेवतने समुद्रके भीतर कुशस्थली नामकी एक नगरी बसायी थी। उसीमें रहकर वे आनर्त आदि देशोंका राज्य करते थे ।।२८।। उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी। ककुद्मी अपनी कन्या रेवतीको लेकर उसके लिये वर पूछनेके उद्देश्यसे ब्रह्माजीके पास गये। उस समय ब्रह्मलोकका रास्ता ऐसे लोगोंके लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोकमें गाने-बजानेकी धूम मची हुई थी। बातचीतके लिये अवसर न मिलनेके कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये ।।२९-३०।। उत्सवके अन्तमें ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया।
उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजीने हँसकर उनसे कहा— ।।३१।।
‘महाराज! तुमने अपने मनमें जिन लोगोंके विषयमें सोच रखा था, वे सब तो कालके गालमें चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियोंकी तो बात ही क्या है, गोत्रोंके नाम भी नहीं सुनायी पड़ते ।।३२।।
इस बीचमें सत्ताईस चतुर्युगीका समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् नारायणके अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वीपर विद्यमान हैं ।।३३।। राजन्! उन्हीं नररत्नको यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदिका श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है—वे ही प्राणियोंके जीवनसर्वस्व भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतीर्ण हुए हैं।’ राजा ककुद्मीने ब्रह्माजीका यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणोंकी वन्दना की और अपने नगरमें चले आये। उनके वंशजोंने यक्षोंके भयसे वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे ।।३४-३५।। राजा ककुद्मीने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजीको सौंप दी और स्वयं तपस्या करनेके लिये भगवान् नर-नारायणके आश्रम बदरीवनकी ओर चल दिये ।।३६।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं।।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
हे प्रभु! तुम्हारा ये संसार बचपन से आज तक ना समझ आया। तुहारे ही सहारे जो हू. हम बच्चों पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखना। अपनी लाड़ली को अपने हृदय से लगए रखना।
February 25, 2025
गोविंद जय जय, गोपाल जय जय
कल और आज सपने में किसी आधुनिक दुनिया के विचित्र स्थान पर विचार किया जा रहा है। मम्मी पापा और मित्र सब मुझे इस माया की ओर हाय खेंचते रहे और मन विचलिट रहा। मेरी सखी को प्रसन्न देख कर रहे जो मन और अंतर को शांति मिटी है उसका वर्णन कैसे करु। इतने वर्षो में बस प्रभु सुमिरन में ही कुछ पल के लिए अंतर शांत हुआ है।
हे भक्तवत्सल! हे मायापति! तुम ही मेरे आश्रय हो। ना किसी की बातों पर विश्वास है, ना आस की कोई मेरी भावनाओं को समझेगा।
आज प्रातः पास के हनुमान जी के मंदिर में कल शिवरात्रि पूजन के लिए बिल्वपत्र मिला। हे भोले बाबा, ऐसी कृपा करो कि कल शिवरात्रि में मेरी सखी शिवानी और हमारे माता पिता के साथ पूजन करें और करते रहें।
अथ चतुर्थोऽध्यायः “नाभाग और अम्बरीषकी कथा”
वह आगके समान जलती हुई, हाथमें तलवार लेकर राजा अम्बरीषपर टूट पड़ी। उस समस उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे ।।४७।। परमपुरुष परमात्माने अपने सेवककी रक्षाके लिये पहलेसे ही सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोधसे गुर्राते हुए साँपको भस्म कर देती है, वैसे ही चक्रने दुर्वासाजीकी कृत्याको जलाकर राखका ढेर कर दिया ।।४८।। जब दुर्वासाजीने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचानेके लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले ।।४९।।
जैसे ऊँची-ऊँची लपटोंवाला दावानल साँपके पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान्का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। जब दुर्वासाजीने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है? तब सुमेरु पर्वतकी गुफामें प्रवेश करनेके लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े ।।५०।। दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचेके लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतकमें गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेज-वाले सुदर्शन चक्रको अपने पीछे लगा देखा ।।५१।। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्माजीके पास गये और बोले—‘ब्रह्माजी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान्के इस तेजोमय चक्रसे मेरी रक्षा कीजिये’ ।।५२।।
ब्रह्माजीने कहा—‘जब मेरी दो परार्धकी आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टिलीला समेटने लगेंगे और इस जगत्को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभंगमात्रसे यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा ।।५३।। मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजा-पति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमोंमें बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसारका हित करते हैं, (उनके भक्तके द्रोहीको बचानेके लिये हम समर्थ नहीं हैं)’ ।।५४।
जब ब्रह्माजीने इस प्रकार दुर्वासाको निराश कर दिया, तब भगवान्के चक्रसे संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकरकी शरणमें गये ।।५५।।
श्रीमहादेवजीने कहा—‘दुर्वासाजी! जिन अनन्त परमेश्वरमें ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्डके समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समयपर पैदा होते हैं और समय आनेपर फिर उनका पता भी नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं—उन प्रभुके सम्बन्धमें हम कुछ भी करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते ।।५६।।
मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान् ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर—ये हम सभी भगवान्की मायाको नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी मायाके घेरेमें हैं ।।५७-५८।।
यह चक्र उन विश्वेश्वरका शस्त्र है। यह हमलोगोंके लिये असह्य है। तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। वे भगवान् ही तुम्हारा मंगल करेंगे’ ।।५९।।
वहाँसे भी निराश होकर दुर्वासा भगवान्के परमधाम वैकुण्ठमें गये। लक्ष्मीपति भगवान् लक्ष्मीके साथ वहीं निवास करते हैं ।।६०।।
दुर्वासाजी भगवान्के चक्रकी आगसे जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान्के चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने कहा—‘हे अच्युत! हे अनन्त! आप संतोंके एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो! विश्वके जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये ।।६१।।
आपका परम प्रभाव न जाननेके कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्तका अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नामका ही उच्चारण करनेसे नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है’ ।।६२।।
श्रीभगवान्ने कहा—दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदयको अपने हाथमें कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे ।।६३।।
ब्रह्मन्! अपने भक्तोंका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तोंको छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहित लक्ष्मीको ।।६४।।
जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक—सबको छोड़कर केवल मेरी शरणमें आ गये हैं, उन्हें छोड़नेका संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? ।।६५।।
मेरे अनन्यप्रेमी भक्त सेवासे ही अपनेको परिपूर्ण—कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवाके फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समयके फेरसे नष्ट हो जानेवाली वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ।।६७।।
दुर्वासाजी! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तोंका हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ।।६८।।
दुर्वासाजी! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करनेसे आपको इस विपत्तिमें पड़ना पड़ा है, आप उसीके पास जाइये। निरपराध साधुओंके अनिष्टकी चेष्टासे अनिष्ट करनेवालेका ही अमंगल होता है ।।६९।।
इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणोंके लिये तपस्या और विद्या परम कल्याणके साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाय तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं ।।७०।।
दुर्वासाजी! आपका कल्याण हो। आप नाभाग-नन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीषके पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी ।।७१।।
जिन दुर्वासा ऋषि लक्ष्मण जी ने त्याग किया और परभु को भी सर्प दे दिया था, उन्हें अपनी भक्ति की रक्षा की लीला पढ़कर कुछ शांति मिली थी।
February 25, 2025 - रात्रि
अथ पञ्चमोऽध्यायः दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान्ने इस प्रकार आज्ञा दी तब सुदर्शन चक्रकी ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजाके पैर पकड़ लिये ।।१।। दुर्वासाजीकी यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़नेसे लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान्के चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था ।।२।।
अम्बरीषने कहा—प्रभो सुदर्शन! आप अग्निस्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डलके अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके रूपमें भी आप ही हैं ।।३।। भगवान्के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वीके रक्षक! आप इन ब्राह्मणकी रक्षा कीजिये ।।४।।
सुनाभ! आप समस्त धर्मोंकी मर्यादाके रक्षक हैं। अधर्मका आचरण करनेवाले असुरोंको भस्म करनेके लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकोंके रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मनके वेगके समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ ।।६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब राजा अम्बरीषने दुर्वासाजीको सब ओरसे जलानेवाले भगवान्के सुदर्शन चक्रकी इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थनासे चक्र शान्त हो गया ।।१२।। जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ।।१३।।
दुर्वासाजीने कहा—धन्य है! आज मैंने भगवान्के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं ।।१४।। जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिके चरण-कमलोंको दृढ़ प्रेमभावसे पकड़ लिया है—उन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते? ।।१५।। जिनके मंगलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता है—उन्हीं तीर्थपाद भगवान्के चरणकमलोंके जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है? ।।१६।।
परीक्षित्! जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया ।।१८।। राजा अम्बरीष बड़े आदरसे अतिथिके योग्य सब प्रकारकी भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदरसे कहा—‘राजन्! अब आप भी भोजन कीजिये ।।१९।। अम्बरीष! आप भगवान्के परम प्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मनको भगवान्की ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ ।।२०।।
परीक्षित्! जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटनेतक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकांक्षासे केवल जल पीकर ही रहे ।।२३।।
जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्नका उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजीका दुःखमें पड़ना और फिर अपनी ही प्रार्थनासे उनका छूटना—इन दोनों बातोंको उन्होंने अपने द्वारा होनेपर भी भगवान्की ही महिमा समझा ।।२४।। राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे।
परीक्षित्! महाराज अम्बरीषका यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्का भक्त हो जाता है ।।२७।।
प्रभु का सुदर्शन तो किस भार में दुर्वासा ऋषि का नाश कर सकता था पर प्रभु तो सबका कल्याण करते हैं। प्रभु ने उनको शिक्षा देने के लिए और भक्तों के चरित्र दर्शन की लीला की। माता यमुना हमारा भक्ति मार्ग दिखाइये। प्रभु, हम सब पर कृपा करो। अपनी लाड़ली शिवानी की उंगली पकड़े रहना, माया को भटकने न देना।
ओम जय जगदीश, स्वामी जय जगदीश हरे
राम भक्त शरणम् मम्हा
February 26, 2025
ॐ नमः शिवाय शिवाय नमः ॐ
ॐ नमः पार्वती पतये, हर-हर महादेव: शम्भो
पार्वतीपति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि
अथ षष्ठोऽध्यायः इक्ष्वाकुके वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
परीक्षित्! एक बार मनुजीके छींकनेपर उनकी नासिकासे इक्ष्वाकु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे—विकुक्षि, निमि और दण्डक ।।४।।
राजा इक्ष्वाकुने अपने गुरुदेव वसिष्ठसे ज्ञानविषयक चर्चा की। फिर योगके द्वारा शरीरका परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया ।।१०।। पिताका देहान्त हो जानेपर विकुक्षि अपनी राजधानीमें लौट आया और इस पृथ्वीका शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञोंसे भगवान्की आराधना की और संसारमें शशादके नामसे प्रसिद्ध हुआ ।।११।। विकुक्षिके पुत्रका नाम था पुरंजय। उसीको कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मोंके कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो ।।१२।।
सत्ययुगके अन्तमें देवताओंका दानवोंके साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्योंसे हार गये। तब उन्होंने वीर पुरंजयको सहायताके लिये अपना मित्र बनाया ।।१३।। पुरंजयने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्रने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओंके आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये ।।१४।। सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णुने अपनी शक्तिसे पुरंजयको भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैलपर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील)-के पास बैठ गये। वीर पुरंजयका दैत्योंके साथ अत्यन्त रोमांचकारी घोर संग्राम हुआ। युद्धमें जो-जो दैत्य उनके सामने आये पुरंजयने बाणोंके द्वारा उन्हें यमराजके हवाले कर दिया ।।१७।। पुरंजयने उनका नगर, धन और ऐश्वर्य—सब कुछ जीतकर इन्द्रको दे दिया। इसीसे उन राजर्षिको पुर जीतनेके कारण ‘पुरंजय’, इन्द्रको वाहन बनानेके कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैलके ककुद्पर बैठनेके कारण ‘ककुत्स्थ’ कहा जाता है ।।१९।।
पुरंजयका पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथुके विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्रके युवनाश्व ।।२०।। युवनाश्वके पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्तके बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए ।।२१।। ये बड़े बली थे। इन्होंने उतंक ऋषिको प्रसन्न करनेके लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रोंको साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्यका वध किया ।।२२।। इसीसे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्यके मुखकी आगसे उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे ।।२३।। परीक्षित्! बचे हुए पुत्रोंके नाम थे—दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व। दृढाश्वसे हर्यश्व और उससे निकुम्भका जन्म हुआ ।।२४।।
राजा मान्धाताकी पत्नी शशबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भसे उनके तीन पुत्र हुए—पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द।
अथ सप्तमोऽध्यायः राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्रकी कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाताके पुत्रोंमें सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्वने उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्वका हारीत। मान्धाताके वंशमें ये तीन अवान्तर गोत्रोंके प्रवर्तक हुए ।।१।। नागोंने अपनी बहिन नर्मदाका विवाह पुरुकुत्ससे कर दिया था। नागराज वासुकिकी आज्ञासे नर्मदा अपने पतिको रसातलमें ले गयी ।।२।। वहाँ भगवान्की शक्तिसे सम्पन्न होकर पुरुकुत्सने वध करनेयोग्य गन्धर्वोंको मार डाला। इसपर नागराजने प्रसन्न होकर पुरुकुत्सको वर दिया कि जो इस प्रसंगका स्मरण करेगा, वह सर्पोंसे निर्भय हो जायगा ।।३।। राजा पुरुकुत्सका पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्यके हर्यश्व, उसके अरुण और अरुणके त्रिबन्धन हुए ।।४।। त्रिबन्धनके पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशंकुके नामसे विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशंकु अपने पिता और गुरुके शापसे चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्रजीके प्रभावसे वे सशरीर स्वर्गमें चले गये। देवताओंने उन्हें वहाँसे ढकेल दिया और वे नीचेको सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे उन्हें आकाशमें ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाशमें लटके हुए दीखते हैं ।।५-६।।
परीक्षित्! आगे चलकर मैं शुनःशेपका माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्रको अपनी पत्नीके साथ सत्यमें दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञानका उपदेश किया जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्रने अपने मनको पृथ्वीमें, पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें स्थिर करके, आकाशको अहंकारमें लीन कर दिया। फिर अहंकारको महत्तत्त्वमें लीन करके उसमें ज्ञान-कलाका ध्यान किया और उससे अज्ञानको भस्म कर दिया ।।२४-२६।। इसके बाद निर्वाण-सुखकी अनुभूतिसे उस ज्ञान-कलाका भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूपमें स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्धमें किसी प्रकारका अनुमान ही किया जा सकता है ।।२७।।
अथाष्टमोऽध्यायः सगर-चरित्र
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रोहितका पुत्र था हरित। हरितसे चम्प हुआ। उसीने चम्पापुरी बसायी थी। चम्पसे सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ ।।१।। विजयका भरुक, भरुकका वृक और वृकका पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओंने बाहुकसे राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नीके साथ वनमें चला गया ।।२।। वनमें जानेपर बुढ़ापेके कारण जब बाहुककी मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होनेको उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्वको यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होनेसे रोक दिया ।।३।। जब उसकी सौतोंको यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे भोजनके साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भपर उस विषका कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विषको लिये हुए ही एक बालकका जन्म हुआ जो गरके साथ पैदा होनेके कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए ।।४।।
राजा सगरने और्व ऋषिके उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञके द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान् भगवान्की आराधना की। उसके यज्ञमें जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्रने चुरा लिया ।।७-८।। उस समय महारानी सुमतिके गर्भसे उत्पन्न सगरके पुत्रोंने अपने पिताके आज्ञानुसार घोड़ेके लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमण्डसे सब ओरसे पृथ्वीको खोद डाला ।।९।। खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तरके कोनेपर कपिलमुनिके पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़ेको देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि ‘यही हमारे घोड़ेको चुरानेवाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो!’ उसी समय कपिलमुनिने अपनी पलकें खोलीं ।।१०-११।। इन्द्रने राजकुमारोंकी बुद्धि हर ली थी, इसीसे उन्होंने कपिलमुनि-जैसे महापुरुषका तिरस्कार किया। इस तिरस्कारके फलस्वरूप उनके शरीरमें ही आग जल उठी जिससे क्षणभरमें ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये ।।१२।। परीक्षित्! सगरके लड़के कपिलमुनिके क्रोधसे जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुणके परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत्को पवित्र करता रहता है। उनमें भला क्रोधरूप तमोगुणकी सम्भावना कैसे की जा सकती है। भला, कहीं पृथ्वीकी धूलका भी आकाशसे सम्बन्ध होता है? ।।१३।। यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परन्तु कपिलमुनिने इस जगत्में सांख्यशास्त्रकी एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है जिससे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्रके पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला, यह शत्रु है और यह मित्र—इस प्रकारकी भेदबुद्धि कैसे हो सकती है? ।।१४।।
सगरकी दूसरी पत्नीका नाम था केशिनी। उसके गर्भसे उन्हें असमंजस नामका पुत्र हुआ था। असमंजसके पुत्रका नाम था अंशुमान्। वह अपने दादा सगरकी आज्ञाओंके पालन तथा उन्हींकी सेवामें लगा रहता ।।१५।।
अंशुमान्ने कहा—भगवन्! आप अजन्मा ब्रह्माजीसे भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखनेकी बात तो अलग रही—वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आजतक आपको समझ भी नहीं पाये। हमलोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धिसे होनेवाली सृष्टिके द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं ।।२२।। इसका कारण यह है कि वे आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होनेके कारण बाहरकी वस्तुओंको तो देखते हैं, पर अपने ही हृदयमें स्थित आपको नहीं देख पाते ।।२३।। मायाके गुणोंमें ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ? ।।२४।।आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं ।।२५।। समस्त प्राणियोंके आत्मा प्रभो! आज आपके दर्शनसे मेरे मोहकी वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियोंको जीवनदान देती है ।।२७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अंशुमान्ने भगवान् कपिलमुनिके प्रभावका इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान्पर बड़ा अनुग्रह किया और कहा ।।२८।।
श्रीभगवान्ने कहा—‘बेटा! यह घोड़ा तुम्हारे पितामहका यज्ञपशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओंका उद्धार केवल गंगाजलसे होगा, और कोई उपाय नहीं है’ ।।२९।। अंशुमान्ने बड़ी नम्रतासे उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़ेको ले आये। सगरने उस यज्ञपशुके द्वारा यज्ञकी शेष क्रिया समाप्त की ।।३०।। तब राजा सगरने अंशुमान्को राज्यका भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयोंसे निःस्पृह एवं बन्धनमुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्वके बतलाये हुए मार्गसे परमपदकी प्राप्ति की ।।३१।।
February 27, 2025
आज सपने में रोते रोते प्रभु से यही पूछता रहा सत्य क्या है, क्या पूरा जीवन इस दुविधा में ही निकल जाएगा? 5 बजे से इसी व्याकुलता बार बार जग रहा हूं।
प्रभु हम सब पे कृपा करो। पता नहीं तुम्हारी लाडली मेरे साथ ऐसा क्यों करती, पता नहीं मीनू के अंतर में क्या चल रहा है! हे प्रभु हम बच्चों की उंगली पकडे रहना, माया के मेले में भटकने से बचाय रहना।
ॐ मंगलम ओमकार मंगलम शिव जी का परिवार मंगलम
अथ नवमोऽध्यायः भगीरथ-चरित्र और गंगावतरण मे
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अंशुमान्ने गंगाजीको लानेकी कामनासे बहुत वर्षोंतक घोर तपस्या की; परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आनेपर उनकी मृत्यु हो गयी ।।१।। अंशुमान्के पुत्र दिलीपने भी वैसी ही तपस्या की; परन्तु वे भी असफल ही रहे, समयपर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीपके पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की ।।२।। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती गंगाने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि—‘मैं तुम्हें वर देनेके लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने बड़ी नम्रतासे अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मर्त्यलोकमें चलिये’ ।।३।।
[गंगाजीने कहा—] ‘जिस समय मैं स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरूँ उस समय मेरे वेगको कोई धारण करनेवाला होना चाहिये। भगीरथ! ऐसा न होनेपर मैं पृथ्वीको फोड़कर रसातलमें चली जाऊँगी ।।४।। इसके अतिरिक्त इस कारणसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पापको कहाँ धोऊँगी। भगीरथ! इस विषयमें तुम स्वयं विचार कर लो’ ।।५।।
भगीरथने कहा—‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्रकी कामनाका संन्यास कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी सज्जन हैं—वे अपने अंगस्पर्शसे तुम्हारे पापोंको नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदयमें अघरूप अघासुरको मारनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं ।।६।। समस्त प्राणियोंके आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतोंमें ओत-प्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान् रुद्रमें ही ओत-प्रोत है’ ।।७।। परीक्षित्! गंगाजीसे इस प्रकार कहकर राजा भगीरथने तपस्याके द्वारा भगवान् शंकरको प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनोंमें महादेवजी उनपर प्रसन्न हो गये ।।८।। भगवान् शंकर तो सम्पूर्ण विश्वके हितैषी हैं, राजाकी बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजीने सावधान होकर गंगाजीको अपने सिरपर धारण किया। क्यों न हो, भगवान्के चरणोंका सम्पर्क होनेके कारण गंगाजीका जल परम पवित्र जो है ।।९।। इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गंगाजीको वहाँ ले गये जहाँ उनके पितरोंके शरीर राखके ढेर बने पड़े थे ।।१०।। वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्गमें पड़नेवाले देशोंको पवित्र करती हुई गंगाजी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गंगासागर-संगमपर पहुँचकर उन्होंने सगरके जले हुए पुत्रोंको अपने जलमें डुबा दिया ।।११।। यद्यपि सगरके पुत्र ब्राह्मणके तिरस्कारके कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धारका कोई उपाय न था—फिर भी केवल शरीरकी राखके साथ गंगाजलका स्पर्श हो जानेसे ही वे स्वर्गमें चले गये ।।१२।। परीक्षित्! जब गंगाजलसे शरीरकी राखका स्पर्श हो जानेसे सगरके पुत्रोंको स्वर्गकी प्राप्ति हो गयी तब जो लोग श्रद्धाके साथ नियम लेकर श्रीगंगाजीका सेवन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।१३।।
मैंने गंगाजीकी महिमाके सम्बन्धमें जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि गंगाजी भगवान्के उन चरणकमलोंसे निकली हैं, जिनका श्रद्धाके साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणोंके कठिन बन्धनको काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गंगाजी संसारका बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है ।।१४-१५।।
अथ दशमोऽध्यायः भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन मे
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! खट्वांगके पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहुके परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघुके अज और अजके पुत्र महाराज दशरथ हुए ।।१।। देवताओंकी प्रार्थनासे साक्षात् परमब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि ही अपने अंशांशसे चार रूप धारण करके राजा दशरथके पुत्र हुए। उनके नाम थे—राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ।।२।। परीक्षित्! सीतापति भगवान् श्रीरामका चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियोंने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है ।।३।।
भगवान् श्रीरामने अपने पिता राजा दशरथके सत्यकी रक्षाके लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वनमें फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकीजीके करकमलोंका स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वनमें चलते-चलते थक जाते, तब हनूमान् और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखाको नाक-कान काटकर विरूप कर देनेके कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकीजीका वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोगके कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्रतक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्रपर पुल बाँधा और लंकामें जाकर दुष्ट राक्षसोंके जंगलको दावाग्निके समान दग्ध कर दिया। वे कोसलनरेश हमारी रक्षा करें ।।४।।
भगवान् श्रीरामने विश्वामित्रके यज्ञमें लक्ष्मणके सामने ही मारीच आदि राक्षसोंको मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसोंकी गिनतीमें थे ।।५।। परीक्षित्! जनकपुरमें सीताजीका स्वयंवर हो रहा था। संसारके चुने हुए वीरोंकी सभामें भगवान् शंकरका वह भयंकर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाईसे उसे स्वयंवरसभामें ला सके थे। भगवान् श्रीरामने उस धनुषको बात-की-बातमें उठाकर उसपर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोबीचसे उसके दो टुकड़े कर दिये—ठीक वैसे ही, जैसे हाथीका बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले ।।६।। भगवान्ने जिन्हें अपने वक्षःस्थलपर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मीजी ही सीताके नामसे जनकपुरमें अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीरकी गठन और सौन्दर्यमें सर्वथा भगवान् श्रीरामके अनुरूप थीं।अयोध्याको लौटते समय मार्गमें उन परशुरामजीसे भेंट हुई जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको राजवंशके बीजसे भी रहित कर दिया था। भगवान्ने उनके बढ़े हुए गर्वको नष्ट कर दिया ।।७।।
इसके बाद पिताके वचनको सत्य करनेके लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथने अपनी पत्नीके अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था, फिर भी वे सत्यके बन्धनमें बँध गये थे। इसलिये भगवान्ने अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की। उन्होंने प्राणोंके समान प्यारे राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलोंको वैसे ही छोड़कर अपनी पत्नीके साथ यात्रा की, जैसे मुक्तसंग योगी प्राणोंको छोड़ देता है ।।८।। वनमें पहुँचकर भगवान्ने राक्षसराज रावणकी बहिन शूर्पणखाको विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, कामवासनाके कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयोंको—जो संख्यामें चौदह हजार थे—हाथमें महान् धनुष लेकर भगावन् श्रीरामने नष्ट कर डाला; और अनेक प्रकारकी कठिनाइयोंसे परिपूर्ण वनमें वे इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे ।।९।। परीक्षित्! जब रावणने सीताजीके रूप, गुण, सौन्दर्य आदिकी बात सुनी तो उसका हृदय कामवासनासे आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिनके वेषमें मारीचको उनकी पर्णकुटीके पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान्को वहाँसे दूर ले गया। अन्तमें भगवान्ने अपने बाणसे उसे बात-की-बातमें वैसे ही मार डाला, जैसे दक्षप्रजापतिको वीरभद्रने मारा था ।।१०।। जब भगवान् श्रीराम जंगलमें दूर निकल गये, तब (लक्ष्मणकी अनुपस्थितिमें) नीच राक्षस रावणने भेड़ियेके समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीताजीको हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीताजीसे बिछुड़कर अपने भाई लक्ष्मणके साथ वन-वनमें दीनकी भाँति घूमने लगे। और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि ‘जो स्त्रियोंमें आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है’ ।।११।। इसके बाद भगवान्ने उस जटायुका दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्मबन्धन भगवत्सेवारूप कर्मसे पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान्ने कबन्धका संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरोंसे मित्रता करके वालिका वध किया, तदनन्तर वानरोंके द्वारा अपनी प्राणप्रियाका पता लगवाया। ब्रह्मा और शंकर जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं वे भगवान् श्रीराम मनुष्यकी-सी लीला करते हुए बंदरोंकी सेनाके साथ समुद्रतटपर पहुँचे ।।१२।। (वहाँ उपवास और प्रार्थनासे जब समुद्रपर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान्ने क्रोधकी लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्रपर डाली। उसी समय समुद्रके बड़े-बड़े मगर और मच्छ खलबला उठे। डर जानेके कारण समुद्रकी सारी गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिरपर बहुत-सी भेंटें लेकर भगवान्के चरणकमलोंकी शरणमें आया और इस प्रकार कहने लगा ।।१३।। ‘अनन्त! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। जानें भी कैसे? आप समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत्के समस्त परिवर्तनोंमें एकरस रहनेवाले हैं। आप समस्त गुणोंके स्वामी हैं। इसलिये जब आप सत्त्वगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब देवताओंकी, रजोगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियोंकी और तमोगुणको स्वीकार कर लेते हैं तब आपके क्रोधसे रुद्रगणकी उत्पत्ति होती है ।।१४।। वीरशिरोमणे! आप अपनी इच्छाके अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकीको रुलानेवाले विश्रवाके कुपूत रावणको मारकर अपनी पत्नीको फिरसे प्राप्त कीजिये। परन्तु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझपर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आपके यशका विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यशका गान करेंगे’ ।।१५।।
भगवान् श्रीरामजीने अनेकानेक पर्वतोंके शिखरोंसे समुद्रपर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथोंसे पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँपने लगती थीं। इसके बाद विभीषणकी सलाहसे भगवान्ने सुग्रीव, नील, हनूमान् आदि प्रमुख वीरों और वानरीसेनाके साथ लंकामें प्रवेश किया। वह तो श्रीहनूमान्जीके द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी ।।१६।।
उस समय वानरराजकी सेनाने लंकाके सैर करने और खेलनेके स्थान, अन्नके गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभाभवन, छज्जे और पक्षियोंके रहनेके स्थानतकको घेर लिया। उन्होंने वहाँकी वेदी, ध्वजाएँ, सोनेके कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लंका ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हाथियोंने किसी नदीको मथ डाला हो ।।१७।। यह देखकर राक्षसराज रावणने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्तमें भाई कुम्भकर्णको भी युद्ध करनेके लिये भेजा ।।१८।।
राक्षसोंकी वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रोंसे सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान् श्रीरामने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनूमान्, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान् और पनस आदि वीरोंको अपने साथ लेकर राक्षसोंकी सेनाका सामना किया ।।१९।। रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामके अंगद आदि सब सेनापति राक्षसोंकी चतुरंगिणी सेना—हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलोंके साथ द्वन्द्वयुद्धकी रीतिसे भिड़ गये और राक्षसोंको वृक्ष, पर्वतशिखर, गदा और बाणोंसे मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावणके अनुचर थे, जिसका मंगल श्रीसीताजीको स्पर्श करनेके कारण पहले ही नष्ट हो चुका था ।।२०।।
जब राक्षसराज रावणने देखा कि मेरी सेनाका तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोधमें भरकर पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो भगवान् श्रीरामके सामने आया। उस समय इन्द्रका सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उसपर भगवान् श्रीरामजी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणोंसे उनपर प्रहार करने लगा ।।२१।।
भगवान् श्रीरामजीने रावणसे कहा—‘नीच राक्षस! तुम कुत्तेकी तरह हमारी अनुपस्थितिमें हमारी प्राणप्रिया पत्नीको हर लाये! तुमने दुष्टताकी हद कर दी! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे कालको कोई टाल नहीं सकता—कर्तापनके अभिमानीको वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनीका फल चखाता हूँ’ ।।२२।।
इस प्रकार रावणको फटकारते हुए भगवान् श्रीरामने अपने धनुषपर चढ़ाया हुआ बाण उसपर छोड़ा। उस बाणने वज्रके समान उसके हृदयको विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखोंसे खून उगलता हुआ विमानसे गिर पड़ा—ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मालोग भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन ‘हाय-हाय’ करके चिल्लाने लगे ।।२३।।
तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरीके साथ रोती हुई लंकासे निकल पड़ीं और रणभूमिमें आयीं ।।२४।। उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मणजीके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियोंको हृदयसे लगा-लगाकर ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ।।२५।।
कभी आपके कामोंसे हम सब और समस्त राक्षसवंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लंका नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधोंका आहार बन रहा है और अपने आत्माको आपने नरकका अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकताका फल है ।।२८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कोसलाधीश भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विभीषणने अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका पितृयज्ञकी विधिसे शास्त्रके अनुसार अन्त्येष्टिकर्म किया ।।२९।। इसके बाद भगवान् श्रीरामने अशोक-वाटिकाके आश्रममें अशोक वृक्षके नीचे बैठी हुई श्रीसीताजीको देखा। वे उन्हींके विरहकी व्याधिसे पीड़ित एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं ।।३०।। अपनी प्राणप्रिया अर्धांगिनी श्रीसीताजीको अत्यन्त दीन अवस्थामें देखकर श्रीरामका हृदय प्रेम और कृपासे भर आया। इधर भगवान्का दर्शन पाकर सीताजीका हृदय प्रेम और आनन्दसे परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा ।।३१।। भगवान्ने विभीषणको राक्षसोंका स्वामित्व, लंकापुरीका राज्य और एक कल्पकी आयु दी और इसके बाद पहले सीताजीको विमानपर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनुमान्जीके साथ स्वयं भी विमानपर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्षका व्रत पूरा हो जानेपर उन्होंने अपने नगरकी यात्रा की। उस समय मार्गमें ब्रह्मा आदि लोकपालगण उनपर बड़े प्रेमसे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ।।३२-३३।।
इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्दसे भगवान्की लीलाओंका गान कर रहे थे और उधर जब भगवान्को यह मालूम हुआ कि भरतजी केवल गोमूत्रमें पकाया हुआ जौका दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वीपर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुःखी हुए। उनकी दशाका स्मरण कर परम करुणाशील भगवान्का हृदय भर आया। जब भरतको मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीरामजी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर एवं भगवान्की पादुकाएँ सिरपर रखकर उनकी अगवानीके लिये चले। जब भरतजी अपने रहनेके स्थान नन्दिग्रामसे चले, तब लोग उनके साथ-साथ मंगलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोनेसे मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओंसे सजे हुए रथ, सुनहले साजसे सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सोनेके कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वारांगनाएँ, पैदल चलनेवाले सेवक और महाराजाओंके योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं। भगवान्को देखते ही प्रेमके उद्रेकसे भरतजीका हृदय गद्गद हो गया, नेत्रोंमें आँसू छलक आये, वे भगवान्के चरणोंपर गिर पड़े ।।३४-३९।। उन्होंने प्रभुके सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती जा रही थी। भगवान्ने अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर बहुत देरतक भरतजीको हृदयसे लगाये रखा। भगवान्के नेत्रजलसे भरतजीका स्नान हो गया ।।४०।। इसके बाद सीताजी और लक्ष्मणजीके साथ भगवान् श्रीरामजीने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनोंको नमस्कार किया तथा सारी प्रजाने बड़े प्रेमसे सिर झुकाकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया ।।४१।। उस समय उत्तरकोसल देशकी रहनेवाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान्को बहुत दिनोंके बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आनन्दसे नाचने लगी ।।४२।। भरतजीने भगवान्की पादुकाएँ लीं, विभीषणने श्रेष्ठ चँवर, सुग्रीवने पंखा और श्रीहनुमान्जीने श्वेत छत्र ग्रहण किया ।।४३।। परीक्षित्! शत्रुघ्नजीने धनुष और तरकस, सीताजीने तीर्थेंके जलसे भरा कमण्डलु, अंगदने सोनेका खड्ग और जाम्बवान्ने ढाल ले ली ।।४४।।
इन लोगोंके साथ भगवान् पुष्पक विमानपर विराजमान हो गये, चारों तरफ यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमानपर भगवान् श्रीरामकी ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहोंके साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों ।।४५।।
इस प्रकार भगवान्ने भाइयोंका अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सवसे परिपूर्ण हो रही थी। राजमहलमें प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबरके मित्रों और छोटोंका यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीताजी और लक्ष्मणजीने भी भगवान्के साथ-साथ सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार किया ।।४६-४७।। उस समय जैसे मृतक शरीरमें प्राणोंका संचार हो जाय, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रोंके आगमनसे हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोदमें बैठा लिया और अपने आँसुओंसे उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया ।।४८।। इसके बाद वसिष्ठजीने दूसरे गुरुजनोंके साथ विधि-पूर्वक भगवान्की जटा उतरवायी और बृहस्पतिने जैसे इन्द्रका अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रोंके जल आदिसे उनका अभिषेक किया ।।४९।। इस प्रकार सिरसे स्नान करके भगवान् श्रीरामने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकीजीने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान् श्रीरामजी अत्यन्त शोभायमान हुए ।।५०।। भरतजीने उनके चरणोंमें गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करनेपर भगवान् श्रीरामने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्ममें तत्पर तथा वर्णाश्रमके आचारको निभानेवाली प्रजाका पिताके समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी ।।५१।।
परीक्षित्! जब समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाले परम धर्मज्ञ भगवान् श्रीराम राजा हुए तब था तो त्रेतायुग, परन्तु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है ।।५२।। परीक्षित्! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र—सब-के-सब प्रजाके लिये कामधेनुके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले बन रहे थे ।।५३।। इन्द्रियातीत भगवान् श्रीरामके राज्य करते समय किसीको मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाममात्रके लिये भी नहीं थे। यहाँतक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी ।।५४।। भगवान् श्रीरामने एकपत्नीका व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अत्यन्त पवित्र एवं राजर्षियोंके-से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्मकी शिक्षा देनेके लिये स्वयं उस धर्मका आचरण करते थे ।।५५।। सती-शिरोमणि सीताजी अपने पतिके हृदयका भाव जानती रहतीं। वे प्रेमसे, सेवासे, शीलसे, अत्यन्त विनयसे तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणोंसे अपने पति भगवान् श्रीरामजीका चित्त चुराती रहती थीं ।।५६।।
अथैकादशोऽध्यायः भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
सचमुच सब लोगोंको प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खोंकी तो कमी नहीं है।
समय आनेपर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए—कुश और लव। वाल्मीकि मुनिने उनके जात-कर्मादि संस्कार किये ।।११।।
लक्ष्मणजीके दो पुत्र हुए—अंगद और चित्रकेतु। परीक्षित्! इसी प्रकार भरतजीके भी दो ही पुत्र थे—तक्ष और पुष्कल ।।१२।। तथा शत्रुघ्नके भी दो पुत्र हुए—सुबाहु और श्रुतसेन। भरतजीने दिग्विजयमें करोड़ों गन्धर्वोंका संहार किया ।।१३।। उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान् श्रीरामकी सेवामें निवेदन किया। शत्रुघ्नजीने मधुवनमें मधुके पुत्र लवण नामक राक्षसको मारकर वहाँ मथुरा नामकी पुरी बसायी ।।१४।। भगवान् श्रीरामके द्वारा निर्वासित सीताजीने अपने पुत्रोंको वाल्मीकिजीके हाथोंमें सौंप दिया और भगवान् श्रीरामके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवीके लोकमें चली गयीं ।।१५।। यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीरामने अपने शोका-वेशको बुद्धिके द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होनेपर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकीजीके पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे ।।१६।।
इसके बाद भगवान् श्रीरामने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक अखण्डरूपसे अग्निहोत्र किया ।।१८।। तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंके हृदयमें अपने उन चरणकमलोंको स्थापित करके, जो दण्डकवनके काँटोंसे बिंध गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाममें चले गये ।।१९।। परीक्षित्! भगवान्के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थितिमें रघुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीरामके लिये यह कोई बड़े गौरवकी बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंसे राक्षसोंको मार डाला या समुद्रपर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओंको मारनेके लिये बंदरोंकी सहायताकी भी आवश्यकता थी क्या? यह सब उनकी लीला ही है ।।२०।।
भगवान् श्रीरामका निर्मल यश समस्त पापोंको नष्ट कर देनेवाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजोंका श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलतासे चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि राजाओंकी सभामें उसका गान करते रहते हैं। स्वर्गके देवता और पृथ्वीके नरपति अपने कमनीय किरीटोंसे उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्रकी शरण ग्रहण करता हूँ ।।२१।।
जिन्होंने भगवान् श्रीरामका दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया—वे सब-के-सब तथा कोसलदेशके निवासी भी उसी लोकमें गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योग-साधनाके द्वारा जाते हैं ।।२२।। जो पुरुष अपने कानोंसे भगवान् श्रीरामका चरित्र सुनता है—उसे सरलता, कोमलता आदि गुणोंकी प्राप्ति होती है। परीक्षित्! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ।।२३।।
उस समय अयोध्यापुरीके मार्ग सुगन्धित जल और हाथियोंके मदकणोंसे सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान् श्रीरामको देखकर अत्यन्त मतवाली हो रही है ।।२६।।
प्रभु तुम्हारा चरित्र पढ़ कर मन तो कुछ शांत हुआ पर प्रश्नों की ज्वाला नहीं शांत हो रही।
February 27, 2025 - दोपहर
फोटो देख कर अजीब सा एहसास था. एक तरफ मेरी सखी को देख कर तो एक पृष्ठ को तो चित्त अनादित हुआ, पर जब याद आया कि ये मेरे लिए नहीं कर रही तो सब बिखर गया। प्रभु रूलाने में कोई कसर नहीं छोड़ता हूं और ऐसे हालात कर देता हूं कि रो भी नहीं पता।
पता नहीं किस आधार पे कहती है मैं शुभम जैसा हूं? क्या कभी शुभम से वैसा व्यवहार करती जैसे मेरे साथ किया? क्या कभी शुभम के पास आने पर भाग जाती है। अंकलजी के कहने पर ही शुभम से बात करती है क्या? क्या शुभम को ऑनलाइन ब्लॉक कर रखा है?
कहती हैं मम्मी पापा को सब बता देती हूं, तो अंकलजी ने भी क्यों नहीं बताया कि मेरे साथ ऐसा क्यों करती है?
बचपन से समझ नहीं आया क्यों मीनू को देख कर मन और अंतर शांत हो जाता है और प्रभु से बात करने लगता है, और दूरी व्याकुल कर देती है, और प्रभु से प्रश्न करने लगता है। कितने प्रश्न हैं जिनका उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ!
इतने वर्षों में इतना बार ह्रदय विदीर्ण हुआ है कि अब यहीं जीवन हो गया है।
February 27, 2025
श्रितकमलाकुचमण्डल धृतकुण्डल ए। कलितललितवनमाल जय जय देव हरे।। दिनमणिमण्डलमण्डन भवखण्डन ए। मुनिजनमानसहंस जय जय देव हरे।। श्रित ..।। कालियविषधरगंजन जनरंजन ए। यदुकुलनलिनदिनेश जय जय देव हरे।। श्रित ..।। मधुमुरनरकविनाशन गरुडासन ए। सुरकुलकेलिनिदान जय जय देव हरे।। श्रित .. ।। अमलकमलदललोचन भवमोचन ए। त्रिभुवनभवननिधान जय जय देव हरे।। श्रित .. ।। जनकसुताकृतभूषण जितदूषण ए। समरशमितदशकण्ठ जय जय देव हरे।। श्रित ..।। अभिनवजलधरसुन्दर धृतमन्दर ए। श्रीमुखचन्द्रचकोर जय जय देव हरे।। श्रित ..।। तव चरणे प्रणता वयमिति भावय ए। कुरु कुशलं प्रणतेषु जय जय देव हरे। श्रित.. ।। श्रीजयदेवकवेरुदितमिदं कुरुते मृदम्। मंगलमंजुलगीतं जय जय देव हरे।। श्रित .. ।।
मेरे सब गुण दोष समर्पित हों, करतार तुम्हारे हाथों में ॥
विजयते श्रीगोपाल चूड़ामणिः ॥
February 28, 2025 - प्रातः
हे नाथ नारायन, 5 बजे से जबसे नीन्द टूटी है विचित्र मनोदाशा है। मन न विचलिट है न शांत, अजीब सा खलीपन है। चश्मा टूट गया और छींक छींक कर बुरा हाल है। यहीं विचार चल रहा है कि क्या मुझे मृत्यु के द्वार पर देख कर भी क्या मीनू साथी बताएगी?
February 28, 2025 - दिन
फोटो में तो सही से मुस्कुरा भी नहीं रही, लिपस्टिक भी अजीब से लगा रखी है। हर बार की तरह मीनू की कहानी और करनी नहीं। पता नहीं क्या चल रहा है मेरी सखी मेरे मन में! गले में फुल अच्छे लग रहे हैं पर कृत्रिम लग रहे हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा!
प्रभु, बद्री धाम की यात्रा यूट्यूब पर देख रहा हूं। बाकी 3 धाम में तो दर्शन दिए और जगन्नाथ पुरी में तो मुझे सामने ही रोक लिया था, पर बद्रीनाथ में तुम्हारी पूजा की थाली ही संभालता रह गया था। यहीं विचार आया कि तुम्हारी लाडली को ले आउंगा तो प्रसन्न हो कर दर्शन दोगे।
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः “विदर्भके वंशका वर्णन”
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—
वृष्णिके दो पुत्र हुए—श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्ककी पत्नीका नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूरके अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए—आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।
देवमीढके पुत्र शूरकी पत्नीका नाम था मारिषा ।।२७।। उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये—वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्णके पिता हुए। वसुदेव आदिकी पाँच बहनें भी थीं—पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे ।।३६।। परीक्षित्! पृथाकी छोटी बहिन श्रुतदेवाका विवाह करूष देशके अधिपति वृद्धशर्मासे हुआ था। उसके गर्भसे दन्तवक्त्रका जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्ममें सनकादि ऋषियोंके शापसे हिरण्याक्ष हुआ था ।।३७।।चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणिग्रहण किया ।।३९।। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्धमें) कर चुका हूँ।
आनकदुन्दुभि वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं ।।४५।। रोहिणीके गर्भसे वसुदेवजीके बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे ।।४६।।
परम उदार वसुदेवजीने देवकीके गर्भसे भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें सातके नाम हैं—कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी ।।५२-५४।। उन दोनोंके आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित्! तुम्हारी परम सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजीकी ही कन्या थीं ।।५५।।
जब-जब संसारमें धर्मका ह्रास और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ।।५६।। परीक्षित्! भगवान् सबके द्रष्टा और वास्तवमें असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमायाके अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्मका और कोई भी कारण नहीं है ।।५७।। उनकी मायाका विलास ही जीवके जन्म, जीवन और मृत्युका कारण है। और उनका अनुग्रह ही मायाको अलग करके आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेवाला है ।।५८।। जब असुरोंने राजाओंका वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वीको रौंदने लगे, तब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भगवान् मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्धमें बड़े-बड़े देवता मनसे अनुमान भी नहीं कर सकते—शरीरसे करनेकी बात तो अलग रही ।।५९-६०।।
पृथ्वीका भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुगमें पैदा होनेवाले भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये भगवान्ने ऐसे परम पवित्र यशका विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करनेसे ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ।।६१।। उनका यश क्या है, लोगोंको पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतोंके कानोंके लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कानकी अंजलियोंसे उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्मकी वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ।।६२।। परीक्षित्! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान्की लीलाओंकी आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ।।६३।।
उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था ।।६४।। भगवान्के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभासे कपोलोंका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले आनन्दमें मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी माधुरीका निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरनेसे उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी ।।६५।। लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरामें वसुदेवजीके घर, परन्तु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन—जो ग्वाल, गोपी और गौओंको सुखी करना था—पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रजमें, मथुरामें तथा द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगोंमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ।।६६।। कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपसके कलहसे उन्होंने पृथ्वीका बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्धमें अपनी दृष्टिसे ही राजाओंकी बहुत-सी अक्षौहिणियोंको ध्वंस करके संसारमें अर्जुनकी जीतका डंका पिटवा दिया। फिर उद्धवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधामको सिधार गये ।।६७।।
इति नवमः स्कन्धः समाप्तः
हरिः ॐ तत्सत्
February 28 - शाम
हे प्रभु, दशमः स्कंधः मैं तुम्हारे कृष्ण अवतार की कथा जिसका कितने दिनों से प्रतीक्षा कर रहा हूं प्रारंभ होने जा रहा है। मेरी सखी और हमारे माता पिता पर कृपा कर के भक्ति प्रदान करो, हम सब साथ में तुम्हारी कथा अमृत श्रवण करें। सोचा था मीनू के मुख से ये अमृत अंतःकरण में पहुँचेगा तो कितना आनंद दै होगा, पता नहीं क्या लीला कर रहे हो!
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना ।।
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ।।
हर हियँ रामचरित सब आए । प्रेम पुलक लोचन जल छाए ।।
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा । परमानंद अमित सुख पावा ।।
दो०—मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह ।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ।। १११ ।।
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ।।
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ।।
बंदउँ बालरूप सोइ रामू । सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ।।
मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ।।
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ।।
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी । तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ।।
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा ।।
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी ।।
दो०—राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं ।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ।। ११२ ।।
प्रभु सबकी रक्षा करो
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी। हे नाथ नारायण वासुदेवा॥
श्रीकृष्ण चरितम गुणानुवादम। तत प्रेरणाम अहम् करोमि॥
मम भाव गीतम् ह्रदयस्य प्रीतं। पद्पद्मपादे समर्पयामि॥
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
दशमः स्कन्धः
(पूर्वार्धः)
अथ प्रथमोऽध्यायः
भगवान्के द्वारा पृथ्वीको आश्वासन, वसुदेव-देवकीका विवाह और कंसके द्वारा देवकीके छः पुत्रोंकी हत्या
श्रीशुकदेवजीने कहा— भगवान्के लीला-रसके रसिक राजर्षे! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके हृदयाराध्य श्रीकृष्णकी लीला-कथा श्रवण करनेमें तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति प्राप्त हो गयी है ।।१५।। भगवान् श्रीकृष्णकी कथाके सम्बन्धमें प्रश्न करनेसे ही वक्ता, प्रश्नकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं—जैसे गंगाजीका जल या भगवान् शालग्रामका चरणामृत सभीको पवित्र कर देता है ।।१६।।
परीक्षित्! उस समय लाखों दैत्योंके दलने घमंडी राजाओंका रूप धारण कर अपने भारी भारसे पृथ्वीको आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पानेके लिये वह ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ।।१७।।
पृथ्वीने उस समय गौका रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रोंसे आँसू बह-बहकर मुँहपर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वरसे रँभा रही थी। ब्रह्माजीके पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी ।।१८।। ब्रह्माजीने बड़ी सहानुभूतिके साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान् शंकर, स्वर्गके अन्यान्य प्रमुख देवता तथा गौके रूपमें आयी हुई पृथ्वीको अपने साथ लेकर क्षीरसागरके तटपर गये ।।१९।। भगवान् देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तोंकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते और उनके समस्त क्लेशोंको नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। क्षीरसागरके तटपर पहुँचकर ब्रह्मा आदि देवताओंने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा उन्हीं परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभुकी स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधिस्थ हो गये ।।२०।। उन्होंने समाधि-अवस्थामें आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत्के निर्माणकर्ता ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा—‘देवताओ! मैंने भगवान्की वाणी सुनी है। तुमलोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालनमें विलम्ब नहीं होना चाहिये ।।२१।। भगवान्को पृथ्वीके कष्टका पहलेसे ही पता है। वे ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्तिके द्वारा पृथ्वीका भार हरण करते हुए वे जबतक पृथ्वीपर लीला करें, तबतक तुम लोग भी अपने-अपने अंशोंके साथ यदुकुलमें जन्म लेकर उनकी लीलामें सहयोग दो ।।२२।। वसुदेवजीके घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान् प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवाके लिये देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें ।।२३।।
स्वयंप्रकाश भगवान् शेष भी, जो भगवान्की कला होनेके कारण अनन्त हैं (अनन्तका अंश भी अनन्त ही होता है) और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान्के प्रिय कार्य करनेके लिये उनसे पहले ही उनके बड़े भाईके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे ।।२४।। भगवान्की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत्को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञासे उनकी लीलाके कार्य सम्पन्न करनेके लिये अंशरूपसे अवतार ग्रहण करेगी’ ।।२५।।
परीक्षित्! सत्यसन्ध पुरुष बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियोंको किसी बातकी अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे-से-बुरा काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं—जिन्होंने भगवान्को हृदयमें धारण कर रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं ।।५८।।
हे प्रभु तुम्हारा ही सहारा है। ऐसी लीला कर दो ना जिसे हम सबकी तुम्हारे चरणों में अविचल भक्ति हो जाये। मेरी सखी को अपनी माया में भटकने न देना।
कर जोड़ी कहे दास तुम्हारो प्रभु जय जय द्वारिका नाथ प्रभु जय जय द्वारिका नाथ प्रभु जय जय द्वारिका नाथ 🙏
March 1, 2025
नारायणनारायणी
हे प्रभु, विजय तो सदेव तुम्हारी ही होते हैं। मेरे प्रभु, मेरा कोई ना सहारा बिन तेरे।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||
राम राम राम राम नाम तारकम् ।राम कृष्ण वासुदेव भक्ति मुक्ति दायकम् ।।
जानकी मनोहरम सर्वलोक नायकम् ।शङ्करादि सेव्यमान पुण्यनाम कीर्तनम् ।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
अथ द्वितीयोऽध्यायः
भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब कंसने एक-एक करके देवकीके छः बालक मार डाले, तब देवकीके सातवें गर्भमें भगवान्के अंशस्वरूप श्रीशेषजी* जिन्हें अनन्त भी कहते हैं—पधारे। आनन्द-स्वरूप शेषजीके गर्भमें आनेके कारण देवकीको स्वाभाविक ही हर्ष हुआ। परन्तु कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भयसे उनका शोक भी बढ़ गया ।।४-५।।
विश्वात्मा भगवान्ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाले यदुवंशी कंसके द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमायाको यह आदेश दिया— ।।६।। ‘देवि! कल्याणी! तुम व्रजमें जाओ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओंसे सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबाके गोकुलमें वसुदेवकी पत्नी रोहिणी निवास करती हैं। उनकी और भी पत्नियाँ कंससे डरकर गुप्त स्थानोंमें रह रही हैं ।।७।। इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकीके उदरमें गर्भ रूपसे स्थित है। उसे वहाँसे निकालकर तुम रोहिणीके पेटमें रख दो ।।८।। कल्याणी! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ देवकीका पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबाकी पत्नी यशोदाके गर्भसे जन्म लेना ।।९।। तुम लोगोंको मुँहमाँगे वरदान देनेमें समर्थ होओगी। मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकारकी सामग्रियोंसे तुम्हारी पूजा करेंगे ।।१०।। पृथ्वीमें लोग तुम्हारे लिये बहुत-से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत-से नामोंसे पुकारेंगे ।।११-१२।। देवकीके गर्भमेंसे खींचे जानेके कारण शेषजीको लोग संसारमें ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करनेके कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे ।।१३।।
जब भगवान्ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमायाने ‘जो आज्ञा’—ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोकमें चली आयीं तथा भगवान्ने जैसा कहा था, वैसे ही किया ।।१४।। जब योगमायाने देवकीका गर्भ ले जाकर रोहिणीके उदरमें रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःखके साथ आपसमें कहने लगे—‘हाय! बेचारी देवकीका यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया’ ।।१५।।
भगवान् भक्तोंको अभय करनेवाले हैं। वे सर्वत्र सब रूपमें हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिये वे वसुदेवजीके मनमें अपनी समस्त कलाओंके साथ प्रकट हो गये ।।१६।। उसमें विद्यमान रहनेपर भी अपनेको अव्यक्तसे व्यक्त कर दिया। भगवान्की ज्योतिको धारण करनेके कारण वसुदेवजी सूर्यके समान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगोंकी आँखें चौंधिया जातीं। कोई भी अपने बल, वाणी या प्रभावसे उन्हें दबा नहीं सकता था ।।१७।। भगवान्के उस ज्योतिर्मय अंशको, जो जगत्का परम मंगल करनेवाला है, वसुदेवजीके द्वारा आधान किये जानेपर देवी देवकीने ग्रहण किया। जैसे पूर्वदिशा चन्द्रदेवको धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्वसे सम्पन्न देवी देवकीने विशुद्ध मनसे सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान्को धारण किया ।।१८।। भगवान् सारे जगत्के निवासस्थान हैं। देवकी उनका भी निवासस्थान बन गयी। परन्तु घड़े आदिके भीतर बंद किये हुए दीपकका और अपनी विद्या दूसरेको न देनेवाले ज्ञानखलकी श्रेष्ठ विद्याका प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंसके कारागारमें बंद देवकीकी भी उतनी शोभा नहीं हुई ।।१९।। देवकीके गर्भमें भगवान् विराजमान हो गये थे। उसके मुखपर पवित्र मुसकान थी और उसके शरीरकी कान्तिसे बंदीगृह जगमगाने लगा था। जब कंसने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा—‘अबकी बार मेरे प्राणोंके ग्राहक विष्णुने इसके गर्भमें अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि इसके पहले देवकी कभी ऐसी न थी ।।२०।। अब इस विषयमें शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना चाहिये? देवकीको मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रमको कलंकित नहीं करते। एक तो यह स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है। इसको मारनेसे तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायगी ।।२१।। वह मनुष्य तो जीवित रहनेपर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यन्त क्रूरताका व्यवहार करता है। उसकी मृत्युके बाद लोग उसे गाली देते हैं। इतना ही नहीं, वह देहाभिमानियोंके योग्य घोर नरकमें भी अवश्य-अवश्य जाता है ।।२२।। यद्यपि कंस देवकीको मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरताके विचारसे निवृत्त हो गया।* अब भगवान्के प्रति दृढ़ वैरका भाव मनमें गाँठकर उनके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा ।।२३।। वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते—सर्वदा ही श्रीकृष्णके चिन्तनमें लगा रहता। जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत् ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा ।।२४।।
परीक्षित्! भगवान् शंकर और ब्रह्माजी कंसके कैदखानेमें आये। उनके साथ अपने अनुचरोंके सहित समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनोंसे सबकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ।।२५।। ‘प्रभो! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्तिका श्रेष्ठ साधन है। सृष्टिके पूर्व, प्रलयके पश्चात् और संसारकी स्थितिके समय—इन असत्य अवस्थाओंमें भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्योंके आप ही कारण हैं। और उनमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत्के परमार्थस्वरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शनके प्रवर्तक हैं। भगवन्! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरणमें आये हैं ।।२६।। यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्षका आश्रय है—एक प्रकृति। इसके दो फल हैं—सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं—सत्त्व, रज और तम; चार रस हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जाननेके पाँच प्रकार हैं—श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं—पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्षकी छाल हैं सात धातुएँ—रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएँ हैं—पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय—ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसाररूप वृक्षपर दो पक्षी हैं—जीव और ईश्वर ।।२७।। इस संसाररूप वृक्षकी उत्पत्तिके आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रहसे इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी मायासे आवृत हो रहा है, इस सत्यको समझनेकी शक्ति खो बैठा है—वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूपमें केवल आपका ही दर्शन करते हैं ।।२८।। आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं। चराचर जगत्के कल्याणके लिये ही अनेकों रूप धारण करते हैं। आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषोंको बहुत सुख देते हैं। साथ ही दुष्टोंको उनकी दुष्टताका दण्ड भी देते हैं। उनके लिये अमंगलमय भी होते हैं ।।२९।। कमलके समान कोमल अनुग्रहभरे नेत्रोंवाले प्रभो! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियोंके आश्रयस्वरूप रूपमें पूर्ण एकाग्रतासे अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाजका आश्रय लेकर इस संसारसागरको बछड़ेके खुरके गढ़ेके समान अनायास ही पार कर जाते हैं। क्यों न हो, अबतकके संतोंने इसी जहाजसे संसार-सागरको पार जो किया है ।।३०।। परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! आपके भक्तजन सारे जगत्के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्टसे पार करनेयोग्य संसारसागरको पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरोंके कल्याणके लिये भी वे यहाँ आपके चरण-कमलोंकी नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तवमें सत्पुरुषोंपर आपकी महान् कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं ।।३१।। कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलोंकी शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभावसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तवमें तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधनाका कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं ।।३२।। परन्तु भगवन्! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणोंमें अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियोंकी भाँति अपने साधन-मार्गसे गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालनेवालोंकी सेनाके सरदारोंके सिरपर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्गमें रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं ।।३३।। आप संसारकी स्थितिके लिये समस्त देहधारियोंको परम कल्याण प्रदान करनेवाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मंगल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूपके प्रकट होनेसे ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टांगयोग, तपस्या और समाधिके द्वारा आपकी आराधना करते हैं। बिना किसी आश्रयके वे किसकी आराधना करेंगे? ।।३४।। प्रभो! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो, तो अज्ञान और उसके द्वारा होनेवाले भेदभावको नष्ट करनेवाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसीको न हो। जगत्में दीखनेवाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परन्तु इन गुणोंकी प्रकाशक वृत्तियोंसे आपके स्वरूपका केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरूपका साक्षात्कार नहीं होता। (आपके स्वरूपका साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी सेवा करनेपर आपकी कृपासे ही होता है) ।।३५।। भगवन्! मन और वेद-वाणीके द्वारा केवल आपके स्वरूपका अनुमानमात्र होता है। क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिये आपके गुण, जन्म और कर्म आदिके द्वारा आपके नाम और रूपका निरूपण नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रभो! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगोंके द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं ।।३६।। जो पुरुष आपके मंगलमय नामों और रूपोंका श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलोंकी सेवामें ही अपना चित्त लगाये रहता है—उसे फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें नहीं आना पड़ता ।।३७।। सम्पूर्ण दुःखोंके हरनेवाले भगवन्! आप सर्वेश्वर हैं। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतारसे इसका भार दूर हो गया। धन्य है! प्रभो! हमारे लिये यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि हमलोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नोंसे युक्त चरणकमलोंके द्वारा विभूषित पृथ्वीको देखेंगे और स्वर्गलोकको भी आपकी कृपासे कृतार्थ देखेंगे ।।३८।। प्रभो! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्मके कारणके सम्बन्धमें हम कोई तर्क ना करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका एक लीला-विनोद है। ऐसा कहनेका कारण यह है कि आप तो द्वैतके लेशसे रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञानके द्वारा आपमें आरोपित हैं ।।३९।। प्रभो! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हमलोगोंकी और तीनों लोकोंकी रक्षा की है—वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वीका भार हरण कीजिये। यदुनन्दन! हम आपके चरणोंमें वन्दना करते हैं’ ।।४०।। [देवकीजीको सम्बोधित करके] ‘माताजी! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपकी कोखमें हम सबका कल्याण करनेके लिये स्वयं भगवान् पुरुषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ पधारे हैं। अब आप कंससे तनिक भी मत डरिये। अब तो वह कुछ ही दिनोंका मेहमान है। आपका पुत्र यदुवंशकी रक्षा करेगा’ ।।४१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! ब्रह्मादि देवताओंने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की। उनका रूप ‘यह है’ इस प्रकार निश्चितरूपसे तो कहा नहीं जा सकता, सब अपनी-अपनी मतिके अनुसार उसका निरूपण करते हैं। इसके बाद ब्रह्मा और शंकरजीको आगे करके देवगण स्वर्गमें चले गये ।।४२।।
* शेष भगवान्ने विचार किया कि ‘रामावतारमें मैं छोटा भाई बना, इसीसे मुझे बड़े भाईकी आज्ञा माननी पड़ी और वन जानेसे मैं उन्हें रोक नहीं सका। श्रीकृष्णावतारमें मैं बड़ा भाई बनकर भगवान्की अच्छी सेवा कर सकूँगा। इसलिये वे श्रीकृष्णसे पहले ही गर्भमें आ गये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गर्भगतविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।
अथ तृतीयोऽध्यायः
भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब समस्त शुभ गुणोंसे युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाशके सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त—सौम्य हो रहे थे* ।।१।।
दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं। निर्मल आकाशमें तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वीके बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मंगलमय हो रही थीं ।।२।। नदियोंका जल निर्मल हो गया था। रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे। वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे ।।३।। उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी। ब्राह्मणोंके अग्नि-होत्रकी कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ।।४।।
संत पुरुष पहलेसे ही चाहते थे कि असुरोंकी बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया। जिस समय भगवान्के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं ।।५।। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान्के मंगलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं ।।६।। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे*। जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे† ।।७।। जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान् विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशामें सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो ।।८।।
वसुदेवजीने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमलके समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथोंमें शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न—अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गलेमें कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघके समान परम सुन्दर श्यामल शरीरपर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणिके किरीट और कुण्डलकी कान्तिसे सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं। कमरमें चमचमाती करधनीकी लड़ियाँ लटक रही हैं। बाँहोंमें बाजूबंद और कलाइयोंमें कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणोंसे सुशोभित बालकके अंग-अंगसे अनोखी छटा छिटक रही है ।।९-१०।। जब वसुदेवजीने देखा कि मेरे पुत्रके रूपमें तो स्वयं भगवान् ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्दसे उनकी आँखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्दमें मग्न हो गया। श्रीकृष्णका जन्मोत्सव मनानेकी उतावलीमें उन्होंने उसी समय ब्राह्मणोंके लिये दस हजार गायोंका संकल्प कर दिया ।।११।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अंगकान्तिसे सूतिकागृहको जगमग कर रहे थे। जब वसुदेवजीको यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान्का प्रभाव जान लेनेसे उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान्के चरणोंमें अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे— ।।१२।।
वसुदेवजीने कहा—मैं समझ गया कि आप प्रकृतिसे अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियोंके एकमात्र साक्षी हैं ।।१३।। आप ही सर्गके आदिमें अपनी प्रकृतिसे इस त्रिगुणमय जगत्की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होनेपर भी आप प्रविष्टके समान जान पड़ते हैं ।।१४।। जैसे जबतक महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तबतक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारोंके साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसीमें अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थमें प्रवेश नहीं करते। ऐसा होनेका कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं ।।१५-१६।। ठीक वैसे ही बुद्धिके द्वारा केवल गुणोंके लक्षणोंका ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियोंके द्वारा केवल गुणमय विषयोंका ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणोंके ग्रहणसे आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणोंका आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिये आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिये प्रवेश न करनेपर भी आप प्रवेश किये हुएके समान दीखते हैं) ।।१७।।
जो अपने इन दृश्य गुणोंको अपनेसे पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करनेपर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलासके सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते। विचारके द्वारा जिस वस्तुका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है? ।।१८।। प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारोंसे रहित हैं। फिर भी इस जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणोंके आश्रय आप ही हैं, इसलिये उन गुणोंके कार्य आदिका आपमें ही आरोप किया जाता है ।।१९।। आप ही तीनों लोकोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी मायासे सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्तिके लिये रजःप्रधान रक्तवर्ण (सृजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलयके समय तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं ।।२०।। प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं। इस संसारकी रक्षाके लिये ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियोंने राजाका नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सबका संहार करेंगे ।।२१।। देवताओंके भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होनेवाला है, तब उसने आपके भयसे आपके बड़े भाइयोंको मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतारका समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथमें शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा ।।२२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इधर देवकीने देखा कि मेरे पुत्रमें तो पुरुषोत्तम भगवान्के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंससे कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भावसे मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं ।।२३।।
माता देवकीने कहा—प्रभो! वेदोंने आपके जिस रूपको अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणोंसे रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषणरहित—अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ताके रूपमें कहा गया है—वही बुद्धि आदिके प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं ।।२४।। जिस समय ब्रह्माकी पूरी आयु—दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्तिके प्रभावसे सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पंच महाभूत अहंकारमें, अहंकार महत्तत्त्वमें और महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन हो जाता है—उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं। इसीसे आपका एक नाम ‘शेष’ भी है ।।२५।। प्रकृतिके एकमात्र सहायक प्रभो! निमेषसे लेकर वर्षपर्यन्त अनेक विभागोंमें विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टासे यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है। आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याणके आश्रय हैं। मैं आपकी शरण लेती हूँ ।।२६।। प्रभो! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है। यह मृत्युरूप कराल व्यालसे भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरोंमें भटकता रहा है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे। आज बड़े भाग्यसे इसे आपके चरणारविन्दोंकी शरण मिल गयी। अतः अब यह स्वस्थ होकर सुखकी नींद सो रहा है। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है ।।२७।। प्रभो! आप हैं भक्तभयहारी। और हमलोग इस दुष्ट कंससे बहुत ही भयभीत हैं। अतः आप हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यानकी वस्तु है। इसे केवल मांस-मज्जामय शरीरपर ही दृष्टि रखनेवाले देहाभिमानी पुरुषोंके सामने प्रकट मत कीजिये ।।२८।। मधुसूदन! इस पापी कंसको यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भसे हुआ है। मेरा धैर्य टूट रहा है। आपके लिये मैं कंससे बहुत डर रही हूँ ।।२९।। विश्वात्मन्! आपका यह रूप अलौकिक है। आप शंख, चक्र, गदा और कमलकी शोभासे युक्त अपना यह चतुर्भुजरूप छिपा लीजिये ।।३०।। प्रलयके समय आप इस सम्पूर्ण विश्वको अपने शरीरमें वैसे ही स्वाभाविक रूपसे धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें रहनेवाले छिद्ररूप आकाशको। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है? ।।३१।।
श्रीभगवान्ने कहा—देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नामके प्रजापति थे। तुम दोनोंके हृदय बड़े ही शुद्ध थे ।।३२।। जब ब्रह्माजीने तुम दोनोंको सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी, तब तुमलोगोंने इन्द्रियोंका दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की ।।३३।। तुम दोनोंने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि कालके विभिन्न गुणोंका सहन किया और प्राणायामके द्वारा अपने मनके मल धो डाले ।।३४।। तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था। इस प्रकार तुमलोगोंने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छासे मेरी आराधना की ।।३५।। मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओंके बारह हजार वर्ष बीत गये ।।३६।। पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनोंपर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुम दोनोंने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्तिसे अपने हृदयमें नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये वर देनेवालोंका राजा मैं इसी रूपसे तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनोंने मेरे-जैसा पुत्र माँगा ।।३७-३८।। उस समयतक विषय-भोगोंसे तुम लोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिये मेरी मायासे मोहित होकर तुम दोनोंने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा ।।३९।। तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होनेका वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँसे चला गया। अब सफलमनोरथ होकर तुमलोग विषयोंका भोग करने लगे ।।४०।। मैंने देखा कि संसारमें शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणोंमें मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनोंका पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नामसे विख्यात हुआ ।।४१।। फिर दूसरे जन्ममें तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होनेके कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे ।।४२।। सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्ममें भी मैं उसी रूपसे फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ१। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है ।।४३।।
मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारोंका स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीरसे मेरे अवतारकी पहचान नहीं हो पाती ।।४४।। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तनके द्वारा तुम्हें मेरे परम पदकी प्राप्ति होगी ।।४५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमायासे पिता-माताके देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया ।।४६।। तब वसुदेवजीने भगवान्की प्रेरणासे अपने पुत्रको लेकर सूतिकागृहसे बाहर निकलनेकी इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो भगवान्की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है ।।४७।। उसी योगमायाने द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये। बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये२। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिये शेषजी अपने फनोंसे जलको रोकते हुए भगवान्के पीछे-पीछे चलने लगे* ।।४८-४९।। उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं†। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगोंके कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान्को मार्ग दे दिया‡ ।।५०।। वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं। उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये ।।५१।। जेलमें पहुँचकर वसुदेवजीने उस कन्याको देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये ।।५२।। उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री। क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमायाने उन्हें अचेत कर दिया था* ।।५३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमायासे पिता-माताके देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया ।।४६।। तब वसुदेवजीने भगवान्की प्रेरणासे अपने पुत्रको लेकर सूतिकागृहसे बाहर निकलनेकी इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो भगवान्की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है ।।४७।। उसी योगमायाने द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये। बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये२। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिये शेषजी अपने फनोंसे जलको रोकते हुए भगवान्के पीछे-पीछे चलने लगे* ।।४८-४९।। उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं†। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगोंके कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान्को मार्ग दे दिया‡ ।।५०।। वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं। उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये ।।५१।। जेलमें पहुँचकर वसुदेवजीने उस कन्याको देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये ।।५२।। उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री। क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमायाने उन्हें अचेत कर दिया था* ।।५३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः ।।३।।
* जैसे अन्तःकरण शुद्ध होनेपर उसमें भगवान्का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतारके अवसरपर भी ठीक उसी प्रकारका समष्टिकी शुद्धिका वर्णन किया गया है। इसमें काल, दिशा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन और आत्मा—इस नौ द्रव्योंका अलग-अलग नामोल्लेख करके साधकके लिये एक अत्यन्त उपयोगी साधन-पद्धतिकी ओर संकेत किया गया है।
काल— भगवान् कालसे परे हैं। शास्त्रों और सत्पुरुषोंके द्वारा ऐसा निरूपण सुनकर काल मानो क्रुद्ध हो गया था और रुद्ररूप धारण करके सबको निगल रहा था। आज जब उसे मालूम हुआ कि स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मेरे अंदर अवतीर्ण हो रहे हैं, तब वह आनन्दसे भर गया और समस्त सद्गुणोंको धारणकर तथा सुहावना बनकर प्रकट हो गया।
दिशा— १. प्राचीन शास्त्रोंमें दिशाओंको देवी माना गया है। उनके एक-एक स्वामी भी होते हैं—जैसे प्राचीके इन्द्र, प्रतीचीके वरुण आदि। कंसके राज्य-कालमें ये देवता पराधीन—कैदी हो गये थे। अब भगवान् श्रीकृष्णके अवतारसे देवताओंकी गणनाके अनुसार ग्यारह-बारह दिनोंमें ही उन्हें छुटकारा मिल जायगा, इसलिये अपने पतियोंके संगम-सौभाग्यका अनुसंधान करके देवियाँ प्रसन्न हो गयीं। जो देव एवं दिशाके परिच्छेदसे रहित हैं, वे ही प्रभु भारत देशके व्रज-प्रदेशमें आ रहे हैं, यह अपूर्व आनन्दोत्सव भी दिशाओंकी प्रसन्नताका हेतु है। २. संस्कृत-साहित्यमें दिशाओंका एक नाम ‘आशा’ भी है। दिशाओंकी प्रसन्नताका एक अर्थ यह भी है कि अब सत्पुरुषोंकी आशा-अभिलाषा पूर्ण होगी। ३. विराट् पुरुषके अवयव-संस्थानका वर्णन करते समय दिशाओंको उनका कान बताया गया है। श्रीकृष्णके अवतारके अवसरपर दिशाएँ मानो यह सोचकर प्रसन्न हो गयीं कि प्रभु असुर-असाधुओंके उपद्रवसे दुःखी प्राणियोंकी प्रार्थना सुननेके लिये सतत सावधान हैं।
पृथ्वी— १. पुराणोंमें भगवान्की दो पत्नियोंका उल्लेख मिलता है—एक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी। ये दोनों चल-सम्पत्ति और अचल-सम्पत्तिकी स्वामिनी हैं। इनके पति हैं—भगवान्, जीव नहीं। जिस समय श्रीदेवीके निवासस्थान वैकुण्ठसे उतरकर भगवान् भूदेवीके निवासस्थान पृथ्वीपर आने लगे, तब जैसे परदेशसे पतिके आगमनका समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर अगवानी करनेके लिये निकलती है, वैसे ही पृथ्वीका मंगलमयी होना, मंगलचिह्नोंको धारण करना स्वाभाविक ही है। २. भगवान्के श्रीचरण मेरे वक्षःस्थलपर पड़ेंगे, अपने सौभाग्यका ऐसा अनुसन्धान करके पृथ्वी आनन्दित हो गयी। ३. वामन ब्रह्मचारी थे। परशुरामजीने ब्राह्मणोंको दान दे दिया। श्रीरामचन्द्रने मेरी पुत्री जानकीसे विवाह कर लिया। इसलिये उन अवतारोंमें मैं भगवान्से जो सुख नहीं प्राप्त कर सकी, वही श्रीकृष्णसे प्राप्त करूँगी। यह सोचकर पृथ्वी मंगलमयी हो गयी। ४. अपने पुत्र मंगलको गोदमें लेकर पतिदेवका स्वागत करने चली।
जल (नदियाँ)— १. नदियोंने विचार किया कि रामावतारमें सेतु-बन्धके बहाने हमारे पिता पर्वतोंको हमारी ससुराल समुद्रमें पहुँचाकर इन्होंने हमें मायकेका सुख दिया था। अब इनके शुभागमनके अवसरपर हमें भी प्रसन्न होकर इनका स्वागत करना चाहिये। २. नदियाँ सब गंगाजीसे कहती थीं—‘तुमने हमारे पिता पर्वत देखे हैं, अपने पिता भगवान् विष्णुके दर्शन कराओ।’ गंगाजीने सुनी-अनसुनी कर दी। अब वे इसलिये प्रसन्न हो गयीं कि हम स्वयं देख लेंगी। ३. यद्यपि भगवान् समुद्रमें नित्य निवास करते हैं, फिर भी ससुराल होनेके कारण वे उन्हें वहाँ देख नहीं पातीं। अब उन्हें पूर्णरूपसे देख सकेंगी, इसलिये वे निर्मल हो गयीं। ४. निर्मल हृदयको भगवान् मिलते हैं, इसलिये वे निर्मल हो गयीं। ५. नदियोंको जो सौभाग्य किसी भी अवतारमें नहीं मिला, वह कृष्णावतारमें मिला। श्रीकृष्णकी चतुर्थ पटरानी हैं—श्रीकालिन्दीजी। अवतार लेते ही यमुनाजीके तटपर जाना, ग्वालबाल एवं गोपियोंके साथ जलक्रीडा करना, उन्हें अपनी पटरानी बनाना—इन सब बातोंको सोचकर नदियाँ आनन्दसे भर गयीं।
ह्रद— कालिय-दमन करके कालिय-दहका शोधन, ग्वालबालों और अक्रूरको ब्रह्म-ह्रदमें ही अपने स्वरूपके दर्शन आदि स्व-सम्बन्धी लीलाओंका अनुसन्धान करके ह्रदोंने कमलके बहाने अपने प्रफुल्लित हृदयको ही श्रीकृष्णके प्रति अर्पित कर दिया। उन्होंने कहा कि ‘प्रभो! भले ही हमें लोग जड समझा करें, आप हमें कभी स्वीकार करेंगे, इस भावी सौभाग्यके अनुसन्धानसे हम सहृदय हो रहे हैं।’
अग्नि— १. इस अवतारमें श्रीकृष्णने व्योमासुर, तृणावर्त, कालियके दमनसे आकाश, वायु और जलकी शुद्धि की है। मृद्-भक्षणसे पृथ्वीकी और अग्निपानसे अग्निकी। भगवान् श्रीकृष्णने दो बार अग्निको अपने मुँहमें धारण किया। इस भावी सुखका अनुसन्धान करके ही अग्निदेव शान्त होकर प्रज्वलित होने लगे। २. देवताओंके लिये यज्ञ-भाग आदि बन्द हो जानेके कारण अग्निदेव भी भूखे ही थे। अब श्रीकृष्णावतारसे अपने भोजन मिलनेकी आशासे अग्निदेव प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे।
वायु— १. उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके जन्मके अवसरपर वायुने सुख लुटाना प्रारम्भ किया; क्योंकि समान शीलसे ही मैत्री होती है। जैसे स्वामीके सामने सेवक, प्रजा अपने गुण प्रकट करके उसे प्रसन्न करती है, वैसे ही वायु भगवान्के सामने अपने गुण प्रकट करने लगे। २. आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दपर जब श्रमजनित स्वेदविन्दु आ जायँगे, तब मैं ही शीतल-मन्द-सुगन्ध गतिसे उसे सुखाऊँगा—यह सोचकर पहलेसे ही वायु सेवाका अभ्यास करने लगा। ३. यदि मनुष्यको प्रभु-चरणारविन्दके दर्शनकी लालसा हो तो उसे विश्वकी सेवा ही करनी चाहिये, मानो यह उपदेश करता हुआ वायु सबकी सेवा करने लगा। ४. रामावतारमें मेरे पुत्र हनुमान्ने भगवान्की सेवा की, इससे मैं कृतार्थ ही हूँ; परन्तु इस अवतारमें मुझे स्वयं ही सेवा कर लेनी चाहिये। इस विचारसे वायु लोगोंको सुख पहुँचाने लगा। ५. सम्पूर्ण विश्वके प्राण वायुने सम्पूर्ण विश्वकी ओरसे भगवान्के स्वागत-समारोहमें प्रतिनिधित्व किया।
आकाश— १. आकाशकी एकता, आधारता, विशालता और समताकी उपमा तो सदासे ही भगवान्के साथ दी जाती रही, परन्तु अब उसकी झूठी नीलिमा भी भगवान्के अंगसे उपमा देनेसे चरितार्थ हो जायगी, इसलिये आकाशने मानो आनन्दोत्सव मनानेके लिये नीले चँदोवेमें हीरोंके समान तारोंकी झालरें लटका ली हैं। २. स्वामीके शुभागमनके अवसरपर जैसे सेवक स्वच्छ वेष-भूषा धारण करते हैं और शान्त हो जाते हैं, इसी प्रकार आकाशके सब नक्षत्र, ग्रह, तारे शान्त एवं निर्मल हो गये। वक्रता, अतिचार और युद्ध छोड़कर श्रीकृष्णका स्वागत करने लगे।
नक्षत्र— मैं देवकीके गर्भसे जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणीके संतोषके लिये कम-से-कम रोहिणी नक्षत्रमें जन्म तो लेना ही चाहिये। अथवा चन्द्रवंशमें जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमाकी सबसे प्यारी पत्नी रोहिणीमें ही जन्म लेना उचित है। यह सोचकर भगवान्ने रोहिणी नक्षत्रमें जन्म लिया।
मन— १. योगी मनका निरोध करते हैं, मुमुक्षु निर्विषय करते हैं और जिज्ञासु बाध करते हैं। तत्त्वज्ञोंने तो मनका सत्यानाश ही कर दिया। भगवान्के अवतारका समय जानकर उसने सोचा कि अब तो मैं अपनी पत्नी—इन्द्रियाँ और विषय—बाल-बच्चे सबके साथ ही भगवान्के साथ खेलूँगा। निरोध और बाधसे पिण्ड छूटा। इसीसे मन प्रसन्न हो गया। २. निर्मलको ही भगवान् मिलते हैं, इसलिये मन निर्मल हो गया। ३. वैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धका परित्याग कर देनेपर भगवान् मिलते हैं। अब तो स्वयं भगवान् ही वह सब बनकर आ रहे हैं। लौकिक आनन्द भी प्रभुमें मिलेगा। यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया। ४. वसुदेवके मनमें निवास करके ये ही भगवान् प्रकट हो रहे हैं। वह हमारी ही जातिका है, यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया। ५. सुमन (देवता और शुद्ध मन) को सुख देनेके लिये ही भगवान्का अवतार हो रहा है। यह जानकर सुमन प्रसन्न हो गये। ६. संतोंमें, स्वर्गमें और उपवनमें सुमन (शुद्ध मन, देवता और पुष्प) आनन्दित हो गये। क्यों न हो, माधव (विष्णु और वसन्त) का आगमन जो हो रहा है।
भाद्रमास— भद्र अर्थात् कल्याण देनेवाला है। कृष्णपक्ष स्वयं कृष्णसे सम्बद्ध है। अष्टमी तिथि पक्षके बीचोबीच सन्धि-स्थलपर पड़ती है। रात्रि योगीजनोंको प्रिय है। निशीथ यतियोंका सन्ध्याकाल और रात्रिके दो भागोंकी सन्धि है। उस समय श्रीकृष्णके आविर्भावका अर्थ है—अज्ञानके घोर अन्धकारमें दिव्य प्रकाश। निशानाथ चन्द्रके वंशमें जन्म लेना है, तो निशाके मध्यभागमें अवतीर्ण होना उचित भी है। अष्टमीके चन्द्रोदयका समय भी वही है। यदि वसुदेवजी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंशके आदिपुरुष चन्द्रमा समुद्रस्नान करके अपने कर-किरणोंसे अमृतका वितरण करें।
* ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया।
१. मेघ समुद्रके पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहते—जलनिधे! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया। अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान् रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें। २. बादल समुद्रके पास जाते और कहते कि समुद्र! तुम्हारे हृदयमें भगवान् रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो। समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल देकर कह देता—अपनी उत्ताल तरंगोंसे ढकेल देता—जाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्तःकरण शुद्ध करो, तब भगवान्के दर्शन होंगे। स्वयं भगवान् मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ रहे हैं। हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे। अपने इस सौभाग्यका अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे। मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय। १-भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश पुत्र होगा, परन्तु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं। किसीको कोई वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिये। मेरे सदृश पदार्थके समान मैं ही हूँ। अतएव मैं अपनेको तीन बार इनका पुत्र बनाऊँगा। २-जिनके नाम-श्रवणमात्रसे असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोदमें आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है?
* बलरामजीने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है। इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्णके छत्र बनकर जलका निवारण करते हुए चले। उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्कार है। इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया। अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अधःपतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं।
१. श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजीने विचार किया—अहा! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं। वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी। २. मुझे यमराजकी बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं। ३. ये गोपालनके लिये गोकुलमें जा रहे हैं, ये सहस्र-सहस्र लहरियाँ गौएँ ही तो हैं। ये उन्हींके समान इनका भी पालन करें। ४. एक कालियनाग तो मुझमें पहलेसे ही है, यह दूसरे शेषनाग आ रहे हैं। अब मेरी क्या गति होगी—यह सोचकर यमुनाजी अपने थपेड़ोंसे उनका निवारण करनेके लिये बढ़ गयीं।
१. एकाएक यमुनाजीके मनमें विचार आया कि मेरे अगाध जलको देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत कहीं कण्ठभर, कहीं नाभिभर और कहीं घुटनोंतक जलवाली हो गयीं। २. जैसे दुःखी मनुष्य दयालु पुरुषके सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालियनागसे त्रस्त अपने हृदयका दुःख निवेदन कर देनेके लिये यमुनाजीने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया। ३. मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीडा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृंखलता छोड़कर बड़ी विनयसे अपने हृदयकी संकोचपूर्ण रसरीति प्रकट करने लगीं। ४. जब इन्होंने सूर्यवंशमें रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देनेपर चन्द्रमाके पिता समुद्रको बाँध दिया था। अब ये चन्द्रवंशमें प्रकट हुए हैं और मैं सूर्यकी पुत्री हूँ। यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे। इस डरसे मानो यमुनाजी दो भागोंमें बँट गयीं। ५. सत्पुरुष कहते हैं कि हृदयमें भगवान्के आ जानेपर अलौकिक सुख होता है। मानो उसीका उपभोग करनेके लिये यमुनाजीने भगवान्को अपने भीतर ले लिया। ६. मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं। फिर मेरे हृदयमें ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हो? ऐसा सोचकर मार्ग देनेके बहाने यमुनाजीने श्रीकृष्णको अपने हृदयमें ले लिया।
मीनू कह रही थी कि मैं उसे भूला नहीं तो जीवन भर पछतावा रहेगा। पता नहीं क्यू? प्रभु ये तो संभव नहीं, तुम ही तो बार-बार मुझे मीनू की याद दिलाते रहते हो।मंदिर में जो नानी की पूजा करी ही मुतिया है यही याद दिलाती है कि बचपन में सोचा था एक दिन मीनू के साथ पूजा करुगा।एक दिन मीनू के साथ शिवजी को नहलाऊंगा। मीनू के साथ बाल गोपाल को झूला झुलाऊंगा।
हे प्रभु, मीनू के हृदय में वास कर प्रेम की मुरली बजादो, मेरी याद दिलादो। अपनी लाडली को अपनी गोदी में बिठाकर मेरी भवनाए समझदो एल। हम बच्चों के साथ भी खेलो जैसे गोकुल के बच्चो के साथ खेलते थे 🙏
अनन्त भक्तवत्सल प्रभो! हे शरणागतवत्सल! हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्रसे छुटकारा मिल जाता है
हे प्रभु, दुबारा वही प्रश्न धूम रहे है । क्यो मीनू ने मेरे साथ एैस व्यवहार क्यो किया? पता नहीं किस आधार पे कहती है मैं शुभम जैसा हूं? क्या कभी शुभम से वैसा व्यवहार करती जैसे मेरे साथ किया? क्या कभी शुभम के पास आने पर भाग जाती है। अंकलजी के कहने पर ही शुभम से बात करती है क्या? क्या शुभम को ऑनलाइन ब्लॉक कर रखा है?
कहती हैं मम्मी पापा को सब बता देती हूं, तो अंकलजी ने भी क्यों नहीं बताया कि मेरे साथ ऐसा क्यों करती है?
March 1, 2025 - रात्रि
अथ चतुर्थोऽध्यायः कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
परन्तु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरन्त आकाशमें चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी ।।९।। वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा—ये आठ आयुध थे ।।१०।। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे। उस समय देवीने कंससे यह कहा— ।।११।। ‘रे मूर्ख! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर’ ।।१२।। कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हुईं ।।१३।।
‘मनस्वी कंस! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है। जीव अज्ञानके कारण ही शरीर आदिको ‘मैं’ मान बैठते हैं। इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है ।।२६।। और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं। फिर तो उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान् ही एक भावसे दूसरे भावका, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं’ ।।२७।।
अथ पञ्चमोऽध्यायः गोकुलमें भगवान्का जन्ममहोत्सव
उस समय ब्राह्मण, सूत, मागध और वंदीजन मंगलमय आशीर्वाद देने तथा स्तुति करने लगे। गायक गाने लगे। भेरी और दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं ।।५।।
नन्दबाबाके घर जाकर वे नवजात शिशुको आशीर्वाद देतीं ‘यह चिरजीवी हो, भगवन्! इसकी रक्षा करो।’ और लोगोंपर हल्दी-तेलसे मिला हुआ पानी छिड़क देतीं तथा ऊँचे स्वरसे मंगलगान करती थीं ।।१२।।
भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। उनके ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य—सभी अनन्त हैं। वे जब नन्दबाबाके व्रजमें प्रकट हुए, उस समय उनके जन्मका महान् उत्सव मनाया गया। उसमें बड़े-बड़े विचित्र और मंगलमय बाजे बजाये जाने लगे ।।१३।।
नन्दबाबा स्वभावसे ही परम उदार और मनस्वी थे। उन्होंने गोपोंको बहुत-से वस्त्र, आभूषण और गौएँ दीं। सूत-मागध-वंदीजनों, नृत्य, वाद्य आदि विद्याओंसे अपना जीवन-निर्वाह करनेवालों तथा दूसरे गुणीजनोंको भी नन्दबाबाने प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर उनका यथोचित सत्कार किया। यह सब करनेमें उनका उद्देश्य यही था कि इन कर्मोंसे भगवान् विष्णु प्रसन्न हों और मेरे इस नवजात शिशुका मंगल हो ।।१५-१६।। नन्दबाबाके अभिनन्दन करनेपर परम सौभाग्यवती रोहिणीजी दिव्य वस्त्र, माला और गलेके भाँति-भाँतिके गहनोंसे सुसज्जित होकर गृहस्वामिनीकी भाँति आने-जानेवाली स्त्रियोंका सत्कार करती हुई विचर रही थीं ।।१७।। परीक्षित्! उसी दिनसे नन्दबाबाके व्रजमें सब प्रकारकी ऋद्धि-सिद्धियाँ अठखेलियाँ करने लगीं और भगवान् श्रीकृष्णके निवास तथा अपने स्वाभाविक गुणोंके कारण वह लक्ष्मीजीका क्रीडास्थल बन गया ।।१८।।
जय सच्चिदानंद। तुम ही जानो सत्य क्या है। मन अति विचलिट है। तुम्हारी बाल लीला पढ़ कर कुछ संभाला है। तुम ही एक मातृ सबके रक्षक हो। मेरी सखी शिवानी की रक्षा करना।
करारविन्देन पदार्विन्दं, मुखार्विन्दे विनिवेश यन्तम्। वटस्य पत्रस्य पुटेशयानं, बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव। जिव्हे पिबस्वा मृतमेव देव, गोविन्द दामोदर माधवेति॥
जय श्री कृष्ण गोविन्द दामोदर माधवेति, गोविन्द दामोदर माधवेति, गोविन्द दामोदर माधवेति
March 2, 2025
रात भर चिंता में सही से नहीं पड़ी और प्रभु का ध्यान करते मीनू के लिए का प्रार्थना करता और रोता रहा। 5 बजे से अजीब मनो दशा है ना रो पा रहा हूं ना हंस. श्यामसुंदर की लीलाओं से कुछ शांति मिलती है पास मम्मी पापा कुछ ना कुछ काम लगा दे।
हे बाल गोपाल, कब मैं मीनू के साथ तुम्हें झुलाऊंगा? खेलूंगा?
अथ षष्ठोऽध्यायः पूतना-उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबा जब मथुरासे चले, तब रास्तेमें विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मनमें उत्पात होनेकी आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान् ही शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया ।।१।।
पूतना बालकोंके लिये ग्रहके समान थी। वह इधर-उधर बालकोंको ढूँढ़ती हुई अनायास ही नन्द-बाबाके घरमें घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए हैं। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण दुष्टोंके काल हैं। परन्तु जैसे आग राखकी ढेरीमें अपनेको छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था ।।७।।
भगवान् श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियोंके आत्मा हैं। इसलिये उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चोंको मार डालनेवाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये। जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँपको रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान् श्रीकृष्णको पूतनाने अपनी गोदमें उठा लिया ।।८।।
इसके बाद यशोदा और रोहिणीके साथ गोपियोंने गायकी पूँछ घुमाने आदि उपायोंसे बालक श्रीकृष्णके अंगोंकी सब प्रकारसे रक्षा की ।।१९।। उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्णको गोमूत्रसे स्नान कराया, फिर सब अंगोंमें गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगोंमें गोबर लगाकर भगवान्के केशव आदि नामोंसे रक्षा की ।।२०।। इसके बाद गोपियोंने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रोंसे अपने शरीरोंमें अलग-अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालकके अंगोंमें बीजन्यास किया ।।२१।।
वे कहने लगीं—‘अजन्मा भगवान् तेरे पैरोंकी रक्षा करें, मणिमान् घुटनोंकी, यज्ञपुरुष जाँघोंकी, अच्युत कमरकी, हयग्रीव पेटकी, केशव हृदयकी, ईश वक्षःस्थलकी, सूर्य कण्ठकी, विष्णु बाँहोंकी, उरुक्रम मुखकी और ईश्वर सिरकी रक्षा करें ।।२२।। चक्रधर भगवान् रक्षाके लिये तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदन और अजन दोनों बगलमें, शंखधारी उरुगाय चारों कोनोंमें, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वीपर और भगवान् परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षाके लिये रहें ।।२३।। हृषीकेशभगवान् इन्द्रियोंकी और नारायण प्राणोंकी रक्षा करें। श्वेतद्वीपके अधिपति चित्तकी और योगेश्वर मनकी रक्षा करें ।।२४।। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धिकी और परमात्मा भगवान् तेरे अहंकारकी रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें ।।२५।। चलते समय भगवान् वैकुण्ठ और बैठते समय भगवान् श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजनके समय समस्त ग्रहोंको भयभीत करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान् तेरी रक्षा करें ।।२६।। डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियोंका नाश करनेवाले उन्माद (पागलपन) एवं अपस्मार (मृगी) आदि रोग; स्वप्नमें देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि—ये सभी अनिष्ट भगवान् विष्णुका नामोच्चारण करनेसे भयभीत होकर नष्ट हो जायँ ।।२७-२९।।
जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमेंसे ऐसा धूँआ निकला, जिसमेंसे अगरकी-सी सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान्ने जो उसका दूध पी लिया था—जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे ।।३४।। पूतना एक राक्षसी थी। लोगोंके बच्चोंको मार डालना और उनका खून पी जाना—यही उसका काम था। भगवान्को भी उसने मार डालनेकी इच्छासे ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषोंको मिलती है ।।३५।। ऐसी स्थितिमें जो परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णको श्रद्धा और भक्तिसे माताके समान अनुरागपूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगनेवाली वस्तु समर्पित करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।३६।।
भगवान्के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओंके द्वारा भी वन्दित हैं। वे भक्तोंके हृदयकी पूँजी हैं। उन्हीं चरणोंसे भगवान्ने पूतनाका शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था ।।३७।। माना कि वह राक्षसी थी, परन्तु उसे उत्तम-से-उत्तम गति—जो माताको मिलनी चाहिये—प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तनका दूध भगवान्ने बड़े प्रेमसे पिया, उन गौओं और माताओंकी* तो बात ही क्या है ।।३८।। परीक्षित्! देवकीनन्दन भगवान् कैवल्य आदि सब प्रकारकी मुक्ति और सब कुछ देनेवाले हैं। उन्होंने व्रजकी गोपियों और गौओंका वह दूध, जो भगवान्के प्रति पुत्र-भाव होनेसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया ।।३९।। राजन्! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान् श्रीकृष्णको अपने पुत्रके ही रूपमें देखती थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें कभी नहीं पड़ सकतीं; क्योंकि यह संसार तो अज्ञानके कारण ही है ।।४०।।
परीक्षित्! उदारशिरोमणि नन्दबाबाने मृत्युके मुखसे बचे हुए अपने लालाको गोदमें उठा लिया और बार-बार उसका सिर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए ।।४३।। यह ‘पूतना-मोक्ष’ भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत बाल-लीला है।
* इस प्रसंगको पढ़कर भावुक भक्त भगवान्से कहता है—‘भगवन्! जान पड़ता है, आपकी अपेक्षा भी आपके नाममें शक्ति अधिक है; क्योंकि आप त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं और नाम आपकी रक्षा कर रहा है।’
अथ सप्तमोऽध्यायः शकट-भंजन और तृणावर्त-उद्धार
जो किसीके गुणोंमें दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमानसे रहित हैं—उन सत्यशील ब्राह्मणोंका आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता ।।१३।।
अथाष्टमोऽध्यायः नामकरण-संस्कार और बाललीला
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यदुवंशियोंके कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी।
गर्गाचार्यजीने कहा—‘यह रोहिणीका पुत्र है। इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रोंको अपने गुणोंसे अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिये इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’। इसके बलकी कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम ‘बल’ भी है। यह यादवोंमें और तुमलोगोंमें कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगोंमें फूट पड़नेपर मेल करावेगा, इसलिये इसका एक नाम ‘संकर्षण’ भी है ।।१२।। और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युगमें शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगोंमें इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत—ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे। अबकी यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा ।।१३।। नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजीके घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्यको जाननेवाले लोग इसे ‘श्रीमान् वासुदेव’ भी कहते हैं ।।१४।। तुम्हारे पुत्रके और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परन्तु संसारके साधारण लोग नहीं जानते ।।१५।। यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा। समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे ।।१६।। व्रजराज! पहले युगकी बात है। एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की ।।१७।। जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशुसे प्रेम करते हैं। वे बड़े भाग्यवान् हैं। जैसे विष्णुभगवान्के करकमलोंकी छत्रछायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतर या बाहर किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते ।।१८।। नन्दजी! चाहे जिस दृष्टिसे देखें—गुणमें, सम्पत्ति और सौन्दर्यमें, कीर्ति और प्रभावमें तुम्हारा यह बालक साक्षात् भगवान् नारायणके समान है। तुम बड़ी सावधानी और तत्परतासे इसकी रक्षा करो’ ।।१९।।
परीक्षित्! कुछ ही दिनोंमें राम और श्याम घुटनों और हाथोंके बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुलमें खेलने लगे ।।२१।। दोनों भाई अपने नन्हे-नन्हे पाँवोंको गोकुलकी कीचड़में घसीटते हुए चलते। उस समय उनके पाँव और कमरके घुँघरू रुनझुन बजने लगते। वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता।
राजर्षे! कुछ ही दिनोंमें यशोदा और रोहिणीके लाड़ले लाल घुटनोंका सहारा लिये बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुलमें चलने-फिरने लगे* ।।२६।। ये व्रजवासियोंके कन्हैया स्वयं भगवान् हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्रके ग्वालबालोंको अपने साथ लेकर खेलनेके लिये व्रजमें निकल पड़ते और व्रजकी भाग्यवती गोपियोंको निहाल करते हुए तरह-तरहके खेल खेलते ।।२७।। उनके बचपनकी चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियोंको तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं।
तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरीके अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थरकी मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’
एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्णके साथ खेल रहे थे। उन लोगोंने मा यशोदाके पास आकर कहा—‘मा! कन्हैयाने मिट्टी खायी है’* ।।३२।। हितैषिणी यशोदाने श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया†। उस समय श्रीकृष्णकी आँखें डरके मारे नाच रही थीं‡। यशोदा मैयाने डाँटकर कहा— ।।३३।। ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेलेमें छिपकर मिट्टी क्यों खायी? देख तो तेरे दलके तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हींकी ओरसे गवाही दे रहे हैं’ ।।३४।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘मा! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहे हैं। यदि तुम इन्हींकी बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखोंसे देख लो ।।३५।। यशोदाजीने कहा—‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माताके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने अपना मुँह खोल दिया*। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीलाके लिये ही मनुष्यके बालक बने हुए हैं ।।३६।। यशोदाजीने देखा कि उनके मुँहमें चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है। आकाश (वह शून्य जिसमें किसीकी गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रोंके सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारोंके साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियोंके चलने-फिरनेका आकाश), वैकारिक अहंकारके कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्णके मुखमें दीख पड़े ।।३७-३८।। परीक्षित्! जीव, काल, स्वभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदिके द्वारा विभिन्न रूपोंमें दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजीने श्रीकृष्णके नन्हेसे खुले हुए मुखमें देखा। वे बड़ी शंकामें पड़ गयीं ।।३९।।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घरमें भीतर घुस आयीं। माताको देखते ही श्रीकृष्णने अपने प्रतिविम्बको दिखाकर बात बदल दी— मातः क एष नवनीतमिदं त्वदीयं लोभेन चोरयितुमद्य गृहं प्रविष्टः । मद्वारणं न मनुते मयि रोषभाजि रोषं तनोति न हि मे नवनीतलोभः ।। ‘मैया! मैया! यह कौन है? लोभवश तुम्हारा माखन चुरानेके लिये आज घरमें घुस आया है। मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है। मैया! तुम कुछ और मत सोचना। मेरे मनमें माखनका तनिक भी लोभ नहीं है।’
एक दिन श्यामसुन्दर माताके बाहर जानेपर घरमें ही माखन-चोरी कर रहे थे। इतनेमें ही दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लालको न देखकर पुकारने लगीं—
कृष्ण! क्वासि करोषि किं पितरिति श्रुत्वैव मातुर्वचः साशंकं नवनीतचौर्यविरतो विश्रभ्य तामब्रवीत् । मातः कंकणपद्मरागमहसा पाणिर्ममातप्यते तेनायं नवनीतभाण्डविवरे विन्यस्य निर्वापितः ।।
‘कन्हैया! कन्हैया! अरे ओ मेरे बाप! कहाँ है, क्या कर रहा है?’ माताकी यह बात सुनते ही माखनचोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये। फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजीसे बोले—‘मैया, री मैया! यह जो तुमने मेरे कंकणमें पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपटसे मेरा हाथ जल रहा था। इसीसे मैंने इसे माखनके मटकेमें डालकर बुझाया था।’ माता यह मधुर-मधुर कन्हैयाकी तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और ‘आओ बेटा!’ ऐसा कहकर लालाको गोदमें उठा लिया और प्यारसे चूमने लगीं।
गोपियोंका तो सर्वस्व श्रीभगवान्का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चोरी कर सकते हैं? हाँ, चोर तो वास्तवमें वे लोग हैं, जो भगवान्की वस्तुको अपनी मानकर ममता-आसक्तिमें फँसे रहते हैं और दण्डके पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियोंसे यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी चोरी न थी, भगवान्की दिव्य लीला थी। असलमें गोपियोंने प्रेमकी अधिकतासे ही भगवान्का प्रेमका नाम ‘चोर’ रख दिया था, क्योंकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही।
अथ नवमोऽध्यायः श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
जब श्रीकृष्णने देखा कि मेरी मा हाथमें छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रही है, तब झटसे ओखलीपरसे कूद पड़े और डरे हुएकी भाँति भागे। परीक्षित्! बड़े-बड़े योगी तपस्याके द्वारा अपने मनको अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पानेकी बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान्के पीछे-पीछे उन्हें पकड़नेके लिये यशोदाजी दौड़ी‡ ।।९।।
जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत्के पहले भी थे, बादमें भी रहेंगे; इस जगत्के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपोंमें भी हैं; और तो क्या, जगत्के रूपमें भी स्वयं वही हैं;* यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियोंसे परे और अव्यक्त हैं—उन्हीं भगवान्को मनुष्यका-सा रूप धारण करनेके कारण पुत्र समझकर यशोदारानी रस्सीसे ऊखलमें ठीक वैसे ही बाँध देती हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालका हो ।।१३-१४।। जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़केको रस्सीसे बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी ।।१५।।
जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी, इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लातीं और जोड़ती गयीं, त्यों-त्यों जुड़नेपर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं ।।१६।। यशोदारानीने घरकी सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान् श्रीकृष्णको न बाँध सकीं। उनकी असफलतापर देखनेवाली गोपियाँ मुसकराने लगीं और वे स्वयं भी मुसकराती हुई आश्चर्यचकित हो गयीं ।।१७।। भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरी माका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया है, चोटीमें गुँथी हुई मालाएँ गिर गयी हैं और वे बहुत थक भी गयी हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माके बन्धनमें बँध गये ।। १८ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण परम स्वतन्त्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके साथ यह सम्पूर्ण जगत् उनके वशमें है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसारको यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तोंके वशमें हूँ ।।१९।। ग्वालिनी यशोदाने मुक्तिदाता मुकुन्दसे जो कुछ अनिर्वचनीय कृपाप्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होनेपर भी, शंकर आत्मा होनेपर भी और वक्षःस्थलपर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होनेपर भी न पा सके, न पा सके ।।२०।। यह गोपिकानन्दन भगवान् अनन्यप्रेमी भक्तोंके लिये जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियोंको तथा अपने स्वरूपभूत ज्ञानियोंके लिये भी नहीं हैं ।।२१।।
हृदयमें लीलाकी सुखस्मृति, हाथोंसे दधिमन्थन और मुखसे लीलागान—इस प्रकार मन, तन, वचन तीनोंका श्रीकृष्णके साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘मा-मा’ पुकारने लगे। अबतक भगवान् श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे। माकी स्नेह-साधनाने उन्हें जगा दिया। वे निर्गुणसे सगुण हुए, अचलसे चल हुए, निष्कामसे सकाम हुए; स्नेहके भूखे-प्यासे माके पास आये।
गये। दयार्द्र माको श्रीकृष्णका भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी। भक्त भगवान्को एक ओर रखकर भी दुःखियोंकी रक्षा करते हैं। भगवान् अतृप्त ही रह गये। क्या भक्तोंके हृदय-रससे, स्नेहसे उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है? उसी दिनसे उनका एक नाम हुआ—‘अतृप्त’।
प्रेमी भक्तोंके ‘पुरुषार्थ’ भगवान् नहीं हैं, भगवान्की सेवा है।
भीत होकर भागते हुए भगवान् हैं। अपूर्व झाँकी है! ऐश्वर्यको तो मानो मैयाके वात्सल्य प्रेमपर न्योछावर करके व्रजके बाहर ही फेंक दिया है! कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्रका स्मरण करते। मैयाकी छड़ीका निवारण करनेके लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं! भगवान्की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है! धन्य है इस भयको।
विश्वके इतिहासमें, भगवान्के सम्पूर्ण जीवनमें पहली बार स्वयं विश्वेश्वरभगवान् माके सामने अपराधी बनकर खड़े हुए हैं। मानो अपराधी भी मैं ही हूँ—इस सत्यका प्रत्यक्ष करा दिया।
मुझे योगियोंकी भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती, परन्तु जो सब ओरसे मुँह मोड़कर मेरी ओर दौड़ता है, मैं उसकी मुट्ठीमें आ जाता हूँ। यही सोचकर भगवान् यशोदाके हाथों पकड़े गये।
यशोदा मैयाने कहा—चाहे सन्ध्या हो जाय और गाँवभरकी रस्सी क्यों न इकट्ठी करनी पड़े, पर मैं तो इसे बाँधकर ही छोड़ूँगी। यशोदाजीका यह हठ देखकर भगवान्ने अपना हठ छोड़ दिया; क्योंकि जहाँ भगवान् और भक्तके हठमें विरोध होता है, वहाँ भक्तका ही हठ पूरा होता है। भगवान् बँधते हैं तब, जब भक्तकी थकान देखकर कृपापरवश हो जाते हैं। भक्तके श्रम और भगवान्की कृपाकी कमी ही दो अंगुलकी कमी है। अथवा जब भक्त अहंकार करता है कि मैं भगवान्को बाँध लूँगा, तब वह उनसे एक अंगुल दूर पड़ जाता है और भक्तकी नकल करनेवाले भगवान् भी एक अंगुल दूर हो जाते हैं। जब यशोदा माता थक गयीं, उनका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, तब भगवान्की सर्वशक्तिचक्रवर्तिनी परम भास्वती भगवती कृपा-शक्तिने भगवान्के हृदयको माखनके समान द्रवित कर दिया और स्वयं प्रकट होकर उसने भगवान्की सत्य-संकल्पितता और विभुताको अन्तर्हित कर दिया। इसीसे भगवान् बँध गये।
यशोदा माता के नंदलाला मुझे दंड दे रहो या परीक्षा, मुझे मूर्ख को कुछ समझ नहीं आ रहा!
हे प्रभु मेरे प्रेम में इतनी शक्ति नहीं, तुम ही कृपा करके स्वयं ही अपनी लाडली शिवानी के साथ बँध जाओ, जैसी माता यशोदा को परेशान देख कर स्वयं ही ऊखल से माके बन्धन में बँध गए ये।
हे गोविंद, हे गोपाल, कृष्ण हे मुरारी हे दयाल, नंदलाल, पाप-ताप हारी
March 2, 2025 - संध्या
प्रभु क्षमा करो विश्वास डगमगा रहा है। क्या करूं इतनी बार दिल और विश्वास टूटा है! अपने ही मेरी भावनाएँ नहीं समझतीं और मुझे ही बुरा कहते हैं। मीनू ने भी उस दिन मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया और निराधार बातों से मेरे प्रश्न और चिंता बढ़ा दी।सुबह से दिल में भी अजीब सा हो रहा है। कुछ समझ नहीं आ रहा
माखनचोर क्या लीला कर रहा हो?
March 3, 2025
आज भी बार-बार नींद खुलती रही। माँ के गोद में भी चैन नहीं. दिमाग में अजीब सा खलीपन है. प्रभु तुम्हारी बाल लीला पढ़ते समय यहीं याद आता है कि मीनू छोटे बच्चों के साथ खेलते समय कितनी खुश होती थी, तुम्हारी लीलाएं पढ़ कर कितनी प्रसन्न होती, क्या कहती?
March 3, 2025 - दिन
आज का आधा दिन अस्पताल में ही निकल गया। प्रभु तुम्हारी लीला भी नहीं पढ़ पाई, ऊपर से मां डॉक्टर के सामने फिर मीनू की निराधार बातों का समर्थन करने लगी, तो और मन विचलिट हो जाता है। प्रभु, क्यों सारे अधिकार लड़कियो के है? क्यू लड़की जो भी मन गदत कह दे सही है? लड़को को तो रोने का भी अधिकार नहीं है। बचपन से माँ से "लड़की होती" का इमोशनल ब्लैकमेल सुनता आ रहा हूँ। मेरी भावनाओं की कोई जगह ही नहीं है। मीनू कहती है मम्मी पापा से बात करो, पर जब भी बात करो बस मुझे ही गलत सिद्ध करते रहते हैं, मन विचलिट ही होता है। सर दर्द हो रहा है.
सोचता मम्मी पापा नहीं तो काम से कम मीनू तो मुझे समझे गी, पर एक अवसर देने से भी ना कर दिया। प्रभु दिल तोडने में अपनी लाडली की तरह कोई कसार नहीं राखी। दिल के टुकड़े भी नहीं बचेंगे?
डॉक्टर जो जीवनशैली में बदलाव बताते हैं सब मीनू की याद दिलाते हैं।टहलने जाता हूँ तो वृद्ध पति पत्नी को साथ टहलना देखकर कर यहीं मन में आता है मैं भी जीवन के हर पहलू में मीनू के साथ होता। खेल कुद भी मीनू की ही याद दिलाती है। एक्सरसाइज याद दिलाता है मोती हो गई है साथ में एक्सरसाइज कर के दोनो फिट हो जाते। बस पभु के भजन और लीलाएं कुछ शांति देते हैं पर बाद में फिर प्रश्न और चिंता घेर लेते हैं।
अथ दशमोऽध्यायः यमलार्जुनका उद्धार
यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्रके लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहलेसे ही छूटे हुए हैं। अब संतोंके संगसे उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है* ।।१७।। जिन महात्माओंके चित्तमें सबके लिये समता है, जो केवल भगवान्के चरणारविन्दोंका मकरन्द-रस पीनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणोंके खजाने अथवा दुराचारियोंकी जीविका चलानेवाले और धनके मदसे मतवाले दुष्टोंकी क्या आवश्यकता है? वे तो उनकी उपेक्षाके ही पात्र हैं† ।।१८।। ये दोनों यक्ष वारुणी मदिराका पान करके मतवाले और श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियोंके अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षोंका अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा ।।१९।। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेरके पुत्र होनेपर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बातका भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धड़ंग हैं ।।२०।। इसलिये ये दोनों अब वृक्षयोनिमें जानेके योग्य हैं। ऐसा होनेसे इन्हें फिर इस प्रकारका अभिमान न होगा। वृक्षयोनिमें जानेपर भी मेरी कृपासे इन्हें भगवान्की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रहसे देवताओंके सौ वर्ष बीतनेपर इन्हें भगवान् श्रीकृष्णका सान्निध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान्के चरणोंमें परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोकमें चले आयेंगे ।।२१-२२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवर्षि नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले गये‡। नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध हुए ।।२३।। भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीकी बात सत्य करनेके लिये धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे ।।२४।। भगवान्ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेरके लड़के हैं। इसलिये महात्मा नारदने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूपमें पूरा करूँगा’* ।।२५।। यह विचार करके भगवान् श्रीकृष्ण दोनों वृक्षोंके बीचमें घुस गये†। वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया ।।२६।। दामोदरभगवान् श्रीकृष्णकी कमरमें रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखलको ज्यों ही तनिक जोरसे खींचा, त्यों ही पेड़ोंकी सारी जड़ें उखड़ गयी‡। समस्त बल-विक्रमके केन्द्र भगवान्का तनिक-सा जोर लगते ही पेड़ोंके तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे और वे दोनों बड़े जोरसे तड़तड़ाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ।।२७।। उन दोनों वृक्षोंमेंसे अग्निके समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्यसे दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदयसे वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे— ।।२८।।
उन्होंने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृतिसे अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत् आपका ही रूप है ।।२९।। आप ही समस्त प्राणियोंके शरीर, प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियोंके स्वामी हैं। तथा आप ही सर्वशक्तिमान् काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं ।।३०।। आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंके कर्म, भाव, धर्म और सत्ताको जाननेवाले सबके साक्षी परमात्मा हैं ।।३१।। वृत्तियोंसे ग्रहण किये जानेवाले प्रकृतिके गुणों और विकारोंके द्वारा आप पकड़में नहीं आ सकते। स्थूल और सूक्ष्म शरीरके आवरणसे ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके? क्योंकि आप तो उन शरीरोंके पहले भी एकरस विद्यमान थे ।।३२।। समस्त प्रपंचके विधाता भगवान् वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्णने नलकूबर और मणिग्रीवके इस प्रकार स्तुति करनेपर रस्सीसे ऊखलमें बँधे-बँधे ही हँसते हुए* उनसे कहा— ।।३९।। श्रीभगवान्ने कहा—तुमलोग श्रीमदसे अंधे हो रहे थे। मैं पहलेसे ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारदने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की ।।४०।। जिनकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्ण-रूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना ।।४१।। इसलिये नलकूबर और मणिग्रीव! तुमलोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ। तुमलोगोंको संसारचक्रसे छुड़ानेवाले अनन्य भक्तिभावकी, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है ।।४२।।
हे प्रभु, आज प्रार्थना और भागवत में भी मन नहीं लगा। प्रशनो और चीन्तए तो है ही, सर और गार्दन दर्द ने भी विचलिट रखा। आरती लेते समय भी मन विचलित था, सब के लिए प्रार्थना भी नहीं कर पाई। तुम्हारा वह सहारा है. पता नहीं क्या हालत है कि मीनू ने सत्य नहीं बताया और अंकलजी भी बस झूठा आश्वासन दे देते हैं। पता नहीं मीनू कैसी होगी. पता नहीं अंकलजी, आंटीजी को पे कोई दबाव तो नहीं जो अंकलजी को रिटायरमेंट के बाद रविवार को भी काम करना पड़ता है। प्रभु, सबका कल्याण करो, मार्गदर्शन करो।
हे प्रभु, हम तुम्हारे दर्शन पाने के योग्य नहीं हैं तो अपने साधु भक्तों के ही दर्शन करा दो। हमारा कुछ तो कल्याण हो जाये।
ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।। जो सर्व कल्याणकारी हैं उन्हें प्रणाम ! 🙏
March 4, 2025
ॐ नमः शिवाय, शिवाय नमः ॐ
आज नींद की दवा खा के भी 4 बजे से बार-बार नींद टूटी रही। सपने में एक छोटे से पेपर पर कोई शिव स्तुति लिखी मिली थी, पढ़ रहा था और जहां अटका था पापा को दिखा के पूछ रहा था। उस समय स्पष्ट थी अब याद नहीं आ रही। मीनू की याद आ रही है, बचपन में कितनी प्यारी प्यारी बातें करती थी और अंकलजी को डांटती थी। माँ का टेडी बियर बन के भी मन शांत नहीं होता। मुझे तो हाल चल लेने का भी अधिकार नहीं है।
पता नहीं अंकलजी मीनू के साथ हैं कि भूल गए, प्रभु तुम साथ रहना, अपनी लाडली को मत भूलना।
शुभम की शेरवानी फोटो आज देख कर कुछ शांति मिली कि सब ठीक ठाक है
अथैकादशोऽध्यायः गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुरका उद्धार
परीक्षित्! जो सारे लोकोंके एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और बलराम अब वत्सपाल (बछड़ोंके चरवाहे) बने हुए हैं।
परीक्षित्! श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्माके भी पिता हैं। वे लीलासे ही गोपाल-बालक बने हुए हैं। जब बलराम आदि बालकोंने देखा कि श्रीकृष्ण बगुलेके मुँहसे निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ, मानो प्राणोंके संचारसे इन्द्रियाँ सचेत और आनन्दित हो गयी हों। सबने भगवान्को अलग-अलग गले लगाया।
हों। वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदरसे श्रीकृष्णको निहारने लगे। उनके नेत्रोंकी प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तृप्ति न होती थी ।।५४।।
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा। मन तो विचलिट है हाय माँ की बातें और निराधार तर्को से गुस्सा आ जाता है। हे प्रभु, तुम्हारे लिए कुछ असंभव नहीं, गुत्थियों को सुलझा कर मेरे परिवार को साथ ला दो। हम पर कृपा करो। तुम ही मेरा आश्रय हो
March 5, 2025
हे प्रभु, प्रश्नो और चिन्ता की चिता आज और भी धड़क रही है। पिछले कुछ दिनों से भागवत पढने का भी ज्यादा समय नहीं मिल रहा, बस रात को के किसी तरह एक अध्याय। पता नहीं मीनू कैसी होगी? बड़ी-बड़ी बाते करती है, पर मुझसे बात क्या मुझे हाल चल लेने का भी अधिकार नहीं दिया। प्रभु तुम्हारा ही सहारा है, हमारा मार्ग दर्शन करो। क्यों कोई मेरी भावनाओं को नहीं समझता? क्यों मीनू व्यवहार कुछ करती है और कहती कुछ और?
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्त वीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् तवं वै प्रसन्न भुवि मुक्ति हेतुः।।
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्ब यैयन का ते स्तुतिः सल्वयपरा परोक्तिः।।
माता मेरी सखी की रक्षा करो। संसार की माया में भटकने न देना। अभय प्रदान करो और सत्येवादी बनाओ।
दशमः स्कन्धः अथाष्टमोऽध्यायः नामकरण-संस्कार और बाललीला मे - गोपियों ने शिकायत करी थी - “यदि घरमें कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालोंपर बहुत खीझता है और हमारे बच्चोंको रुलाकर भाग जाता है ।।२९।। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरीके अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थरकी मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!”
मीनू कहती है अब हम बच्चे नहीं रहे, प्रभु तुम्हारा भी बचपन कहाँ गया! अभी भी बच्चों को रुलाते हो
मेरे साधु नंदलाल और कितना रूलाओगे। अपने मुर्ख बालक पर कुछ तो दया कर दो। अपनी लाडली मीनू को गोद में उठाकर मेरे पास ले आओ। दोनो मेरे साथ भी खेल लो।
March 5, 2025 - रात्रि
अथ द्वादशोऽध्यायः अघासुरका उद्धार
भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञानी संतोंके लिये स्वयं ब्रह्मानन्दके मूर्तिमान् अनुभव हैं। दास्यभावसे युक्त भक्तोंके लिये वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं। और माया-मोहित विषयान्धोंके लिये वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं। उन्हीं भगवान्के साथ वे महान् पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरहके खेल खेल रहे हैं ।।११।। बहुत जन्मोंतक श्रम और कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरणको वशमें कर लिया है, उन योगियोंके लिये भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी रज अप्राप्य है। वही भगवान् स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालोंकी आँखोंके सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्यकी महिमा इससे अधिक क्या कही जाय ।।१२।।
भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हैं।
अथ त्रयोदशोऽध्यायः ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान्की इस रसमयी लीलामें तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बड़ी दूर निकल गये ।।१२।। जब ग्वालबालोंका ध्यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तोंके भयको भगा देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘मेरे प्यारे मित्रो! तुमलोग भोजन करना बंद मत करो। मैं अभी बछड़ोंको लिये आता हूँ’ ।।१३।। ग्वालबालोंसे इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण हाथमें दही-भातका कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुंजों एवं अन्यान्य भयंकर स्थानोंमें अपने तथा साथियोंके बछड़ोंको ढूँढ़ने चल दिये ।।१४।। परीक्षित्! ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित थे। प्रभुके प्रभावसे अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि लीलासे मनुष्य-बालक बने हुए भगवान् श्रीकृष्णकी कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर ग्वाल-बालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। अन्ततः वे जड़ कमलकी ही तो सन्तान हैं ।।१५।।
भगवान् श्रीकृष्ण बछड़े न मिलनेपर यमुनाजीके पुलिनपर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं। तब उन्होंने वनमें घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ा ।।१६।। परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है। वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं ।।१७।। अब भगवान् श्रीकृष्णने बछड़ों और ग्वालबालोंकी माताओंको तथा ब्रह्माजीको भी आनन्दित करनेके लिये अपने-आपको ही बछड़ों और ग्वालबालों—दोनोंके रूपमें बना लिया*। क्योंकि वे ही तो सम्पूर्ण विश्वके कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं ।।१८।। परीक्षित्! वे बालक और बछड़े संख्यामें जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिंगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’—यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी ।।१९।।
तबतक ब्रह्माजी ब्रह्मलोकसे व्रजमें लौट आये। उनके कालमानसे अबतक केवल एक त्रुटि (जितनी देरमें तीखी सूईसे कमलकी पँखुड़ी छिदे) समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ोंके साथ एक सालसे पहलेकी भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं ।।४०।। वे सोचने लगे—‘गोकुलमें जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्यापर सो रहे हैं—उनको तो मैंने अपनी मायासे अचेत कर दिया था; वे तबसे अबतक सचेत नहीं हुए ।।४१।। तब मेरी मायासे मोहित ग्वालबाल और बछड़ोंके अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान्के साथ खेल रहे हैं? ।।४२।। ब्रह्माजीने दोनों स्थानोंपर दोनोंको देखा और बहुत देरतक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टिसे उनका रहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनोंमें कौन-से पहलेके ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इनमेंसे कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी—‘यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके ।।४३।।
भगवान् श्रीकृष्णकी मायामें तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान्का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्माजी उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको अपनी मायासे मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होनेपर भी अपनी ही मायासे अपने-आप मोहित हो गये ।।४४।। जिस प्रकार रातके घोर अन्धकारमें कुहरेके अन्धकारका और दिनके प्रकाशमें जुगनूके प्रकाशका पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषोंपर अपनी मायाका प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है ।।४५।।
ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी पड़ने लगे।सब-के-सब सजल जलधरके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्मसे युक्त—चतुर्भुज। सबके सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कण्ठोंमें मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रही थीं ।।४६-४७।। उनके वक्षःस्थलपर सुवर्णकी सुनहली रेखा—श्रीवत्स, बाहुओंमें बाजूबंद, कलाइयोंमें शंखाकार रत्नोंसे जड़े कंगन, चरणोंमें नूपुर और कड़े, कमरमें करधनी तथा अँगुलियोंमें अँगूठियाँ जगमगा रही थीं ।।४८।। वे नखसे शिखतक समस्त अंगोंमें कोमल और नूतन तुलसीकी मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तोंने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे ।।४९।। उनकी मुसकान चाँदनीके समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रोंकी कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनोंके द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुणको स्वीकार करके भक्त-जनोंके हृदयमें शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं ।।५०।। ब्रह्माजीने यह भी देखा कि उन्हींके-जैसे दूसरे ब्रह्मासे लेकर तृणतक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचते-गाते अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्रीसे अलग-अलग भगवान्के उन सब रूपोंकी उपासना कर रहे हैं ।।५१।।
उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओरसे घेरे हुए हैं ।।५२।। प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला काल, उसके परिणामका कारण स्वभाव, वासनाओंको जगानेवाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल—सभी मूर्तिमान् होकर भगवान्के प्रत्येक रूपकी उपासना कर रहे हैं। भगवान्की सत्ता और महत्ताके सामने उन सभीकी सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी ।।५३।। ब्रह्माजीने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयंप्रकाश और केवल अनन्त आनन्दस्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतनताका भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँतक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियोंकी दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमाका स्पर्श नहीं कर सकती ।।५४।। इस प्रकार ब्रह्माजीने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाशसे यह सारा चराचर जगत् प्रकाशित हो रहा है ।।५५।।
यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान्के तेजसे निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रजके अधिष्ठातृ-देवताके पास एक पुतली खड़ी हो ।।५६।। परीक्षित्! भगवान्का स्वरूप तर्कसे परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और मायासे अतीत है। वेदान्त भी साक्षात्रूपसे उसका वर्णन करनेमें असमर्थ है, इसलिये उससे भिन्नका निषेध करके आनन्द-स्वरूप ब्रह्मका किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओंके अधिपति हैं, तथापि भगवान्के दिव्यस्वरूपको वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँतक कि वे भगवान्के उन महिमामय रूपोंको देखनेमें भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया ।।५७।। इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे। सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा ।।५८।। फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा है। जिधर देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी पाँतें शोभा पा रही हैं ।।५९।। भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावनधाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभावसे ही परस्पर दुस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं ।।६०।। ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन करनेके बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका-सा नाट्य कर रहा है। एक होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूँढ़ रहा है। ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान् श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें लगे हैं ।।६१।। भगवान्को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान्के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया ।।६२।। वे भगवान् श्रीकृष्णकी पहले देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान्के चरणोंमें ही पड़े रहे ।।६३।।
फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे। प्रेम और मुक्तिके एकमात्र उद्गम भगवान्को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अंजलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्की स्तुति करने लगे ।।६४।।
* भगवान् सर्वसमर्थ हैं। वे ब्रह्माजीके चुराये हुए ग्वालबाल और बछड़ोंको ला सकते थे। किन्तु इससे ब्रह्माजीका मोह दूर न होता और वे भगवान्की उस दिव्य मायाका ऐश्वर्य न देख सकते, जिसने उनके विश्वकर्ता होनेके अभिमानको नष्ट किया। इसीलिये भगवान् उन्हीं ग्वालबाल और बछड़ोंको न लाकर स्वयं ही वैसे ही एवं उतने ही ग्वालबाल और बछड़े बन गये।
आज प्रभु एक अध्याय में असुर का और दूसरे में ब्रह्मा जी का उद्धार किया। हमपे भी कृपा दृष्टि डालदो
आज दिन भर अजीब से नीड़सा घेरे रही। पता नहीं दवा का प्रभाव है या क्या!
अंकलजी उस दिन भी कह रहे थे कि उन्हें कहना पड़ता था मीनू से कि मुझसे बात करे। मीनू का तो ऐसा स्वभाव नहीं और कह रही थी मम्मी पापा को सब बताती हूं, तो क्यों अंजान बन के मेरी भावनाओं से खेल रहे थे। बाप बेटी ने मेरे दिल को फुटबॉल की तरह क्यों खेला?
हे प्रभु, भला, तुमसे क्या छिपा है? तुम तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हो।दया कर के तुम ही बता दो सत्ये क्या है?
March 6, 2025
ॐ गं गणपतये नमो नम:
आज सपने में समय की गति आती तीव्र थी। पता नहीं चला कब महिनो निकल गए। मैं मीनू से मिलने को तड़पता रह।पार्क में ही श्री को ले कर घूम रही थी, पर मुझसे कोई मतलब नहीं। प्रभु पता नहीं क्यों सबको लगता है दुरी और समय के साथ मीनू को भूल जाऊंगा। कोई मेरी भावनाएं नहीं समझता।कभी कभी लगता है कुछ दिन पहले ही तो मीनू के साथ आरती गा रहा था, इतनी जल्दी कैसे सब बिखर गया!
माता कब बुलावा भेजेगी।कब मैं मीनू और हमारे माता-पिता के साथ दरबार में सत्संग करूं। दर्शन दो माता। जय माता दी
अथ चतुर्दशोऽध्यायः ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्की स्तुति
प्रभो! जो लोग ज्ञानके लिये प्रयत्न न करके अपने स्थानमें ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषोंके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाका, जो उन लोगोंके पास रहनेसे अपने-आप सुननेको मिलती है, शरीर, वाणी और मनसे विनयावनत होकर सेवन करते हैं—यहाँतक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते—प्रभो! यद्यपि आपपर त्रिलोकीमें कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आपपर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेमके अधीन हो जाते हैं ।।३।। भगवन्! आपकी भक्ति सब प्रकारके कल्याणका मूलस्रोत— उद्गम है।
प्रभो! आप केवल संसारके कल्याणके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। सो भगवन्! आपकी महिमाका ज्ञान तो बड़ा ही कठिन है ।।७।। इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकतासे आपकी कृपाका ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीरसे अपनेको आपके चरणोंमें समर्पित करता रहता है—इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पदका अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र! ।।८।।
प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा हैं और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी मायाके चक्रमें हैं। फिर भी मैंने आपपर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा! प्रभो मैं आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आगके सामने चिनगारीकी भी कुछ गिनती है? ।।९।। भगवन्! मैं रजोगुणसे उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरूपको मैं ठीक-ठीक नहीं जानता। इसीसे अपनेको आपसे अलग संसारका स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ—इस मायाकृत मोहके घने अन्धकारसे मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है— मेरा भृत्य है, इसपर कृपा करनी चाहिये’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये ।।१०।। मेरे स्वामी! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीरूप आवरणोंसे घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोमके छिद्रमें ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखेकी जालीमेंसे आनेवाली सूर्यकी किरणोंमें रजके छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाणसे साढ़े तीन हाथके शरीरवाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा ।।११।।
नारायणस्त्वं न हि सर्वदेहिना- मात्मास्यधीशाखिललोकसाक्षी ।
नारायणोऽङ्गं नरभूजलायना- त्तच्चापि सत्यं न तवैव माया ।।१४
प्रभो! आप समस्त जीवोंके आत्मा हैं। इसलिये आप नारायण (नार—जीव और अयन—आश्रय) हैं। आप समस्त जगत्के और जीवोंके अधीश्वर हैं, इसलिये आप नारायण (नार—जीव और अयन—प्रवर्तक) हैं। आप समस्त लोकोंके साक्षी हैं, इसलिये भी नारायण (नार—जीव और अयन—जाननेवाला) हैं। नरसे उत्पन्न होनेवाले जलमें निवास करनेके कारण जिन्हें नारायण (नार—जल और अयन—निवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूपसे दीखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है ।।१४।। भगवन्! यदि आपका वह विराट् स्वरूप सचमुच उस समय जलमें ही था तो मैंने उसी समय उसे क्यों नहीं देखा, जब कि मैं कमलनालके मार्गसे उसे सौ वर्षतक जलमें ढूँढ़ता रहा? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदयमें उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणोंमें वह पुनः क्यों नहीं दीखा, अन्तर्धान क्यों हो गया? ।।१५।।
जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूपको नहीं जानते, उन्हींको आप प्रकृतिमें स्थित जीवके रूपसे प्रतीत होते हैं और उनपर अपनी मायाका परदा डालकर सृष्टिके समय मेरे (ब्रह्मा) रूपसे, पालनके समय अपने (विष्णु) रूपसे और संहारके समय? रुद्रके रूपमें प्रतीत होते हैं ।।१९।। प्रभो! आप सारे जगत्के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होनेपर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियोंमें अवतार ग्रहण करते हैं—इसलिये कि इन रूपोंके द्वारा दुष्ट पुरुषोंका घमंड तोड़ दें और सत्पुरुषोंपर अनुग्रह करें ।।२०।। भगवन्! आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं।
भगवन्! कितने आश्चर्यकी बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं।
अपने भक्तजनोंके हृदयमें स्वयं स्फुरित होनेवाले भगवन्! आपके ज्ञानका स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञानकल्पित जगत्का नाश हो जाता है। फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलोंका तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है—वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमाका तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधनरूप अपने प्रयत्नसे बहुत कालतक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमाका यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता ।।२९।।
श्रीकृष्ण वृष्णिकुलपुष्करजोषदायिन् क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्धिकारिन् ।
उद्धर्मशार्वरहर क्षितिराक्षसध्रु- गाकल्पमार्कमर्हन् भगवन् नमस्ते ।।४०
सबके मन-प्राणको अपनी रूप-माधुरीसे आकर्षित करनेवाले श्यामसुन्दर! आप यदुवंशरूपी कमलको विकसित करनेवाले सूर्य हैं। प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्रकी अभिवृद्धि करनेवाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियोंके धर्मरूप रात्रिका घोर अन्धकार नष्ट करनेके लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनोंके ही समान हैं। पृथ्वीपर रहनेवाले राक्षसोंके नष्ट करनेवाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओंके भी परम पूजनीय हैं। भगवन्! मैं अपने जीवनभर, महाकल्पपर्यन्त आपको नमस्कार ही करता रहूँ ।।४०।।
March 7, 2025
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् । वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ॥
आज सपने में अकेला कोई सुंदर पहाड़ी क्षेत्र में भटक रहा है और दूसरे में अकेला कंप्यूटर पे गेम्स खेल रहा था। मन भटक रहा था किसी तरह की तरह संभला। मीनू के प्रेम ने ही मुझे संसार में भटकने से बचाया है, और प्रभु तुम्हारी या लता रहा है। मेरी सखी की उंगली पकड़े रहना, अपनी माया से बचाये रखना। हम सबका कल्याण करो बालंमुकुन्दं, तुम्हारा ही सहारा है।
अथ पञ्चदशोऽध्यायः धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनागके विषसे बचाना
१।। यह वन गौओंके लिये हरी-हरी घाससे युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पोंकी खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्णके यशका गान करते हुए ग्वालबाल—इस प्रकार विहार करनेके लिये उन्होंने उस वनमें प्रवेश किया ।।२।।
कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वाल-बालोंके साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्षके नीचे कोमल पल्लवोंकी सेजपर किसी ग्वालबालकी गोदमें सिर रखकर लेट जाते ।।१६।। परीक्षित्! उस समय कोई-कोई पुण्यके मूर्तिमान् स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्णके चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियोंसे पंखा झलने लगते ।।१७।।
बलरामजी और श्रीकृष्णके सखाओंमें एक प्रधान गोप-बालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालोंने श्याम और रामसे बड़े प्रेमके साथ कहा— ।।२०।। ‘हमलोगोंको सर्वदा सुख पहुँचानेवाले बलरामजी! आपके बाहुबलकी तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टोंको नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है। यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़के वृक्ष भरे पड़े हैं ।।२१।। वहाँ बहुत-से ताड़के फल पक-पककर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहलेके गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नामका एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलोंपर रोक लगा रखी है ।।२२।। बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण! वह दैत्य गधेके रूपमें रहता है। वह स्वयं तो बड़ा बलवान् है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसीके समान बलवान् दैत्य उसी रूपमें रहते हैं ।।२३।। मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्यने अबतक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं। यही कारण है कि उसके डरके मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगलमें नहीं जाते ।।२४।। उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हींकी मन्द-मन्द सुगन्ध फैल रही है। तनिक-सा ध्यान देनेसे उसका रस मिलने लगता है ।।२५।। श्रीकृष्ण! उनकी सुगन्धसे हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पानेके लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलोंकी बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये ।।२६।।
अपने सखा ग्वालबालोंकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके साथ तालवनके लिये चल पड़े ।।२७।। उस वनमें पहुँचकर बलरामजीने अपनी बाँहोंसे उन ताड़के पेड़ोंको पकड़ लिया और मतवाले हाथीके बच्चेके समान उन्हें बड़े जोरसे हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये ।।२८।। जब गधेके रूपमें रहनेवाले दैत्यने फलोंके गिरनेका शब्द सुना, तब वह पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा ।।२९।। वह बड़ा बलवान् था। उसने बड़े वेगसे बलरामजीके सामने आकर अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोरसे रेंकता हुआ वहाँसे हट गया ।।३०।। राजन्! वह गधा क्रोधमें भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजीके पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोधसे अपने पिछले पैरोंकी दुलत्ती चलायी ।।३१।। बलरामजीने अपने एक ही हाथसे उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाकर एक ताड़के पेड़पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधेके प्राणपखेरू उड़ गये थे ।।३२।।
इसके बाद कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ व्रजमें आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान्की लीलाओंका श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है ।।४१।। उस समय श्रीकृष्णकी घुँघराली अलकोंपर गौओंके खुरोंसे उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंखका मुकुट था और बालोंमें सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे। उनके नेत्रोंमें मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्तिका गान कर रहे थे। वंशीकी ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रजसे बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कबसे श्रीकृष्णके दर्शनके लिये तरस रही थीं ।।४२।।
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावनमें अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालोंके साथ वे यमुना-तटपर गये। राजन्! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे ।।४७।। उस समय जेठ-आषाढ़के घामसे गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्याससे उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुनाजीका विषैला जल पी लिया ।।४८।। परीक्षित्! होनहारके वश उन्हें इस बातका ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जलके पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजीके तटपर गिर पड़े ।।४९।। उन्हें ऐसी अवस्थामें देखकर योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी अमृत बरसानेवाली दृष्टिसे उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे ।।५०।। परीक्षित्! चेतना आनेपर वे सब यमुनाजीके तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरेकी ओर देखने लगे ।।५१।।
राजन्! अन्तमें उन्होंने यही निश्चय किया कि हमलोग विषैला जल पी लेनेके कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्णने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टिसे देखकर हमें फिरसे जिला दिया है ।।५२।।
प्रभु, मुझे रोता छोड़ कर होली खेलने लगे। मीनू ने एक बार भी मेरे साथ होली नहीं खेली और बड़ी-बड़ी बातें करती है। कितने वर्ष होंगे बिना होली खेले! हे गोपाल, अपनी लाडली को पकड़ के लेओ और मेरे साथ भी होली खेलो।
March 7, 2025
अथ षोडशोऽध्यायः कालियपर कृपा
परीक्षित्! मार्गमें गौओं और दूसरोंके चरणचिह्नोंके बीच-बीचमें भगवान्के चरणचिह्न भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अंकुश, वज्र और ध्वजाके चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रतासे चले ।।१८।।
परीक्षित्! यह साँपके शरीरसे बँध जाना तो श्रीकृष्णकी मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रजके सभी लोग स्त्री और बच्चोंके साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्ततक सर्पके बन्धनमें रहकर बाहर निकल आये ।।२३।।
कालिय नागके मस्तकोंपर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्शसे भगवान्के सुकुमार तलुओंकी लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओंके आदिप्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण उसके सिरोंपर कलापूर्ण नृत्य करने लगे ।।२६।। भगवान्के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओंने जब देखा कि भगवान् नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेमसे मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पोंकी वर्षा करते हुए और अपनेको निछावर करते हुए भेंट ले-लेकर उसी समय भगवान्के पास आ पहुँचे ।।२७।। परीक्षित्! कालिय नागके एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिरको नहीं झुकाता था, उसीको प्रचण्ड दण्डधारी भगवान् अपने पैंरोंकी चोटसे कुचल डालते। इससे कालिय नागकी जीवनशक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथुनोंसे खून उगलने लगा। अन्तमें चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ।।२८।। तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखोंसे विष उगलने लगता और क्रोधके मारे जोर-जोरसे फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरोंमेंसे जिस सिरको ऊपर उठाता, उसीको नाचते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणोंकी ठोकरसे झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर जो खूनकी बूँदें पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पोंसे उनकी पूजा की जा रही हो ।।२९।। परीक्षित्! भगवान्के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्यसे कालियके फणरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँहसे खूनकी उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत्के आदिशिक्षक पुराणपुरुष भगवान् नारायणकी स्मृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान्की शरणमें गया ।।३०।। भगवान् श्रीकृष्णके उदरमें सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझसे कालिय नागके शरीरकी एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एड़ियोंकी चोटसे उसके छत्रके समान फण छिन्न-भिन्न हो गये। अपने पतिकी यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान्की शरणमें आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भयके मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केशकी चोटियाँ भी बिखर रही थीं ।।३१।। उस समय उन साध्वी नागपत्नियोंके चित्तमें बड़ी घबराहट थी। अपने बालकोंको आगे करके वे पृथ्वीपर लोट गयीं और हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त प्राणियोंके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्णको शरणागतवत्सल जानकर अपने अपराधी पतिको छुड़ानेकी इच्छासे उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की ।।३२।।
नागपत्नियोंने कहा—प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधीको दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टिमें शत्रु और पुत्रका कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसीको दण्ड देते हैं, वह उसके पापोंका प्रायश्चित्त कराने और उसका परम कल्याण करनेके लिये ही ।।३३।।
अवश्य ही पूर्वजन्ममें इसने स्वयं मानरहित होकर और दूसरोंका सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवोंपर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है तभी तो आप इसके ऊपर सन्तुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवस्वरूप आपकी प्रसन्नताका यही उपाय है ।।३५।। भगवन्! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधनाका फल है, जो यह आपके चरणकमलोंकी धूलका स्पर्श पानेका अधिकारी हुआ है। आपके चरणोंकी रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अर्द्धांगिनी लक्ष्मीजीको भी बहुत दिनोंतक समस्त भोगोंका त्याग करके नियमोंका पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी ।।३६।।
प्रभो! जो आपके चरणोंकी धूलकी शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्गका राज्य या पृथ्वीकी बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातलका ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्माका पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियोंकी भी चाह नहीं होती। यहाँतक कि वे जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले कैवल्य-मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते ।।३७।।
आप नामरूपात्मक विश्वप्रपंचके निषेधकी अवधि तथा उसके अधिष्ठान होनेके कारण विश्वरूप भी हैं।
कालिय नागने कहा—नाथ! हम जन्मसे ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनोंके बाद भी बदला लेनेवाले—बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवोंके लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसीके कारण संसारके लोग नाना प्रकारके दुराग्रहोंमें फँस जाते हैं ।।५६।। विश्वविधाता! आपने ही गुणोंके भेदसे इस जगत्में नाना प्रकारके स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियोंका निर्माण किया है ।।५७।। भगवन्! आपकी ही सृष्टिमें हम सर्प भी हैं। हम जन्मसे ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस मायाके चक्करमें स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्नसे इस दुस्त्यज मायाका त्याग कैसे करें ।।५८।। आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस मायाके कारण हैं। अब आप अपनी इच्छासे—जैसा ठीक समझें—कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये ।।५९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कालिय नागकी बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियोंके साथ शीघ्र ही यहाँसे समुद्रमें चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जलका उपभोग करें ।।६०।। जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञाका स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपोंसे कभी भय न हो ।।६१।। मैंने इस कालियदहमें क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जलसे देवता और पितरोंका तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगा—वह सब पापोंसे मुक्त हो जायगा ।।६२।। मैं जानता हूँ कि तू गरुडके भयसे रमणक द्वीप छोड़कर इस दहमें आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नोंसे अंकित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड तुझे खायेंगे नहीं ।।६३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् श्रीकृष्णकी एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियोंने आनन्दसे भरकर बड़े आदरसे उनकी पूजा की ।।६४।।
हरिः ॐ
March 8, 2025
जय माता दी
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरन्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
आज सपने में मीनू से मिलने जा रहा था, इस लिए मिठाई और नमकीन मंगा रहा था। बस मांगता ही रह गया और सपना टूट गया। अगले में भागवत टीवी पर लगा के साथ-साथ पढ़ रहा था। अगले ऑफिस में किसी समस्या का समाधान कर रहा था, प्रभु मेरे प्रश्न और उलझा हुआ जीवन कब हल होगा?
बिना नींद की दवा के जग के तड़पा हूं, और दवा खा तो सपने में।
शास्त्री जी दरबार में बैठे भक्तों से कहते हैं कि काई जन्मो के पुण्य का उदय होता है तो ये सोभागे मिटा है। माता मेरे जो थोड़े बहुत पुन्य थे वो तो प्रभु को अर्पण कर दिए, फिर भी हमें बुलावा भेज दो। मेरी सखी के सहयोग से पूरे परिवार को दर्शन कराने ले के आउ।
March 8, 2025 - रात्रि
अथ सप्तदशोऽध्यायः कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्का व्रजवासियोंको दावानलसे बचाना
तार्क्ष्यनन्दन गरुडजी विष्णुभगवान्के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नागकी यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने उसे अपने शरीरसे झटककर फेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंखसे कालिय नागपर बड़े जोरसे प्रहार किया ।।७।। उनके पंखकी चोटसे कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँसे भगा और यमुनाजीके इस कुण्डमें चला आया। यमुनाजीका यह कुण्ड गरुडके लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे ।।८।। इसी स्थानपर एक दिन क्षुधातुर गरुडने तपस्वी सौभरिके मना करनेपर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्यको बलपूर्वक पकड़कर खा लिया ।।९।। अपने मुखिया मत्स्यराजके मारे जानेके कारण मछलियोंको बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरिको बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्डमें रहनेवाले सब जीवोंकी भलाईके लिये गरुडको यह शाप दे दिया ।।१०।। ‘यदि गरुड फिर कभी इस कुण्डमें घुसकर मछलियोंको खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणोंसे हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ’ ।।११।।
परीक्षित्! महर्षि सौभरिके इस शापकी बात कालिय नागके सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुडके भयसे वहाँ रहने लगा था और अब भगवान् श्रीकृष्णने उसे निर्भय करके वहाँसे रमणक द्वीपमें भेज दिया ।।१२।।
परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो उस कुण्डसे बाहर निकले ।।१३।। उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणोंको पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपोंका हृदय आनन्दसे भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नतासे अपने कन्हैयाको हृदयसे लगाने लगे ।।१४।। परीक्षित्! यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोप—सभी श्रीकृष्णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया ।।१५।। बलरामजी तो भगवान्का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब आनन्दमग्न हो गये ।।१६।।
परम सौभाग्यवती देवी यशोदाने भी कालके गालसे बचे हुए अपने लालको गोदमें लेकर हृदयसे चिपका लिया। उनकी आँखोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं ।।१९।।
राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपरसे भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रजमें नहीं गये, वहीं यमुनाजीके तटपर सो रहे ।।२०।। गर्मीके दिन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए व्रजवासियोंको चारों ओरसे घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी ।।२१।। आगकी आँच लगनेपर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये ।।२२।। उन्होंने कहा—‘प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! महाभाग्यवान् बलराम! तुम दोनोंका बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, यह भयंकर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनोंको जलाना ही चाहती है ।।२३।। तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलयकी अपार आगसे हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्युसे नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़नेमें हम असमर्थ हैं ।।२४।। भगवान् अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियोंको धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आगको पी गये* ।।२५।।
* यह कथा इस प्रकार है—गरुडजीकी माता विनता और सर्पोंकी माता कद्रूमें परस्पर वैर था। माताका वैर स्मरण कर गरुडजी जो सर्प मिलता उसीको खा जाते। इससे व्याकुल होकर सब सर्प ब्रह्माजीकी शरणमें गये। तब ब्रह्माजीने यह नियम कर दिया कि प्रत्येक अमावास्याको प्रत्येक सर्पपरिवार बारी-बारीसे गरुडजीको एक सर्पकी बलि दिया करे।
अथाष्टादशोऽध्यायः प्रलम्बासुर-उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियोंसे घिरे हुए एवं उनके मुखसे अपनी कीर्तिका गान सुनते हुए श्रीकृष्णने गोकुलमण्डित गोष्ठमें प्रवेश किया ।।१।। इस प्रकार अपनी योगमायासे ग्वालका-सा वेष बनाकर राम और श्याम व्रजमें क्रीडा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियोंको बहुत प्रिय नहीं है ।।२।। परन्तु वृन्दावनके स्वाभाविक गुणोंसे वहाँ वसन्तकी ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावनमें परम मधुर भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलरामजी निवास जो करते थे ।।३।।
उस वनमें वृक्षोंकी पाँत-की-पाँत फूलोंसे लद रही थी। जहाँ देखिये, वहींसे सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरहके हरिन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं ।।७।। ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलरामजीने उसमें विहार करनेकी इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीचमें अपने बड़े भाईके साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण ।।८।।
राम, श्याम और ग्वालबालोंने नव पल्लवों, मोर-पंखके गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंके हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको भाँति-भाँतिसे सजा लिया। फिर कोई आनन्दमें मग्न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लड़ने लगा और किसी-किसीने राग अलापना शुरू कर दिया ।।९।। जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सींग बजाने लगते। कुछ हथेलीसे ही ताल देते, तो कुछ ‘वाह-वाह’ करने लगते ।।१०।। परीक्षित्! उस समय नट जैसे अपने नायककी प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवतालोग ग्वालबालोंका रूप धारण करके वहाँ आते और गोपजातिमें जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगते ।।११।। घुँघराली अलकोंवाले श्याम और बलराम कभी एक-दूसरेका हाथ पकड़कर कुम्हारके चाककी तरह चक्कर काटते—घुमरी-परेता खेलते। कभी एक-दूसरेसे अधिक फाँद जानेकी इच्छासे कूदते—कूँड़ी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करते—एक दल दूसरे दलके विपरीत रस्सी पकड़कर खींचता और कभी कहीं एक-दूसरेसे कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरहके खेल खेलते ।।१२।। कहीं-कहीं जब दूसरे ग्वालबाल नाचने लगते तो श्रीकृष्ण और बलरामजी गाते या बाँसुरी, सींग आदि बजाते। और महाराज! कभी-कभी वे ‘वाह-वाह’ कहकर उनकी प्रशंसा भी करने लगते ।।१३।।
एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ उस वनमें गौएँ चरा रहे थे तब ग्वालके वेषमें प्रलम्ब नामका एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको हर ले जाऊँ ।।१७।। भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रताका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्तिसे इसका वध करना चाहिये ।।१८।। ग्वालबालोंमें सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलोंके आचार्य श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने सब ग्वालबालोंको बुलाकर कहा—मेरे प्यारे मित्रो! आज हमलोग अपनेको उचित रीतिसे दो दलोंमें बाँट लें और फिर आनन्दसे खेलें ।।१९।। उस खेलमें ग्वालबालोंने बलराम और श्रीकृष्णको नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्णके साथी बन गये और कुछ बलरामके ।।२०।। फिर उन लोगोंने तरह-तरहसे ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दलके लोग दूसरे दलके लोगोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर एक निर्दिष्ट स्थानपर ले जाते थे। जीतनेवाला दल चढ़ता था और हारनेवाला दल ढोता था ।।२१।। इस प्रकार एक-दूसरेकी पीठपर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वटके पास पहुँच गये ।।२२।।
परीक्षित्! एक बार बलरामजीके दलवाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालोंने खेलमें बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठपर चढ़ाकर ढोने लगे ।।२३।। हारे हुए श्रीकृष्णने श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया, भद्रसेनने वृषभको और प्रलम्बने बलरामजीको ।।२४।। दानवपुंगव प्रलम्बने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान् हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा। अतः वह उन्हींके पक्षमें हो गया और बलरामजीको लेकर फुर्तीसे भाग चला, और पीठपरसे उतारनेके लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया ।।२५।। बलरामजी बड़े भारी पर्वतके समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूरतक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीरपर सोनेके गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलरामजीको धारण करनेके कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजलीसे युक्त काला बादल चन्द्रमाको धारण किये हुए हो ।।२६।। उसकी आँखें आगकी तरह धधक रही थीं और दाढ़ें भौंहोंतक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आगकी लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवोंमें कड़े, सिरपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल थे। उनकी कान्तिसे वह बड़ा अद्भुत लग रहा था! उस भयानक दैत्यको बड़े वेगसे आकाशमें जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये ।।२७।। परन्तु दूसरे ही क्षण अपने स्वरूपकी याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलरामजीने देखा कि जैसे चोर किसीका धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्गसे लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्रने पर्वतोंपर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिरपर एक घूँसा कसकर जमाया ।।२८।। घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयंकर शब्द करता हुआ इन्द्रके द्वारा वज्रसे मारे हुए पर्वतके समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।।२९।।
बलरामजी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालोंने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुरको मार डाला, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे बार-बार ‘वाह-वाह’ करने लगे ।।३०।। ग्वालबालोंका चित्त प्रेमसे विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभ कामनाओंकी वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आये हों, इस भावसे आलिंगन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुतः बलरामजी इसके योग्य ही थे ।।३१।। प्रलम्बासुर मूर्तिमान् पाप था। उसकी मृत्युसे देवताओंको बड़ा सुख मिला। वे बलरामजीपर फूल बरसाने लगे और ‘बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया’ इस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ।।३२।।
अथैकोनविंशोऽध्यायः गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् उन गायोंको पुकार ही रहे थे कि उस वनमें सब ओर अकस्मात् दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवोंका काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरकी आँधी भी चलकर उस अग्निके बढ़नेमें सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटोंसे समस्त चराचर जीवोंको भस्मसात् करने लगी ।।७।। जब ग्वालों और गौओंने देखा कि दावानल चारों ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये। और मृत्युके भयसे डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान्की शरणमें आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजीके शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले— ।।८।। ‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ ।।९।। श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मोंके ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है’ ।।१०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—अपने सखा ग्वालबालोंके ये दीनतासे भरे वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो’ ।।११।। भगवान्की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालोंने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने उस भयंकर आगको अपने मुँहसे पी लिया* और इस प्रकार उन्हें उस घोर संकटसे छुड़ा दिया ।।१२।। इसके बाद जब ग्वालबालोंने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपनेको भाण्डीर वटके पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओंको दावानलसे बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए ।।१३।। श्रीकृष्णकी इस योगसिद्धि तथा योगमायाके प्रभावको एवं दावा-नलसे अपनी रक्षाको देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं ।।१४।।
पता नहीं क्यू प्रभु श्याम से मेरी सखी की चिंता हो रही है और दिल बैठा जा रहा है। प्रभु तुम्हारा ही सहारा है। अपनी लाडली से साथ रहना, कल्याण करो। बाते तो ऐसी करती है पता नहीं मेरी कितनी चिंता है और इतना भी नहीं समझती कि हाल चल बिना मेरी क्या दशा होगी। अंकलजी ने भी कहा था कि सिर्फ मैसेज करने से पहले मैसेज करना है तो कभी-कभी आप ही हाल चल मैसेज कर दिया करिए। इतने मेहनो में एक बार भी नहीं किया। दोनो बस बड़ी बड़ी बातें करते हैं।
महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं।
हे प्रभु, जैसे अपने ग्वालबल रूपी भाको के साथ खेलते-खेलते तुम्हारी गाय खो गई थी, वैसे कहीं हम तुम्हारी माया में न खो जाएं। प्रभु उंगली पकड़े रहना..
March 9, 2025
यशोमती नन्दन बृजबर नागर, गोकुल रंजन कान्हा, गोपी परण धन मदन मनोहर, कालिया दमन विधान ।
यशोमति नन्दन बृजबर नागर, गोकुल रंजन कान्हा ॥
आज सुबह समाज में वृक्षारोपण था। मम्मी पापा के साथ गया था. डॉक्टर और सब कहते हैं बाहर निकलो और लोगो से मिलो, पर सब कुछ तो मीनू की ही याद दिलाता है। कब तक सबके सामने झूठी हंसी ले करते घूमू। सन्सार कहि शांति नहीं.
अथ विंशोऽध्यायः वर्षा और शरद्ऋतुका वर्णन
फूलोंसे लदे हुए वृक्ष और लताओंमें होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायुके स्पर्शसे सब लोगोंकी जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियोंकी जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथमें नहीं था, श्रीकृष्णने उसे चुरा लिया था ।।४५।।
प्रभु तुम्हारी लीला का पाठ कर के थोड़ी शांति मिलती है पर भागवत में आज के अध्याय में बस दर्शन जादा तुम्हारी लीला का गान कम था। अपनी बेटी के साथ मिलकर मेरा चित्त चुरा लिया। बेटी कहती है मुझे भूल जाओ और तुम बार-बार याद दिलाते रहते हो।
कुछ समझ में नहीं आ रहा कि सब लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं, मुझे ही गलत कहते हैं? भागवत मे पढ़ी की
देवहूति जी ने नारदजीके मुखसे कर्दम जी के शील, विद्या, रूप, आयु और गुणोंका वर्णन सुना, तभीसे यह आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर लिया।
पुराणपुरुष श्रीआदिनारायण ने ऋषभावतार मे उपदेश दिया की “जो अपने प्रिय सम्बन्धीको भगवद्भक्तिका उपदेश देकर मृत्युकी फाँसीसे नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।”
रहे एक भगवान् विष्णु—उनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं ।।२२।। इस प्रकार सोच-विचारकर अन्तमें श्रीलक्ष्मीजीने अपने चिर अभीष्ट भगवान्को ही वरके रूपमें चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तवमें लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसीसे उन्होंने उन्हींको वरण किया ।।२३।।
श्रीरामचारितमानस मे भी माता पारवाति ने नाराद जी से शिवजी के गुण सुनकार निशचाय कार लिया था।माता ने भी सही समय की प्रतीक्षा में अपनी भावना दबा ली थी। मैंने भी तो यही सोचा कि पहले लायक बन जाउ, फिर मीनू से बात करूंगा, अपने दिल पर पत्थर रख के क्या गलत किया?
दो०—जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष ।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ।। ६७ ।।
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ।।
नारदहूँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ।।
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ।।
होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ।।
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ।।
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ।।
भागवत से यही समझ आता है कि सगुण स्त्री कामनाओं के आधार पर नहीं गुणो के आधार पर वर का चयन करती है। क्या मेरे जीवन भर का संघर्ष व्यर्थ है? क्या मैं इतना नालायक और अवगुणी हूं कि मीनू ने मेरे बारे में सोचने से भी मन कर दिया? करण भी नहीं बताया!
प्रभु बचपन में जब नहीं समझ में आया कि ये क्या भावनाएं हैं तो अंदर से यहीं लगा कि तुम्हारी आज्ञा है की अपना जीवन तुम्हारी लाडली का साथ देने और ख्याल रखने में समर्पित कर दूं। जब कर देने का निश्चय कर के मैहनत की तो मीनू ने अवसर देने से भी मना कर दिया। ऊपर से पता नहीं तुम्हारी क्या माया है कि किसी को मेरी भावनाएं समझ नहीं आतीं। मम्मी पापा अंकलजी आंटीजी सब मुझे ही गलत कहते हैं। मीनू बात तो ऐसे स्वाभिमान की करती है कि उसे किसी का साथ नहीं चाहिए। पता नहीं फिर शादी के लिए तैयार क्यों हो गई? हो गई तो मेरे बारे में विचार करने से क्यों मना कर दिया?
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत् सब सपना॥ पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा॥
प्रभु सबका कल्याण करो।अगर तुम्हारी लाडली उंगली छुड़ा के भागे तो भागने मत देना।प्रभु चाहे कितना भी रोए, छोडना नहीं। कस के पड़े रहना।कहीं इस जगत मे खो ना जाए।मुझसे बात करने का भी समय नहीं निकल सकती, और बड़ी-बड़ी बातें करती है।
कहती हैं मम्मी पापा ही मेरे लिए सब कुछ है और वो भी दबाओ नहीं डाल सकते। ये भी कहती है मेरे मम्मी पापा को अपनी मम्मी पापा जैसा मानती है। तो सबकी सेवा करने को तैयार नहीं। सब पहले जैसे साथ रहते। साथ हमारे माता-पिता की सेवा करते।
कहती है समाज का भी दबाव नहीं और मैं सुभम जैसा हूं, तो मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार क्यों नहीं की? कहती मुझसे गुस्सा नहीं थी, उल्टा मुझ से कहती है मैंने बात नहीं की, तो क्यू उस दिन गुस्से से उठ के चली गई थी, क्या बाकी सब झूठ बोल रहे? मुझसे ऑनलाइन भी बात करने की जगह ब्लॉक क्यों कर दिया?
निर्णय लेने का, भावनाओ का, रोने का, सब अधिकार लड़कियो के है। बचपन से देख रहा हूं हर कोई लड़कियों का समर्थन करता है। लड़का होना ही अप्राध है
अथैकविंशोऽध्यायः वेणुगीत
(वे मन-ही-मन देखने लगीं कि) श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ वृन्दावनमें प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानोंपर कनेरके पीले-पीले पुष्प; शरीरपर सुनहला पीताम्बर और गलेमें पाँच प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी वैजयन्ती माला है। रंगमंचपर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरीके छिद्रोंको वे अपने अधरामृतसे भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठसे भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नोंसे और भी रमणीय बन गया है ।।५।। परीक्षित्! यह वंशीध्वनि जड, चेतन—समस्त भूतोंका मन चुरा लेती है।
जब वे सिरपर नोवना (दुहते समय गायके पैर बाँधनेकी रस्सी) लपेटकर और कंधोंपर फंदा (भागनेवाली गायोंको पकड़नेकी रस्सी) रखकर गायोंको एक वनसे दूसरे वनमें हाँककर ले जाते हैं, साथमें ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरीकी तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्योंकी तो बात ही क्या अन्य शरीरधारियोंमें भी चलनेवाले चेतन पशु-पक्षी और जड नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं, तथा अचल-वृक्षोंको भी रोमांच हो आता है। जादूभरी वंशीका और क्या चमत्कार सुनाऊँ? ।।१९।।
हे मुरलीधर, हमारे हदीयों में प्रेम की मुरली बजाओ। हमें भी अपने रंग में रंग दो।
पता नहीं प्रभु समाज को क्या सिखा के गए हो। झूठे समाज और गलत परंपरा से तो बचपन में ही मन खिन्न हो गया था। सोचा था समाज से दूर रख कर अपनों पे ध्यान दूंगा, पर पता नहीं क्या माया है, कोई मेरी भावनाएं नहीं समझता। बस मीनू से आखिरी उम्मीद थी कि समझ गी तो निराधार बातों से मेरा दिल के बचे कुछ टुकड़े भी कुचल दिया। पता नहीं क्यों रुआसा हो रही थी? हर कोई तो उसकी निराधार बातो का ही समर्थन करता है। पता नहीं किस पछतावे की बात कर रही थी?
प्रभु तुम ही जानो सबका कल्याण कैसे होगा
जय लक्ष्मीरमणा श्री जय लक्ष्मीरमणा। सत्यनारायण स्वामी जनपातक हरणा॥ जय लक्ष्मीरमणा।
March 10, 2025
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् । रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।।१।।
अजीब सा डर है कि मेरी सखी के साथ बिना संसार में भटकता रहूँगा। पता नहीं मीनू कैसी है? हल चल मिल भी जय तो पता नहीं किसका विश्वास करु? प्रभु तुम्हारा ही सहारा है।
March 10, 2025
यशोमती नन्दन बृजबर नागर, गोकुल रंजन कान्हा, गोपी परण धन मदन मनोहर, कालिया दमन विधान ।
यशोमति नन्दन बृजबर नागर, गोकुल रंजन कान्हा ॥
कृष्णा मेरे कृष्णा, कितना नाचाओ गे? मुझ मुर्ख की परीक्षा ले कर क्या करो गे? मेरी मूर्खत्ये तो भली भांति जानती हो। मन ऐसे ही विचलिट है, डर लग रहा है, माता-पिता की चिंता से पहले ही परेशान हूँ और परिस्थितिया क्यों उलझ रहे हो? कुछ समझ नहीं आ रहा रे. कभी विश्वास फैलाते हो तो हिला भी देते हो। जब सहारा चाहिए और तोड़ रहो! पता नहीं मीनू को किन परिस्थितियों में फंसाया जाता है जो कथनी करनी मेल नहीं खाती?
अंकलजी भी पता नहीं किस हाल में हैं। सोचा था मीनू अगर मेरे हृदय से नहीं लगना चाहती तो कम से कम कुछ ऐसा करु कि अंकलजी भाग दौड़ बंद कर अपनी लाडली के साथ समय बिताये। जब देखो अंकलजी से चिपकी रहती थी। एक तरफ अंकलजी से इरशा होती तो दूसरी तरफ मीनू के मुख पर प्रसन्नता देख कर आनंद। पता नहीं अंकलजी को अब भी नौकरी करनी पड़ रही है और मीनू कहती है कि मैं आर्थिक रूप से संपन्न हूं, मेरी कोई सहायता की जगह नहीं है।
अथ द्वाविंशोऽध्यायः चीरहरण
बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले— ।।१८।। ‘अरी गोपियो! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है—इसमें सन्देह नहीं। परन्तु इस अवस्थामें वस्त्रहीन होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है। अतः अब इस दोषकी शान्तिके लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो
भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियोंने ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ गयी। अतः उसकी निर्विघ्न पूर्तिके लिये उन्होंने समस्त कर्मोंके साक्षी श्रीकृष्णको नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और अपराधोंका मार्जन हो जाता है ।।२०।।
जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगोंकी ओर ले जानेमें समर्थ नहीं होतीं। ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अंकुरके रूपमें उगनेके योग्य नहीं रह जाते ।।२६।।
ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्यकी किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको सम्बोधन करके कहा— ।।३०-३१।। ‘मेरे प्यारे मित्रो! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है। ये स्वयं तो हवाके झोंके, वर्षा, धूप और पाला—सब कुछ सहते हैं, परन्तु हम लोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं ।।३२।। मैं कहता हूँ कि इन्हींका जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ।।३३।। ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना पूर्ण करते हैं ।।३४।। मेरे प्यारे मित्रो! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवनकी सफलता इतनेमें ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे, विवेक-विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो ।।३५।।
* असलमें यह संसार तभीतक बाधक और विक्षेपजनक है, जबतक यह भगवान्से सम्बन्ध और भगवान्का प्रसाद नहीं हो जाता।
अथ त्रयोविंशोऽध्यायः यज्ञपत्नियोंपर कृपा
‘मेरे प्यारे मित्रो! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्गकी कामनासे आंगिरस नामका यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशालामें जाओ ।।३।। ग्वालबालो! मेरे भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात—भोजनकी सामग्री माँग लाओ’ ।।४।।
सज्जनो! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है ।।८।। परीक्षित्! इस प्रकार भगवान्के अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राह्मणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मोंमें उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालक ही, परन्तु अपनेको बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे ।।९।। परीक्षित्! देश, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मोंमें विनियुक्त मच, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्-ब्रह्मा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म—इन सब रूपोंमें एकामत्र भगवान् ही प्रकट हो रहे हैं ।।१०।। वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे हैं। परन्तु इन मूर्खोंने, जो अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान्को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया ।।११।। परीक्षित्! जब उन ब्राह्मणोंने ‘हाँ’ या ‘ना’—कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालोंकी आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँकी सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी ।।१२।। उनकी बात सुनकर सारे जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि ‘संसारमें असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहनेसे सफलता मिल ही जाती है।’ फिर उनसे कहा— ।।१३।।
‘मेरे प्यारे ग्वालबालो! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियोंके पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है’ ।।१४।।
अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशालामें गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणोंकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनोंसे सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियोंको प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे यह बात कही— ।।१५।। ‘आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है ।।१६।। वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें’ ।।१७।।
परीक्षित्! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं ।।१८।। उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य—चारों प्रकारकी भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ीं—ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था ।।१९-२०।।
ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं ।।२१।।
उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अंग-अंगमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वाल-बालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है ।।२२।। परीक्षित्! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त की—ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भावसे जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है ।।२३।।
प्रिय परीक्षित्! भगवान् सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं ।।२४।। भगवान्ने कहा—‘महाभाग्यवती देवियो! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है ।।२५।।
इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतमके समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहती—जिसमें किसी प्रकारका व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता ।।२६।। प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधिसे प्रिय लगती हैं—उस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है ।।२७।। इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपनी यज्ञशालामें लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे’ ।।२८।।
ब्राह्मणपत्नियोंने कहा—अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरतासे पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान्को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसारमें नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियोंकी आज्ञाका उल्लंघन करके आपके चरणोंमें इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसीकी माला अपने केशोंमें धारण करें ।।२९।। स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणोंमें आ पड़ी हैं। हमें और किसीका सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरोंकी शरणमें न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये ।।३०।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवियो! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु—कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं ।।३१।। देवियो! इस संसारमें मेरा अंग-संग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी ।।३२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान्ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं। उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया ।।३३।। उन स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था। इसपर उस ब्राह्मणपत्नीने भगवान्के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनोंसे सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान्का आलिंगन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छेड़ दिया—(शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीरसे उसने भगवान्की सन्निधि प्राप्त कर ली) ।।३४।। इधर भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार प्रकारके अन्नसे पहले ग्वाल-बालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ।।३५।।
जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान्का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे ।।३८।।
वे कहने लगे—हाय! हम भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस कामका? धिक्कार है! धिक्कार है!! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञताको धिक्कार है! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्डमें निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है ।।३९।। निश्चय ही, भगवान्की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं ।।४०।। कितने आश्चर्यकी बात है! देखो तो सही—यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसीसे इन्होंने गृहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्युके साथ भी नहीं कटती ।।४१।। इनके न तो द्विजातिके योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुलमें ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्माके सम्बन्धमें ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही ।।४२।। फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान्के चरणोंमें हमारा प्रेम नहीं है ।।४३।। सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थीके काम-धंधोंमें मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराईको बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान्की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालोंको भेजकर उनके वचनोंसे हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी ।।४४।। भगवान् स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करनेवाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे प्रयोजन ही क्या हो सकता था? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी? ।।४५।। स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श पानेके लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है? ।।४६।। देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ, उन-उन कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म—सब भगवान्के ही स्वरूप हैं ।।४७।। वे ही योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ हैं कि उन्हें पहचान न सके ।।४८।। यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान् श्रीकृष्णके अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है ।।४९।। प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही मायासे हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचड़ेमें भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ।।५०।। वे आदि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हमारे इस अपराधको क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं ।।५१।।
प्रभु हम भी तुम्हारी माया मे भटक रहे हैं, हमारा मार्गदर्शन करो। तुम्हारा ही सहारा हो। हे जगद्गुरु, लक्ष्मी वल्लभ श्रीजगदीश्वर, कृपाकारो।
नारायण नारायण जय गोविंद हरे॥ नारायण नारायण जय गोपाल हरे॥
प्रभु कुछ समझ नहीं आ रहा है। कैसे शांत रहूँ?
March 11, 2025
श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणं ।
नव कञ्ज लोचन कञ्ज मुख कर कञ्ज पद कञ्जारुणं ॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं ।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥२॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोसल चंद्र दशरथ नन्दनं ॥३॥
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदार अङ्ग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं ।
मम हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं ॥५॥
आज सपने में अंकलजी, आंटीजी, शुभम प्रिया दीदी, सब मंदिर से सामने वाले घर के बाहर खड़े थे, बहुत प्रतीक्षा की पर मीनू नहीं दिखी। कुछ देर बाद आंटीजी घर आईं, पैर छूने गया पर पीछे हट गई। दंडवत हो गया पर चरण स्पर्श करने नहीं दिया। पता नहीं मीनू क्यों उस दिन कह रही थी कि मेरे भेजे हुए भजन से भी परेशन हो जाती है? उस दिन भी आंटीजी पता नहीं क्या कह रही थी! पता नहीं छत पर सबके साथ हुई किस बात के बारे में कह रही थी?
हे प्रभु, मेरी दोनो माता मेरी भावनाएं क्यों नहीं समझतीं? मुझे ही गलत क्यों कहती हो?
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
माता सरस्वती रक्षा करो, प्रभु बहुत नाच रहे हैं। मैया तुम्हारी कृपा से ही कुछ बन पाया। बचपन से ही हिंदी सही से पढ़ नहीं पता था और वर्षों से हिंदी पढ़ी नहीं थी, फिर भी जब रामचरितमास और श्रीमद्भागवत पढ़ने के लिए बैठा तो अपने आप मन में शब्द प्रगट हो गए। अटकना भी धीरे-धीरे कम हो गया। माता हम सबको सद्बुद्धि प्रदान करो, रक्षा करो।
प्रभु माया के परदे काम थे, जो बार-बार कपड़ा और गुलाल के परदे में छुप जातो हो? तमहे छलिया एसे ही नहीं कहते।प्रभु हमारे हृदयो से नहीं मीनू को जाना।
प्रभु समझ नहीं आता मीनू क्यों कह रही थी कि अगर मैं उसे नहीं भूला तो जीवन भर पछतावा रहेगा? एक ओर खुद कह रही है जीवन भर मुझे नहीं भूलेगी और मुझे असम्भव करने को कह रही है। पता नहीं क्या माया में हम सबको नाच रहे हो?
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः इन्द्रयज्ञ-निवारण
हे हृदयविहारी श्यामसुंदर, ऐसे ही कुछ समझ नहीं आ रहा है और एक अध्याय में कुछ कहते हो और दूसरे में कुछ। बुद्धि चकरा रही है।ना हमहारी बात समझ पा रहा हूँ ना तुम्हारी लाडली की! ना सही से रो परहा हूँ ना शांत। प्रश्न बढ़ते जाते है और चिंताये गुथियो में उलझा कर मन को अस्तव्यस्त।पता नहीं मीनू को किस माया जाल में फसाया है। तुम्हें मेरी सखी के हृदय में वास करने को कहा था, पता नहीं किया की नहीं! मेरे लिए तो ना जगह है ना समय, पता नहीं फिर पछतावा क्यों होगा?
लोग कहते हैं कि संसार की ठोकर खा के आए द्वार तिहरी, पर मुहजे तो तुम्ही के अपनी लाडली के साथ मिलकर ठोकर मारी है। कब तक नचाओ गे, कितने कल्प क्यो ना लग जाए तुम्हारी लाडली को तुम तक लाऊँगा और अपने आसुओ से तुम्हारा पीताम्बर गेला कर दूँगा।
हम कहे श्याम सुनो शरण हैं तिहारे अबकी बेर पार करो नन्द के दुलारे हे गोविन्द हे गोपाल...
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
March 12, 2025
जय जय राम सियाराम सियाराम जय जय राम
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् वन्दे विष्णुं भवभ्यहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
हे राम, सबकी रक्षा करना। रात भर मन व्याकुल रहा। मीनू की याद में विचलिट रहा। सपने भी शांति नहीं। प्रभु अपनी लाडली का मार्गदर्शन करते रहना। चाहे जितना रोये गलत मार्ग पर मत जाने देना। अगर चली गई हो तो घसीट कर अपने भक्ति मार्ग पर ले आना।
हे प्रभु, मीनू की बातो का विरोधाभास ही दिमाग में घूमता रहता है! एक ओर कहती है मेरी चिंता है और पछतावे की बात करती है और ये भी कहती है मेरे लिए जीवन में ना जगह है और ना समय, मम्मी पापा ही सब कुछ है।पता नहीं मेरी फोटो पे हार चढ़ाने के लिए भी समय निकले गी? कहती है मम्मी पापा को सब बताती हूँ और अंकलजी को भी पता था की मुझसे बात नहीं करती है, फिर क्यो अंकलजी ने बताया क्यो नहीं मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती है? क्या शुभम से भी बात करने को अंकलजी को कहना पड़ता है? क्या शुभम के साथ अंकलजी के कहने पर खेलती है अपनी इच्छा से नहीं? क्या शुभम के साथ भी होली नहीं खेलती? अंकलजी से पूछा की मीनू को घूमने लेजा सकता हूँ तो समाज को दोष देते हुए कहते है तुम्हारे साथ देखेंगे तो लोग क्या कहेंगे, क्या शुभम के साथ भी कभी कहीं नहीं जाती? शुंभम के साथ तो हंसते हंसते फोटो खिचवाई, मेरे जन्म दिन वाली फोटो में मेरे साथ तो अजीब सा मुंह बनाया था! मुझसे हमेशा दूर भागती रही, बचपन से बात करने और खेलने को तड़प रहा हूँ। मुझमें और शुभम में क्या समानता?
खुशियों के लिया ना तो प्रभु तुम को भूल सकता हूँ ना तो तुम्हारी लाडली को। तुम दोनों के दिये हुए दुख भी हृदय से लगा कर रखूंगा।मीनू बचपन में कितनी प्यारी प्यारी बातें करती थी। अंकलजी को गलत चीज़ के लिए प्यार से डांटी थी तो बड़ा आनंद आता था। कैसे अंकलजी से झूठ सीख लिया?
मुझे तो डांटा भी नहीं 😢
March 12, 2025
अथ पञ्चविंशोऽध्यायः गोवर्धनधारण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब इन्द्रको पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपोंपर बहुत ही क्रोधित हुए। परन्तु उनके क्रोध करनेसे होता क्या, उन गोपोंके रक्षक तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण थे ।।१।। इन्द्रको अपने पदका बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकीका ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोधसे तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघोंके सांवर्तक नामक गणको व्रजपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इन्द्रने इस प्रकार प्रलयके मेघोंको आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेगसे नन्दबाबाके व्रजपर चढ़ आये और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रजको पीड़ित करने लगे ।।८।। चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपसमें टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधीकी प्रेरणासे वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे ।।९।। इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकर खंभेके समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब व्रजभूमिका कोना-कोना पानीसे भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा—इसका पता चलना कठिन हो गया ।।१०।। इस प्रकार मूसलधार वर्षा तथा झंझावातके झपाटेसे जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठंडके मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आये ।।११।। मूसलधार वर्षासे सताये जानेके कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चोंको निहुककर अपने शरीरके नीचे छिपा लिया था और वे काँपते-काँपते भगवान्की चरणशरणमें पहुँचे ।।१२।। और बोले—‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम बड़े भाग्यवान् हो। अब तो कृष्ण! केवल तुम्हारे ही भाग्यसे हमारी रक्षा होगी। प्रभो! इस सारे गोकुलके एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो। भक्तवत्सल! इन्द्रके क्रोधसे अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो’ ।।१३।। भगवान्ने देखा कि वर्षा और ओलोंकी मारसे पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्रकी है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है ।।१४।। वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्रका यज्ञ भंग कर दिया है, इसीसे वे व्रजका नाश करनेके लिये बिना ऋतुके ही यह प्रचण्ड वायु और ओलोंके साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं ।।१५।। अच्छा, मैं अपनी योगमायासे इसका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपनेको लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धनका घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा ।।१६।। देवतालोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पदका अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इन सत्त्वगुणसे च्युत दुष्ट देवताओंका मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्तमें उन्हें शान्ति ही मिलेगी ।।१७।। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमायासे इसकी रक्षा करूँगा। संतोंकी रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालनका अवसर आ पहुँचा है’* ।।१८।।
इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्णने खेल-खेलमें एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्तेके पुष्पको उखाड़कर हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वतको धारण कर लिया ।।१९।।
भगवान् श्रीकृष्णने सब व्रजवासियोंके देखते-देखते भूख-प्यासकी पीड़ा, आराम-विश्रामकी आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिनतक लगातार उस पर्वतको उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नहीं हुए ।।२३।। श्रीकृष्णकी योगमायाका यह प्रभाव देखकर इन्द्रके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इसके बाद उन्होंने मेघोंको अपने-आप वर्षा करनेसे रोक दिया ।।२४।।
व्रजवासियोंका हृदय प्रेमके आवेगसे भर रहा था। पर्वतको रखते ही वे भगवान् श्रीकृष्णके पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदयसे लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियोंने बड़े आनन्द और स्नेहसे दही, चावल, जल आदिसे उनका मंगल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदयसे शुभ आशीर्वाद दिये ।।२९।।
* भगवान् कहते हैं—
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति चयाचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ।।
‘जो केवल एक बार मेरी शरणमें आ जाता है और ‘मैं तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’
हे प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा है। अजीब से उदासीनता है। मीनू का कुछ हलचल कहीं से नहीं मिल रहा। हम तो तुम्हारे ही बचे हैं इसमें कहने की क्या बात है? हम में तुम में का अंतर तो तुम्हारी माया ही है।क्या कहु कुछ समझ नहीं आ रहा। तुम्हारी लीलाओ का भी आनंद नहीं ले रहा हूँ। सबके रक्षक प्रभु, दया करो प्रभु, हम बच्चों के तुम ही सहारा हो।
March 13, 2025
नारायण नारायण जय गोविंद हरे ॥ नारायण नारायण जय गोपाल हरे ॥
अथ षड्विंशोऽध्यायः नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषयमें बातचीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! व्रजके गोप भगवान् श्रीकृष्णके ऐसे अलौकिक कर्म देखकर बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। उन्हें भगवान्की अनन्त शक्तिका तो पता था नहीं, वे इकट्ठे होकर आपसमें इस प्रकार कहने लगे— ।।१।। ‘इस बालकके ये कर्म बड़े अलौकिक हैं। इसका हमारे-जैसे गँवार ग्रामीणोंमें जन्म लेना तो इसके लिये बड़ी निन्दाकी बात है। यह भला, कैसे उचित हो सकता है ।।२।। जैसे गजराज कोई कमल उखाड़कर उसे ऊपर उठा ले और धारण करे, वैसे ही इस नन्हें-से सात वर्षके बालकने एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और खेल-खेलमें सात दिनोंतक उठाये रखा ।।३।।
जिस समय यह केवल तीन महीनेका था और छकड़ेके नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव उछाला कि उसकी ठोकरसे वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गिर ही पड़ा ।।५।। उस समय तो यह एक ही वर्षका था, जब दैत्य बवंडरके रूपमें इसे बैठे-बैठे आकाशमें उड़ा ले गया था।
उस दिनकी बात तो सभी जानते हैं कि माखनचोरी करनेपर यशोदारानीने इसे ऊखलसे बाँध दिया था। यह घुटनोंके बल बकैयाँ खींचते-खींचते उन दोनों विशाल अर्जुन वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गया और उन्हें उखाड़ ही डाला ।।७।। जब यह ग्वालबाल और बलरामजीके साथ बछड़ोंको चरानेके लिये वनमें गया हुआ था उस समय इसको मार डालनेके लिये एक दैत्य बगुलेके रूपमें आया और इसने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकड़कर उसे तिनकेकी तरह चीर डाला ।।८।। जिस समय इसको मार डालनेकी इच्छासे एक दैत्य बछड़ेके रूपमें बछड़ोंके झुंडमें घुस गया था उस समय इसने उस दैत्यको खेल-ही-खेलमें मार डाला और उसे कैथके पेड़ोंपर पटककर उन पेड़ोंको भी गिरा दिया ।।९।। इसने बलरामजीके साथ मिलकर गधेके रूपमें रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-बन्धुओंको मार डाला और पके हुए फलोंसे पूर्ण तालवनको सबके लिये उपयोगी और मंगलमय बना दिया ।।१०।। इसीने बलशाली बलरामजीके द्वारा क्रूर प्रलम्बासुरको मरवा डाला तथा दावानलसे गौओं और ग्वालबालोंको उबार लिया ।।११।। यमुनाजलमें रहनेवाला कालियनाग कितना विषैला था? परन्तु इसने उसका भी मान मर्दन कर उसे बलपूर्वक दहसे निकाल दिया और यमुनाजीका जल सदाके लिये विषरहित—अमृतमय बना दिया ।।१२।।
नन्दबाबाने कहा—गोपो! तुमलोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालकके विषयमें तुम्हारी शंका दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्गने इस बालकको देखकर इसके विषयमें ऐसा ही कहा था ।।१५।। ‘तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युगमें शरीर ग्रहण करता है। विभिन्न युगोंमें इसने श्वेत, रक्त और पीत—ये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है ।।१६।। नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वसुदेवके घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्यको जाननेवाले लोग ‘इसका नाम श्रीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते हैं ।।१७।। तुम्हारे पुत्रके गुण और कर्मोंके अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परन्तु संसारके साधारण लोग नहीं जानते ।।१८।। यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे ।।१९।।
नन्दबाबा! जो तुम्हारे इस साँवले शिशुसे प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान् हैं। जैसे विष्णुभगवान्के करकमलोंकी छत्रछायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतरी या बाहरी—किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते ।।२१।। नन्दजी! चाहे जिस दृष्टिसे देखें—गुणसे, ऐश्वर्य और सौन्दर्यसे, कीर्ति और प्रभावसे तुम्हारा बालक स्वयं भगवान् नारायणके ही समान है, अतः इस बालकके अलौकिक कार्योंको देखकर आश्चर्य न करना चाहिये’ ।।२२।। गोपो! मुझे स्वयं गर्गाचार्यजी यह आदेश देकर अपने घर चले गये। तबसे मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करनेवाले इस बालकको भगवान् नारायणका ही अंश मानता हूँ ।।२३।। जब व्रजवासियोंने नन्दबाबाके मुखसे गर्गजीकी यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा। क्योंकि अब वे अमिततेजस्वी श्रीकृष्णके प्रभावको पूर्णरूपसे देख और सुन चुके थे। आनन्दमें भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्णकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ।।२४।।
जिस समय अपना यज्ञ भंग हो जानेके कारण इन्द्र क्रोधके मारे आग-बबूला हो गये थे और मूसलधार वर्षा करने लगे थे, उस समय वज्रपात, ओलोंकी बौछार और प्रचण्ड आँधीसे स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीड़ित हो गये थे। अपनी शरणमें रहनेवाले व्रजवासियोंकी यह दशा देखकर भगवान्का हृदय करुणासे भर आया। परन्तु फिर एक नयी लीला करनेके विचारसे वे तुरंत ही मुसकराने लगे। जैसे कोई नन्हा-सा निर्बल बालक खेल-खेलमें ही बरसाती छत्तेका पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़कर धारण कर लिया और सारे व्रजकी रक्षा की। इन्द्रका मद चूर करनेवाले वे ही भगवान् गोविन्द हमपर प्रसन्न हों ।।२५।।
अथ सप्तविंशोऽध्यायः श्रीकृष्णका अभिषेक
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने गिरिराज गोवर्द्धनको धारण करके मूसलधार वर्षासे व्रजको बचा लिया, तब उनके पास गोलोकसे कामधेनु (बधाई देनेके लिये) और स्वर्गसे देवराज इन्द्र (अपने अपराधको क्षमा करानेके लिये) आये ।।१।। भगवान्का तिरस्कार करनेके कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थानमें भगवान्के पास जाकर अपने सूर्यके समान तेजस्वी मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श किया ।।२।। परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव देख-सुनकर इन्द्रका यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ।।३।।
इन्द्रने कहा—भगवन्! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुणसे रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है। यह गुणोंके प्रवाहरूपसे प्रतीत होनेवाला प्रपंच केवल मायामय है; क्योंकि आपका स्वरूप न जाननेके कारण ही आपमें इसकी प्रतीति होती है ।।४।। जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादिसे है ही नहीं, फिर उन देह आदिकी प्राप्तिके कारण तथा उन्हींसे होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं? प्रभो! इन दोषोंका होना तो अज्ञानका लक्षण है। इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होनेवाले जगत्से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी धर्मकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं ।।५।। आप जगत्के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत्का नियन्त्रण करनेके लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तोंकी लालसा पूर्ण करनेके लिये स्वच्छन्दतासे लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपनेको ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान मर्दन करते हुए अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करते हैं ।।६।। प्रभो! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपनेको जगत्का ईश्वर माननेवाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भयके अवसरोंपर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषोंके द्वारा सेवित भक्तिमार्गका आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टोंके लिये दण्डविधान है ।।७।।
स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन्! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर-सेनापति केवल अपना पेट पालनेमें ही लग रहे हैं और पृथ्वीके लिये बड़े भारी भारके कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय और जो आपके चरणोंके सेवक हैं—आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय हो—उनकी रक्षा हो ।।९।। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।आपने जीवोंके समान कर्मवश होकर नहीं, स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी तथा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर स्वीकार किया है।
ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः ।। १३
आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरणमें हूँ ।।१३।।
श्रीभगवान्ने कहा—इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे। इसलिये तुमपर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको ।।१५।। जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथमें दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिसपर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ ।।१६।।
कामधेनुने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप महायोगी—योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्वके परमकारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी आपको अपने रक्षकके रूपमें प्राप्तकर हम सनाथ हो गयी ।।१९।। आप जगत्के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकीके इन्द्र हुआ करें, परन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनोंकी रक्षाके लिये हमारे इन्द्र बन जाइये ।।२०।। हम गौएँ ब्रह्माजीकी प्रेरणासे आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन्! आपने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही अवतार धारण किया है ।।२१।।
इन्द्रः सुरर्षिभिः साकं नोदितो देवमातृभिः । अभ्यषिञ्चत दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात् ।।२३
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने दूधसे और देवमाताओंकी प्रेरणासे देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँडके द्वारा लाये हुए आकाशगंगाके जलसे देवर्षियोंके साथ यदुनाथ श्रीकृष्णका अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नामसे सम्बोधित किया ।।२२-२३।।
गोविन्द गोविन्द हरे मुरारे गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण । गोविन्द गोविन्द रथाङ्ग-पाणे गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
श्री कृष्ण विष्णो मधु-कैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे। त्रायस्व मां केशव लोकनाथ गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
प्राणेश विश्वम्भर कैटभारे वैकुण्ठ नारायण चक्र-पाणे। जिह्वे पिबस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
प्रभु इंद्र देव पर तुम्हारी कृपा और गोविंद नाम से अभिषेक की कथा सुन कर आनंद मिला। प्रभु, मेरी सखी को भी अपनी कथा का आनंद प्रदान करो। कब मेरी सखी मेरे मुख से तुम्हारी लीला अमृत पान कराएगी? मेरी सखी ने तो मुझसे बात भी करने का समय निकालने से मन कर दिया। आरती भी रिकॉर्ड कर के नहीं भेजी। मेरी सखी नहीं तो मै तो काम से कम मेरी सखी को तुम्हारी लीला रस से भीगा दो। कल होली है। एक बार भी मेरी सखी ने मेरे साथ होली तक नहीं खेली, बस बड़ी-बड़ी बातें करती है।
March 13, 2025
अथाष्टाविंशोऽध्यायः वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबाने कार्तिक शुक्ल एकादशीका उपवास किया और भगवान्की पूजा की तथा उसी दिन रातमें द्वादशी लगनेपर स्नान करनेके लिये यमुना-जलमें प्रवेश किया ।।१।। नन्दबाबाको यह मालूम नहीं था कि यह असुरोंकी वेला है, इसलिये वे रातके समय ही यमुनाजलमें घुस गये। उस समय वरुणके सेवक एक असुरने उन्हें पकड़ लिया और वह अपने स्वामीके पास ले गया ।।२।। नन्दबाबाके खो जानेसे व्रजके सारे गोप ‘श्रीकृष्ण! अब तुम्हीं अपने पिताको ला सकते हो; बलराम! अब तुम्हारा ही भरोसा है’—इस प्रकार कहते हुए रोने-पीटने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् हैं एवं सदासे ही अपने भक्तोंका भय भगाते आये हैं। जब उन्होंने व्रजवासियोंका रोना-पीटना सुना और यह जाना कि पिताजीको वरुणका कोई सेवक ले गया है, तब वे वरुणजीके पास गये ।।३।। जब लोकपाल वरुणने देखा कि समस्त जगत्के अन्तरिन्द्रिय और बहिरिन्द्रियोंके प्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके यहाँ पधारे हैं, तब उन्होंने उनकी बहुत बड़ी पूजा की। भगवान्के दर्शनसे उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। इसके बाद उन्होंने भगवान्से निवेदन किया ।।४।।
वरुणजीने कहा—प्रभो! आज मेरा शरीर धारण करना सफल हुआ। आज मुझे सम्पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्त हो गया; क्योंकि आज मुझे आपके चरणोंकी सेवाका शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। भगवन्! जिन्हें भी आपके चरणकमलोंकी सेवाका सुअवसर मिला, वे भवसागरसे पार हो गये ।।५।। आप भक्तोंके भगवान्, वेदान्तियोंके ब्रह्म और योगियोंके परमात्मा हैं। आप भक्तोंके भगवान्, वेदान्तियोंके ब्रह्म और योगियोंके परमात्मा हैं। आपके स्वरूपमें विभिन्न लोकसृष्टियोंकी कल्पना करनेवाली माया नहीं है—ऐसा श्रुति कहती है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।६।। प्रभो! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने कर्तव्यको भी नहीं जानता। वही आपके पिताजीको ले आया है, आप कृपा करके उसका अपराध क्षमा कीजिये ।।७।। गोविन्द! मैं जानता हूँ कि आप अपने पिताके प्रति बड़ा प्रेमभाव रखते हैं। ये आपके पिता हैं। इन्हें आप ले जाइये। परन्तु भगवन्! आप सबके अन्तर्यामी, सबके साक्षी हैं। इसलिये विश्वविमोहन श्रीकृष्ण! आप मुझ दासपर भी कृपा कीजिये ।।८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मा आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुणने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान् अपने पिता नन्दजीको लेकर व्रजमें चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओंको आनन्दित किया ।।९।। नन्दबाबाने वरुणलोकमें लोक-पालके इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्तिको देखा तथा यह भी देखा कि वहाँके निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्णके चरणोंमें झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रजमें आकर अपने जाति-भाइयोंको सब बातें कह सुनायीं ।।१०।।
परीक्षित्! भगवान्के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान् हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकतासे विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हमलोगोंको भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे ।।११।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती? वे अपने आत्मीय गोपोंकी यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करनेके लिये कृपासे भरकर इस प्रकार सोचने लगे ।।१२।। ‘इस संसारमें जीव अज्ञानवश शरीरमें आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँतिकी कामना और उनकी पूर्तिके लिये नाना प्रकारके कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियोंमें भटकता फिरता है, अपनी असली गतिको—आत्मस्वरूपको नहीं पहचान पाता ।।१३।। परमदयालु भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सोचकर उन गोपोंको मायान्धकारसे अतीत अपना परमधाम दिखलाया ।।१४।। भगवान्ने पहले उनको उस ब्रह्मका साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरूप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योतिःस्वरूप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ।।१५।।
जिस जलाशयमें अक्रूरको भगवान्ने अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मह्रदमें भगवान् उन गोपोंको ले गये। वहाँ उन लोगोंने उसमें डुबकी लगायी। वे ब्रह्मह्रदमें प्रवेश कर गये। तब भगवान्ने उसमेंसे उनको निकालकर अपने परमधामका दर्शन कराया ।।१६।।
उस दिव्य भगवत्स्वरूप लोकको देखकर नन्द आदि गोप परमानन्दमें मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान् होकर भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ।।१७।।
अथैकोनत्रिंशोऽध्यायः रासलीलाका आरम्भ
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— अमना होनेपर भी उन्होंने अपने प्रेमियोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मन स्वीकार किया ।।१।।उस दिन चन्द्रदेवका मण्डल अखण्ड था। पूर्णिमाकी रात्रि थी। वे नूतन केशरके समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ संकोचमिश्रित अभिलाषासे युक्त जान पड़ते थे।भगवान् श्रीकृष्णने अपने दिव्य उज्ज्वल रसके उद्दीपनकी पूरी सामग्री उन्हें और उस वनको देखकर अपनी बाँसुरीपर व्रजसुन्दरियोंके मनको हरण करनेवाली कामबीज ‘क्लीं’ की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी ।।३।।
रुकतीं कैसे? विश्वविमोहन श्रीकृष्णने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर लिया था ।।८।। परीक्षित्! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके हृदयमें इतनी व्यथा—इतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यानमें उनके सामने भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए।
इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया। (भगवान्की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे ।।११।।
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान्के प्रति द्वेषभाव रखनेपर भी अपने प्राकृत शरीरको छोड़कर अप्राकृत शरीरसे उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थितिमें जो समस्त प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत भगवान् श्रीकृष्णकी प्यारी हैं और उनसे अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जायँ—इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है ।।१३।। परीक्षित्! वास्तवमें भगवान् प्रकृतिसम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुण-गुणीभावसे रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपनेको तथा अपनी लीलाको प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे ।।१४।। इसलिये भगवान्से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो—कामका हो, क्रोधका हो या भयका हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्दका हो। चाहे जिस भावसे भगवान्में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान्से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं और उस जीवको भगवान्की ही प्राप्ति होती है ।।१५।।
योगेश्वरोंके भी ईश्वर अजन्मा भगवान्के लिये भी यह कोई आश्चर्यकी बात है? अरे! उनके संकल्पमात्रसे—भौंहोंके इशारेसे सारे जगत्का परम कल्याण हो सकता है ।।१६।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि व्रजकी अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाक्चातुरीसे उन्हें मोहित करते हुए कहा—क्यों न हो—भूत, भविष्य और वर्तमानकालके जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं ।।१७।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—महाभाग्यवती गोपियो! तुम्हारा स्वागत है।
अथवा यदि मेरे प्रेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि जगत्के पशु-पक्षीतक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं ।।२३।।
गोपियो! मेरी लीला और गुणोंके श्रवणसे, रूपके दर्शनसे, उन सबके कीर्तन और ध्यानसे मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेमकी प्राप्ति होती है, वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहनेसे नहीं होती।
गोपियोंने कहा—प्यारे श्रीकृष्ण! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे हृदयकी बात जानते हो। तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरताभरे वचन नहीं कहने चाहिये। हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणोंमें ही प्रेम करती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और हठीले हो। तुमपर हमारा कोई वश नहीं है।
परन्तु इस उपदेशके अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशोंके पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान् हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियोंके सुहृद् हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो ।।३२।। आत्मज्ञानमें निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो।
यहाँतक कि तुम्हारे जिन चरणकमलोंकी सेवाका अवसर स्वयं लक्ष्मीजीको कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणोंका स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। उन्हींके समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरजकी शरणमें आयी हैं ।।३७।। भगवन्! अबतक जिसने भी तुम्हारे चरणोंकी शरण ली, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हमपर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसादका भाजन बनाओ।हमें अपनी सेवाका अवसर दो ।।३८।।तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतोंको अभयदान देनेमें अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मीजीका—सौन्दर्यकी एकमात्र देवीका नित्य क्रीडास्थल है
हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डलका भय और दुःख मिटानेके लिये ही प्रकट हुए हो! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियोंपर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है। प्रियतम! हम भी बड़ी दुःखिनी हैं।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं।जब उन्होंने गोपियोंकी व्यथा और व्याकुलतासे भरी वाणी सुनी, तब उनका हृदय दयासे भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैं—अपने-आपमें ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा प्रारम्भ की ।।४२।।
भगवान् श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला पहने वृन्दावनको शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्णके गुण और लीलाओंका गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियोंके प्रेम और सौन्दर्यके गीत गाने लगते ।।४४।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने गोपियोंके साथ यमुनाजीके पावन पुलिनपर, जो कपूरके समान चमकीली बालूसे जगमगा रहा था, पदार्पण किया। वह यमुनाजीकी तरल तरंगोंके स्पर्शसे शीतल और कुमुदिनीकी सहज सुगन्धसे सुवासित वायुके द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनन्दप्रद पुलिनपर भगवान्ने गोपियोंके साथ क्रीडा की ।।४५।।
उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने जब इस प्रकार गोपियोंका सम्मान किया, तब गोपियोंके मनमें ऐसा भाव आया कि संसारकी समस्त स्त्रियोंमें हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है। वे कुछ मानवती हो गयीं ।।४७।। जब भगवान्ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहागका कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शान्त करनेके लिये तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करनेके लिये वहीं—उनके बीचमें ही अन्तर्धान हो गये ।।४८।।
हे नाथ नारायण, हमें कब अपना चरणराज, सेवा प्रदान करोगे? हमारे साथ भी होली खेलो. तुम्हारी लाडली बस बड़ी-बड़ी बाते करती है, मेरे साथ होली तक न खेलें। तुम कहोगे तो कहल ले गी। तुम्हारे लिए क्या असम्भव है।
श्री कृष्णा गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा॥
पितु मात स्वामी सखा हमारे, हे नाथ नारायण वासुदेवा॥
March 14, 2025 (होलि) - प्रातः
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं
नासाग्रे नवमौक्तिकं करतले वेणुं करे कङ्कणम् ।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलिं
गोपस्त्री परिवेष्टितो विजयते गोपाल चूडामणिः ॥
अथ त्रिंशोऽध्यायः श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् सहसा अन्तर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रजयुवतियोंकी वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराजके बिना हथिनियोंकी होती है। उनका हृदय विरहकी ज्वालासे जलने लगा ।।१।। भगवान् श्रीकृष्णकी मदोन्मत्त गजराजकी-सी चाल, प्रेमभरी मुसकान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकारकी लीलाओं तथा शृंगार-रसकी भाव-भंगियोंने उनके चित्तको चुरा लिया था। वे प्रेमकी मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्णकी विभिन्न चेष्टाओंका अनुकरण करने लगीं ।।२।। अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी। वे अपनेको सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण-स्वरूप हो गयीं और उन्हींके लीला-विलासका अनुकरण करती हुई ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’—इस प्रकार कहने लगीं ।।३।। वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वरसे उन्हींके गुणोंका गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वनसे दूसरे वनमें, एक झाड़ीसे दूसरी झाड़ीमें जा-जाकर श्रीकृष्णको ढूँढने लगीं। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड-चेतन पदार्थोंमें तथा उनके बाहर भी आकाशके समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीं थे, उन्हींमें थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियोंसे—पेड़-पौधोंसे उनका पता पूछने लगीं ।।४।।
(गोपियोंने पहले बड़े-बड़े वृक्षोंसे जाकर पूछा) ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवनसे हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुमलोगोंने उन्हें देखा है? ।।५।। कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा! बलरामजीके छोटे भाई, जिनकी मुसकान-मात्रसे बड़ी-बड़ी मानिनियोंका मानमर्दन हो जाता है, इधर आये थे क्या?’ ।।६।। (अब उन्होंने स्त्रीजातिके पौधोंसे कहा—) ‘बहिन तुलसी! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगोंका कल्याण चाहती हो। भगवान्के चरणोंमें तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरोंके मँडराते रहनेपर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहने रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दरको देखा है? ।।७।। प्यारी मालती! मल्लिके! जाती और जूही! तुमलोगोंने कदाचित् हमारे प्यारे माधवको देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करोंसे स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधरसे गये हैं?’ ।।८।। ‘रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुनाके तटपर विराजमान सुखी तरुवरो! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकारके लिये है। श्रीकृष्णके बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पानेका मार्ग बता दो’ ।।९।। ‘भगवान्की प्रेयसी पृथ्वीदेवी! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्दसे भर रही हो और तृण-लता आदिके रूपमें अपना रोमांच प्रकट कर रही हो? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्णके चरणस्पर्शके कारण है अथवा वामनावतारमें विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है? कहीं उनसे भी पहले वराह भगवान्के अंग-संगके कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है?’ ।।१०।।
परीक्षित्! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्णको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जानेके कारण वे भगवन्मय होकर भगवान्की विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करने लगीं ।।१४।। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर भगवान्के चरणचिह्न देखे ।।२४।। वे आपसमें कहने लगीं—‘अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और जौ आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं’ ।।२५।। प्यारी सखियो! भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलसे जिस रजका स्पर्श कर देते हैं, वह धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके लिये उस रजको अपने सिरपर धारण करते हैं’ ।।२९।।
इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर—अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरेको भगवान् श्रीकृष्णके चरणचिह्न दिखलाती हुई वन-वनमें भटक रही थीं।त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्यवती गोपी रोने-पछताने लगी ।।३९।। ‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्यका अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो’ ।।४०।। परीक्षित्! गोपियोंका मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणीसे कृष्णचर्चाके अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीरसे केवल श्रीकृष्णके लिये और केवल श्रीकृष्णकी चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँतक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओंका ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध नहीं थी, फिर घरकी याद कौन करता? ।।४४।।
गोपियोंका रोम-रोम इस बातकी प्रतीक्षा और आकांक्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्णकी ही भावनामें डूबी हुई गोपियाँ यमुनाजीके पावन पुलिनपर—रमणरेतीमें लौट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्णके गुणोंका गान करने लगीं ।।४५।।
हे वृन्दावनविहार, श्यामसुन्दर, अब समझ में आया तुम्हारी लाडली ने दिल तोड़ना, विरह में जलन रूलाना कहाँ से सीखा है। सब तुम्हारे वह लक्षण है. वही प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, प्राथमिक प्यारी बातें। तुम्हारी तरह तुम्हारी लाडले ने भी मेरे चित्त को चुरा लिया। बाप बीती मेरे साथ भी होली क्यों नहीं खेलते? कितने वर्ष हो गए होली खेले
हरिः ॐ
March 14, 2025 - रात्रि
अथैकत्रिंशोऽध्यायः गोपिकागीत
गोपियाँ विरहावेशमें गाने लगीं—‘प्यारे! तुम्हारे जन्मके कारण वैकुण्ठ आदि लोकोंसे भी व्रजकी महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलताकी देवी लक्ष्मीजी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से-सुन्दर सरसिजकी कर्णिकाके सौन्दर्यको चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर! क्या नेत्रोंसे मारना वध नहीं है? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है? ।।२।। तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियोंके हृदयमें रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे! ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ।।४।।
अपने प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्र-छायामें लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो ।।५।।
प्रभो! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है। विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं—भक्त कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्रसे परम मंगल—परम कल्याणका दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी उस लीला-कथाका गान करते हैं, वास्तवमें भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं ।।९।। प्यारे! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरहकी क्रीडाओंका ध्यान करके हम आनन्दमें मग्न हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है, उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं ।।१०।।
हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओंको चरानेके लिये व्रजसे निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दुःख होता है ।।११।। कपटी! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है ।।१६।। प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियोंके सम्पूर्ण दुःख-तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण मंगल करनेके लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोगको सर्वथा निर्मूल कर दे ।।१८।।
उन्हीं चरणोंसे तुम रात्रिके समय घोर जंगलमें छिपे-छिपे भटक रहे हो! क्या कंकड़, पत्थर आदिकी चोट लगनेसे उनमें पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी सम्भावनामात्रसे ही चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! प्राणनाथ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ।।१९।।
अथ द्वात्रिंशोऽध्यायः भगवान्का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्की प्यारी गोपियाँ विरहके आवेशमें इस प्रकार भाँति-भाँतिसे गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारेके दर्शनकी लालसासे वे अपनेको रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगीं ।।१।। ठीक उसी समय उनके बीचोबीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला हुआ था। गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था ।।२।। कोटि-कोटि कामोंसे भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दरको आया देख गोपियोंके नेत्र प्रेम और आनन्दसे खिल उठे।
लगी। परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान्के चरणोंके दर्शनसे कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरीका निरन्तर पान करते रहनेपर भी तृप्त नहीं होती थी ।।७।। परीक्षित्! जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुषको प्राप्त करके संसारकी पीड़ासे मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही सभी गोपियोंको भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे परम आनन्द और परम उल्लास प्राप्त हुआ। उनके विरहके कारण गोपियोंको जो दुःख हुआ था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्तिके समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ।।९।। परीक्षित्! यों तो भगवान् श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथासे मुक्त हुई गोपियोंके बीचमें उनकी शोभा और भी बढ़ गयी। ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियोंसे सेवित होनेपर और भी शोभायमान होता है ।।१०।।
गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थलपर लगी हुई रोली-केसरसे चिह्नित ओढ़नीको अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्णके विराजनेके लिये बिछा दिया ।।१३।। बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधनसे पवित्र किये हुए हृदयमें जिनके लिये आसनकी कल्पना करते रहते हैं, किंतु फिर भी अपने हृदय-सिंहासनपर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान् यमुनाजीकी रेतीमें गोपियोंकी ओढ़नीपर बैठ गये। सहस्र-सहस्र गोपियोंके बीचमें उनसे पूजित होकर भगवान् बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्! तीनों लोकोंमें—तीनों कालोंमें जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान्के बिन्दुमात्र सौन्दर्यका आभासभर है। वे उसके एकमात्र आश्रय हैं ।।१४।।
गोपियोंने कहा—नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालोंसे भी प्रेम करते हैं। परंतु कोई-कोई दोनोंसे ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनोंमें तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है? ।।१६।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—मेरी प्रिय सखियो! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थको लेकर है। लेन-देनमात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थके लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है ।।१७।। सुन्दरियो! जो लोग प्रेम न करनेवालेसे भी प्रेम करते हैं—जैसे स्वभावसे ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका हृदय सौहार्दसे, हितैषितासे भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहारमें निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ।।१८।। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालोंका तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकारके होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरूपमें ही मस्त रहते हैं— जिनकी दृष्टिमें कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसीसे कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगोंसे भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते है ।।१९।। गोपियो! मैं तो प्रेम करने-वालोंसे भी प्रेमका वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसीलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुषको कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए धनकी चिन्तासे भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ ।।२०।।
इसीलिये परोक्षरूपसे तुमलोगोंसे प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुमलोग मेरे प्रेममें दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ ।।२१।। मेरी प्यारी गोपियो! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थीकी उन बेड़ियोंको तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीरसे—अमर जीवनसे अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्यागका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्मके लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभावसे, प्रेमसे मुझे उऋण कर सकती हो। परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ ।।२२।।
अथ त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः महारास
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! गोपियाँ भगवान्की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राणप्यारेके अंग-संगसे सफल-मनोरथ हो गयीं ।।१।। भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरेकी बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नोंके साथ यमुनाजीके पुलिनपर भगवान्ने अपनी रसमयी रासक्रीड़ा प्रारम्भ की ।।२।। सम्पूर्ण योगोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियोंके बीचमें प्रकट हो गये और उनके गलेमें अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियोंसे शोभायमान भगवान् श्रीकृष्णका दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाशमें शत-शत विमानोंकी भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सवके दर्शनकी लालसासे, उत्सुकतासे उनका मन उनके वशमें नहीं था ।।३-४।। स्वर्गकी दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ भगवान्के निर्मल यशका गान करने लगे ।।५।। रासमण्डलमें सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयोंके कंगन, पैरोंके पायजेब और करधनीके छोटे-छोटे घुँघरू एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोरकी हो रही थी ।।६।। यमुनाजीकी रमणरेतीपर व्रजसुन्दरियोंके बीचमें भगवान् श्रीकृष्णकी बड़ी अनोखी शोभा हुई। ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियोंके बीचमें ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो ।।७।। नृत्यके समय गोपियाँ तरह-तरहसे ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं।
इस प्रकार नटवर नन्दलालकी परम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रही थीं। परीक्षित्! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीचमें चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी ।।८।। कोई गोपी भगवान्के साथ—उनके स्वरमें स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्णके स्वरकी अपेक्षा और भी ऊँचे स्वरसे राग अलापने लगी। उसके विलक्षण और उत्तम स्वरको सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उसकी प्रशंसा करने लगे। उसी रागको एक दूसरी सखीने ध्रुपदमें गाया। उसका भी भगवान्ने बहुत सम्मान किया ।।१०।।
वे रासमण्डलमें भगवान् श्रीकृष्णके साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबोंके बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुरमें अपना सुर मिलाकर गा रहे थे। और उनके जूड़ों तथा चोटियोंमें गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे ।।१६।। परीक्षित्! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभावसे अपनी परछाईंके साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदयसे लगा लेते, कभी हाथसे उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते तो कभी लीलासे उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दरियोंके साथ क्रीडा की, विहार किया ।।१७।।
परीक्षित्! यद्यपि भगवान् आत्माराम हैं—उन्हें अपने अतिरिक्त और किसीकी भी आवश्यकता नहीं है—फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल-खेलमें उनके साथ इस प्रकार विहार किया ।।२०।। जब बहुत देरतक गान और नृत्य आदि विहार करनेके कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान् श्रीकृष्णने बड़े प्रेमसे स्वयं अपने सुखद करकमलोंके द्वारा उनके मुँह पोंछे ।।२१।। परीक्षित्! भगवान्के करकमल और नखस्पर्शसे गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलोंके सौन्दर्यसे, जिनपर सोनेके कुण्डल झिल-मिला रहे थे और घुँघराली अलकें लटक रही थीं, तथा उस प्रेमभरी चितवनसे, जो सुधासे भी मीठी मुसकानसे उज्ज्वल हो रही थी, भगवान् श्रीकृष्णका सम्मान किया और प्रभुकी परम पवित्र लीलाओंका गान करने लगीं ।।२२।। इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारोंको तोड़ता हुआ हथिनियोंके साथ जलमें घुसकर क्रीडा करता है, वैसे ही लोक और वेदकी मर्यादाका अतिक्रमण करनेवाले भगवान्ने अपनी थकान दूर करनेके लिये गोपियोंके साथ जलक्रीडा करनेके उद्देश्यसे यमुनाके जलमें प्रवेश किया।
परीक्षित्! यमुनाजलमें गोपियोंने प्रेमभारी चितवनसे भगवान्की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर उनपर इधर-उधरसे जलकी खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया। विमानोंपर चढ़े हुए देवता पुष्पोंकी वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे।
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण व्रजयुवतियों और भौंरोंकी भीड़से घिरे हुए यमुनातटके उपवनमें गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थलमें बड़ी सुन्दर सुगन्धवाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें भगवान् इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियोंके झुंडके साथ घूम रहा हो ।।२५।। परीक्षित्! शरद्की वह रात्रि जिसके रूपमें अनेक रात्रियाँ पुंजीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थी। चारों ओर चन्द्रमाकी बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी। काव्योंमें शरद् ऋतुकी जिन रस-सामग्रियोंका वर्णन मिलता है, उन सभीसे वह युक्त थी। उसमें भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसी गोपियोंके साथ यमुनाके पुलिन, यमुनाजी और उनके उपवनमें विहार किया। यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान् सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्पकी ही चिन्मयी लीला है।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ) कभी-कभी धर्मका उल्लंघन और साहसका काम करते देखे जाते हैं। परंतु उन कामोंसे उन तेजस्वी पुरुषोंको कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्नि सब कुछ खा जाता है, परन्तु उन पदार्थोंके दोषसे लिप्त नहीं होता ।।३०।। जिन लोगोंमें ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मनसे भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, शरीरसे करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान् शंकरने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा ।।३१।। इसलिये इस प्रकारके जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकारके अनुसार उनके वचनको ही सत्य मानना और उसीके अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरणका अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि उनका जो आचरण उनके उपदेशके अनुकूल हो, उसीको जीवनमें उतारे ।।३२।।
परीक्षित्! वे सामर्थ्यवान् पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभकर्म करनेमें उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करनेमें अनर्थ (नुकसान) नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थसे ऊपर उठे होते हैं ।।३३।। जब उन्हींके सम्बन्धमें ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवोंके एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान् हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभका सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ।।३४।। जिनके चरणकमलोंके रजका सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभावसे योगीजन अपने सारे कर्मबन्धन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्त्वका विचार करके तत्स्वरूप हो जाते हैं तथा समस्त कर्म-बन्धनोंसे मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरते हैं, वे ही भगवान् अपने भक्तोंकी इच्छासे अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला, उनमें कर्मबन्धनकी कल्पना ही कैसे हो सकती है ।।३५।। गोपियोंके, उनके पतियोंके और सम्पूर्ण शरीरधारियोंके अन्तःकरणोंमें जो आत्मारूपसे विराजमान हैं, जो सबके साक्षी और परमपति हैं, वही तो अपना दिव्य-चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं ।।३६।।
भगवान् जीवोंपर कृपा करनेके लिये ही अपनेको मनुष्यरूपमें प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ ।।३७।। व्रजवासी गोपोंने भगवान् श्रीकृष्णमें तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमायासे मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं ।।३८।। ब्रह्माकी रात्रिके बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्राह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियोंकी इच्छा अपने घर लौटनेकी नहीं थी, फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे वे अपने-अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टासे, प्रत्येक संकल्पसे केवल भगवान्को ही प्रसन्न करना चाहती थीं ।।३९।।
परीक्षित्! जो धीर पुरुष व्रजयुवतियोंके साथ भगवान् श्रीकृष्णके इस चिन्मय रास-विलासका श्रद्धाके साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान्के चरणोंमें परा भक्तिकी प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदयके रोग—कामविकारसे छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदाके लिये नष्ट हो जाता है ।।४०।।
हरे मुरारे मधुकैटभारे गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे । यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णो निराश्रयं माम् जगदीश रक्षः ||
हे प्रभु, मेरी सखी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। कैसे भूल सकता हूँ। जैसे मेरी सखी मुझे तुम्हारी याद दिलाती है, मै मेरी सखी को भी तुम्हारी याद दिलाता रहू्। क्या कैसा होना है तुम जानो। हे प्रभु अपनी माया के परदे हटा कर हमारे हृदय में विहार करो। हे श्यामसुन्दर, हमें अपने रंग में रंग दो।
जयति सच्चिदानंदा
March 15, 2025 - प्रातः
आत्मा रामा आनंद रमना, आत्मा रामा आनंद रमना।अच्युत केशव हरि नारायण, अच्युत केशव हरि नारायण।
भवभय हरणा वंदित चरणा, भवभय हरणा वंदित चरणा। रघुकुलभूषण राजीवलोचन, रघुकुलभूषण राजीवलोचन। आत्मा रामा आनंद रमना, आत्मा रामा आनंद रमना।अच्युत केशव हरि नारायण, अच्युत केशव हरि नारायण।
आदिनारायण अनन्तशयना आदिनारायण अनन्तशयना।सच्चिदानन्द श्रीसत्यनारायण सच्चिदानन्द श्रीसत्यनारायण
आत्मा रामा आनंद रमना, आत्मा रामा आनंद रमना। अच्युत केशव हरि नारायण, अच्युत केशव हरि नारायण।
आज सपने में अंकलजी घर आए थे, पर अभी भी मेरी भावनाएं नहीं समझीं। हे प्रभु, क्यों अंकलजी और मीनू को लगता है दूरी और समय के साथ उन्हें भूल जाऊंगा? हाल चल देने से भी मना कर दिया। मेरी भावनाएं समझ में आती हैं तो समझ में आता है कि मेरी चिंताएं और बढ़ रही हैं। उसके बाद घर में कोई बहेरुपिया घुस आया था और घबराके को 6 बजे पहले नींद खुल गई और फिर जागता रहा। नींद की दवा खाई थी फिर भी सपने में भी चैन नहीं। प्रभु सब ठीक तो है? मीनू अंकलजी का ख्याल तो रख रही है ना? अंकलजी रिटायरमेंट के बाद भी रविवार को काम क्यों कर रहे हैं?
March 15, 2025 - दिन
प्रभु तुम्हें भी मेरी भावनाओं से खेलने में बड़ा आनंद आता है। होली मेरी सखी के साथ खिलाने को कहा था, जबरदस्त अकेले खिला दी। कितने पर्व निकल गए मीनू की बिना। ऐसी स्थिति बना देते हो कि रोना आता है पर जबरदस्ती हसने की कोशिश करनी पड़ती है। प्रभु मेरे सखी ने भी ऐसे ही अंकलजी के साथ नाच कर हंसते हुए खूब होली खेल होगी जैसे यहा लोग खेल रहे थे? पता नहीं मां क्यों सोचती है कि इन आयोजनों से मैं खुश हूंगा, उल्टा मन और खिन्न हो जाता है। समाज तो यही याद दिलाता है कि कैसे मेरे अपनों ने मेरे साथ व्यवहार किया। कैसे मीनू मुझसे बात कीये बिना ही गुस्सा हो गई। मुझे एक अवसर देने से भी मना कर दिया।
हे नटवरनागर, और कितना नाचओगे?
नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा। शयाम सुंदर मुख चंदा, भजो रे मन गोविंदा।
नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा। तूं ही नटवर तूं ही नागर, तूं ही बाल मुकन्दा भजो रे मन गोविंदा।
March 15, 2025
अथ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः सुदर्शन और शंखचूडका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार नन्दबाबा आदि गोपोंने शिवरात्रिके अवसरपर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्दसे भरकर बैलोंसे जुती हुई गाड़ियोंपर सवार होकर अम्बिकावनकी यात्रा की ।।१।। राजन्! वहाँ उन लोगोंने सरस्वती नदीमें स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान् शंकरजीका तथा भगवती अम्बिकाजीका बड़ी भक्तिसे अनेक प्रकारकी सामग्रियोंके द्वारा पूजन किया ।।२।।
उस अम्बिकावनमें एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजीको पकड़ लिया ।।५।। अजगरके पकड़ लेनेपर नन्दरायजी चिल्लाने लगे—‘बेटा कृष्ण! कृष्ण! दौड़ो, दौड़ो। देखो बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। जल्दी मुझे इस संकटसे बचाओ’ ।।६।। नन्दबाबाका चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगरके मुँहमें देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों (अधजली लकड़ियों) से उस अजगरको मारने लगे ।।७।। किन्तु लुकाठियोंसे मारे जाने और जलनेपर भी अजगरने नन्दबाबाको छोड़ा नहीं। इतनेमें ही भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ पहुँचकर अपने चरणोंसे उस अजगरको छू दिया ।।८।। भगवान्के श्रीचरणोंका स्पर्श होते ही अजगरके सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगरका शरीर छोड़कर विद्याधरार्चित सर्वांग-सुन्दर रूपवान् बन गया ।।९।।
अजगरके शरीरसे निकला हुआ पुरुष बोला—भगवन्! मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमानपर चढ़कर यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था ।।१२।। एक दिन मैंने अंगिरा गोत्रके कुरूप ऋषियोंको देखा। अपने सौन्दर्यके घमंडसे मैंने उनकी हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराधसे कुपित होकर उन लोगोंने मुझे अजगरयोनिमें जानेका शाप दे दिया। यह मेरे पापोंका ही फल था ।।१३।। उन कृपालु ऋषियोंने अनुग्रहके लिये ही मुझे शाप दिया था। क्योंकि यह उसीका प्रभाव है कि आज चराचरके गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलोंसे मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये ।।१४।। समस्त पापोंका नाश करनेवाले प्रभो! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारसे भयभीत होकर आपके चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयोंसे मुक्त कर देते हैं।
जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छन्द विहार कर रहे थे और उन्मत्तकी भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शंखचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेरका अनुचर था ।।२५।। परीक्षित्! दोनों भाइयोंके देखते-देखते वह उन गोपियोंको लेकर बेखटके उत्तरकी ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं ।।२६।। दोनों भाइयोंने देखा कि जैसे कोई डाकू गौओंको लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियोंको लिये जा रहा है और वे ‘हा कृष्ण! हा राम!’ पुकारकर रो-पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े ।।२७।। ‘डरो मत, डरो मत’ इस प्रकार अभयवाणी कहते हुए हाथमें शालका वृक्ष लेकर बड़े वेगसे क्षणभरमें ही उस नीच यक्षके पास पहुँच गये ।।२८।। यक्षने देखा कि काल और मृत्युके समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियोंको वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचानेके लिये भागा ।।२९।। तब स्त्रियोंकी रक्षा करनेके लिये बलरामजी तो वहीं खड़े रह गये, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये। वे चाहते थे कि उसके सिरकी चूड़ामणि निकाल लें ।।३०।। कुछ ही दूर जानेपर भगवान्ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्टके सिरपर कसकर एक घूँसा जमाया और चूड़ामणिके साथ उसका सिर भी धड़से अलग कर दिया ।।३१।। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण शंखचूडको मारकर और वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियोंके सामने ही उन्होंने बड़े प्रेमसे वह मणि बड़े भाई बलरामजीको दे दी ।।३२।।
अथ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः युगलगीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके गौओंको चरानेके लिये प्रतिदिन वनमें चले जानेपर उनके साथ गोपियोंका चित्त भी चला जाता था। उनका मन श्रीकृष्णका चिन्तन करता रहता और वे वाणीसे उनकी लीलाओंका गान करती रहतीं। इस प्रकार वे बड़ी कठिनाईसे अपना दिन बितातीं ।।१।।
गोपियाँ आपसमें कहतीं—अरी सखी! अपने प्रेमीजनोंको प्रेम वितरण करनेवाले और द्वेष करनेवालों-तकको मोक्ष दे देनेवाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोलको बायीं बाँहकी ओर लटका देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरीको अधरोंसे लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार अंगुलियोंको उसके छेदोंपर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस समय सिद्धपत्नियाँ आकाशमें अपने पति सिद्धगणोंके साथ विमानोंपर चढ़कर आ जाती हैं और उस तानको सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं।
अरी गोपियो! तुम यह आश्चर्यकी बात सुनो! ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं। जब वे हँसते हैं तब हास्यरेखाएँ हारका रूप धारण कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं। अरी वीर! उनके वक्षःस्थलपर लहराते हुए हारमें हास्यकी किरणें चमकने लगती हैं। उनके वक्षःस्थलपर जो श्रीवत्सकी सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघपर बिजली ही स्थिररूपसे बैठ गयी है। वे जब दुःखीजनोंको सुख देनेके लिये, विरहियोंके मृतक शरीरमें प्राणोंका संचार करनेके लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रजके झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हरिन उनके पास ही दौड़ आते हैं। केवल आते ही नहीं, सखी! दाँतोंसे चबाया हुआ घासका ग्रास उनके मुँहमें ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल पाते और न तो उगल ही पाते हैं। दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभावसे खड़े हो जाते हैं, मानो सो गये हैं या केवल भीतपर लिखे हुए चित्र हैं। उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरीकी तान उनके चित्तको चुरा लेती है ।।४-५।।
अरी वीर! जैसे देवता लोग अनन्त और अचिन्त्य ऐश्वर्योंके स्वामी भगवान् नारायणकी शक्तियोंका गान करते हैं, वैसे ही ग्वालबाल अनन्तसुन्दर नटनागर श्रीकृष्णकी लीलाओंका गान करते रहते हैं। वे अचिन्त्य ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकृष्ण जब वृन्दावनमें विहार करते रहते हैं और बाँसुरी बजाकर गिरिराज गोवर्धनकी तराईमें चरती हुई गौओंको नाम ले-लेकर पुकारते हैं, उस समय वनके वृक्ष और लताएँ फूल और फलोंसे लद जाती हैं, उनके भारसे डालियाँ झुककर धरती छूने लगती हैं, मानो प्रणाम कर रही हों, वे वृक्ष और लताएँ अपने भीतर भगवान् विष्णुकी अभिव्यक्ति सूचित करती हुई-सी प्रेमसे फूल उठती हैं, उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधुधाराएँ उँड़ेलने लगती हैं ।।८-९।।
अरी सखी! जितनी भी वस्तुएँ संसारमें या उसके बाहर देखनेयोग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं—ये हमारे मनमोहन। उनके साँवले ललाटपर केसरकी खौर कितनी फबती है—बस, देखती ही जाओ! गलेमें घुटनोंतक लटकती हुई वनमाला, उसमें पिरोयी हुई तुलसीकी दिव्य गन्ध और मधुर मधुसे मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भौंरे बड़े मनोहर एवं उच्च स्वरसे गुंजार करते रहते हैं।
सतीशिरोमणि यशोदाजी! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालोंके साथ खेल खेलनेमें बड़े निपुण हैं। रानीजी! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं। देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसीसे सीखा नहीं। अपने ही अनेकों प्रकारकी राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं। जब वे अपने बिम्बाफल सदृश लाल-लाल अधरोंपर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद आदि स्वरोंकी अनेक जातियाँ बजाने लगते हैं, उस समय वंशीकी परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शंकर और इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता भी—जो सर्वज्ञ हैं—उसे नहीं पहचान पाते। वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकनेपर भी उनके हाथसे निकलकर वंशीध्वनिमें तल्लीन हो ही जाता है, सिर भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसीमें तन्मय हो जाते हैं ।।१४-१५।।
अरी वीर! उनके गलेमें मणियोंकी माला बहुत ही भली मालूम होती है। तुलसीकी मधुर गन्ध उन्हें बहुत प्यारी है। इसीसे तुलसीकी मालाको तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं। जब वे श्यामसुन्दर उस मणियोंकी मालासे गौओंकी गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखाके गलेमें बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरीके मधुर स्वरसे मोहित होकर कृष्णसार मृगोंकी पत्नी हरिनियाँ भी अपना चित्त उनके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थीकी आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दनको घेरे रहती हैं, वैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वहीं एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती हैं, लौटनेका नाम भी नहीं लेतीं ।।१८-१९।।
March 16, 2025
आज सपने में मीनू और अंकलजी से झगड़ा हुआ। दोनों वही विरोधाभास वाली बाते बार बार करते रहे, सत्ये नहीं बताया। हे सत्येनराय, तुम्हारे इस मिथ्या जगत की ये गुत्थी कब सुलझेगी। पता नहीं सबको किस माया ने फंसाया है कि मुझे सत्य नहीं बताया!
March 16, 2025
अथ षट्त्रिंशोऽध्यायः अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्रीअक्रूरजीको व्रजमें भेजना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सवकी धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद् (कंधेका पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोंको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी ।।१।। वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि तोड़ता जाता था ।।२।। उस समय सभी व्रजवासी ‘श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण! हमें इस भयसे बचाओ’ इस प्रकार पुकारते हुए भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आये। भगवान्ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है ।।६।। तब उन्होंने ‘डरनेकी कोई बात नहीं है’—यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूर्ख! महादुष्ट! तू इन गौओं और ग्वालोंको क्यों डरा रहा है? इससे क्या होगा ।।७।। देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं हूँ।’ इस प्रकार ललकारकर भगवान्ने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान् श्रीकृष्णकी इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने खुरोंसे बड़े जोरसे धरती खोदता हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल तितर-बितर होने लगे ।।८-९।। उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा, मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो ।।१०।। भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे भिड़नेवाले दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया ।।११।। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग भगवान्पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे ।।१४।। जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार बैलके रूपमें आने-वाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये ।।१५।।
परीक्षित्! भगवान्की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्का दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुँचे। उन्होंने उससे कहा— ।।१६।। ‘कंस! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं, वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पास उन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।’ यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी ।।१७-१८।।
उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परन्तु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लड़के ही हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकड़कर फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा—‘तुम व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।’ वह चला गया। इसके बाद कंसने मुष्टिक, चाणूर, शल तोशल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतोंको बुलाकर कहा—‘वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो ।।१९-२२।। वसुदेवके दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्हींके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती है ।।२३।। अतः जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लड़ने-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति-भाँतिके मंच बनाओ और उन्हें अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगलको देखें ।।२४।। महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें, तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना ।।२५।। इसी चतुर्दशीको विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलताके लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको बहुत-से पवित्र पशुओंकी बलि चढ़ाओ ।।२६।।
परीक्षित्! कंस तो केवल स्वार्थ-साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला— ।।२७।। ‘अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरहसे मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढ़कर मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ।।२८।। यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ।।२९।।
अक्रूरजीने कहा—महाराज! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी प्रेरणासे मिलते हैं ।।३८।। मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथोंके पुल बाँधता रहता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्धके अनुकूल होनेपर प्रयत्न सफल हो जाता है तो वह हर्षसे फूल उठता है और प्रतिकूल होनेपर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ ।।३९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अक्रूरजी अपने घर लौट आये ।।४०।।
अथ सप्तत्रिंशोऽध्यायः केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान्की स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कंसने जिस केशी नामक दैत्यको भेजा था, वह बड़े भारी घोड़ेके रूपमें मनके समान वेगसे दौड़ता हुआ व्रजमें आया। वह अपनी टापोंसे धरती खोदता आ रहा था! उसकी गरदनके छितराये हुए बालोंके झटकेसे आकाशके बादल और विमानोंकी भीड़ तीतर-बितर हो रही थी। भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उसकी हिनहिनाहटसे उनके आश्रित रहनेवाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछके बालोंसे बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़नेके लिये उन्हींको ढूँढ़ भी रहा है—तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंहके समान गरजकर उसे ललकारा ।।३।। भगवान्को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा। परीक्षित्! सचमुच केशीका वेग बड़ा प्रचण्ड था। उसपर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान्के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी ।।४।।
परन्तु भगवान्ने उससे अपनेको बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीतको कैसे मार पाता! उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँपको पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ हाथकी दूरीपर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये ।।५।।
अचिन्त्यशक्ति भगवान् श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा। अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ।।८।। अचिन्त्यशक्ति भगवान् श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा। अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ।।८।। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। देवताओंको अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान्के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे ।।९।।
परीक्षित्! देवर्षि नारदजी भगवान्के परम प्रेमी और समस्त जीवोंके सच्चे हितैषी हैं। कंसके यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास आये और एकान्तमें उनसे कहने लगे— ।।१०।। ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका स्वरूप मन और वाणीका विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत्का नियन्त्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदयमें निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदयमें निवास करते हैं। आप भक्तोंके एकमात्र वांछनीय, यदुवंश-शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं ।।११।। जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियोंमें व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। आत्माके रूपमें होनेपर भी आप अपनेको छिपाये रखते हैं; क्योंकि आप पंचकोशरूप गुफाओंके भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तमके रूपमें, सबके नियन्ताके रूपमें और सबके साक्षीके रूपमें आपका अनुभव होता ही है ।।१२।। प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। अपने सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी मायासे ही गुणोंकी सृष्टि की और उन गुणोंको ही स्वीकार करके आप जगत्की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करनेके लिये आपको अपनेसे अतिरिक्त और किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं ।।१३।। वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसोंका, जिन्होंने आजकल राजाओंका वेष धारण कर रखा है, विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं ।।१४।। यह बड़े आनन्दकी बात है कि आपने खेल-ही-खेलमें घोड़ेके रूपमें रहनेवाले इस केशी दैत्यको मार डाला। इसकी हिनहिनाहटसे डरकर देवतालोग अपना स्वर्ग छोड़कर भाग जाया करते थे ।।१५।।
प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंसको भी मरते देखूँगा ।।१६।। उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुरका वध देखूँगा। आप स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्रके चीं-चपड़ करनेपर उनको उसका मजा चखायेंगे ।।१७।। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदिका शुल्क देकर वीर-कन्याओंसे विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारकामें रहते हुए नृगको पापसे छुड़ायेंगे ।।१८।। आप जाम्बवतीके साथ स्यमन्तक मणिको जाम्बवान्से ले आयेंगे और अपने धामसे ब्राह्मणके मरे हुए पुत्रोंको ला देंगे ।।१९।। इसके पश्चात् आप पौण्ड्रक—मिथ्यावासुदेवका वध करेंगे। काशीपुरीको जला देंगे। युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें चेदिराज शिशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्रको नष्ट करेंगे ।।२०।। प्रभो! द्वारकामें निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे जिन्हें पृथ्वीके बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा ।।२१।। इसके बाद आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये कालरूपसे अर्जुनके सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखोंसे देखूँगा ।।२२।। प्रभो! आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं। आपके स्वरूपमें और किसीका अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूपमें स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्तिके सामने माया और मायासे होनेवाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत्त है—कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्दस्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान्की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।।२३।।
आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष विशेषों—भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदोंकी कल्पना केवल आपकी मायासे ही हुई है। इस समय अपने अपनी लीला प्रकट करनेके लिये मनुष्यका-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियोंके शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’ ।।२४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने इस प्रकार भगवान्की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान्के दर्शनोंके आह्लादसे नारदजीका रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ।।२५।। इधर भगवान् श्रीकृष्ण केशीको लड़ाईमें मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वाल-बालोंके साथ पूर्ववत् पशु-पालनके काममें लग गये तथा व्रजवासियोंको परमानन्द वितरण करने लगे ।।२६।। एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़की चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेका—लुका-लुकीका खेल खेल रहे थे ।।२७।। राजन्! उन लोगोंमेंसे कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेलमें रम गये थे ।।२८।। उसी समय ग्वालका वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियोंके आचार्य मयासुरका पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेलमें बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकोंको चुराकर छिपा आता ।।२९।।
भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालोंको लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़ियेको दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया ।।३१।। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपनेको छुड़ा लूँ। परन्तु भगवान्ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजेमें फाँस लिया था कि वह अपनेको छुड़ा न सका ।।३२।। तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे जकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया और पशुकी भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवतालोग विमानोंपर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे ।।३३।। अब भगवान् श्रीकृष्णने गुफाके द्वारपर लगे हुए चट्टानोंके पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालोंको उस संकटपूर्ण स्थानसे निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें चले आये ।।३४।।
अथाष्टात्रिंशोऽध्यायः अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरीमें बिताकर प्रातःकाल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबाके गोकुलकी ओर चल दिये ।।१।। परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रजकी यात्रा करते समय मार्गमें कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी परम प्रेममयी भक्तिसे परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे— ।।२।। ‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्रको ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन करूँगा ।।३।।
मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितिमें, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणोंका ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते—उन भगवान्के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं।परंतु नहीं, मुझ अधमको भी भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदीमें बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पारसे उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहसे भी कहीं कोई इस संसारसागरको पार कर सकता है ।।५।। अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान्के उन चरणकमलोंमें साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियोंके भी केवल ध्यानके ही विषय हैं ।।६।। अहो! कंसने तो आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंसके भेजनेसे मैं इस भूतलपर अवतीर्ण स्वयं भगवान्के चरणकमलोंके दर्शन पाऊँगा।ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलोंकी उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तोंके साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधनामें संलग्न रहते हैं—भगवान्के वे ही चरणकमल गौओंको चरानेके लिये ग्वालबालोंके साथ वन-वनमें विचरते हैं। वे ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियोंके वक्षः-स्थलपर लगी हुई केसरसे रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं, ।।८।। मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोतेकी ठोरके समान नुकीली नासिका है, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से कोमल रतनारे लोचन और कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्तिके परम दानी श्रीमुकुन्दके उस मुखकमलका आज अवश्य दर्शन करूँगा।भगवान् विष्णु पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वेच्छासे मनुष्यकी-सी लीला कर रहे हैं! वे सम्पूर्ण लावण्यके धाम हैं। सौन्दर्यकी मूर्तिमान् निधि हैं। आज मुझे उन्हींका दर्शन होगा! अवश्य होगा! आज मुझे सहजमें ही आँखोंका फल मिल जायगा ।।१०।। भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत्के द्रष्टामात्र हैं, और ऐसा होनेपर भी द्रष्टापनका अहंकार उन्हें छूतक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्तिसे अज्ञानके कारण होनेवाला भेदभ्रम अज्ञानसहित दूरसे ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपमें भ्रूविलासमात्रसे प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदिके सहित अपने स्वरूपभूत जीवोंकी रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावनकी कुंजोंमें तथा गोपियोंके घरोंमें तरह-तरहकी लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं ।।११।। जब समस्त पापोंके नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्मकी लीलाओंसे युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारमें जीवनकी स्फूर्ति होने लगती है, शोभाका संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रताका साम्राज्य छा जाता है; परन्तु जिस वाणीसे उनके गुण, लीला और जन्मकी कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दोंको ही शोभित करनेवाली है, होनेपर भी नहींके समान—व्यर्थ है ।।१२।। जिनके गुणगानका ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान् स्वयं यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं।इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालोंके भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकोंके मनको मोह लेनेवाला है। जो नेत्रवाले हैं उनके लिये वह आनन्द और रसकी चरम सीमा है। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकालसे ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं ।।१४।। जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करनेके लिये तुरंत रथसे कूद पड़ूँगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं! बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कारके लिये मन-ही-मन अपने हृदयमें उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उनपर। उन दोनोंके साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंकी भी वन्दना करूँगा ।।१५।। मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे? उनके वे करकमल उन लोगोंको सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँपके भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें आ जाते हैं ।।१६।। मैं कंसका दूत हूँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे? राम-राम! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्तके बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञरूपसे स्थित होकर अन्तःकरणकी एक-एक चेष्टाको अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टिके द्वारा देखते रहते हैं ।।१८।। तब मेरी शंका व्यर्थ है। अवश्य ही मैं उनके चरणोंमें हाथ जोड़कर विनीतभावसे खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं निःशंक होकर सदाके लिये परमानन्दमें मग्न हो जाऊँगा ।।१९।। मैं उनके कुटुम्बका हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें वे अपनी लंबी-लंबी बाँहोंसे पकड़कर मुझे अवश्य अपने हृदयसे लगा लेंगे। अहा! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समय—उनका आलिंगन प्राप्त होते ही—मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट जायँगे ।।२०।। जब वे मेरा आलिंगन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर!’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे! तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान् श्रीकृष्णने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया—उसके उस जन्मको, जीवनको धिक्कार है ।।२१।। न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूपमें भजते हैं—वे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण प्रेम करते हैं ।।२२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! श्वफल्क-नन्दन अक्रूर मार्गमें इसी चिन्तनमें डूबे-डूबे रथसे नन्द-गाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये ।।२४।। जिनके चरणकमलकी रजका सभी लोकपाल अपने किरीटोंके द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके चरणचिह्नोंके दर्शन किये। कमल, यव, अंकुश आदि असाधारण चिह्नोंके द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी ।।२५।। उन चरणचिह्नोंके दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना आह्लाद हुआ कि वे अपनेको सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रोंमें आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे। वे रथसे कूद-कर उस धूलिमें लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो! यह हमारे प्रभुके चरणोंकी रज है’ ।।२६।।
परीक्षित्! कंसके सन्देशसे लेकर यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही जीवोंके देह धारण करनेका परम लाभ है। इसलिये जीवमात्रका यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान्की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणोंके दर्शन-श्रवण आदिके द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें ।।२७।। व्रजमें पहुँचकर अक्रूरजीने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयोंको गाय दुहनेके स्थानमें विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे ।।२८।। उन्होंने अभी किशोर-अवस्थामें प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्यकी खान थे। घुटनोंका स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ललित चाल थी ।।२९।। उनके चरणोंमें ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमलके चिह्न थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी मानो दया बरस रही हो। वे उदारताकी तो मानो मूर्ति ही थे ।।३०।। उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कलासे भरी थी। गलेमें वनमाला और मणियोंके हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीरमें पवित्र अंगराग तथा चन्दनका लेप किया था ।।३१।। उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामके चरणोंके पास साष्टांग लोट गये ।।३४।। परीक्षित्! भगवान्के दर्शनसे उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसूसे सर्वथा भर गये। सारे शरीरमें पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके ।।३५।। शरणागतवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उनके मनका भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे चक्रांकित हाथोंके द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदयसे लगा लिया ।।३६।। इसके बाद जब परम मनस्वी श्रीबलरामजीके सामने विनीत भावसे खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्णने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजीने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये ।।३७।।
घर ले जाकर भगवान्ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मंगल पूछकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजाकी सामग्री भेंट की ।।३८।। इसके बाद भगवान्ने अतिथि अक्रूरजीको एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धासे उन्हें पवित्र और अनेक गुणोंसे युक्त अन्नका भोजन कराया ।।३९।। जब वे भोजन कर चुके, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान् बलरामजीने बड़े प्रेमसे मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया ।।४०।।
नारायण नारायण, आज तुम्हारे काका अक्रूरजी की तुम्हारे प्रति भवने या चरणों का गूंगा पढ़ कर इतने आसू बहने लगे कि दिखा बंद हो गया और रुक के अस्सु पूछने पड़े। तुमने जब उन्हें अपने हृदय से लगाया तो आनंद से भर दिया। प्रभु अपनी लाडली को भी हृदय से लगाना। हमारे माता पिता पर भी कृपा करना। तुम्हारा ही सहारा है. हल चल मिल भी जाए तो अंकलजी की बातों पर विश्वास नहीं है मीनू की।
मेरे अंकलजी को मीनू की याद दिलाते रहना कहीं भूल ना जाए। अपनों की ही कृपा से तो ये सौभाग्य प्राप्त हुआ है, कैसे किसी को भूल जाउ। मेरी सखी ने मेरे दिल को लत मार के तुम्हारे पास भेजा है, कैसे मेरी सखी के लिए प्रार्थना न करूँ।
हो सके तो हमें अपनी चारणो की सेवा का दान दे देना।
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
राम एक देवता, पुजारी सारी दुनिया
पुजारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
द्वारे पे उसके जाके कोई भी पुकारता
परम कृपा दे अपनी भव से उभारता
ऐसे दीनानाथ पे
ऐसे दीनानाथ पे बलिहारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम
दो दिन का जीवन प्राणी कर ले विचार तू
कर ले विचार तू
प्यारे प्रभु को अपने मन में निहार तू
मन में निहार तू
बिना हरी नाम के दुखिआरी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम
नाम का प्रकाश जब अंदर जगायेगा
प्यारे श्री राम का तू दर्शन पायेगा
ज्योति से जिसकी है उजयारी सारी दुनिया
उजयारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया
March 16, 2025
प्रभु, तुम बाप बेटी मिलकर मुझे पागल कर दोगे। दिन में मैंने तुम्हारी लीलाओं का आनंद भी पढ़ा और मेरी सखी की चिंता भी पढ़ी। एक पल रोमाँच तो अगले पल रोना। अजब सी मनोदशा है. बार-बार मीनू के साथ जीवन के देखे हुए सबने और ख्यालो में भटक रहा हूं। कुछ समझ नहीं आ रहा. अंकलजी ने अभी तक मुझे अनब्लॉक नहीं किया। क्यू नहीं समझ आता कि इसे बस मेरी चिंता ही बढ़ती है। मैं किसी को नहीं भूलूंगा।
पभु और भोले बाबा, तुमसे ईर्शा बढ़ती जा रही है। मेरी सखी प्रतिदिन पूजा के समय तुमसे कुछ तो बात करती होगी, प्रार्थना करती होगी। मेरे बारे में बचपन से कभी कुछ कहा? कभी मुझे याद करती है? बाते तो उस दिन इतनी बड़ी बड़ी कर रही थी और कहती है मुझसे बात करने के लिए समय नहीं उसके जीवन लक्ष्य हैं। मेरा तो एक लक्ष्य था तुम्हारी लाडली को तुम तक पहुंचना और रास्ते में साथ देना।
March 17, 2025
गोविन्द दामोदर माधवेति
सपने में किसी प्रतियोगिता में दोस्त गणित और कंप्यूटर की समस्या का समाधान कर सकते हैं। जबसे उठा हु अजब से निराशा और निराशा है। प्रभु सब कुशल हैं ना? डर लग रहा है कि मेरी सखी के साथ बिना फिर मैं एक कोने में पड़ा रहूंगा और मन और इंद्र तुम्हारी माया में भटकती रहेंगी। प्रभु भागवत में शरीर को रथ के रूप में समझा जाता है। मेरे रथ में तो घोड़ा नहीं बंदर बांधे है, जो मेरी सखी के प्रेम से बांध कर रखे है। मेरी सखी के प्रेम की रस्सी टूट गई तो ये इधर उधर भाग जाएंगे और मैं रथ के एक कोने में पड़ा रहूंगा।
पिछले माहिने फोटो में ना तो मीनू खुश दिख रही थी ना तो अंकलजी आंटीजी। इस माहीं तो धुंध धुंध के थक गया अभि कोई फोटो नहीं दिखी। कैसे मेरी सखी की बातों का विश्वास कारु? पता नहीं अंकलजी अभि भी रविवार को काम करने तो नहीं जा रहे?
मेरौ संकट निवारौ
चक्र के धरनहार गरुड़ के सवार नंद के कुमार मेरौ संकट निवारौ।
यमलार्जुन तारे गज ग्राह ते उबारे नाग के नथनहार मेरे तेरौ ही सहारौ।
कर पर गिरि धारौ ब्रज डूबत ते उबारौ इंद्र हू कौ गर्व गार्यौ जल वृष्टि निवारी।
द्रुपदसुता की बेर नेंक ना करी अबेर अब कहां अबेर हम सब सेवक तिहारौ।।
March 17, 2025 - रात्री
अथैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं ।।१।। परीक्षित्! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान् श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती? फिर भी भगवान्के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते ।।२।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—चाचाजी! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? स्वागत है। मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ। मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब सकुशल और स्वस्थ हैं न? ।।४।। हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयंकर व्याधि है। जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मंगल क्या पूछें ।।५।। चाचाजी! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ीं—तरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े। और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये ।।६।। मैं बहुत दिनोंसे चाहता था कि आप-लोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी। सौम्य-स्वभाव चाचाजी! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ? ।।७।।
गोपियोंने कहा—धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत्के प्राणियोंको एक-दूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक कर देते हो; मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है ।।१९।। यह कितने दुःखकी बात है! विधाता! तुमने पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोतेकी चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा, जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है। विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है ।।२०।। हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक अंगमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ।।२१।।
अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है। देखो तो सही—इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदिको छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हींके लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखतेतक नहीं ।।२२।।
सखी! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मनमें आवे, करो!’ अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है ।।२७।। चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे? अरी सखी! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दनका संग छोड़नेमें असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्यने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है ।।२८।। सखियो! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिंगनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँ—जो बहुत विशाल थीं—एक क्षणके समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हुई अपार विरहव्यथाका पार कैसे पावेंगी ।।२९।। एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है, सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके खुरकी रजसे ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको बेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी? ।।३०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था। वे विरहकी सम्भावनासे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’—इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं ।।३१।।
एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः ।
विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं गोविन्द दामोदर माधवेति ।।३१
परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे ।।३८।। वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकत-मणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान् वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये ।।३९।। अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड (अनन्त—तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे ।।४०।। उस कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जलमें डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे। उसी समय जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं ।।४१।। अब उनके मनमें यह शंका हुई कि ‘वसुदेवजीके पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे आ गये? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा ।।४२।। वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी ।।४३।। परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं ।।४४।। शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है। कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो ।।४५।। अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोदमें श्याम मेघके समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं ।।४६।। उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नताका सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है ।।४७।। बाँहें घुटनोंतक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल लक्ष्मीजीका आश्रय-स्थान है। शंखके समान उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है ।।४८।।
स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सूँडके समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं। एड़ीके ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं। चरणकमलकी अंगुलियाँ और अंगूठे नयी और कोमल पँखुड़ियोंके समान सुशोभित हैं ।।४९-५०।। अत्यन्त बहुमूल्य मणियोंसे जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथमें पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शंख, चक्र और गदा, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है ।।५१-५२।। नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान्के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम ‘भगवान्’ समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष वेदवाणीसे भगवान्की स्तुति कर रहे हैं ।।५३-५४।। साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य—ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरंगा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं ।।५५।।
भगवान्की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्दसे लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया। प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये ।।५६।। अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान्के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे गद्गद स्वरसे भगवान्की स्तुति करने लगे ।।५७।।
अथ चत्वारिंशोऽध्यायः अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
अक्रूरजी बोले—प्रभो! आप प्रकृति आदि समस्त कारणोंके परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमलसे उन ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत्की सृष्टि की है। मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ।।१।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषय और उनके अधिष्ठातृदेवता—यही सब चराचर जगत् तथा उसके व्यवहारके कारण हैं और ये सब-के-सब आपके ही अंगस्वरूप हैं ।।२।। प्रकृति और प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले समस्त पदार्थ ‘इदंवृत्ति’ के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होनेके कारण जड हैं और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परन्तु वे प्रकृतिके गुण रजस्से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृतिका और उसके गुणोंसे परेका स्वरूप नहीं जानते ।।३।। साधु योगी स्वयं अपने अन्तःकरणमें स्थित ‘अन्तर्यामी’ के रूपमें, समस्त भूत-भौतिक पदार्थोंमें व्याप्त ‘परमात्माके’ रूपमें और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डलमें स्थित ‘इष्ट-देवता’ के रूपमें तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वरके रूपमें साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं ।।४।। बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्गका उपदेश करनेवाली त्रयीविद्याके द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं ।।५।। बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मोंका संन्यास कर देते हैं और शान्त-भावमें स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञके द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं ।।६।। और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांचरात्र आदि विधियोंसे तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूपकी पूजा करते हैं ।।७।। भगवन्! दूसरे लोग शिवजीके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे, जिसके आचार्य भेदसे अनेक अवान्तर भेद भी हैं, शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं ।।८।। स्वामिन्! जो लोग दूसरे देवताओंकी भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तवमें आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओंके रूपमें हैं और सर्वेश्वर भी हैं ।।९।। प्रभो! जैसे पर्वतोंसे सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षाके जलसे भरकर घूमती-घामती समुद्रमें प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकारके उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ।।१०।।
प्रभो! आपकी प्रकृतिके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रोंसे ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृतिके उन गुणोंसे ही ओतप्रोत हैं ।।११।। परन्तु आप सर्वस्वरूप होनेपर भी उनके साथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निर्लिप्त है, क्योंकि आप समस्त वृत्तियोंके साक्षी हैं। यह गुणोंके प्रवाहसे होनेवाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियोंमें व्याप्त है; परन्तु आप उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।१२।। अग्नि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकाश नाभि है। दिशाएँ कान हैं। स्वर्ग सिर है। देवेन्द्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्तिके रूपमें उपासनाके लिये कल्पित हुई है ।।१३।। वृक्ष और ओषधियाँ रोम हैं। मेघ सिरके केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकोंका खोलना और मींचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है ।।१४।।
अविनाशी भगवन्! जैसे जलमें बहुत-से जलचर जीव और गूलरके फलोंमें नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासनाके लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूपमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तुओंसे भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं ।।१५।। प्रभो! आप क्रीडा करनेके लिये पृथ्वीपर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगोंके शोक-मोहको धो-बहा देते हैं; और फिर सब लोग बड़े आनन्दसे आपके निर्मल यशका गान करते हैं ।।१६।।
प्रभो! आपने वेदों, ऋषियों, ओषधियों और सत्यव्रत आदिकी रक्षा-दीक्षाके लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलयके समुद्रमें स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नामके असुरोंका संहार करनेके लिये हयग्रीव अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको भी नमस्कार करता हूँ ।।१७।।
आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचलको धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।आपने ही पृथ्वीके उद्धारकी लीला करनेके लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरा बार-बार नमस्कार ।।१८।।
प्रह्लाद-जैसे साधुजनोंका भय मिटानेवाले प्रभो! आपके उस अलौकिक नृसिंह-रूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ ।।१९।। धर्मका उल्लंघन करनेवाले घमंडी क्षत्रियोंके वनका छेदन कर देनेके लिये आपने भृगुपति परशुरामरूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको नमस्कार करता हूँ। रावणका नाश करनेके लिये आपने रघुवंशमें भगवान् रामके रूपसे अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।२०।। वैष्णवजनों तथा यदु-वंशियोंका पालन-पोषण करनेके लिये आपने ही अपनेको वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इस चतुर्व्यूहके रूपमें प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।२१।।
दैत्य और दानवोंको मोहित करनेके लिये आप शुद्ध अहिंसा-मार्गके प्रवर्तक बुद्धका रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वीके क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायँगे तब उनका नाश करनेके लिये आप ही कल्किके रूपमें अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।२२।।
भगवन्! ये सब-के-सब जीव आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं और इस मोहके कारण ही ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ इस झूठे दुराग्रहमें फँसकर कर्मके मार्गोंमें भटक रहे हैं ।।२३।। मेरे स्वामी! इसी प्रकार मैं भी स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन-स्वजन आदिको सत्य समझकर उन्हींके मोहमें फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ।।२४।। मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो! मैंने अनित्य वस्तुओंको नित्य, अनात्माको आत्मा और दुःखको सुख समझ लिया। भला, इस उलटी बुद्धिकी भी कोई सीमा है! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ।।२५।। जैसे कोई अनजान मनुष्य जलके लिये तालाबपर जाय और उसे उसीसे पैदा हुए सिवार आदि घासोंसे ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्यकी किरणोंमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले जलके लिये मृगतृष्णाकी ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही मायासे छिपे रहनेके कारण आपको छोड़कर विषयोंमें सुखकी आशासे भटक रहा हूँ ।।२६।। मैं अविनाशी अक्षर वस्तुके ज्ञानसे रहित हूँ। इसीसे मेरे मनमें अनेक वस्तुओंकी कामना और उनके लिये कर्म करनेके संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मनको मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मनको मैं रोक नहीं पाता ।।२७।। इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरण-कमलोंकी छत्रछायामें आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं। मेरे स्वामी! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ! जब जीवके संसारसे मुक्त होनेका समय आता है, तब सत्पुरुषोंकी उपासनासे चित्तवृत्ति आपमें लगती है ।।२८।। प्रभो! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञान-घन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीवके रूपमें एवं जीवोंके सुख-दुःख आदिके निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी हैं। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।२९।। प्रभो! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवोंके आश्रय (संकर्षण) हैं; तथा आप ही बुद्धि और मनके अधिष्ठातृ-देवता हृषीकेश (प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ।।३०।।
हे प्रभु, दिन भर चित्त में एक अजीब सा खालीपन और अजीब सा भावनाओं का अभाव रहा। भागवत पढ़ते समय भी गोपियों का विरह और तुम्हारी निर्ममता यही सिद्ध कर रही है कि तुम्हारी लाडली तुम पर ही गई है। गोपियों का विरह, मेरी खुद की याद दिला रहा था पर रोने में भी कुछ अजीब सा अधूरापन था। तुरहरि अक्रूरजी की कृपा और उनकी द्वारी की स्तुति से आनंद से अश्रु भी बाईं आंख से बहचले चले पर दाईं आंख इकदम सुखी थी। अच्छा हुआ नहीं तो राइट साइड पापा बैठे थे देख के परेशान हो जाते। प्रभु कह ले जा रहे हो क्या करना चाहते हो कुछ समझ नहीं आ रहा!
प्रभु, सबका कल्याण करो। मेरी सखी और हमारे माता-पिता हा स्वस्थ सही रखना।
प्रभु, भागवत में बार-बार लिखा है कि मैं और मेरा तो तुम्हारी माया है, क्या तुम भी मेरे नहीं हो। मेरे रूप में अपनी प्रकृति की भावनाएँ कम से कम तुम तो समझते हो ना!
सपने में और दिन भर संसार की समस्याओं का समाधान करता रहा, प्रभु मेरे जीवन की गुत्थियाँ तुम कब सुलझाओगे?
ओ, पालनहारे, निर्गुण और न्यारे तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं
हमरी उलझन कब सुलझाओगे भगवन तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं
जय सियाराम
March 18, 2025
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः । सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
आज एक सपने में माता वैष्णोदेवी के दरबार में था और टीवी पर देखी हुई माता की मूर्तियों को ढूंढ रहा था। अगले में जब उठा तो पॉकेट में पत्र था कि मेरा समय खत्म हो गया है और अपने प्रियजानो से मिलने के लिए एक दिन अतिरिक्त दिया गया है। मीनू के पास मेरी बात सुनने के लिए समय नहीं या, अंकलजी ने ब्लॉक कर रखा या। मम्मी पापा के साथ समय बिताया।
कहीं से हलचल नहीं मिल रहा। शुभम् के रील में किसी की फोटो तो नहीं थी, पर शायरी पढ़ कर अपने को कुछ शांत कर लिया कि सब कुछ कुशल ही होगा।
प्रभु तुम्हारी कृपा से ऐसा ही होगा ना? एक बार कहदो जैसा सुदामा जी को कहा था।
March 18, 2025
अथैकचत्वारिंशोऽध्यायः श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अक्रूरजी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे। उन्हें भगवान् श्रीकृष्णने जलमें अपने दिव्यरूपके दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनयमें कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदेकी ओटमें छिपा दे ।।१।। जब अक्रूरजीने देखा कि भगवान्का वह दिव्यरूप अन्तर्धान हो गया, तब वे जलसे बाहर निकल आये और फिर जल्दी-जल्दी सारे आवश्यक कर्म समाप्त करके रथपर चले आये। उस समय वे बहुत ही विस्मित हो रहे थे ।।२।। भगवान् श्रीकृष्णने उनसे पूछा—‘चाचाजी! आपने पृथ्वी, आकाश या जलमें कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या? क्योंकि आपकी आकृति देखनेसे ऐसा ही जान पड़ता है’ ।।३।।
अक्रूरजीने कहा—‘प्रभो! पृथ्वी, आकाश या जलमें और सारे जगत्में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं, वे सब आपमें ही हैं। क्योंकि आप विश्वरूप हैं। जब मैं आपको ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो ।।४।। भगवन्! जितनी भी अद्भुत वस्तुएँ हैं, वे पृथ्वीमें हों या जल अथवा आकाशमें—सब-की-सब जिनमें हैं, उन्हीं आपको मैं देख रहा हूँ! फिर भला, मैंने यहाँ अद्भुत वस्तु कौन-सी देखी? ।।५।। गान्दिनी-नन्दन अक्रूरजीने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीको लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे ।।६।। परीक्षित्! मार्गमें स्थान-स्थानपर गाँवोंके लोग मिलनेके लिये आते और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीको देखकर आनन्द-मग्न हो जाते। वे एकटक उनकी ओर देखने लगते, अपनी दृष्टि हटा न पाते ।।७।। उनके पास पहुँचकर जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णने विनीतभावसे खड़े अक्रूरजीका हाथ अपने हाथमें लेकर मुसकराते हुए कहा— ।।९।। ‘चाचाजी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरीमें प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये। हमलोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखनेके लिये आयेंगे’ ।।१०।।
अक्रूरजीने कहा—प्रभो! आप दोनोंके बिना मैं मथुरामें नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूँ! भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोड़िये ।।११।। भगवन्! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद् भगवन्! आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्दरायजी आदि आत्मीयोंके साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये ।।१२।। हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणोंकी धूलिसे हमारा घर पवित्र कीजिये। आपके चरणोंकी धोवन (गंगाजल या चरणामृत) से अग्नि, देवता, पितर—सब-के-सब तृप्त हो जाते हैं ।।१३।। प्रभो! आपके युगल चरणोंको पखारकर महात्मा बलिने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान सन्त पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहीं—उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी भक्तोंको प्राप्त होती है ।।१४।। आपके चरणोदक—गंगाजीने तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान्, पवित्रता हैं। उन्हींके स्पर्शसे सगरके पुत्रोंको सद्गति प्राप्त हुई और उसी जलको स्वयं भगवान् शंकरने अपने सिरपर धारण किया ।।१५।। यदुवंशशिरोमणे! आप देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। जगत्के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओंका श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणोंका कीर्तन करते रहते हैं। नारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।१६।।
श्रीभगवान्ने कहा—चाचाजी! मैं दाऊ भैयाके साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियोंके द्रोही कंसको मारकर तब अपने सभी सुहृद्-स्वजनोंका प्रिय करूँगा ।।१७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्के इस प्रकार कहनेपर अक्रूरजी कुछ अनमने-से हो गये। उन्होंने पुरीमें प्रवेश करके कंससे श्रीकृष्ण और बलरामके ले आनेका समाचार निवेदन किया और फिर अपने घर गये ।।१८।। दूसरे दिन तीसरे पहर बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ भगवान् श्रीकृष्णने मथुरापुरीको देखनेके लिये नगरमें प्रवेश किया ।।१९।।
मथुराकी स्त्रियाँ बहुत दिनोंसे भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त चिरकालसे श्रीकृष्णके लिये चंचल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान् श्रीकृष्णने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुसकानकी सुधासे सींचकर उनका सम्मान किया। परीक्षित्! उन स्त्रियोंने नेत्रोंके द्वारा भगवान्को अपने हृदयमें ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूपका आलिंगन किया। उनका शरीर पुलकित हो गया और बहुत दिनोंकी विरह-व्याधि शान्त हो गयी ।।२८।। मथुराकी नारियाँ अपने-अपने महलोंकी अटारियोंपर चढ़कर बलराम और श्रीकृष्णपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं। उस समय उन स्त्रियोंके मुखकमल प्रेमके आवेगसे खिल रहे थे ।।२९।। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंने स्थान-स्थानपर दही, अक्षत, जलसे भरे पात्र, फूलोंके हार, चन्दन और भेंटकी सामग्रियोंसे आनन्दमग्न होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीकी पूजा की ।।३०।। भगवान्को देखकर सभी पुरवासी आपसमें कहने लगे—‘धन्य है! धन्य है!’ गोपियोंने ऐसी कौन-सी महान् तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्रको परमानन्द देनेवाले इन दोनों मनोहर किशोरोंको देखती रहती हैं ।।३१।।
आप संसारके अभ्युदय-उन्नति और निःश्रेयस—मोक्षके लिये ही इस पृथ्वीपर अपने ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ अवतीर्ण हुए हैं ।।४६।। यद्यपि आप प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं, भजन करनेवालोंको ही भजते हैं—फिर भी आपकी दृष्टिमें विषमता नहीं है। क्योंकि आप सारे जगत्के परम सुहृद् और आत्मा हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें समरूपसे स्थित हैं ।।४७।।
सुदामा मालीने उनसे यही वर माँगा कि ‘प्रभो! आप ही समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। सर्वस्वरूप आपके चरणोंमें मेरी अविचल भक्ति हो। आपके भक्तोंसे मेरा सौहार्द, मैत्रीका सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियोंके प्रति अहैतुक दयाका भाव बना रहे’ ।।५१।।
अथ द्विचत्वारिंशोऽध्यायः कुब्जापर कृपा, धनुषभंग और कंसकी घबड़ाहट
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डलीके साथ राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे उसका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’। वह अपने हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए उससे पूछा— ।।१।। ‘सुन्दरी! तुम कौन हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो? कल्याणि! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा’ ।।२।।
उबटन आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा—‘परम सुन्दर! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगानेका काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंसको बहुत भाते हैं। परन्तु आप दोनोंसे बढ़कर उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है’ ।।३।। भगवान्के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया। उसने भगवान्पर अपना हृदय न्योछावर कर दिया। उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया ।।४।।
तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका अंगराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरंजित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए ।।५।।
उन्होंने अपने दर्शनका प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी करनेका विचार किया ।।६।। भगवान्ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगुलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक उचका दिया ।।७।। उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्तिके दाता भगवान्के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम युवती बन गयी ।।८।।
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुष-यज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा ।।१५।। उस धनुषमें बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लिया ।।१६।। उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है ।।१७।। जब धनुष टूटा तब उसके शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया ।।१८।। उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया ।।२०।। उन्हीं धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला। जब कंसने सुना कि श्रीकृष्ण और बलरामने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायताके लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था—इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी ।।२६।। तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी। वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी ।।३१।।
पकड़ लो बांह अब मैया नहीं तो डुब जायेंगे।
March 19, 2025
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि ।।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ।।
March 19, 2025
अथ त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—काम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रंगभूमि देखनेके लिये चल पड़े ।।१।। भगवान् श्रीकृष्णने रंग-भूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड नामका हाथी खड़ा है ।।२।। भगवान् श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडको अंकुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ।।५।।
कुवलयापीडने भगवान्की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परन्तु भगवान् सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ।।६।। भगवान् मधुसूदनने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकड़कर उसे धरतीपर पटक दिया ।।१३।। उसके गिर जानेपर भगवान्ने सिंहके समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतोंका काम तमाम कर दिया ।।१४।।
परीक्षित्! मरे हुए हाथीको छोड़कर भगवान् श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ।।१५।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडके बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ।।१६।। जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद्भुत, शृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ।।१७।। श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लम्बी-लम्बी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उसका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ।।१९।। परीक्षित्! मंचोंपर जितने लोग बैठे थे—वे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे। उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ।।२०।। उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ।।२२।। ‘ये दोनों साक्षात् भगवान् नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ।।२३।।
[अँगुलीसे दिखलाकर] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ।।२४।। इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शंखचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ।।२५।। इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ।।२६।। इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ।।२७।। ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है’ ।।३०।।
अथ चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने चाणूर आदिके वधका निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बद दिये जानेपर श्रीकृष्ण चाणूरसे और बलरामजी मुष्टिकसे जा भिड़े ।।१।। वे लोग एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैरोंमें पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे ।।२।। वे पंजोंसे पंजे, घुटनोंसे घुटने, माथेसे माथा और छातीसे छाती भिड़ाकर एक-दूसरेपर चोट करने लगे ।।३।।
परीक्षित्! इस दंगलको देखनेके लिये नगरकी बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपसमें बातचीत करने लगीं— ‘यहाँ राजा कंसके सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेदकी बात है कि राजाके सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकोंके युद्धका अनुमोदन करते हैं ।।७।। देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान् पुरुषको सभासदोंके दोषोंको जानते हुए सभामें जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणोंको कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना—ये तीनों ही बातें मनुष्यको दोषभागी बनाती हैं ।।१०।। सखी! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्यके वेषमें छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान् शंकर और लक्ष्मीजी जिनके चरणोंकी पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पोंकी माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजीके साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते हुए आनन्दसे विचरते हैं ।।१३।। सखी! व्रजकी गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्णमें ही चित्त लगा रहनेके कारण प्रेमभरे हृदयसे, आँसुओंके कारण गद्गद कण्ठसे वे इन्हींकी लीलाओंका गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकोंको झूला झुलाते, रोते हुए बालकोंको चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरोंको झाड़ते-बुहारते—कहाँतक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्णके गुणोंके गानमें ही मस्त रहती हैं ।।१५।। भगवान्के अंग-प्रत्यंग वज्रसे भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़से चाणूरकी रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके शरीरके सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई ।।२०।। उन्होंने चाणूरकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अन्तरिक्षमें बड़े वेगसे कई बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परीक्षित्! चाणूरके प्राण तो घुमानेके समय ही निकल गये थे।
जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचानेके लिये स्वयं वहाँसे भाग खड़े हुए ।।२८।। उनके भाग जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वाल-बालोंको खींच-खींचकर उनके साथ भिड़ने और नाच-नाचकर भेरीध्वनिके साथ अपने नूपुरोंकी झनकारको मिलाकर मल्लक्रीडा—कुश्तीके खेल करने लगे ।।२९।।
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी इस अद्रभुत लीलाको देखकर सभी दर्शकोंको बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है’—इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे।
कंस इस प्रकार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्तीसे वेगपूर्वक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मंचपर जा चढ़े ।।३४।। जब मनस्वी कंसने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान् श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासनसे उठ खड़ा हुआ और हाथमें ढाल तथा तलवार उठा ली ।।३५।। हाथमें तलवार लेकर वह चोट करनेका अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाशमें उड़ते हुए बाजके समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परन्तु भगवान्का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया ।।३६।। इसी समय कंसका मुकुट गिर गया और भगवान्ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंचसे रंगभूमिमें गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्वके आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े ।।३७।। उनके कूदते ही कंसकी मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण कंसकी लाशको धरतीपर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथीको घसीटे। नरेन्द्र! उस समय सबके मुँहसे ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ।।३८।। कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहटके साथ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथमें लिये भगवान् श्रीकृष्णको ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तनके फलस्वरूप—वह चाहे द्वेषभावसे ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान्के उसी रूपकी प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियोंके लिये भी कठिन है ।।३९।।
उस समय आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्दसे पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ।।४२।। महाराज! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं ।।४३।। वीरशय्यापर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ।।४४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियोंको ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ।।४९।। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बल-रामजीने जेलमें जाकर अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की ।।५०।।
किंतु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गयी कि हम जगदीश्वरको पुत्र कैसे समझें ।।५१।।
प्रभु, सबका ध्यान तो रख रहे हो ना। प्रभु में मीनू के कल्याण के लिए प्रार्थना करता हूं, अपनी लाडली को अपने हृदय से लगाएंगे रहना पर अंकलजी की तरह लाड प्यार से बिगड मत देना।
मैं कब मेरी सखी के साथ तुम्हारे वृंदावन की पवित्र धरती पर विहार करूंगा, खेलूंगा? कृष्ण मेरे कृष्ण, हमारा भी चित कुरलो ना!
मेरे तो आधार श्री कृष्ण के चरणारविंद
मेरे तो आधार श्री वल्लभ के चरणारविंद
श्री विठ्ठल के चरणारविंद
मेरे माथे को श्रृंगार श्री वल्लभ के चरणारविंद
मेरे गले को हार श्री वल्लभ के चरणारविंद
March 20, 2025
नाच्यौ बहुत गोपाल, अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल।
हे प्रभु, और कितना नाचो गे। रात भर पता नहीं कितनी बार जागता और सपनों में भटकता रहा। एक में अंकलजी घर आये और फिर मेरी भावनाएं नहीं समझी, थोड़ी देर बाद मीनू आई और वो भी नहीं समझी। बाकी मैं किसी आधुनिक दुनिया में भटक रहा हूं। पता नहीं हमें किस माया ने फंसाया है ना किसी को मेरी भावनाएँ समझ आती हैं और ना मुझे सबकी बाते।रात से अजीब सा सर में भारीपन है, कुछ समझ नहीं आ रहा प्रभु कह जा रहा है!
हमारा तो आधार श्री कृष्ण के चरणारविंद। हे राम, हमारी नइया कब पार लगाओ गे?
हे प्रभु, क्या मैं इतना नालायक हूं कि मीनू ने मेरे बारे में विचार करने से भी मन कर दिया और सत्य भी ना कह सकी। माँ भी उस दिन मीनू से बात करने के बाद जब मैं रो रहा था, तो मीनू का समर्थन करते हुए कह रही थी, अपने लिए कोई तेज तरार लड़का चुना होगा ना कि मेरे जैसा। मैं इतना अयोग्य हूं तो मां क्यों मेरी शादी के पीछे पड़ी है, क्यू किसी लड़की का जीवन बर्बाद करना चाहता है?
March 20, 2025
अथ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका, मेरे भगवद्भावका ज्ञान हो गया है, परंतु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका सुख नहीं पा सकेंगे—) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें सहायक होती है ।।१।। यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे— ।।२।। ‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोर-अवस्थाका सुख हमसे नहीं पा सके ।।३।। दुर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला। इसीसे बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका ।।४।। पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता ।।५।। जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं ।।६।। जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करता—वह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है! ।।७।। पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंसके भयसे सदा उद्विग्नचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करनेमें असमर्थ रहे ।।८।। मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके’ ।।९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया ।।१०।। राजन्! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे। यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुँध जानेसे वे कुछ बोल भी न सके ।।११।।
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया ।।१२।। और उनसे कहा—‘महाराज! हम आपकी प्रजा हैं। आप हमलोगोंपर शासन कीजिये। राजा ययातिका शाप होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा ।।१३।। जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’
प्रिय परीक्षित्! अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे— ।।२०।। ‘पिताजी! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलारसे हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीरसे भी अधिक स्नेह करते हैं ।।२१।। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियोंने त्याग दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं ।।२२।। पिताजी! अब आपलोग व्रजमें जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण आपलोगोंको बहुत दुःख होगा। यहाँके सुहृद्-सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे मिलनेके लिये आयेंगे’ ।।२३।। भगवान्की बात सुनकर नन्द-बाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया ।।२५।।
हे राजन्! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोरवीत संस्कार करवाया ।।२६।। इस प्रकार यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्वको प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमतः स्वीकार किया ।।२९।। श्रीकृष्ण और बलराम जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हींसे निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था ।।३०।।
अब वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये, जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे ।।३१।। वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजीके पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान उनकी सेवा करने लगे ।।३२।। गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अंग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी शिक्षा दी ।।३३।। इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रय—इन छः भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया ।।३४।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं ।।३५।। केवल चौंसठ दिन-रातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका* ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरू-दक्षिणा माँग लें’ ।।३६।। महाराज! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि ‘प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था, उसे तुमलोग ला दो’ ।।३७।।
बलरामजी और श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये। वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ ।।३८।।
भगवान्ने समुद्रसे कहा—‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो’ ।।३९।।
मनुष्यवेषधारी समुद्रने कहा—‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालकको नहीं लिया है। मेरे जलमें पंचजन नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शंखके रूपमें रहता है। अवश्य ही उसीने वह बालक चुरा लिया होगा’ ।।४०।। समुद्रकी बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जलमें जा घुसे और शंखासुरको मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेटमें नहीं मिला ।।४१।। तब उसके शरीरका शंख लेकर भगवान् रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने यमराजकी प्रिय पुरी संयमनीमें जाकर अपना शंख बजाया। शंखका शब्द सुनकर सारी प्रजाका शासन करनेवाले यमराजने उनका स्वागत किया और भक्तिभावसे भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रतासे झुककर समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान सच्चिदानन्द-खरूप भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘लीलासे ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनोंकी क्या सेवा करूँ?’ ।।४२—४४।।
श्रीभगवान्ने कहा—‘यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ।।४५।। यमराजने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें’ ।।४६।।
गुरुजीने कहा—‘बेटा! फिर गुरुजीसेभलीभाँति गुरुदक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमोंका गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है? ।।४७।। वीरो! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो’ ।।४८।। बेटा परीक्षित्! फिर गुरुजीसे आज्ञा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये ।।४९।। मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त दुःखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ।।५०।।
March 21, 2025
सुने री मैंने निरबल के बल राम । पिछली साख भरूँ संतन की, आइ सँवारे काम ।।
जब लगि गज बल अपनो बरत्यो, नेक सर्यो नहिं काम । निरबल ह्वै हरि नाम पुकार्यो, आये आधे नाम ।।
द्रुपद-सुता निरबल भई ता दिन, तजि आये निज धाम । दुःशासन की भुजा थकित भई, बसन रूप भये स्याम ।।
अप-बल, तप-बल और बाहु बल, चौथो है बल दाम । ‘सूर’ किसोर कृपा तें सब बल, हारे को हरि नाम ।।
हे प्रभु, पिछले कुछ दिनों से सुबह उठ के अजीब सा शक्तिहीनता लगती है। आज भी सपने में मीनू मेरी बात सुने बिना ना करके चली गई और मैं रोता रहा। मम्मी पापा के साथ किसी पार्वतीय क्षेत्र में घूम रहा था। माँ ने शादी की बात कही तो गुस्से में एक झील में कयाक में बैठ कर चला गया। दूसरे किनारे पोहचा तो कयाक वाले की पूछ की कयाक कहा है तो गायब थी और एक टुकड़ा दूसरे किनारे पड़ा था। कयाक की हालत देख लोग मगरमच्छ को ढूंढने लगे।
March 21, 2025
आज दिन भर ऑफिस में किसीना किसी समस्या का समाधान करता रहा हूं। तुम्हारी कृपा से ऑफिस की समस्याओं का जवाब मिल जाता है, पर मेरे जीवन के प्रश्न जो मेरे दिल से लगे हैं, उनके उत्तर कब दोगे? अपने को संभालना मुश्किल है, मम्मी पापा की सेहत का तो ख्याल रखो। पता नहीं अंकलजी, आंटीजी कैसी हैं? किसी का हाल नहीं मिल रहा. मीनू बड़ी बड़ी बाते करती है और हाल चल देने से भी मन कर दिया। तुम भी कोई आश्वासन नहीं देते!
अथ षट्चत्वारिंशोऽध्यायः उद्धवजीकी व्रजयात्रा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उद्धवजी वृष्णिवंशियोंमें एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् बृहस्पतिजीके शिष्य और परम बुद्धिमान् थे। उनकी महिमाके सम्बन्धमें इससे बढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे ।।१।। एक दिन शरणागतोंके सारे दुःख हर लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा— ।।२।। ‘सौम्यस्वभाव उद्धव! तुम व्रजमें जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरहकी व्याधिसे बहुत ही दुःखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदनासे मुक्त करो ।।३।।
प्यारे उद्धव! गोपियोंका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धिसे भी मुझीको अपना प्यारा, अपना प्रियतम—नहीं, नहीं; अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोंको छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ ।।४।।
प्रिय उद्धव! मैं उन गोपियोंका परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरहकी व्यथासे विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं ।।५।। मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्नसे अपने प्राणोंको किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवनका आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं’ ।।६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदरसे अपने स्वामीका सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और नन्दगाँवके लिये चल पड़े ।।७।। गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनोंसे सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके मंगलमय चरित्रोंका गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रजकी शोभा और भी बढ़ गयी थी ।।११।।
जब भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रजमें आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजीको गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हों ।।१४।। समयपर उत्तम अन्नका भोजन कराया और जब वे आरामसे पलँगपर बैठ गये, सेवकोंने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी ।।१५।। तब नन्दबाबाने उनसे पूछा—‘परम भाग्यवान् उद्धवजी! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेलसे छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशलसे तो हैं न? ।।१६।। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अपने पापोंके फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। क्योंकि स्वभावसे ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियोंसे वह सदा द्वेष करता था ।।१७।। अच्छा उद्धवजी! श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी भी याद करते हैं? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हींको अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हींकी गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं? ।।१८।।
आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुहृद्-बान्धवोंको देखनेके लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवनसे युक्त मुखकमल देख तो लेते ।।१९।। उद्धवजी! श्रीकृष्णका हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्युके निमित्तोंसे—जिन्हें टालनेका कोई उपाय न था—एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है ।।२०।। उद्धवजी! हम श्रीकृष्णके विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदिका स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता ।।२१।। जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथपर उठा लिया था; ये वे ही वनके प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओंके साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है ।।२२।। इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओंका कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान् गर्गाचार्यजीने मुझसे ऐसा ही कहा था ।।२३।। जैसे सिंह बिना किसी परिश्रमके पशुओंको मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेलमें ही दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडाको मार डाला ।।२४।। उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ीको तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्णने एक हाथसे सात दिनोंतक गिरिराजको उठाये रखा था ।।२५।।
यहीं सबके देखते-देखते खेल-खेलमें उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्योंको मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरोंपर विजय प्राप्त कर ली थी’ ।।२६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबाका हृदय यों ही भगवान् श्रीकृष्णके अनुराग-रंगमें रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओंका एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेमकी बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलनेकी अत्यन्त उत्कण्ठा होनेके कारण उनका गला रुँध गया। वे चुप हो गये ।।२७।। यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबाकी बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्णकी एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रोंसे आँसू बहते जाते थे और पुत्रस्नेहकी बाढ़से उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहती जा रही थी ।।२८।। उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानीके हृदयमें श्रीकृष्णके प्रति कैसा अगाध अनुराग है—यह देखकर आनन्दमग्न हो गये और उनसे कहने लगे ।।२९।।
उद्धवजीने कहा—हे मानद! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियोंमें अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत्के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदयमें ऐसा वात्सल्यस्नेह—पुत्रभाव है ।।३०।। बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसारके उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान् श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरोंमें प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं ।।३१।। जो जीव मृत्युके समय अपने शुद्ध मनको एक क्षणके लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओंको धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगतिको प्राप्त होता है ।।३२।।
वे भगवान् ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनोंका ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है; फिर महात्माओ! आप दोनोंके लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है ।।३३।। भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनोंमें व्रजमें आयेंगे और आप दोनोंको—अपने माँ-बापको आनन्दित करेंगे ।।३४।। जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियोंके द्रोही कंसको रंगभूमिमें मार डाला और आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रजमें आऊँगा’ उस कथनको वे सत्य करेंगे ।।३५।। नन्दबाबा और माता यशोदाजी! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्णको अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठमें अग्नि सदा ही व्यापक रूपसे रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वदा विराजमान रहते हैं ।।३६।। एक शरीरके प्रति अभिमान न होनेके कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टिमें न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँतक कि विषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम नहीं है ।।३७।। न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही ।।३८।। इस लोकमें उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओंके परित्राणके लिये, लीला करनेके लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियोंमें शरीर धारण करते हैं ।।३९।। भगवान् अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व, रज आदिमेंसे एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणोंसे अतीत होनेपर भी लीलाके लिये खेल-खेलमें वे सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं ।।४०।। जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेगसे चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त ही है; परन्तु उस चित्तमें अहंबुद्धि हो जानेके कारण, भ्रमवश उसे आत्मा—अपना ‘मैं’ समझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कर्ता समझने लगता है ।।४१।। भगवान् श्रीकृष्ण केवल आप दोनोंके ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियोंके आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं ।।४२।। बाबा! जो कुछ देखा या सुना जाता है—वह चाहे भूतसे सम्बन्ध रखता हो, वर्तमानसे अथवा भविष्यसे; स्थावर हो या जंगम हो, महान् हो अथवा अल्प हो—ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान् श्रीकृष्णसे पृथक् हो। बाबा! श्रीकृष्णके अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तवमें सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं ।।४३।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपसमें बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहनेपर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घरकी देहलियोंपर वास्तुदेवका पूजन किया, अपने घरोंको झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथने लगीं ।।४४।।
उस समय गोपियाँ—कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके मंगलमय चरित्रोंका गान कर रही थीं। उनका वह संगीत दही मथनेकी ध्वनिसे मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोकतक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओंका अमंगल मिटा देती है ।।४६।।
प्रभु, जितना तुम्हारे बारे में पढ़ता हूं, तुम्हारी लाडली में तुम्हारे ही कृष्ण लीला अवतार के गुण दिखते हैं। अंकलजी से नहीं तुमसे सीखा है. मेरे निर्मोही आत्मा, तुम्हारी ही तरह बातें के जाल में फंसने में माहिर है। तुम्हारी ही तारा दिल भी तोड़ती है और भूल जाने को कह कर, अपने जीवन भर के पछतावे की बात करती है। वाह रे मेरे साधु बाप बेटी, मेरे दिल को दोनों फुटबॉल की तरह खेल लो!
वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त तुम ही तो हो। सब के चित्त के नटवर-नगर, तुम ही जानो काया कार रहो हो। तुम्हारी कृपा के बिना, अहंबुद्धि तुम्हारी हम आत्म भ्रमवश अहंकार में से कैसे निकल सकते हैं। तुम्ही करो अपने सबका कल्याण, मैं तुम ही तुम से प्रार्थना कर रहरू।खुद ही मान जाओ ना!
March 22, 2025
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् | हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||१||
मैया श्यामसुन्दर, मैया मोहिनी, मैया राम, अपनी लाडली का ध्यान रख रहे हो ना? कुछ पता नहीं चल रहा।सबको अपने आँचल की छाया में रसखाना।मेरी प्यारी मैया, तुम्हारा ही सहारा है।
जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय! भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय।
आज सपने में मीनू घर में थी पर मां ने घर के कमो में फंसा लिया था। मोबाइल में कॉल आया था तो मेरे पास लेके आई, मैंने बात करने की कोशिश की पर मोबाइल पकड़ा कर चली गई। सपने में भी मेरी सखी से बात नहीं कर पाया।
March 22, 2025
अथ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान् श्रीकृष्णका सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनयसे झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदिसे उद्धवजीका अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्तमें आसनपर बैठाकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगीं— ।।३।। ‘उद्धवजी! हम जानती हैं कि आप यदुनाथके पार्षद हैं। उन्हींका संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके स्वामीने अपने माता-पिताको सुख देनेके लिये आपको यहाँ भेजा है ।।४।।
परीक्षित्! गोपियोंके मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्णमें ही तल्लीन थे। जब भगवान् श्रीकृष्णके दूत बनकर उद्धवजी व्रजमें आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते यह भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णने बचपनसे लेकर किशोर-अवस्थातक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जाको भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं ।।९-१०।।
एक गोपीको उस समय स्मरण हो रहा था भगवान् श्रीकृष्णके मिलनकी लीलाका। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्णने मनानेके लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरेसे इस प्रकार कहने लगी— ।।११।।
गोपीने कहा—रे मधुप! तू कपटीका सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरोंको मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्णकी जो वनमाला हमारी सौतोंके वक्षःस्थलके स्पर्शसे मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी मूछोंपर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुमसे प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू! मधुपति श्रीकृष्ण मथुराकी मानिनी नायिकाओंको मनाया करें, उनका वह कुंकुमरूप कृपा-प्रसाद, जो युदवंशियोंकी सभामें उपहास करनेयोग्य है, अपने ही पास रखें। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजनेकी क्या आवश्यकता है? ।।१२।। जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पोंका रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बार—हाँ, ऐसा ही लगता है—केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियोंको छोड़कर वे यहाँसे चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरण-कमलोंकी सेवा कैसे करती रहती हैं! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्णकी चिकनी-चुपड़ी बातोंमें आ गयी होंगी। चितचोरने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ।।१३।।
अरे भ्रमर! हम वनवासिनी हैं। हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हमलोगोंके सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णका बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है? यह सब भला हमलोगोंको मनानेके लिये ही तो? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिलकुल पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँसे चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्णकी मधुपुरवासिनी सखियोंके सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके हृदयकी पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसीसे प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगी वस्तु देंगी ।।१४।। भौंरे! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौंहोंके इशारेसे जो वशमें न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवें—ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं? अरे अनजान! स्वर्गमें, पातालमें और पृथ्वीमें ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरजकी सेवा किया करती हैं। फिर हम श्रीकृष्णके लिये किस गिनतीमें हैं? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि ‘तुम्हारा नाम तो ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्तिका गान करते हैं; परन्तु इसकी सार्थकता तो इसीमें है कि तुम दीनोंपर दया करो। नहीं तो श्रीकृष्ण! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़ जाता है ।।१५।। अरे मधुकर! देख, तू मेरे पैरपर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करनेमें, क्षमा-याचना करनेमें बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्णसे ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुएको मनानेके लिये दूतको—सन्देश-वाहकको कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये। परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेकी। देख, हमने श्रीकृष्णके लिये ही अपने पति, पुत्र और दूसरे लोगोंको छोड़ दिया। परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोड़कर चलते बने! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञके साथ हम क्या सन्धि करें? क्या तू अब भी कहता है कि उनपर विश्वास करना चाहिये? ।।१६।।
ऐ रे मधुप! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालिको व्याधके समान छिपकर बड़ी निर्दयतासे मारा था। बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु उन्होंने अपनी स्त्रीके वश होकर उस बेचारीके नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राह्मणके घर वामनके रूपमें जन्म लेकर उन्होंने क्या किया? बलिने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाशसे बाँधकर पातालमें डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवालेको अपने अन्य साथियोंके साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है। अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्णसे क्या, किसी भी काली वस्तुके साथ मित्रतासे कोई प्रयोजन नहीं है। परन्तु यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों करती हो?’ तो भ्रमर! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशामें हम चाहनेपर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं ।।१७।। श्रीकृष्णकी लीलारूप कर्णामृतके एक कणका भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं। यहाँतक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय—दुःखसे सनी हुई घर-गृहस्थी छोड़कर अकिंचन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियोंकी तरह चुन-चुनकर—भीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन-दुनियासे जाते रहते हैं। फिर भी श्रीकृष्णकी लीलाकथा छोड़ नहीं पाते। वास्तवमें उसका रस, उसका चसका ऐसा ही है। यही दशा हमारी हो रही है ।।१८।। जैसे कृष्णसार मृगकी पत्नी भोली-भाली हरिनियाँ व्याधके सुमधुर गानका विश्वास कर लेती हैं और उसके जालमें फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्णकी कपटभरी मीठी-मीठी बातोंमें आकर उन्हें सत्यके समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्शसे होनेवाली कामव्याधिका बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्णके दूत भौंरे! अब इस विषयमें तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ।।१९।।
हमारे प्रियतमके प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतमने मनानेके लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तुम सब प्रकारसे हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या? प्यारे भ्रमर! उनके साथ—उनके वक्षःस्थलपर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ।।२०।। अच्छा, हमारे प्रियतमके प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुलसे लौटकर मधुपुरीमें अब सुखसे तो हैं न? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँके घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालोंकी भी याद करते हैं? और क्या हम दासियोंकी भी कोई बात कभी चलाते हैं? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगरके समान दिव्य सुगन्धसे युक्त भुजा हमारे सिरोंपर रखेंगे? क्या हमारे जीवनमें कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा? ।।२१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनके लिये अत्यन्त उत्सुक—लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजीने उन्हें उनके प्रियतमका सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा— ।।२२।।
उद्धवजीने कहा—अहो गोपियो! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियो! तुम सारे संसारके लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगोंने इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ।।२३।। दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याणके अन्य विविध साधनोंके द्वारा भगवान्की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है ।।२४।। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमलोगोंने पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसीका आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ।।२५।। सचमुच यह कितने सौभाग्यकी बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरोंको छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णको, जो सबके परम पति हैं, पतिके रूपमें वरण किया है ।।२६।। महाभाग्यवती गोपियो! भगवान् श्रीकृष्णके वियोगसे तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्माके प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओंके रूपमें उनका दर्शन कराता है। तुमलोगोंका वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियोंकी बड़ी ही दया है ।।२७।। मैं अपने स्वामीका गुप्त काम करनेवाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णने तुमलोगोंको परम सुख देनेके लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियो! वही लेकर मैं तुमलोगोंके पास आया हूँ, अब उसे सुनो ।।२८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा है—मैं सबका उपादान कारण होनेसे सबका आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसारके सभी भौतिक पदार्थोंमें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—ये पाँचों भूत व्याप्त हैं, इन्हींसे सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओंके रूपमें हैं। वैसे ही मैं मन, प्राण, पंचभूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंका आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूपमें प्रकट हो रहा हूँ ।।२९।। मैं ही अपनी मायाके द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेट लेता हूँ ।।३०।। आत्मा माया और मायाके कार्योंसे पृथक् है। वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवान्तर भेदोंसे रहित सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। मायाकी तीन वृत्तियाँ हैं—सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत्। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूपसे प्रतीत होता है ।।३१।।
मनुष्यको चाहिये कि वह समझे कि स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान ही जाग्रत्-अवस्थामें इन्द्रियोंके विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसलिये उन विषयोंका चिन्तन करनेवाले मन और इन्द्रियोंको रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत्के स्वाप्निक विषयोंको त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे ।।३२।। जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्रमें ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषोंका वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्तिमें ही समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मनको निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ।।३३।। गोपियो! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनोंका ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीरसे दूर रहनेपर भी मनसे तुम मेरी सन्निधिका अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो ।।३४।। क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियोंका चित्त अपने परदेशी प्रियतममें जितना निश्चल भावसे लगा रहता है, उतना आँखोंके सामने, पास रहनेवाले प्रियतममें नहीं लगता ।।३५।। अशेष वृत्तियोंसे रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुमलोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदाके लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी ।।३६।। कल्याणियो! जिस समय मैंने वृन्दावनमें शारदीय पूर्णिमाकी रात्रिमें रास-क्रीडा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनोंके रोक लेनेसे व्रजमें ही रह गयीं—मेरे साथ रास-विहारमें सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओंका स्मरण करनेसे ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य, निराश होनेकी कोई बात नहीं है) ।।३७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपने प्रियतम श्रीकृष्णका यह सँदेशा सुनकर गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ उनके संदेशसे उन्हें श्रीकृष्णके स्वरूप और एक-एक लीलाकी याद आने लगी। प्रेमसे भरकर उन्होंने उद्धवजीसे कहा ।।३८।।
गोपियोंने कहा—उद्धवजी! यह बड़े सौभाग्यकी और आनन्दकी बात है कि यदुवंशियोंको सतानेवाला पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि श्रीकृष्णके बन्धु-बान्धव और गुरुजनोंके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ।।३९।।
किन्तु उद्धवजी! एक बात आप हमें बतलाइये। ‘जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुसकान और उन्मुक्त चितवनसे उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुराकी स्त्रियोंसे भी वे प्रेम करते हैं या नहीं?’ ।।४०।।
तबतक दूसरी गोपी बोल उठी—‘अरी सखी! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेमकी मोहिनी कलाके विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगरकी स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भावसे उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न रीझेंगे?’ ।।४१।।
दूसरी गोपियाँ बोलीं—‘साधो! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियोंकी मण्डलीमें कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वच्छन्दरूपसे, बिना किसी संकोचके जब प्रेमकी बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनों-की भी याद करते हैं?’ ।।४२।।
कुछ गोपियोंने कहा—‘उद्धवजी! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियोंका स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्दके पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था! उन रात्रियोंमें ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हम-लोगोंके साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रासलीला! उस समय हमलोगोंके पैरोंके नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हींकी सुन्दर-सुन्दर लीलाओंका गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकारके विहार कर रहे थे’ ।।४३।।
कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं—‘उद्धवजी! हम सब तो उन्हींके विरहकी आगसे जल रही हैं। देवराज इन्द्र जैसे जल बरसाकर वनको हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदिसे हमें जीवनदान देनेके लिये यहाँ आवेंगे?’ ।।४४।।
तबतक एक गोपीने कहा—‘अरी सखी! अब तो उन्होंने शत्रुओंको मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद् बना फिरता है। अब वे बड़े-बड़े नरपतियोंकी कुमारियोंसे विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे; यहाँ हम गँवारिनोंके पास क्यों आयेंगे?’ ।।४५।।
दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी! महात्मा श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियोंसे उनका कोई प्रयोजन नहीं है। हमलोगोंके बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ।।४६।।
देखो वेश्या होनेपर भी पिंगलाने क्या ही ठीक कहा है—संसारमें किसीकी आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है।’ यह बात हम जानती हैं, फिर भी दम भगवान् श्रीकृष्णके लौटनेकी आशा छोड़नेमें असमर्थ हैं। उनके शुभागमनकी आशा ही तो हमारा जीवन है ।।४७।।
हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने, जिनकी कीर्तिका गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्तमें जो मीठी-मीठी प्रेमकी बातें की हैं उन्हें छोड़नेका, भुलानेका उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं? देखो तो, उनकी इच्छा न होनेपर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरणोंसे लिपटी रहती हैं, एक क्षणके लिये भी उनका अंग-संग छोड़कर कहीं नहीं जातीं ।।४८।।
उद्धवजी! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखरपर चढ़कर वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिनमें वे रात्रिके समय रासलीला करते थे, और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चरानेके लिये वे सुबह-शाम हमलोगोंको देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशीकी तान हमारे कानोंमें गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरोंके संयोगसे छेड़ा करते थे। बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने इन सभीका सेवन किया है ।।४९।। यहाँका एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलोंसे चिह्नित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैं—दिनभर यही तो करती रहती हैं—तब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दनको हमारे नेत्रोंके सामने लाकर रख देते हैं। उद्धवजी! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ।।५०।। उनकी वह हंसकी-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी! आह! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वशमें नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह? ।।५१।।
हमारे प्यारे श्रीकृष्ण! तुम्हीं हमारे जीवनके स्वामी हो, सर्वस्व हो। प्यारे! तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम व्रजगोपियोंके एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द! तुम गौओंसे बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैं—दुःखके अपार सागरमें डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो ।।५२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका प्रिय सन्देश सुनकर गोपियोंके विरहकी व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान् श्रीकृष्णको अपने आत्माके रूपमें सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदरसे उद्धवजीका सत्कार करने लगीं ।।५३।।
उद्धवजी गोपियोंकी विरह-व्यथा मिटानेके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे। वे भगवान् श्रीकृष्णकी अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रज-वासियोंको आनन्दित करते रहते ।।५४।। नन्दबाबाके व्रजमें जितने दिनोंतक उद्धवजी रहे, उतने दिनोंतक भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाकी चर्चा होते रहनेके कारण व्रजवासियोंको ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ।।५५।। भगवान्के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदीतटपर जाते, कभी वनोंमें विहरते और कभी गिरिराजकी घाटियोंमें विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलोंसे लदे हुए वृक्षोंमें ही रम जाते और यहाँ भगवान् श्रीकृष्णने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियोंको भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी लीलाके स्मरणमें तन्मय कर देते ।।५६।।
उद्धवजीने व्रजमें रहकर गोपियोंकी इस प्रकारकी प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम-चेष्टाएँ देखीं। उनकी इस प्रकार श्रीकृष्णमें तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्दसे भर गये। अब वे गोपियोंको नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे— ।।५७।।
‘इस पृथ्वीपर केवल इन गोपियोंका ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णके परम प्रेममय दिव्य महाभावमें स्थित हो गयी हैं। प्रेमकी यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसारके भयसे भीत मुमुक्षुजनोंके लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों—मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनोंके लिये भी अभी वाञ्छनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान् श्रीकृष्णकी लीला-कथाके रसका चसका लग गया है, उन्हें कुलीनताकी, द्विजातिसमुचित संस्कारकी और बड़े-बड़े यज्ञ-यागोंमें दीक्षित होनेकी क्या आवश्यकता है? अथवा यदि भगवान्की कथाका रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पोंतक बार-बार ब्रह्मा होनेसे ही क्या लाभ? ।।५८।।
कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जातिसे हीन गाँवकी गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रीकृष्णमें यह अनन्य परम प्रेम! अहो, धन्य है! धन्य है! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान्के स्वरूप और रहस्यको न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्तिसे अपनी कृपासे उसका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजानमें भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्तिसे ही पीनेवालेको अमर बना देता है ।।५९।। भगवान् श्रीकृष्णने रासोत्सवके समय इन व्रजांगनाओंके गलेमें बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान्ने जिस कृपा-प्रसादका वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान्की परमप्रेमवती नित्यसंगिनी वक्षःस्थलपर विराजमान लक्ष्मीजीको भी नहीं प्राप्त हुआ। कमलकी-सी सुगन्ध और कान्तिसे युक्त देवांगनाओंको भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियोंकी तो बात ही क्या करें? ।।६०।। मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाममें कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि—जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ! अहा! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओंकी चरणधूलि निरन्तर सेवन करनेके लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण-रजमें स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ। देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेदकी आर्य-मर्यादाका परित्याग करके इन्होंने भगवान्की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है—औरोंकी तो बात ही क्या—भगवद्वाणी, उनकी निःश्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अबतक भगवान्के परम प्रेममय स्वरूपको ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ।।६१।। स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शंकर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयमें जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्णके उन्हीं चरणारविन्दोंको रास-लीलाके समय गोपियोंने अपने वक्षःस्थलपर रखा और उनका आलिंगन करके अपने हृदयकी जलन, विरह-व्यथा शान्त की ।।६२।। नन्दबाबाके व्रजमें रहनेवाली गोपांगनाओंकी चरण-धूलिको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ—उसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियोंने भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाकथाके सम्बन्धमें जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकोंको पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’ ।।६३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कई महीनोंतक व्रजमें रहकर उद्धवजीने अब मथुरा जानेके लिये गोपियोंसे, नन्दबाबा और यशोदा मैयासे आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालोंसे विदा लेकर वहाँसे यात्रा करनेके लिये वे रथपर सवार हुए ।।६४।। जब उनका रथ व्रजसे बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखोंमें आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेमसे कहा— ।।६५।। ‘उद्धवजी! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मनकी एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्णके चरणकमलोंके ही आश्रित रहे। उन्हींकी सेवाके लिये उठे और उन्हींमें लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हींके नामोंका उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हींको प्रणाम करने, उन्हींकी आज्ञा-पालन और सेवामें लगा रहे ।।६६।। उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्षकी इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान्की इच्छासे अपने कर्मोंके अनुसार चाहे जिस योनिमें जन्म लें—वहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्णमें हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे’ ।।६७।। प्रिय परीक्षित्! नन्दबाबा आदि गोपोंने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्तिके द्वारा उद्धवजीका सम्मान किया। अब वे भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित मथुरापुरीमें लौट आये ।।६८।। वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियोंकी प्रेममयी भक्तिका उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद नन्दबाबाने भेंटकी जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेनको दे दी ।।६९।।
नन्दबाबाके व्रजमें रहनेवाली गोपांगनाओंकी चरण-धूलिको बारंबार प्रणाम। प्रभु, तुम्हारी और तुम्हारे भक्तों की लीता पूरी तरह कौन समझ सकता है। जीतन एहसास कर पाया, उसके लिए कोटि कोटि धन्यवाद। पापा कह रहे थे लैय से पढ़ो, मेरे लिए तो आंखों में भरे आसु को बारह आने से रोकना काठिन हो रहा था।
हे प्रभु, तुम बाप बेटी ने इतना रुलाया न हो तो गोपियों की भावनाओं का एहसास भी न कर पाया। मेरी सखी ने ही तो तुम्हारे पास भेजा है। किसी ने मुझे नहीं समझा, तभी तो तुम्हारे शरण में पहुंचा हूं। तुमने तो फिर भी गोपियों को तुम्हे आत्मा के रूप में स्मरण करने को कहा था, तुम्हारी लाडली तो कहती है मुझे भूल जाओ ऊपर से पछतावे का इमोशनल ब्लैकमेल भी। मीनू को कैसे भूल सकता हूँ? कैसे सबके लिए प्रार्थना ना करो। प्रभु, मेरी सखी और हमारे माता-पिता और होसके तो मुझे भी अपनी कथा का रस दो, रुचि प्रदान करो, अपनी भक्ति में डूबा दो।
प्रभु, मेरी सखी की बातें याद कर के डर लगा रहता है कि सांसारिक सुख की माया में फास तो नहीं गई। पता नहीं किन जीवन लक्ष्यों की बात कर रही थी। मेरी सखी को कभी अपने लक्ष्य के पथ पर सहायता की आवश्यकता पड़े तो साथ देने के लायक बनने के लिए इतना परिश्रम किया और मुझे बताये बिना ही बस कह दिया उन्हें मेरे लिए जगह नहीं। इतना भी नहीं बताया कि क्या कमी रह गई? पता नहीं एैसे क्या लक्ष्य हैं? प्रभु अपनी जगह बनाये रखना। भटकने ना देना, चाहे कितना भी रोये। उस दिन भी मां से गलत तरह से जो बात की थी उसका एहसास नहीं था। माँ से सही से क्षमा भी नहीं माँगी। मुझे नहीं लगता मेरा पत्र सही से पढ़ा। फिर भी माँ मीनू को ही सही कहती है। ये उचित नहीं।
March 23, 2025
अच्युतम केशवं राम नारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरे॥
श्रीधरम माधवम गोपिका वल्लभं, जानकी नायकम, रामचन्द्रम हरे॥
सुन्दर कान्हा, सुन्दर कान्हा
प्रभु आज सुनहरी पोशाक पहन के राजाधिराज द्वारिकाधीश कहां जाने की तयारी है? आज तो इतने नकरे कि अपनी मुरली भी नहीं पकड़ रहे थे। क्या किस भक्त के साथ नाचने जा रहे हो? कभी हमारे भी घर आओ. मुझे भी मेरी सखी के साथ तुम्हारी पूजा करने का सौभाग्य प्रदान करो। हमारे साथ भी खेलो
अथाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः भगवान्का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कुब्जाका घर बहुमूल्य सामग्रियोंसेनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपनेसे मिलनकी आकांक्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जाका प्रिय करने—उसे सुख देनेकी इच्छासे उसके घर गये ।।१।। कुब्जाका घर बहुमूल्य सामग्रियोंसे सम्पन्न था। भगवान्को अपने घर आते देख कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसनसे उठ खड़ी हुई और सखियोंके साथ आगे बढ़कर उसने विधिपूर्वक भगवान्का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध उपचारोंसे उनकी विधिपूर्वक पूजा की ।।३।। कुब्जाने भगवान्के परमभक्त उद्धवजीकी भी समुचित रीतिसे पूजा की; परन्तु वे उसके सम्मानके लिये उसका दिया हुआ आसन छूकर धरतीपर ही बैठ गये। (अपने स्वामीके सामने उन्होंने आसनपर बैठना उचित न समझा।) भगवान् श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द-स्वरूप होनेपर भी लोकाचारका अनुकरण करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेजपर जा बैठे ।।४।। कुब्जाने इस जन्ममें केवल भगवान्को अंगराग्को अंगराग अर्पित किया था, उसी एक शुभकर्मके फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला ।।६।। कुब्जा भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंको अपने काम-संतप्त हृदय, वक्षःस्थल और नेत्रोंपर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदयकी सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्षःस्थलसे सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दरका अपनी दोनों भुजाओंसे गाढ़ आलिंगन करके कुब्जाने दीर्घकालसे बढ़े हुए विरहतापको शान्त किया ।।७।। परीक्षित्! कुब्जाने केवल अंगराग समर्पित किया था। उतनेसे ही उसे उन सर्वशक्तिमान् भगवान्की प्राप्ति हुई, जो कैवल्यमोक्षके अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परन्तु उस दुर्भगाने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियोंकी भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा— ।।८।। ‘प्रियतम! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता’ ।।९।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सबका मान रखनेवाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धवजीके साथ अपने सर्वसम्मानित घरपर लौट आये ।।१०।। परीक्षित्! भगवान् ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीवके लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि है; क्योंकि वास्तवमें विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ—नहींके बराबर है ।।११।। तदनन्तर एक दिन सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और उद्धवजीके साथ अक्रूरजीकी अभिलाषा पूर्ण करने और उनसे कुछ काम लेनेके लिये उनके घर गये ।।१२।। अक्रूरजीने दूरसे ही देख लिया कि हमारे परम बन्धु मनुष्यलोकशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि पधार रहे हैं। वे तुरंत उठकर आगे गये तथा आनन्दसे भरकर उनका अभिनन्दन और आलिंगन किया ।।१३।। अक्रूरजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको नमस्कार किया तथा उद्धवजीके साथ उन दोनों भाइयोंने भी उन्हें नमस्कार किया। जब सब लोग आरामसे आसनोंपर बैठ गये, तब अक्रूरजी उन लोगोंकी विधिवत् पूजा करने लगे ।।१४।। परीक्षित्! उन्होंने पहले भगवान्के चरण धोकर चरणोदक सिरपर धारण किया और फिर अनेकों प्रकारकी पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गन्ध, माला और श्रेष्ठ आभूषणोंसे उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणोंको अपनी गोदमें लेकर दबाने लगे। उसी समय उन्होंने विनयावनत होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीसे कहा— ।।१५-१६।। ‘भगवन्! यह बड़े ही आनन्द और सौभाग्यकी बात है कि पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोनोंने युदवंशको बहुत बड़े संकटसे बचा लिया है तथा उन्नत और समृद्ध किया है ।।१७।। आप दोनों जगत्के कारण और जगद्रूप, आदिपुरुष हैं। आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है, न कारण और न तो कार्य ।।१८।। परमात्मन्! आपने ही अपनी शक्तिसे इसकी रचना की है और आप ही अपनी काल, माया आदि शक्तियोंसे इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएँ देखी और सुनी जाती हैं, उनके रूपमें प्रतीत हो रहे हैं ।।१९।। जैसे पृथ्वी आदि कारणतत्त्वोंसे ही उनके कार्य स्थावर-जंगम शरीर बनते हैं; वे उनमें अनुप्रविष्ट-से होकर अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं, परन्तु वास्तवमें वे कारणरूप ही हैं। इसी प्रकार हैं तो केवल आप ही, परन्तु अपने कार्यरूप जगत्में स्वेच्छासे अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं। यह भी आपकी एक लीला ही है ।।२०।। प्रभो! आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणरूप अपनी शक्तियोंसे क्रमशः जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं; किन्तु आप उन गुणोंसे अथवा उनके द्वारा होनेवाले कर्मोंसे बन्धनमें नहीं पड़ते, क्योंकि आप शुद्ध ज्ञानस्वरूप हैं। ऐसी स्थितिमें आपके लिये बन्धनका कारण ही क्या हो सकता है? ।।२१।।
प्रभो! स्वयं आत्मवस्तुमें स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होनेके कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न किसी प्रकारका भेदभाव। यही कारण है कि न आपमें बन्धन है और न मोक्ष! आपमें अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार बन्धन या मोक्षकी जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है ।।२२।। आपने जगत्के कल्याणके लिये यह सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथसे चलनेवाले दुष्टोंके द्वारा क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते हैं ।।२३।। प्रभो! वही आप इस समय अपने अंश श्रीबलरामजीके साथ पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये यहाँ वसुदेवजीके घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरोंके अंशसे उत्पन्न नाममात्रके शासकोंकी सौ-सौ अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे और यदुवंशके यशका विस्तार करेंगे ।।२४।। इन्द्रियातीत परमात्मन्! सारे देवता, पितर, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणोंकी धोवन गंगाजी तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं। आप सारे जगत्के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्यकी सीमा न रही ।।२५।। प्रभो! आप प्रेमी भक्तोंके परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं—जरा-सी सेवाको भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरेकी शरणमें जायगा? आप अपना भजन करनेवाले प्रेमी भक्तकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँतक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस है, अपने उस आत्माका भी आप दान कर देते हैं ।।२६।। भक्तोंके कष्ट मिटानेवाले और जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुड़ानेवाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरूपको नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्यकी बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदिके मोहकी रस्सीसे बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी मायाका खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धनको शीघ्र काट दीजिये’ ।।२७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भक्त अक्रूरजीने भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने मुसकराकर अपनी मधुर वाणीसे उन्हें मानो मोहित करते हुए कहा ।।२८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘तात! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंशमें अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदाके हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपाके पात्र हैं ।।२९।।
अपना परम कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंको आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतोंकी सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओंसे भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओंमें तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतोंमें नहीं ।।३०।। केवल जलके तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदिकी बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं। चाचाजी! उनकी तो बहुत दिनोंतक श्रद्धासे सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परन्तु संतपुरुष तो अपने दर्शनमात्रसे पवित्र कर देते हैं ।।३१।।
चाचाजी! आप हमारे हितैषी सुहृदोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवोंका हित करनेके लिये तथा उनका कुशल-मंगल जाननेके लिये हस्तिनापुर जाइये ।।३२।। हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डुके मर जानेपर अपनी माता कुन्तीके साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुःखमें पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं ।।३३।। आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबलकी भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होनेके कारण वे पाण्डवोंके साथ अपने पुत्रों-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते ।।३४।।
इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदोंको सुख मिले’ ।।३५।। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूरजीको इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजीके साथ वहाँसे अपने घर लौट आये ।।३६।।
शुभम की फेसबुक स्टोरी से कुछ शांति मिल गई पर फोटो में सिर्फ शुभम ही था। इतने दिनों से मीनू और अंकलजी आंटीजी की कोई फोटो नहीं दिखी। बार-बार यही प्रश्न उठता रहता है कि अंकलजी रिटायरमेंट के बाद रविवार को काम कर रहे हैं। मीनू अगर कभी गुस्सा नहीं थी तो क्यों मां से ऐसी बात कि की मां ने पूछा के कुछ गलत किया हो। क्यों उस दिन गुस्से से चली गई थी?
March 24, 2025
मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। ऐसी ही चिंता की चिता शांत नहीं होती आपने मुझे भी सब अस्तव्यस दिखाया है। सपने में, घर जाते समय फन मॉल के पास वाले जंगल में आग और जहाज़वाद से रास्ता ही तहस नहस था, आगे का सही से याद नहीं। दिन भर ऑफिस के काम और बेचैनी में भटका रहा। तुम्हारे ही शरणागत है, प्रभु संभल लो।
अथैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः अक्रूरजीका हस्तिनापुर जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये। वहाँकी एक-एक वस्तुपर पुरुवंशी नरपतियोंकी अमरकीर्तिकी छाप लग रही है। वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रोंसे मिले ।।१-२।। जब गान्दिनीनन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियोंसे भलीभाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगोंने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियोंकी कुशल-क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजीने भी हस्तिनापुरवासियोंके कुशलमंगलके सम्बन्धमें पूछताछ की ।।३।। परीक्षित्! अक्रूरजी यह जाननेके लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवोंके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनोंतक वहीं रहे। सच पूछो तो, धृतराष्ट्रमें अपने दुष्ट पुत्रोंकी इच्छाके विपरीत कुछ भी करनेका साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टोंकी सलाहके अनुसार ही काम करते थे ।।४।। अक्रूरजीको कुन्ती और विदुरने यह बतलाया कि धृतराष्ट्रके लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवोंके प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवोंसे ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवोंका अनिष्ट करनेपर उतारू हो जाते हैं। अबतक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके पुत्रोंने पाण्डवोंपर कई बार विषदान आदि बहुत-से अत्याचार किये हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं ।।५-६।।
जब अक्रूरजी कुन्तीके घर आये, तब वह अपने भाईके पास जा बैठीं। अक्रूरजीको देखकर कुन्तीके मनमें अपने मायकेकी स्मृति जग गयी और नेत्रोंमें आँसू भर आये। उन्होंने कहा— ।।७।। ‘प्यारे भाई! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुलकी स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं? ।।८।। मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्त-वत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयोंको भी याद करते हैं? ।।९।। मैं शत्रुओंके बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ। मेरी वही दशा है, जैसे कोई हरिनी भेड़ियोंके बीचमें पड़ गयी हो। मेरे बच्चे बिना बापके हो गये हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालकोंको सान्त्वना देंगे? ।।१०।। (श्रीकृष्णको अपने सामने समझकर कुन्ती कहने लगीं—) ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्वके जीवनदाता हो। गोविन्द! मैं अपने बच्चोंके साथ दुःख-पर-दुःख भोग रही हूँ। तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चोंको बचाओ ।।११।। मेरे श्रीकृष्ण! यह संसार मृत्युमय है और तुम्हारे चरण मोक्ष देनेवाले हैं। मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसारसे डरे हुए हैं, उनके लिये तुम्हारे चरणकमलोंके अतिरिक्त और कोई शरण, और कोई सहारा नहीं है ।।१२।। श्रीकृष्ण! तुम मायाके लेशसे रहित परम शुद्ध हो। तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो। समस्त साधनों, योगों और उपायोंके स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो। श्रीकृष्ण! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। तुम मेरी रक्षा करो’ ।।१३।।
अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दुःखको समान दृष्टिसे देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओंने कुन्तीको उसके पुत्रोंके जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओंकी याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्मका नाश करनेके लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी ।।१५।। अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्रके पास आये। अबतक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रोंका पक्षपात करते हैं और भतीजोंके साथ अपने पुत्रोंका-सा बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूरजीने कौरवोंकी भरी सभामें श्रीकृष्ण और बलरामजी आदिका हितैषितासे भरा सन्देश कह सुनाया ।।१६।।
अक्रूरजीने कहा—महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियोंकी उज्ज्वल कीर्तिको और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेषरूपसे इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डुके परलोक सिधार जानेपर अब आप राज्यसिंहासनके अधिकारी हुए हैं ।।१७।।
आप धर्मसे पृथ्वीका पालन कीजिये। अपने सद्व्यवहारसे प्रजाको प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनोंके साथ समान बर्ताव कीजिये। ऐसा करनेसे ही आपको लोकमें यश और परलोकमें सद्गति प्राप्त होगी ।।१८।। यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोकमें आपकी निन्दा होगी और मरनेके बाद आपको नरकमें जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंके साथ समानताका बर्ताव कीजिये ।।१९।। आप जानते ही हैं कि इस संसारमें कभी कहीं कोई किसीके साथ सदा नहीं रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही। राजन्! यह बात अपने शरीरके लिये भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदिको छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके विषयमें तो कहना ही क्या है ।।२०।।
इसलिये महाराज! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिनकी चाँदनी है, सपनेका खिलवाड़ है, जादूका तमाशा है और है मनोराज्यमात्र! आप अपने प्रयत्नसे, अपनी शक्तिसे चित्तको रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्वमें स्थित हो जाइये और इस संसारकी ओरसे उपराम—शान्त हो जाइये ।।२५।।
राजा धृतराष्ट्रने कहा—दानपते अक्रूरजी! आप मेरे कल्याणकी, भलेकी बात कह रहे हैं, जैसे मरनेवालेको अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातोंसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ ।।२६।। अक्रूरजी! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधानमें उलट-फेर कर सके। उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा ।।२८।। भगवान्की मायाका मार्ग अचिन्त्य है। उसी मायाके द्वारा इस संसारकी सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलोंका विभाजन कर देते हैं। इस संसार-चक्रकी बेरोक-टोक चालमें उनकी अचिन्त्य लीला-शक्तिके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभुको नमस्कार करता हूँ ।।२९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्रका अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन-सम्बन्धियोंसे प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये ।।३०।। परीक्षित्! उन्होंने वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके सामने धृतराष्ट्रका वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवोंके साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजनेका वास्तवमें उद्देश्य भी यही था ।।३१।।
शुभम् भी बस अपनी ही फोटो डालता रहता है। अंकलजी आंटीजी के साथ नहीं. प्रभु सबका ख्याल रखना.
March 25, 2025
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
रात बहुत देर तक नींद नहीं आई और सुबह भी जल्दी खुल गई। ऊपर से कौवा काए करता रहा। उस समय की उड़ी जब पशुपति नाथ से घर पहूचा था और एक कौवा बेचारा डोरी में फंसा पेड़ पर उल्टा लटका था। जब पशुपति नाथ जी की आरती वेदियो कॉल पे अंकलजी को दिखा रहा था तो बीच में ही कॉल कट कर दिया। मंदिर के सामने होटल में रुके थे तो रात सपने में मीनू किसी के साथ जाती दिखी थी। उससे ही अजीब सा डर था, ऊपर से बेचारे कौवे की हालत। कुछ समझ नहीं आ रहा था. 2 दिन बाद अंकलजी को एनिमल रेस्क्यू नंबर भेजा था, पता नहीं देखा था हां नहीं। कुछ ही दिन बाद पता चला अंकलजी घर चोर के जा रहे हैं। एक के बाद एक ऐसा घाटनाए हुई ने कुछ समझ ना पाया। अंदर ही अंदर तड़पता रहा.
March 25, 2025
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
दशमः स्कन्धः (उत्तरार्धः)
अथ पञ्चाशत्तमोऽध्यायः जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भरतवंशशिरोमणि परीक्षित्! कंसकी दो रानियाँ थीं—अस्ति और प्राप्ति। पतिकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे अपने पिताकी राजधानीमें चली गयीं ।।१।। उन दोनोंका पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दुःखके साथ अपने विधवा होनेके कारणोंका वर्णन किया ।।२।। परीक्षित्! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्धको बड़ा शोक हुआ, परन्तु पीछे वह क्रोधसे तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वीपर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की ।।३।। और तेईस अक्षौहिणी सेनाके साथ यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराको चारों ओरसे घेर लिया ।।४।।
भगवान् श्रीकृष्णने देखा—जरासन्धकी सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं ।।५।। भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतारका क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थानपर मुझे क्या करना चाहिये ।।६।। उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगध-राज जरासन्धने अपने अधीनस्थ नरपतियोंकी पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंसे युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वीका भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परन्तु अभी मगधराज जरासन्धको नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिरसे असुरोंकी बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा ।।७-८।। मेरे अवतारका यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वीका बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनोंकी रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनोंका संहार ।।९।। समय-समयपर धर्म-रक्षाके लिये और बढ़ते हुए अधर्मको रोकनेके लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।।१०।।
परीक्षित्! उनके शंखकी भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाकेि आकाशसे सूर्यके समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्धकी सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे ।।११।। इसी समय भगवान्के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने-आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा— ।।१२।। ‘भाईजी! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उनपर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं ।।१३।। अब आप इस रथपर सवार होकर शत्रु-सेनाका संहार कीजिये और अपने स्वजनोंको इस विपत्तिसे बचाइये। भगवन्! साधुओंका कल्याण करनेके लिये ही हम दोनोंने अवतार ग्रहण किया है ।।१४।। अतः अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वीका यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथपर सवार होकर वे मथुरासे निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्णका रथ हाँक रहा था दारुक। पुरीसे बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांचजन्य शंख बजाया ।।१५-१६।। उनके शंखकी भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंका हृदय डरके मारे थर्रा उठा।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— मथुरापुरीकी स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढ़कर युद्धका कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं ।।२२।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीड़ित, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर—दोनोंसे सम्मानित शार्ङ्गधनुषका टंकार किया ।।२३।। इसके बाद वे तरकसमेंसे बाण निकालने, उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोड़ने लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धकी चतुरंगिणी—हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाका संहार करने लगे ।।२४।।
उस युद्धमें अपार तेजस्वी भगवान् बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको मार-मारकर उनके अंग-प्रत्यंगसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। परीक्षित्! जरासन्धकी वह सेना समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य थी। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत्के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है ।।२९।। परीक्षित्! भगवान्के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।।३०।।
इस प्रकार जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान् श्रीबलरामजीने जैसे एक सिंह दूसरे सिंहको पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़ लिया ।।३१।। जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परन्तु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको रोक दिया ।।३२।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली।
परीक्षित्! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्धने भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया ।।४२।। किन्तु यादवोंने भगवान् श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता ।।४३।। जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिड़नेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।।४४।। युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारमें दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लेकर उसने मथुराको घेर लिया ।।४५।। कालयवनकी यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया—‘अहो! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और कालयवन—ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।।४६।। आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायेगा ।।४७।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लड़नेमें लग गये और उसी समय जरासन्ध भी आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा; क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।।४८।। इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्ग—ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे’ ।।४९।। बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान् श्रीकृष्णने समुद्रके भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगरकी लम्बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी ।।५०।। उस नगरकी एक-एक वस्तुमें विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु-विज्ञान) और शिल्पकलाकी निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सड़कों, चौराहों और गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।।५१।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाशसे बातें करते थे। स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे ।।५२।। अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।।५३।। इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे। और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे ।।५४।।
परीक्षित्! उस समय देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णके लिये पारिजातवृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोकके धर्म नहीं छू पाते थे ।।५५।। वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्यामवर्णका था और जिनकी चाल मनके समान तेज थी। धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान्के पास भेज दीं ।।५६।। परीक्षित्! सभी लोकपालोंको भगवान् श्रीकृष्णने ही उनके अधिकारके निर्वाहके लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर दीं ।।५७।। भगवान् श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया। शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये ।।५८।।
प्रभु, आज एकादशी है। ऐसे-ऐसे संयोग करते हो कि तुम पर विश्वास कर के बार-बार आस लगत हो, पर अपनी लाडली की तरह दिल तोड़ते रहते हो। अब तो क्या कहु समाज नहीं आता। मीनू किसी तरह मुझसे बात भी करे तो कुछ पूछने की हिम्मत नहीं, मेरी सखी के मुंह से झूठ ना सुन साकुंगा।
जीवन भर तड़पना ही क्यों ना पड़े मेरी सखी को कैसे भूल जाओ। प्रभु हमें अपनी माया में न फंसाना। मेरी सखी क्या अंकलजी, आंटीजी को भी नहीं भूल सकती।अंकल जी ने अब भी मुझे ब्लॉक क्यों रखा है? अंकलजी ने गुस्से मे भी कैसे कहा दिया, अपनी लाडली को भूल जायेंगे? उस दिन कितनी बार कहा "मेरे लिए मेरे मम्मी पापा ही सब कुछ है"।
कौन कहते हैं भगवान आते नहीं, लोग मीरा के जैसे बुलाते नहीं। प्रभु हमारा चित्त कब चुराओ गे, कब हम तुम्हें बुला पायेंगे?
March 26, 2025
एक भरोसो, एक बल, एक आस, विश्वास। स्वाति-सलिल रघुनाथ-जस, चातक तुलसीदास॥
प्रभु, रात को बहुत देर तक नींद नहीं आई, कल कुछ ज्यादा ही मीनू की याद आ रही थी।नानी को केक खिलाते मीनू की फोटो देखा जा रहा था। वैसे ही खिला रही थी जैसे मैंने भापन में खेला था। बार-बार अंकलजी के हृदय से लग कर रोने का मन कर रहा था। बहुत देर तक रोता रहा. बीच बीच में भी नींद खुल गई और उजाला होने के बाद नींद नहीं आई। हरि, चिंता खाई ही जा रही थी ऊपर से ठीक-ठाक के भी बुरा हाल था।
अंकलजी की नई व्हाट्सएप प्रोफाइल फोटो में बहुत समय बाद अंकलजी को फोटो में खुल कर हसते देखकर अच्छा लगा। पर डर भी लग रहा है कि तुम्हारी माया में कहीं मीनू को तो नहीं भूल गए। नारायण, क्या पहले की तरह अपने पापा से चिपकी रहती है? अंकलजी का ऐसा स्टाइल और हंसी तो मीनू के साथ भी नहीं देखी। जब मीनू को भूल सकते हैं तो मुझे क्या याद करते होंगे। प्रभु तो ज़बरदस्ती अपनी याद दिलाते रहना, मुझे तो मीनू ने अंकलजी को भजन भेजने से भी मना कर दिया।
अथैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
प्रभु सबके साथ तुम्हारा सत्संग क्यों नहीं कर सकता? जिनके माध्यम ने तुमने अपना प्यार मुझसे लुटाया। किसी को कैसे भूल जाऊ. जब तक सब पर कृपा नहीं करो गी कैसे शांत हो जाओ? सब के साथ तुम्हारे चरणोंकी सेवा कब करूँगा?
March 26, 2025
अथ द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह तथा श्रीकृष्णके पास रुक्मिणीजीका सन्देशा लेकर ब्राह्मणका आना
यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्धमें कह चुका हूँ कि आनर्तदेशके राजा श्रीमान् रैवतजीने अपनी रेवती नामकी कन्या ब्रह्माजीकी प्रेरणासे बल-रामजीके साथ ब्याह दी ।।१५।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण भी स्वयंवरमें आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियोंको बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुड़ने सुधाका हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेशकी राजकुमारी रुक्मिणीको हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मिणीजी राजा भीष्मककी कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजीका अवतार थीं ।।१६-१७।।
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन्! हमने सुना है कि भगवान् श्रीकृष्णने भीष्मकनन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणीदेवीको बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधिसे उनके साथ विवाह किया था ।।१८।। महाराज! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियोंको जीतकर किस प्रकार रुक्मिणीका हरण किया? ।।१९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महाराज भीष्मक विदर्भदेशके अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।।२१।। सबसे बड़े पुत्रका नाम था रुक्मी और चार छोटे थे—जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ।।२२।। जब उसने भगवान् श्रीकृष्णके सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभवकी प्रशंसा सुनी—जो उसके महलमें आनेवाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे—तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ।।२३।। भगवान् श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य, शीलस्वभाव और गुणोंमें भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान्ने रुक्मिणीजीसे विवाह करनेका निश्चय किया ।।२४।। रुक्मिणीजीके भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिनका विवाह श्रीकृष्णसे ही हो। परन्तु रुक्मी श्रीकृष्णसे बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करनेसे रोक दिया और शिशुपालको ही अपनी बहिनके योग्य वर समझा ।।२५।। जब परमसुन्दरी रुक्मिणीको यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपालके साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वास-पात्र ब्राह्मणको तुरंत श्रीकृष्णके पास भेजा ।।२६।। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरीमें पहुँचे तब द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मण-देवताने देखा कि आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण सोनेके सिंहासनपर विराजमान हैं ।।२७।। ब्राह्मणोंके परमभक्त भगवान् श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताको देखते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा की जैसे देवतालोग उनकी (भगवान्की) किया करते हैं ।।२८।। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्नके अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतोंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथोंसे उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भावसे पूछने लगे— ।।२९।।
‘ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्वपुरुषोंद्वारा स्वीकृत धर्मका पालन करनेमें कोई कठिनाई तो नहीं होती ।।३०।। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहे और अपने धर्मका पालन करे, उससे च्युत न हो तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।।३१।। यदि इन्द्रका पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा। परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्थामें सन्तुष्ट है, वह सब प्रकारसे सन्तापरहित होकर सुखकी नींद सोता है ।।३२।। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तुसे सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियोंके परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैं—उन ब्राह्मणोंको मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।।३३।। ब्राह्मणदेवता! राजाकी ओरसे तो आपलोगोंको सब प्रकारकी सुविधा है न? जिसके राज्यमें प्रजाका अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्दसे रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ।।३४।। ब्राह्मणदेवता! आप कहाँसे, किस हेतुसे और किस अभिलाषासे इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें?’ ।।३५।। परीक्षित्! लीलासे ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवतासे पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान्से रुक्मिणीजीका सन्देश कहने लगे ।।३६।।
रुक्मिणीजीने कहा है—त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणोंको, जो सुननेवालोंके कानोंके रास्ते हृदयमें प्रवेश करके एक-एक अंगके ताप, जन्म-जन्मकी जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्यको जो नेत्रवाले जीवोंके नेत्रोंके लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों पुरुषार्थोंके फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है ।।३७।। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टिसे देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम—सभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोकमें जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्तिका अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये—ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाहके योग्य समय आनेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी? ।।३८।। इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूपसे वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदयकी बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीरको समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंहका भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकटसे आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।।३९।। मैंने यदि जन्म-जन्ममें पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदिकी पूजाके द्वारा भगवान् परमेश्वरकी ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ।।४०।। प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानीमें गुप्तरूपसे आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियोंके साथ शिशुपाल तथा जरासन्धकी सेनाओंको मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधिसे वीरताका मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।।४१।। यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुरमें—भीतरके जनाने महलोंमें पहरेके अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओंको मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुलका ऐसा नियम है कि विवाहके पहले दिन कुलदेवीका दर्शन करनेके लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है—जिसमें विवाही जानेवाली कन्याको, दुलहिनको नगरके बाहर गिरिजादेवीके मन्दिरमें जाना पड़ता है ।।४२।। कमलनयन! उमापति भगवान् शंकरके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणकमलोंकी धूलसे स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रतद्वारा शरीरको सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।।४३।।
माता आपने भी तो दूसरो से प्रभु के गुन्नो का वर्णन सुनके अपने चित्त प्रभु को समर्पित कर के निर्णय लिया था और प्रभु के लिए जन्म जन्मांतर की प्रतीक्षा करने को तैयार थी, तो क्या हर कोई मुझे गलत सिद्ध करने में लगा रहता है? क्या मैं इतना बुरा हूं कि मेरी सखी ने मेरे बारे में सिर्फ विचार करने से भी मन कर दिया?
स्वामी नानाराय नारायण हरि हरि, नरसिंह रूप ले कर आ जाओ, मेरी सखी के साथ तुम्हारे हृदय से लग कर तुम्हारी दाढ़ी से खेलना है।लेकिन तुम कैसे अपने हतो से पढ़ोगे, मैया डेटगी की हमें काई नाखुन ना लग जाए?
March 27, 2025
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि ।।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ।।
प्रभु, तुम बाप बेटी का दिया हुआ दुख हो या सुख, कैसे अपने हृदय से ना लगाके रखु। मेरी सखी रूलाएगी तो रोना तो पड़ेगा ना। मेरी सखीके बिना सुख तो दुख से भी ज्यादा पीड़ा दायक है।दूरियो ने तो मेरी चिंताओ और प्रश्नों को बड़ाया ही है। पता नहीं अंकलजी और मीनू को क्यों लगता है कि समय के साथ मैं भूल जाऊंगा। समय ने तो प्रेम को गहरा ही किया है। पता नहीं सब क्या बिना सर पैरों की बातें करते हैं।
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में॥
मेरा निश्चय बस एक यही, एक बार तुम्हे पा जाऊं मैं।
अर्पण करदूँ दुनिया भर का सब प्यार तुम्हारे हाथों में॥
जो जग में रहूँ तो ऐसे रहूँ, ज्यों जल में कमल का फूल रहे।
मेरे सब गुण दोष समर्पित हों, करतार तुम्हारे हाथों में॥
यदि मानव का मुझे जनम मिले, तो तव चरणों का पुजारी बनू।
इस पूजक की एक एक रग का हो तार तुम्हारे हाथों में॥
जप जब संसार का कैदी बनू, निष्काम भाव से करम करूँ।
फिर अंत समय में प्राण तजूं, निरंकार तुम्हारे हाथों में॥
मुझ में तुझ में बस भेद यही, मैं नर हूँ तुम नारायण हो।
मैं हूँ संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में॥
संभव, असम्भाव के परे हारी, तुम ही जानो क्या कैसे करोगे
ब्राह्मण उवाच
इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मयाऽऽहृताः । विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ।।४४
यदुवंशशिरोमणे! यही अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्धमें जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।।४४।।
March 27, 2025
अथ त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः रुक्मिणीहरण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका यह सन्देश सुनकर अपने हाथसे ब्राह्मणदेवताका हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले ।।१।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—ब्राह्मणदेवता! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हींमें लगा रहता है। कहाँतक कहूँ, मुझे रातके समय नींदतक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मीने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है ।।२।। परन्तु ब्राह्मणदेवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियोंको मथकर—एक-दूसरेसे रगड़कर मनुष्य उनमेंसे आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्धमें उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकोंको तहस-नहस करके अपनेसे प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारीको मैं निकाल लाऊँगा ।।३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मधुसूदन श्रीकृष्णने यह जानकर कि रुक्मिणीके विवाहकी लग्न परसों रात्रिमें ही है, सारथिको आज्ञा दी कि ‘दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ’ ।।४।। दारुक भगवान्के रथमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान्के सामने खड़ा हो गया ।।५।। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवताको पहले रथपर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा एक ही रातमें आनर्त-देशसे विदर्भदेशमें जा पहुँचे ।।६।। कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मीके स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपालको देनेके लिये विवाहोत्सवकी तैयारी करा रहे थे ।।७।। नगरके राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उनपर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे ।।८।। वहाँके स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रोंसे सजे हुए थे। वहाँके सुन्दर-सुन्दर घरोंमेंसे अगरके धूपकी सुगन्ध फैल रही थी ।।९।। परीक्षित्! राजा भीष्मकने पितर और देवताओंका विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी ।।१०।। सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजीको स्नान कराया गया, उनके हाथोंमें मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणोंसे विभूषित की गयीं ।।११।। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंसे उनकी रक्षा की और अथर्ववेदके विद्वान् पुरोहितने ग्रह-शान्तिके लिये हवन किया ।।१२।। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियोंके बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राह्मणोंको दीं ।।१३।।
इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोषने भी अपने पुत्र शिशुपालके लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने पुत्रके विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये ।।१४।। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोनेकी मालाओंसे सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारोंकी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे ।।१५।। विदर्भराज भीष्मकने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथाके अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगोंको पहलेसे ही निश्चित किये हुए जनवासोंमें आनन्दपूर्वक ठहरा दिया ।।१६।। उस बारातमें शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपालके सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।।१७।। वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजीके विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपालको ही मिले, इस विचारसे आये थे। उन्होंने अपने-अपने मनमें पहलेसे ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियोंके साथ आकर कन्याको हरनेकी चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओंने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।।१८-१९।।
विपक्षी राजाओंकी इस तैयारीका पता भगवान् बलरामजीको लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़ेकी बड़ी आशंका हुई ।।२०।। यद्यपि वे श्रीकृष्णका बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेहसे उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुरके लिये चल पड़े ।।२१।। इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्णकी तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे! तो वे बड़ी चिन्तामें पड़ गयीं; सोचने लगीं ।।२२।। ‘अहो! अब मुझ अभागिनीके विवाहमें केवल एक रातकी देरी है। परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान् अब भी नहीं पधारे! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभीतक नहीं लौटे ।।२३।। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्णका स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकड़नेके लिये—मुझे स्वीकार करनेके लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं? ।।२४।। ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं! विधाता और भगवान् शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों’ ।।२५।। परीक्षित्! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुनमें पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान्ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हींको सोचते-सोचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसूभरे नेत्र बन्द कर लिये ।।२६।। परीक्षित्! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतमके आगमनका प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे ।।२७।। इतनेमें ही भगवान् श्रीकृष्णके भेजे हुए वे ब्राह्मण-देवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुरमें राजकुमारी रुक्मिणीको इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो ।।२८।। सती रुक्मिणीजीने देखा ब्राह्मण-देवताका मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरेपर किसी प्रकारकी घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणोंसे ही समझ गयीं कि भगवान् श्रीकृष्ण आ गये! फिर प्रसन्नतासे खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवतासे पूछा ।।२९।। तब ब्राह्मणदेवताने निवेदन किया कि ‘भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारीजी! आपको ले जानेकी उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है’ ।।३०।। भगवान्के शुभागमनका समाचार सुनकर रुक्मिणीजीका हृदय आनन्दातिरेकसे भर गया। उन्होंने इसके बदलेमें ब्राह्मणके लिये भगवान्के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत्की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवताको सौंप दी ।।३१।।
राजा भीष्मकने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्याका विवाह देखनेके लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजाकी सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की ।।३२।। और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ।।३३।। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान् थे। भगवान्के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान्को सेना और साथियोंके सहित समस्त सामग्रियोंसे युक्त निवासस्थानमें ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया ।।३४।। विदर्भराज भीष्मकजीके यहाँ निमन्त्रणमें जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धनके अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया ।।३५।। विदर्भदेशके नागरिकोंने जब सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान्के निवासस्थानपर आये और अपने नयनोंकी अंजलिमें भर-भरकर उनके वदनारविन्दका मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे ।।३६।। वे आपसमें इस प्रकार बातचीत करते थे—रुक्मिणी इन्हींकी अर्द्धांगिनी होनेके योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीके ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होनेके योग्य नहीं है ।।३७।। यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्ममें कुछ भी सत्कर्म किया हो तो त्रिलोक-विधाता भगवान् हमपर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका पाणिग्रहण करें’ ।।३८।।
परीक्षित्! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्तःपुरसे निकलकर देवीजीके मन्दिरके लिये चलीं। बहुत-से सैनिक उनकी रक्षामें नियुक्त थे ।।३९।। वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरण-कमलोंका चिन्तन करती हुई भगवती भवानीके पाद-पल्लवोंका दर्शन करनेके लिये पैदल ही चलीं ।।४०।। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओरसे उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।।४१।। बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ोंसे सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकारके उपहार तथा पूजन आदिकी सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ भी साथ थीं ।।४२।। गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिनके चारों ओर जय-जयकार करते—विरद बखानते जा रहे थे ।।४३।। देवीजीके मन्दिरमें पहुँचकर रुक्मिणीजीने अपने कमलके सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतरसे पवित्र एवं शान्तभावसे युक्त होकर अम्बिकादेवीके मन्दिरमें प्रवेश किया ।।४४।। बहुत-सी विधि-विधान जाननेवाली बड़ी-बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान् शंकरकी अर्द्धांगिनी भवानीको और भगवान् शंकरजीको भी रुक्मिणीजीसे प्रणाम करवाया ।।४५।। रुक्मिणीजीने भगवतीसे प्रार्थना की—‘अम्बिकामाता! आपकी गोदमें बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजीको तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’ ।।४६।। इसके बाद रुक्मिणीजीने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकारके नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियोंसे अम्बिकादेवीकी पूजा की ।।४७।। तदनन्तर उक्त सामग्रियोंसे तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईखसे सुहागिन ब्राह्मणियोंकी भी पूजा की ।।४८।। तब ब्राह्मणियोंने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिनने ब्राह्मणियों और माता अम्बिकाको नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया ।।४९।। पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जानेपर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठीसे जगमगाते हुए करकमलके द्वारा एक सहेलीका हाथ पकड़कर वे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकलीं ।।५०।।
परीक्षित्! रुक्मिणीजी भगवान्की मायाके समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरोंको भी मोहित कर लेनेवाली थीं। उनके होठोंपर मनोहर मुसकान थी। उस समय जरासन्धके वशवर्ती अभिमानी राजाओंको अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्तिका लाल-लाल होठोंकी चमकसे उसपर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवोंके पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरू रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलोंसे पैदल ही राजहंसकी गतिसे चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छबि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेवने ही भगवान्का कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने बाणोंसे उनका हृदय जर्जर कर दिया ।।५२।। रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सवयात्राके बहाने मन्द-मन्द गतिसे चलकर भगवान् श्रीकृष्णपर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवनपर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथोंसे अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ोंसे धरतीपर आ गिरे ।।५३।। इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा करती हुई अपने कमलकी कलीके समान सुकुमार चरणोंको बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थीं। उन्होंने अपने बायें हाथकी अँगुलियोंसे मुखकी ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियोंकी ओर लजीली चितवनसे देखा। असी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन हुए ।।५४।। राजकुमारी रुक्मिणीजी रथपर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान् श्रीकृष्णने समस्त शत्रुओंके देखते-देखते उनकी भीड़मेंसे रुक्मिणीजीको उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओंके सिरपर पाँव रखकर उन्हें अपने उस रथपर बैठा लिया, जिसकी ध्वजापर गरुड़का चिह्न लगा हुआ था ।।५५।। इसके बाद जैसे सिंह सियारोंके बीचमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजीको लेकर भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियोंके साथ वहाँसे चल पड़े ।।५६।।
अथ चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोधसे आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान् श्रीकृष्णके पीछे दौड़े ।।१।। राजन्! जब यदुवंशियोंके सेनापतियोंने देखा कि शत्रुदल हमपर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुषका टंकार किया और घूमकर उनके सामने डट गये ।।२।। जरासन्धकी सेनाके लोग कोई घोड़ेपर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेदके बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियोंपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ोंपर मूसलधार पानी बरसा रहे हों ।।३।। परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने देखा कि उनके पति श्रीकृष्णकी सेना बाण-वर्षासे ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जाके साथ भयभीत नेत्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णके मुखकी ओर देखा ।।४।। भगवान्ने हँसकर कहा—‘सुन्दरी! डरो मत। तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओंकी सेनाको नष्ट किये डालती है’ ।।५।। इधर गद और संकर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओंका पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणोंसे शत्रुओंके हाथी, घोड़े तथा रथोंको छिन्न-भिन्न करने लगे ।।६।। उनके बाणोंसे रथ, घोड़े और हाथियोंपर बैठे विपक्षी वीरोंके कुण्डल, किरीट और पगड़ियोंसे सुशोभित करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर पृथ्वीपर गिरने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्योंके सिर भी कट-कटकर रण-भूमिमें लोटने लगे ।।७-८।। अन्तमें विजयकी सच्ची आकांक्षावाले यदुवंशियोंने शत्रुओंकी सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्धसे पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए ।।९।।
इस बार हमारे शत्रुओंकी ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। रुक्मीकी बात सुनकर भगवान् तब हम भी उन्हें जीत लेंगे’ ।।१६।। परीक्षित्! जब मित्रोंने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियोंके साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरनेसे बचे थे, अपने-अपने नगरोंको चले गये ।।१७।। रुक्मिणीजीका बड़ा भाई रुक्मी भगवान् श्रीकृष्णसे बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकुल सहन न हुई कि मेरी बहिनको श्रीकृष्ण हर ले जायँ और राक्षसरीतिसे बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्णका पीछा किया ।।१८।। महाबाहु रुक्मी क्रोधके मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियोंके सामने यह प्रतिज्ञा की— ।।१९।। ‘मैं आपलोगोंके बीचमें यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्धमें श्रीकृष्णको न मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा’ ।।२०।। परीक्षित्! यह कहकर वह रथपर सवार हो गया और सारथिसे बोला—‘जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ युद्ध होगा ।।२१।। आज मैं अपने तीखे बाणोंसे उस खोटी बुद्धिवाले ग्वालेके बल-वीर्यका घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिनको बलपूर्वक हर ले गया है’ ।।२२।। परीक्षित्! रुक्मीकी बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान्के तेज-प्रभावको बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथसे श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ललकारने लगा—‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ ।।२३।। उसने अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर भगवान् श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा—‘एक क्षण मेरे सामने ठहर! यदुवंशियोंके कुलकलंक! जैसे कौआ होमकी सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही तू मेरी बहिनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है? अरे मन्द! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्धमें कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ ।।२४-२५।। देख! जबतक मेरे बाण तुझे धरतीपर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्चीको छोड़कर भाग जा।’ रुक्मीकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर छः बाण छोड़े ।।२६।। साथ ही भगवान् श्रीकृष्णने आठ बाण उसके चार घोड़ोंपर और दो सारथिपर छोड़े और तीन बाणोंसे उसके रथकी ध्वजाको काट डाला। तब रुक्मीने दूसरा धनुष उठाया और भगवान् श्रीकृष्णको पाँच बाण मारे ।।२७।। उन बाणोंके लगनेपर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मीने इसके बाद एक और धनुष लिया, परन्तु हाथमें लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युतने उसे भी काट डाला ।।२८।। इस प्रकार रुक्मीने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमर—जितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभीको भगवान्ने प्रहार करनेके पहले ही काट डाला ।।२९।। अब रुक्मी क्रोधवश हाथमें तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे रथसे कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतिंगा आगकी ओर लपकता है ।।३०।। जब भगवान्ने देखा कि रुक्मी मुझपर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणोंसे उसकी ढाल-तलवारको तिल-तिल करके काट दिया और उसको मार डालनेके लिये हाथमें तीखी तलवार निकाल ली ।।३१।। जब रुक्मिणीजीने देखा कि ये तो हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भयसे विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर गिरकर करुण-स्वरमें बोलीं— ।।३२।। ‘देवताओंके भी आराध्यदेव! जगत्पते! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओंको कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं, परन्तु कल्याणस्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैयाको मारना आपके योग्य काम नहीं है’ ।।३३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रुक्मिणीजीका एक-एक अंग भयके मारे थर-थर काँप रहा था। शोककी प्रबलतासे मुँह सूख गया था, गला रुँध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे गिर पड़ा था और इसी अवस्थामें वे भगवान्के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान् उन्हें भयभीत देखकर करुणासे द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मीको मार डालनेका विचार छोड़ दिया ।।३४।। फिर भी रुक्मी उनके अनिष्टकी चेष्टासे विमुख न हुआ। तब भगवान् श्रीकृष्णने उसको उसीके दुपट्टेसे बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगहसे मूँड़कर उसे कुरूप बना दिया। तबतक यदुवंशी वीरोंने शत्रुकी अद्भुत सेनाको तहस-नहस कर डाला—ठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको रौंद डालता है ।।३५।। फिर वे लोग उधरसे लौटकर श्रीकृष्णके पास आये तो देखा कि रुक्मी दुपट्टेसे बँधा हुआ अधमरी अवस्थामें पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान् बलरामजीको बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्णसे कहा— ।।३६।। ‘कृष्ण! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगोंके योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धीकी दाढ़ी-मूँछ मूँड़कर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकारका वध ही है’ ।।३७।। इसके बाद बलरामजीने रुक्मिणीको सम्बोधन करके कहा—‘साध्वी! तुम्हारे भाईका रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हमलोगोंसे बुरा न मानना; क्योंकि जीवको सुख-दुःख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्मका फल भोगना पड़ता है’ ।।३८।। अब श्रीकृष्णसे बोले—‘कृष्ण! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे तो भी अपने ही सम्बन्धियोंके द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराधसे ही मर चुका है, मरे हुएको फिर क्या मारना?’ ।।३९।। फिर रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी! ब्रह्माजीने क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाईको मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है’ ।।४०।। इसके बाद श्रीकृष्णसे बोले—‘भाई कृष्ण! यह ठीक है कि जो लोग धनके नशेमें अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारणसे अपने बन्धुओंका भी तिरस्कार कर दिया करते हैं’ ।।४१।।
अब वे रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी! तुम्हारे भाई-बन्धु समस्त प्राणियोंके प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मंगलके लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियोंकी भाँति अमंगल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी विषमता है ।।४२।। देवि! जो लोग भगवान्की मायासे मोहित होकर देहको ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हींको ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है ।।४३।। समस्त देहधारियोंकी आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, मायासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियोंके भेदसे जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परन्तु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीरके भेदसे आत्माका भेद मानते हैं ।।४४।। यह शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मामें उसके अज्ञानसे ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता है’, उसको जन्म-मृत्युके चक्करमें ले जाता है ।।४५।। साध्वी! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्यके द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्यके साथ नेत्र और रूपका न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसारकी सत्ता आत्मसत्ताके कारण जान पड़ती है, समस्त संसारका प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्माके साथ दूसरे असत् पदार्थोंका संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है? ।।४६।। जन्म लेना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और मरना ये सारे विकार शरीरके ही होते हैं, आत्माके नहीं। जैसे कृष्णपक्षमें कलाओंका ही क्षय होता है, चन्द्रमाका नहीं, परन्तु अमावस्याके दिन व्यवहारमें लोग चन्द्रमाका ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीरके ही होते हैं, परन्तु लोग उसे भ्रमवश अपना—अपने आत्माका मान लेते हैं ।।४७।। जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थके न होनेपर भी स्वप्नमें भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलोंका अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठमूठ संसार-चक्रका अनुभव करते हैं ।।४८।। इसलिये साध्वी! अज्ञानके कारण होनेवाले इस शोकको त्याग दो। यह शोक अन्तःकरणको मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोड़कर तुम अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ’ ।।४९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब बलरामजीने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने अपने मनका मैल मिटाकर विवेक-बुद्धिसे उसका समाधान किया ।।५०।। रुक्मीकी सेना और उसके तेजका नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्तकी सारी आशा-अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओंने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जानेकी कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी ।।५१।। अतः उसने अपने रहनेके लिये भोजकट नामकी एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दुर्बुद्धि कृष्णको मारे बिना और अपनी छोटी बहिनको लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा ।।५२।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सब राजाओंको जीत लिया और विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीको द्वारकामें लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।।५३।। हे राजन्! उस समय द्वारकापुरीमें घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँके सभी लोगोंका यदुपति श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम जो था ।।५४।। वहाँके सभी नर-नारी मणियोंके चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्दसे भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिनको अनेकों भेंटकी सामग्रियाँ उपहारमें दीं ।।५५।। उस समय द्वारकाकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी-बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचेतक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नोंके तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वारपर दूब, खील आदि मंगलकी वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा और धूपकी सुगन्ध तथा दीपावलीसे बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी ।।५६।। मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियोंके मदसे द्वारकाकी सड़क और गलियोंका छिड़काव हो गया था। प्रत्येक दरवाजेपर केलोंके खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे ।।५७।। उस उत्सवमें कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धु-वर्गोंमें कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशोंके लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे ।।५८।। जहाँ-तहाँ रुक्मिणी-हरणकी ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं ।।५९।। महाराज! भगवती लक्ष्मीजीको रुक्मिणीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णके साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियोंको परम आनन्द हुआ ।।६०।।
प्रभु, मुझे तो रुलाते ही मेरी मैया को भी अपनी लीलाओं से परेशान करते हो। मैया कितनी डर गई थी. तुम्हारी बीती भी तुम पर ही गई है। आज तुम्हारी वेशभूषा देख कर लग रहा है जैसे मैया के भाई को तुमने बंद दिया था, मैया ने तुम्हें अपने दुपट्टे से बांध दिया है
प्रभु, विचार लो, चाहे कितने ही कल्प न लग जाए कभी न कभी तो मेरी सखी को लेकर तुम्हारे पास पहुंच ही जाऊंगा। फिर बचलेना अपना पीतांबर। जितना रुलाओगे उतना ही गीला होगा। सोच लो क्या बताओगे सबको, वरना लोग क्या कहेंगे
जय रुक्मिणीपांडुरंग
March 28, 2025
मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥
प्रभु रात भर बार नींद खुलती रही। सपने में पहले वृन्दावन में यमुना जी के तट पर विचार रहा था, फिर बहके किसी किनारे पहुँच गया, फिर किसी पहाड़ी से वृन्दावन देख रहा था, फिर उस दिन के तरह पैनिक अटैक और हाथ जोड़ी सुन्न हो ने लगे, मम्मी पापा पार्षद के पास ले गये, वहा बैठे लोग मुझे पागल समझ रहे द, उसके बाद युद्ध शुरू हो गया और किसी बंकर में जा के चुप हो गए। प्रभु रात भर मन विचलित रहा, सब का ख्याल तो रख रहे हो ना? मन दिन रात यही विशलेषण में लगा रहता है कि मीनू ने कितना मुझसे सत्य बोला और कितना?
चरण शरण में आए के , धरु तुम्हारा ध्यान।
संकट से रक्षा करो, पवन पुत्र हनुमान।
दुर्गम काज बनाए के, कीजो भगत निहाल।
अब मोरी विनती सुनो, हे अंजनी के लाल।
हाथ जोड़ विनती करू सुनो वीर हनुमान।
दर्शन दो सियाराम के, प्रेम भक्ति देहु दान।
कष्टो से रक्षा करो, राम भक्ति देहु दान।
पवन पुत्र हनुमान।
हनुमानजी की जय।
प्रभु, आज तो लग रहा है, माता ने तुम्हें साड़ी से बंद दिया और चुटिया भी लगा दी।
March 28, 2025
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि।।
भोले बाबा, आज गांव में तुम्हारे मुनेश्वर रूप की पूजा में मीनू की बहुत याद आ रही थी। बचपन में प्रतिदिन कितने प्यार से रगड़ रगड़ कर सब ओर से तुम्हें स्नान कराता था ये कहका कि तुम्हारी लाड़ली तुहारी आरती करने आती होगी, तैयार हो जाओ। मंदिर का फर्श धोने के बाद ध्यान देता के मेरे पैरों के निशान ना रह जाए ताकि धोने के बाद सबसे पहले मेरी सखी के चरण तुम्हारे मंदिर में पड़े। बचपन मीनू में कितना प्यार और लाए से तुम्हारी आरती गाती थी। मुझसे तो आज तक पंकतिया आगे पीछे हो जाती है, मेरी सखी के साथ ही गाता था। अंकलजी काम में व्यस्त होने के कारण कभी-कभार ही जयकारा लगाने आते थे, लेकिन कभी-कभी गुस्सा आता था जब पास में बैठ के गपशप मारते रहते थे और आरती में नहीं आते थे। हे माहाकाल, कब वो समय आएगा जब मैं मीनू और समस्त परिवार के साथ तुम्हारी पूजा करूंगा। मेरी सखी के बिना मेरी कोई पूजा पूरी कैसे हो सकती है। धरमिक कार्य बिना धर्म पत्नी के कैसे कर पाऊंगा। मेरे सब फ़ाल मे आधा अधिकार तो मीनू का ही है। मीनू लेनो को तैयार नहीं तो तुम्हें ही अर्पण। अपना जो भी थोड़ा बहुत फ़ाल है तुम्हें पहले ही समर्पित कर दिया। सबका कल्याण करो
पंच पूज्य देवों के नाम और प्रभाव इस प्रकार हैं— सै.म.
गणपति सूर्य विष्णु शिव दुर्गा पंच देव कहलाएँ।
गणपति के सुमिरन से कार्य में बाधा विघ्न न आएँ।।
सूर्य करें पथ आलोकित तो विष्णु जगत् के त्राता।
शिव करते कल्याण तो दुर्गति नाशिनी दुर्गा माता।।
अथ पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! श्रीकृष्णकुमार भगवान् प्रद्युम्न बहुत थोड़े दिनोंमेंवान्की क्रोधाग्निसे भस्म हो गये थे। अब फिर शरीर-प्राप्तिके लिये उन्होंने अपने अंशी भगवान् वासुदेवका ही आश्रय लिया ।।१।। वे ही काम अबकी बार भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा रुक्मिणीजीके गर्भसे उत्पन्न हुए और प्रद्युम्न नामसे जगत्में प्रसिद्ध हुए। सौन्दर्य, वीर्य, सौशील्य आदि सद्गुणोंमें भगवान् श्रीकृष्णसे वे किसी प्रकार कम न थे ।।२।। बालक प्रद्युम्न अभी दस दिनके भी न हुए थे कि कामरूपी शम्बरासुर वेष बदलकर सूतिकागृहसे उन्हें हर ले गया और समुद्रमें फेंककर अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था कि यह मेरा भावी शत्रु है ।।३।। समुद्रमें बालक प्रद्युम्नको एक बड़ा भारी मच्छ निगल गया। तदनन्तर मछुओंने अपने बहुत बड़े जालमें फँसाकर दूसरी मछलियोंके साथ उस मच्छको भी पकड़ लिया ।।४।। और उन्होंने उसे ले जाकर शम्बरासुरको भेंटके रूपमें दे दिया। शम्बरासुरके रसोइये उस अद्भुत मच्छको उठाकर रसोईघरमें ले आये और कुल्हाड़ियोंसे उसे काटने लगे ।।५।। रसोइयोंने मत्स्यके पेटमें बालक देखकर उसे शम्बरासुरकी दासी मायावतीको समर्पित किया। उसके मनमें बड़ी शंका हुई। तब नारदजीने आकर बालकका कामदेव होना, श्रीकृष्णकी पत्नी रुक्मिणीके गर्भसे जन्म लेना, मच्छके पेटमें जाना सब कुछ कह सुनाया ।।६।। परीक्षित्! वह मायावती कामदेवकी यशस्विनी पत्नी रति ही थी। जिस दिन शंकरजीके क्रोधसे कामदेवका शरीर भस्म हो गया था, उसी दिनसे वह उसकी देहके पुनः उत्पन्न होनेकी प्रतीक्षा कर रही थी ।।७।। उसी रतिको शम्बरासुरने अपने यहाँ दाल-भात बनानेके काममें नियुक्त कर रखा था। जब उसे मालूम हुआ कि इस शिशुके रूपमें मेरे पति कामदेव ही हैं, तब वह उसके प्रति बहुत प्रेम करने लगी ।।८।। श्रीकृष्णकुमार भगवान् प्रद्युम्न बहुत थोड़े दिनोंमें जवान हो गये।
कमलदलके समान कोमल एवं विशाल नेत्र, घुटनोंतक लंबी-लंबी बाँहें और मनुष्यलोकमें सबसे सुन्दर शरीर! रति सलज्ज हास्यके साथ भौंह मटका-कर उनकी ओर देखती और प्रेमसे भरकर स्त्री-पुरुषसम्बन्धी भाव व्यक्त करती हुई उनकी सेवा-शुश्रूषामें लगी रहती ।।१०।। श्रीकृष्णनन्दन भगवान् प्रद्युम्नने उसके भावोंमें परिवर्तन देखकर कहा—‘देवि! तुम तो मेरी माँके समान हो। तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? मैं देखता हूँ कि तुम माताका भाव छोड़कर कामिनीके समान हाव-भाव दिखा रही हो’ ।।११।। रतिने कहा—‘प्रभो! आप स्वयं भगवान् नारायणके पुत्र हैं। शम्बरासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था। आप मेरे पति स्वयं कामदेव हैं और मैं आपकी सदाकी धर्म-पत्नी रति हूँ ।।१२।। मेरे स्वामी! जब आप दस दिनके भी न थे, तब इस शम्बरासुरने आपको हरकर समुद्रमें डाल दिया था। वहाँ एक मच्छ आपको निगल गया और उसीके पेटसे आप यहाँ मुझे प्राप्त हुए हैं ।।१३।। यह शम्बरासुर सैकड़ों प्रकारकी माया जानता है। इसको अपने वशमें कर लेना या जीत लेना बहुत ही कठिन है। आप अपने इस शत्रुको मोहन आदि मायाओंके द्वारा नष्ट कर डालिये ।।१४।। स्वामिन्! अपनी सन्तान आपके खो जानेसे आपकी माता पुत्रस्नेहसे व्याकुल हो रही हैं, वे आतुर होकर अत्यन्त दीनतासे रात-दिन चिन्ता करती रहती हैं। उनकी ठीक वैसी ही दशा हो रही है, जैसी बच्चा खो जानेपर कुररी पक्षीकी अथवा बछड़ा खो जानेपर बेचारी गायकी होती है’ ।।१५।। मायावती रतिने इस प्रकार कहकर परमशक्तिशाली प्रद्युम्नको महामाया नामकी विद्या सिखायी। यह विद्या ऐसी है, जो सब प्रकारकी मायाओंका नाश कर देती है ।।१६।। अब प्रद्युम्नजी शम्बरासुरके पास जाकर उसपर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे। वे चाहते थे कि यह किसी प्रकार झगड़ा कर बैठे। इतना ही नहीं, उन्होंने युद्धके लिये उसे स्पष्टरूपसे ललकारा ।।१७।।
प्रद्युम्नजीके कटुवचनोंकी चोटसे शम्बरासुर तिलमिला उठा। मानो किसीने विषैले साँपको पैरसे ठोकर मार दी हो। उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वह हाथमें गदा लेकर बाहर निकल आया ।।१८।। उसने अपनी गदा बड़े जोरसे आकाशमें घुमायी और इसके बाद प्रद्युम्नजीपर चला दी। गदा चलाते समय उसने इतना कर्कश सिंहनाद किया, मानो बिजली कड़क रही हो ।।१९।। परीक्षित्! भगवान् प्रद्युम्नने देखा कि उसकी गदा बड़े वेगसे मेरी ओर आ रही है। तब उन्होंने अपनी गदाके प्रहारसे उसकी गदा गिरा दी और क्रोधमें भरकर अपनी गदा उसपर चलायी ।।२०।। तब वह दैत्य मयासुरकी बतलायी हुई आसुरी मायाका आश्रय लेकर आकाशमें चला गया और वहींसे प्रद्युम्नजीपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा ।।२१।। महारथी प्रद्युम्नजीपर बहुत-सी अस्त्र-वर्षा करके जब वह उन्हें पीड़ित करने लगा तब उन्होंने समस्त मायाओंको शान्त करनेवाली सत्त्वमयी महाविद्याका प्रयोग किया ।।२२।। तदनन्तर शम्बरासुरने यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षसोंकी सैकड़ों मायाओंका प्रयोग किया; परन्तु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नजीने अपनी महाविद्यासे उन सबका नाश कर दिया ।।२३।। इसके बाद उन्होंने एक तीक्ष्ण तलवार उठायी और शम्बरासुरका किरीट एवं कुण्डलसे सुशोभित सिर, जो लाल-लाल दाढ़ी, मूँछोंसे बड़ा भयंकर लग रहा था, काटकर धड़से अलग कर दिया ।।२४।। देवतालोग पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाशमें चलना जानती थी, अपने पति प्रद्युम्नजीको आकाशमार्गसे द्वारकापुरीमें ले गयी ।।२५।।
परीक्षित्! आकाशममुखारविन्दपर घुँघराली और नीली अलकें इस प्रकार शोभायमान हो रही हैं, मानो भौंरेंऔर मेघका जोड़ा हो। इस प्रकार उन्होंने भगवान्के उस उत्तम अन्तःपुरमें प्रवेश किया जिसमें सैकड़ों श्रेष्ठ रमणियाँ निवास करती थीं ।।२६।। अन्तः-पुरकी नारियोंने देखा कि प्रद्युम्नजीका शरीर वर्षाकालीन मेघके समान श्यामवर्ण है। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए हैं। घुटनोंतक लंबी भुजाएँ हैं। रतनारे नेत्र हैं और सुन्दर मुखपर मन्द-मन्द मुसकानकी अनूठी ही छटा है। उनके मुखारविन्दपर घुँघराली और नीली अलकें इस प्रकार शोभायमान हो रही हैं, मानो भौंरें खेल रहे हों। इसी समय वहाँ रुक्मिणीजी आ पहुँचीं। परीक्षित्! उनके नेत्र कजरारे और वाणी अत्यन्त मधुर थी। इस नवीन दम्पतिको देखते ही उन्हें अपने खोये हुए पुत्रकी याद हो आयी।
रुक्मिणीजी सोचने लगीं—‘यह नररत्न कौन है? यह कमलनयन किसका पुत्र है? किस बड़भागिनीने इसे अपने गर्भमें धारण किया होगा? इसे यह कौन सौभाग्यवती पत्नी-रूपमें प्राप्त हुई है? ।।३१।। मेरा भी एक नन्हा-सा शिशु खो गया था। न जाने कौन उसे सूतिकागृहसे उठा ले गया! यदि वह कहीं जीता-जागता होगा तो उसकी अवस्था तथा रूप भी इसीके समान हुआ होगा ।।३२।। मैं तो इस बातसे हैरान हूँ कि इसे भगवान् श्यामसुन्दरकी-सी रूप-रेखा, अंगोंकी गठन, चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और बोल-चाल कहाँसे प्राप्त हुई? ।।३३।। हो-न-हो यह वही बालक है, जिसे मैंने अपने गर्भमें धारण किया था; क्योंकि स्वभावसे ही मेरा स्नेह इसके प्रति उमड़ रहा है और मेरी बायीं बाँह भी फड़क रही है’ ।।३४।।
जिस समय रुक्मिणीजी इस प्रकार सोच-विचार कर रही थीं—निश्चय और सन्देहके झूलेमें झूल रही थीं, उसी समय पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजीके साथ वहाँ पधारे ।।३५।। भगवान् श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे। परन्तु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। इतनेमें ही नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने प्रद्युम्नजीको शम्बरासुरका हर ले जाना, समुद्रमें फेंक देना आदि जितनी भी घटनाएँ घटित हुई थीं, वे सब कह सुनायीं ।।३६।। नारदजीके द्वारा यह महान् आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान् श्रीकृष्णके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ चकित हो गयीं और बहुत वर्षोंतक खोये रहनेके बाद लौटे हुए प्रद्युम्नजीका इस प्रकार अभिनन्दन करने लगीं, मानो कोई मरकर जी उठा हो ।।३७।। देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी और स्त्रियाँ—सब उस नवदम्पतिको हृदयसे लगाकर बहुत ही आनन्दित हुए ।।३८।। जब द्वारकावासी नर-नारियोंको यह मालूम हुआ कि खोये हुए प्रद्युम्नजी लौट आये हैं तब वे परस्पर कहने लगे ‘अहो, कैसे सौभाग्यकी बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया’ ।।३९।।
अथ षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्णका विवाह
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! सत्राजित् भगवान् सूर्यका बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान्ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उसे स्यमन्तकमणि दी थी ।।३।। सत्राजित् उस मणिको गलेमें धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित्! जब सत्राजित् द्वारकामें आया, तब अत्यन्त तेजस्विताके कारण लोग उसे पहचान न सके ।।४।। दूरसे ही उसे देखकर लोगोंकी आँखें उसके तेजसे चौंधिया गयीं। लोगोंने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगोंने भगवान्के पास आकर उन्हें इस बातकी सूचना दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे ।।५।।
नारायण नमस्तेऽस्तु शंखचक्रगदाधर । दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन ।।६
लोगोंने कहा—‘शंख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द! आपको नमस्कार है ।।६।। जगदीश्वर! देखिये! अपनी चमकीली किरणोंसे लोगोंके नेत्रोंको चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं ।।७।। प्रभो! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकीमें आपकी प्राप्तिका मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंशमें छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’ ।।८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! घरपरन पुरुषोंकी यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित् है, जो मणिके कारण इतना चमक रहा है ।।९।। इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घरमें चला आया। घरपर उसके शुभागमनके उपलक्ष्यमें मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणोंके द्वारा स्यमन्तकमणिको एक देवमन्दिरमें स्थापित करा दिया ।।१०।। परीक्षित्! वह मणि प्रतिदिन आठ भार* सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा माया-वियोंका उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था ।।११।। एक बार भगवान् श्रीकृष्णने प्रसंगवश कहा—‘सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेनको दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान्की आज्ञाका उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।।१२।। एक दिन सत्राजित्के भाई प्रसेनने उस परम प्रकाशमयी मणिको अपने गलेमें धारण कर लिया और फिर वह घोड़ेपर सवार होकर शिकार खेलने वनमें चला गया ।।१३।। वहाँ एक सिंहने घोड़े सहित प्रसेनको मार डाला और उस मणिको छीन लिया। वह अभी पर्वतकी गुफामें प्रवेश कर ही रहा था कि मणिके लिये ऋक्षराज जाम्बवान्ने उसे मार डाला ।।१४।। उन्होंने वह मणि अपनी गुफामें ले जाकर बच्चेको खेलनेके लिये दे दी। अपने भाई प्रसेनके न लौटनेसे उसके भाई सत्राजित्को बड़ा दुःख हुआ ।।१५।। वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्णने ही मेरे भाईको मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गलेमें डालकर वनमें गया था।’ सत्राजित्की यह बात सुनकर लोग आपसमें काना-फूसी करने लगे ।।१६।। जब भगवान् श्रीकृष्णने सुना कि यह कलंकका टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहानेके उद्देश्यसे नगरके कुछ सभ्य पुरुषोंको साथ लेकर प्रसेनको ढूँढ़नेके लिये वनमें गये ।।१७।। वहाँ खोजते-खोजते लोगोंने देखा कि घोर जंगलमें सिंहने प्रसेन और उसके घोड़ेको मार डाला है। जब वे लोग सिंहके पैरोंका चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगोंने यह भी देखा कि पर्वतपर एक रीछने सिंहको भी मार डाला है ।।१८।।
भगवान् श्रीकृष्णने सब लोगोंको बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकारसे भरी हुई ऋक्षराजकी भयंकर गुफामें प्रवेश किया ।।१९।। भगवान्ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तकको बच्चोंका खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेनेकी इच्छासे बच्चेके पास जा खड़े हुए ।।२०।। उस गुफामें एक अपरिचित मनुष्यको देखकर बच्चेकी धाय भयभीतकी भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये ।।२१।। परीक्षित्! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान्की महिमा, उनके प्रभावका पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध करने लगे ।।२२।। जिस प्रकार मांसके लिये दो बाज आपसमें लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपसमें घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार किया, फिर शिलाओंका, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरेपर फेंकने लगे। अन्तमें उनमें बाहुयुद्ध होने लगा ।।२३।। परीक्षित्! वज्र-प्रहारके समान कठोर घूँसोंसे आपसमें वे अट्ठाईस दिनतक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे ।।२४।। अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके घूँसोंकी चोटसे जाम्बवान्के शरीरकी एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित—चकित होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा— ।।२५।। ‘प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियोंके स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान् विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ।।२६।। आप विश्वके रचयिता ब्रह्मा आदिको भी बनानेवाले हैं। बनाये हुए पदार्थोंमें भी सत्तारूपसे आप ही विराजमान हैं। कालके जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओंके परम आत्मा भी आप ही हैं ।।२७।। प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रोंमें तनिक-सा क्रोधका भाव लेकर तिरछी दृष्टिसे समुद्रकी ओर देखा था। उस समय समुद्रके अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्रने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उसपर सेतु बाँधकर सुन्दर यशकी स्थापना की तथा लंकाका विध्वंस किया। आपके बाणोंसे कट-कटकर राक्षसोंके सिर पृथ्वीपर लोट रहे थे (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्णके रूपमें आये हैं)’ ।।२८।। परीक्षित्! जब ऋक्षराज जाम्बवान्ने भगवान्को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्णने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमलको उनके शरीरपर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपासे भरकर प्रेम-गम्भीर वाणीसे अपने भक्त जाम्बवान्जीसे कहा— ।।२९-३०।। ‘ऋक्षराज! हम मणिके लिये ही तुम्हारी इस गुफामें आये हैं। इस मणिके द्वारा मैं अपनेपर लगे झूठे कलंकको मिटाना चाहता हूँ’ ।।३१।। भगवान्के ऐसा कहनेपर जाम्बवान्ने बड़े आनन्दसे उनकी पूजा करनेके लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवतीको मणिके साथ उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।।३२।।
भगवान् श्रीकृष्ण जिन लोगोंको गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिनतक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अबतक वे गुफामेंसे नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर द्वारकाको लौट गये ।।३३।। वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफामेंसे नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ ।।३४।। सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित्को भला-बुरा कहने लगे और भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये महामाया दुर्गादेवीकी शरणमें गये, उनकी उपासना करने लगे ।।३५।। उनकी उपासनासे दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीचमें मणि और अपनी नववधू जाम्बवतीके साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये ।।३६।। सभी द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्णको पत्नीके साथ और गलेमें मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ।।३७।।
तदनन्तर भगवान्ने सत्राजित्को राजसभामें महाराज उग्रसेनके पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित्को सौंप दी ।।३८।। सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचेकी ओर लटक गया। अपने अपराधपर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।।३९।। उसके मनकी आँखोंके सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान्के साथ विरोध करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराधका मार्जन कैसे करूँ? मुझपर भगवान् श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ।।४०।। मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धनके लोभसे मैं बड़ी मूढ़ताका काम कर बैठा ।।४१।। अब मैं रमणियोंमें रत्नके समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्णको दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसीसे मेरे अपराधका मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’ ।।४२।। सत्राजित्ने अपनी विवेक-बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्णको अर्पण कर दीं ।।४३।। सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न थीं। बहुत-से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगोंने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्रीकृष्णने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ।।४४।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने सत्राजित्से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्यभगवान्के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अर्थात् उससे निकले हुए सोनेके अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’ ।।४५।।
प्रभु, सब कुछ जान कर भी चुप रहे। माता रुक्मिणी कितनी परेशान थी। नहीं सुधरोगे। बाप बेटी को हम माँ बेटे को रोता देख कर बहुत आनंद आता है।
March 29, 2025
गोविन्द मेरो है गोपाल मेरो है श्री बाँके बिहारी नन्दलाल मेरो है
प्रभु मैं निर्गुण निर्गुण निराकार, तुम सबके परे निर्गुण सगुण विहारी। मैं तुम्हें क्या अर्पण करु, कर्म, कर्ता, दृष्टा तो सब तुम ही हो। मेरे अनंत प्रभु को तुम ही अनंत समर्पित कर्ता हो। पर क्यों की अनंत से अनंत काम करदो तो रहता अनंत ही है, तुम फिर भी मेरे हो
त्वमेव माता च पिता त्वमेव. त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव. त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव. त्वमेव सर्वं मम देव देवः
जब मेरे तुम ही सब कुछ हो तो
किससे बांधू बैर जगत में कोई नहीं पराया हर मानव में प्रतिबिम्बित है उसी ब्रह्म की छाया
March 29, 2025
अथ सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः स्यमन्तक-हरण, शतधन्वाका उद्धार और अक्रूरजीको फिरसे द्वारका बुलाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णको इस बातका पता था कि लाक्षागृहकी आगसे पाण्डवोंका बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समयका कुल-परम्परोचित व्यवहार करनेके लिये वे बलरामजीके साथ हस्तिनापुर गये ।।१।। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्यसे मिलकर उनके साथ समवेदना—सहानुभूति प्रकट की और उन लोगोंसे कहने लगे—‘हाय-हाय! यह तो बड़े ही दुःखकी बात हुई’ ।।२।।
भगवान् श्रीकृष्णके हस्तिनापुर चले जानेसे द्वारकामें अक्रूर और कृतवर्माको अवसर मिल गया। उन लोगोंने शतधन्वासे आकर कहा—‘तुम सत्राजित्से मणि क्यों नहीं छीन लेते? ।।३।। सत्राजित्ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामाका विवाह हमसे करनेका वचन दिया था और अब उसने हमलोगोंका तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्णके साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेनकी तरह क्यों न यमपुरीमें जाय?’ ।।४।। शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिरपर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्माके इस प्रकार बहकानेपर शतधन्वा उनकी बातोंमें आ गया और उस महादुष्टने लोभवश सोये हुए सत्राजित्को मार डाला ।।५।।
सत्यभामाजीको यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी! हाय पिताजी! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच-बीचमें वे बेहोश हो जातीं और होशमें आनेपर फिर विलाप करने लगतीं ।।७।। इसके बाद उन्होंने अपने पिताके शवको तेलके कड़ाहेमें रखवा दिया और आप हस्तिनापुरको गयीं। उन्होंने बड़े दुःखसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने पिताकी हत्याका वृत्तान्त सुनाया—यद्यपि इन बातोंको भगवान् श्रीकृष्ण पहलेसे ही जानते थे ।।८।। परीक्षित्! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखोंमें आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो! हम लोगोंपर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी!’ ।।९।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजीके साथ हस्तिनापुरसे द्वारका लौट आये और शतधन्वाको मारने तथा उससे मणि छीननेका उद्योग करने लगे ।।१०।।
जब शतधन्वाको यह मालूम हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण मुझे मारनेका उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचानेके लिये उसने कृतवर्मासे सहायता माँगी। तब कृतवर्माने कहा— ।।११।। ‘भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्व-शक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोकमें सकुशल रह सके? ।।१२।। तुम जानते हो कि कंस उन्हींसे द्वेष करनेके कारण राज्यलक्ष्मीको खो बैठा और अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीरको भी उनके सामने सत्रह बार मैदानमें हारकर बिना रथके ही अपनी राजधानीमें लौट जाना पड़ा था’ ।।१३।। जब कृतवर्माने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने सहायताके लिये अक्रूरजीसे प्रार्थना की। उन्होंने कहा—‘भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान्का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान् खेल-खेलमें ही इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं—इस बातको मायासे मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्षकी अवस्थामें—जब वे निरे बालक थे, एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्तेको उखाड़कर हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेलमें सात दिनोंतक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ’ ।।१४-१७।। जब इस प्रकार अक्रूरजीने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने स्यमन्तक-मणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर वहाँसे बड़ी फुर्तीसे भागा ।।१८।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित्को मारनेवाले शतधन्वाका पीछा किया ।।१९।। मिथिलापुरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वाका घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ।।२०।। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान्ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा ।।२१।। परन्तु जब मणि मिली नहीं तब भगवान् श्रीकृष्णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—‘हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’ ।।२२।। बलरामजीने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ ।।२३।। मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित्! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये ।।२४।। जब मिथिलानरेशने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की ।।२५।। इसके बाद भगवान् बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे। महात्मा जनकने बड़े प्रेम और सम्मानसे उन्हें रखा। इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की ।।२६।। अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ।।२७।। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित्की वे सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है ।।२८।।
भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान् श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ।।३०-३१।। उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा—‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्यमें आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेशमें वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित्! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवान्ने सोचा कि ‘इस उपद्रवका यही कारण नहीं है’ यह जानकर भी भगवान्ने दूत भेजकर अक्रूरजीको ढुँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की ।।३२-३४।। भगवान्ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित्! भगवान् सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा— ।।३५।। ‘चाचाजी! आप दान-धर्मके पालक हैं। हमें यह बात पहलेसे ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ।।३६।। आप जानते ही हैं कि सत्राजित्के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लड़कीके लड़के—उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ।।३७।। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरोंके लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते ।।३८।। इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्ट-मित्र—बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें शान्तिका संचार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं’ ।।३९।। परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान् श्रीकृष्णको दे दी ।।४०।। भगवान् श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखनेमें समर्थ होनेपर भी पुनः अक्रूरजीको लौटा दिया ।।४१।।
अथाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब पाण्डवोंका पता चल गया था कि वे लाक्षाभवनमें जले नहीं हैं। एक बार भगवान् श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे ।।१।। जब वीर पाण्डवोंने देखा कि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राणका संचार होनेपर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए ।।२।। वीर पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्णका आलिंगन किया, उनके अंग-संगसे इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान्की प्रेमभरी मुसकराहटसे सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्दमें मग्न हो गये ।।३।। भगवान् श्रीकृष्णने युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया और अर्जुनको हृदयसे लगाया। नकुल और सहदेवने भगवान्के चरणोंकी वन्दना की ।।४।। जब भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासनपर विराजमान हो गये; तब परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होनेके कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान् श्रीकृष्णके पास आयी और उन्हें प्रणाम किया ।।५।।
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्तीके पास गये और उनके चरणोंमें प्रणाम किया। कुन्तीजीने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। कुन्तीजीने श्रीकृष्णसे अपने भाई-बन्धुओंकी कुशल-क्षेम पूछी और भगवान्ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मंगल पूछा ।।७।। उस समय प्रेमकी विह्वलतासे कुन्तीजीका गला रुँध गया था, नेत्रोंसे आँसू बह रहे थे। भगवान्के पूछनेपर उन्हें अपने पहलेके क्लेश-पर-क्लेश याद आने लगे और वे अपनेको बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त क्लेशोंका अन्त करनेके लिये ही हुआ करता है, उन भगवान् श्रीकृष्णसे कहने लगीं— ।।८।।
‘श्रीकृष्ण! जिस समय तुमने हमलोगोंको अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मंगल जाननेके लिये भाई अक्रूरको भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथोंको तुमने सनाथ कर दिया ।।९।। मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत्के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकारकी भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है। ऐसा होनेपर भी, श्रीकृष्ण! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदयमें आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परम्पराको सदाके लिये मिटा देते हो’ ।।१०।।
युधिष्ठिरजीने कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! हमें इसवीरशिरोमणि अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान् श्रीकृष्णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपरश्वर भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियोंको घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं’ ।।११।। राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार भगवान्का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहनेकी प्रार्थना की। इसपर भगवान् श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थके नर-नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे नयनानन्दका दान करते हुए बरसातके चार महीनोंतक सुखपूर्वक वहीं रहे ।।१२।। परीक्षित्! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान् श्रीकृष्णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर वानर-चिह्नसे चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी।
कालिन्दीने कहा—‘मैं भगवान् सूर्यदेवकी पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान् विष्णुको पतिके रूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ ।।२०।। वीर अर्जुन! मैं लक्ष्मीके परम आश्रय भगवान्को छोड़कर और किसीको अपना पति नहीं बना सकती। अनाथोंके एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ।।२१।। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुनाजलमें मेरे पिता सूर्यने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसीमें मैं रहती हूँ। जबतक भगवान्का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी’ ।।२२।। अर्जुनने जाकर भगवान् श्रीकृष्णसे सारी बातें कहीं। वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दीको अपने रथपर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिरके पास ले आये ।।२३।।
अवन्ती (उज्जैन) देशके राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधनके वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दाने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना पति बनाना चाहा। परन्तु विन्द और अनुविन्दने अपनी बहिनको रोक दिया ।।३०।। परीक्षित्! मित्रविन्दा श्रीकृष्णकी फूआ राजाधिदेवीकी कन्या थी। भगवान् श्रीकृष्ण राजाओंकी भरी सभामें उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये ।।३१।।
परीक्षित्! कोसलदेशके राजा थे नग्नजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परमसुन्दरी कन्याका नाम था सत्या; नग्नजित्की पुत्री होनेसे वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित्! राजाकी प्रतिज्ञाके अनुसार सात दुर्दान्त बैलोंपर विजय प्राप्त न कर सकनेके कारण कोई राजा उस कन्यासे विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुषकी गन्ध भी नहीं सह सकते थे ।।३२-३३।। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलोंको जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे ।।३४।। कोसलनरेश महाराज नग्नजित्ने बड़ी प्रसन्नतासे उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्रीसे उनका सत्कार किया। भगवान् श्रीकृष्णने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया ।।३५।। राजा नग्नजित्की कन्या सत्याने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदिका पालन करके इन्हींका चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसाको पूर्ण करें’ ।।३६।। नाग्नजिती सत्या मन-ही मन सोचने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकजका पराग अपने सिरपर धारण करते हैं और जिन प्रभुने अपनी बनायी हुई मर्यादाका पालन करनेके लिये ही समय-समयपर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियमसे प्रसन्न होंगे? वे तो केवल अपनी कृपासे ही प्रसन्न हो सकते हैं’ ।।३७।। परीक्षित्! राजा नग्नजित्ने भगवान् श्रीकृष्णकी विधि-पूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत्के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्दसे ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’ ।।३८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजन्! जो क्षत्रिय अपने धर्ममें स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानोंने उसके इस कर्मकी निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्दका—प्रेमका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदलेमें कुछ शुल्क देनेकी प्रथा नहीं है ।।४०।।
राजा नग्नजित्ने कहा—‘प्रभो! आप समस्त गुणोंके धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्षःस्थलपर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आपसे बढ़कर कन्याके लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है? ।।४१।। परन्तु यदुवंशशिरोमणे! हमने पहले ही इस विषयमें एक प्रण कर लिया है। श्रीकृष्ण! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वशमें कर लें, तो लक्ष्मीपते! आप ही हमारी कन्याके लिये अभीष्ट वर होंगे’ ।।४४।। भगवान् श्रीकृष्णने राजा नग्नजित्का ऐसा प्रण सुनकर कमरमें फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेलमें ही उन बैलोंको नाथ लिया ।।४५।। राजा नग्नजित्को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णको अपनी कन्याका दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।।४७।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देशमें ब्याही गयी थीं। उनकी कन्याका नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदिने उसे स्वयं ही भगवान् श्रीकृष्णको दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया ।।५६।। मद्रप्रदेशके राजाकी एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुड़ने स्वर्गसे अमृतका हरण किया था, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णने स्वयंवरमें अकेले ही उसे हर लिया ।।५७।।
प्रभु, तुम्हारी प्रकृति ने जो तुम्हें वचन दिया है, चाहे नरक में क्यों न जान पड़े, वाष्प नहीं लेगा। तुम्हीं विचारो रक्षा करने का मूड है कि नहीं!
आज दिन भर मेरी सखी के साथ झगड़ा करने का मन कर रहा था। मुझे तो डाँटने के भी योग्य न समझा। है कल्याणकारी, तुम्हारा ही सहारा है। हम सबका कल्याण करो
ॐ नमः शिवाय रामेश्वराय परमेश्वराय नमो नमः॥
March 30, 2025
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्माचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्म्रणव महात्मना।।
आज भी रात भर विचित्र सपनों में भटकता रहा। कभी मैं दर्शक था तो कभी मेरी सखी के बारे में अखबार में ढूंढ रहा था। कुछ हलचल नहीं मिल रहा. अंकलजी ने कहा था कि केवल मैसेज से समस्या है तो कभी-कभी खुद ही हलचल भेज दिया, पर ब्लॉक कर दिया। आज नव वर्ष के दिन भी उठते ही अजीब सा हाल था।
अथैकोनषष्टितमोऽध्यायः भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज-कन्याओंके साथ भगवान्का विवाह
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! भौमासुरने वरुणका छत्र, माता अदितिके कुण्डल और मेरु पर्वतपर स्थित देवताओंका मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इसपर सबके राजा इन्द्र द्वारकामें आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको सुनायी। अब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और भौमासुरकी राजधानी प्राग्ज्योतिषपुरमें गये ।।२।। प्राग्ज्योतिषपुरमें प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ोंकी किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रोंका घेरा लगाया हुआ था। फिर जलसे भरी खाईं थी, उसके बाद आग या बिजलीकी चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्यने नगरके चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे ।।३।। भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाकी चोटसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रोंकी मोरचे-बंदीको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्रके द्वारा अग्नि, जल और वायुकी चहारदीवारियोंको तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्यके फंदोंको तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दिया ।।४।। जो बड़े-बड़े यन्त्र—मशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीरपुरुषोंके हृदयको शंखनादसे विदीर्ण कर दिया और नगरके परकोटेको गदाधर भगवान्ने अपनी भारी गदासे ध्वंस कर डाला ।।५।।
भगवान्के पांचजन्य शंखकी ध्वनि प्रलयकालीन बिजलीकी कड़कके समान महाभयंकर थी। उसे सुनकर मुर दैत्यकी नींद टूटी और वह बाहर निकल आया।भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मुर दैत्यका त्रिशूल गरुड़की ओर बड़े वेगसे आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्तीसे उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्यके मुखोंमें भी भगवान्ने बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान्पर अपनी गदा चलायी ।।९।। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाके प्रहारसे मुर दैत्यकी गदाको अपने पास पहुँचनेके पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जानेके कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेलमें ही चक्रसे उसके पाँचों सिर उतार लिये ।।१०।।जब पृथ्वीके पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और बाणोंसे हमारी सेना और सेनापतियोंका संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ।उसने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी पत्नीके साथ आकाशमें गरुड़पर स्थित हैं, जैसे सूर्यके ऊपर बिजलीके साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो। भौमासुरने स्वयं भगवान्के ऊपर शतघ्नी पंखवालेक्ति चलायी और उसके सब सैनिकोंने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े ।।१४-१५।। अब भगवान् श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे।
परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़जीपर सवार थे और गरुड़जीलाये थे, उनमेंसे प्रत्येकको भगवान्ने तीन-तीन तीखे बाणोंसे काट गिराया ।।१७।। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़जीपर सवार थे और गरुड़जी अपने पंखोंसे हाथियोंको मार रहे थे।अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुड़जीकी मारसे पीड़ित होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उनपर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्रको भी विफल कर दिया था। परन्तु उसकी चोटसे पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसीने मतवाले गजराजपर फूलोंकी मालासे प्रहार किया हो ।।१८-२०।।
तब उसने श्रीकृष्णको मार डालनेके लिये एक त्रिशूल उठाया। परन्तु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान् श्रीकृष्णने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे हाथीपर बैठे हुए भौमासुरका सिर काट डाला ।।२१।। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीटके सहित पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुरके सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग ‘साधु साधु’ कहने लगे और देवतालोग भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ।।२२।। अब पृथ्वी भगवान्के पास आयी। उसने भगवान् श्रीकृष्णके गलेमें वैजयन्तीके साथ वनमाला पहना दी और अदिति माताके जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोनेके एवं रत्नजटित थे, भगवान्को दे दिये तथा वरुणका छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी ।।२३।। राजन्! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओंके द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्तिभावभरे हृदयसे उनकी स्तुति करने लगीं ।।२४।।
पृथ्वीदेवीने कहा—शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन्! आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसीके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको मैं नमस्कार करती हूँ ।।२५।। प्रभो! आपकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। आप कमलकी माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमलसे खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमलके समान सुकुमार और भक्तोंके हृदयको शीतल करनेवाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ।।२६।। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्यके आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होनेपर भी स्वयं वसुदेवनन्दनके रूपमें प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ।।२७।। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत्के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियोंके आश्रय ब्रह्म हैं। जगत्का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं— सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन्! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार नमस्कार ।।२८।।
प्रभो! जब आप जगत्की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुणको, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुणको स्वीकार करते हैं। परन्तु यह सब करनेपर भी आप इन गुणोंसे ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनोंके संयोग-वियोगके हेतु काल हैं तथा उन तीनोंसे परे भी हैं ।।२९।। भगवन्! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पंचतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्व—कहाँतक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्व-रूपमें भ्रमके कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है ।।३०।। शरणागत- भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुरका यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलोंकी शरणमें ले आयी हूँ। प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत्के समस्त पाप-तापोंको नष्ट करनेवाला है ।।३१।।
वहाँ जाकर भगवान्ने देखा कि भौमासुरने बलपूर्वक राजाओंसे सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं ।।३३।। जब उन राजकुमारियोंने अन्तःपुरमें पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान्को अपने परम प्रियतम पतिके रूपमें वरण कर लिया ।।३४।। उन राजकुमारियोंमेंसे प्रत्येकने अलग-अलग अपने मनमें यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषाको पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भावसे अपना हृदय भगवान्के प्रति निछावर कर दिया ।।३५।।
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अमरावतीमें स्थित देवराज इन्द्रके महलोंमें गये। वहाँ देवराज इन्द्रने अपनी पत्नी इन्द्राणीके साथ सत्यभामाजी और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की, तब भगवान्ने अदितिके कुण्डल उन्हें दे दिये ।।३८।। वहाँसे लौटते समय सत्यभामाजीकी प्रेरणासे भगवान् श्रीकृष्णने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओंको जीतकर उसे द्वारकामें ले आये ।।३९।। भगवान्ने उसे सत्यभामाके महलके बगीचेमें लगा दिया।परीक्षित्! देखो तो सही, जब इन्द्रको अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुटकी नोकसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श करके उनसे सहायताकी भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यताका है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यताको ।।४१।।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने एक ही मुहूर्तमें अलग-अलग भवनोंमें अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियोंका शास्त्रोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान्के लिये इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है ।।४२।।उन महलोंमें रहकर मति-गतिके परेकी लीला करनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्दमें मग्न रहते हुए लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा उन पत्नियोंके साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमें रहकर गृहस्थ-धर्मके अनुसार आचरण करता हो ।।४३।। परीक्षित्! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान्के वास्तविक स्वरूपको और उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था।उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महलमें भगवान् पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियोंसे पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान्की सेवा करतीं ।।४५।।
प्रभु, मैं कब मेरी सखी के साथ तुम्हारी सेवा करुंगा?
अथ षष्टितमोऽध्यायः श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन समस्त जगत्के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके पलँगपर आरामसे बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियोंके साथ अपने पतिदेवकी सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं ।।१।। परीक्षित्! जो सर्वशक्तिमान् भगवान् खेल-खेलमें ही इस जगत्की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैं—वही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं ।।२।। रुक्मिणीजीका महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिनमें मोतियोंकी लड़ियोंकी झालरें लटक रही थीं। मणियोंके दीपक जगमगा रहे थे ।।३।। बेला-चमेलीके फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूलोंपर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखोंकी जालियोंमेंसे चन्द्रमाकी शुभ्र किरणें महलके भीतर छिटक रही थीं ।।४।। उद्यानमें पारिजातके उपवनकी सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखोंकी जालियोंमेंसे अगरके धूपका धूआँ बाहर निकल रहा था ।।५।। ऐसे महलमें दूधके फेनके समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनोंसे युक्त सुन्दर पलँगपर भगवान् श्रीकृष्ण बड़े आनन्दसे विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकीके स्वामीको पतिरूपमें प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं ।।६।। रुक्मिणीजीने अपनी सखीके हाथसे वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नोंकी डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान्की सेवा करने लगीं ।।७।। उनके करकमलोंमें जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणोंमें मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अंचलके नीचे छिपे हुए स्तनोंकी केशरकी लालिमासे हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभागमें बहुमूल्य करधनीकी लड़ियाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान्के पास ही रहकर उनकी सेवामें संलग्न थीं ।।८।। रुक्मिणीजीकी घुँघराली अलकें, कानोंके कुण्डल और गलेके स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्रसे मुसकराहटकी अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलावण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान्ने लीलाके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेमसे मुसकराते हुए उनसे कहा ।।९।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजकुमारी! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालोंके समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं तथा सुन्दरता, उदारता और बलमें भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे ।।१०।। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँतक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरोंको, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे-जैसे व्यक्तिको, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया? ।।११।। सुन्दरी! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानोंसे हमने वैर बाँध रखा है और प्रायः राजसिंहासनके अधिकारसे भी हम वंचित ही हैं ।।१२।। सुन्दरी! हम किस मार्गके अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगोंको अच्छी तरह मालूम नहीं है। हमलोग लौकिक व्यवहारका भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनयके द्वारा स्त्रियोंको रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषोंका अनुसरण करती हैं, उन्हें प्रायः क्लेश-ही-क्लेश भोगना पड़ता है ।।१३।। सुन्दरी! हम तो सदाके अकिंचन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिंचन लोगोंसे हम प्रेम भी करते हैं और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपनेको धनी समझनेवाले लोग प्रायः हमसे प्रेम नहीं करते, हमारी सेवा नहीं करते ।।१४।। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है—उन्हींसे विवाह और मित्रताका सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपनेसे श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये ।।१५।। विदर्भराजकुमारी! तुमने अपनी अदूरदर्शिताके कारण इन बातोंका विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकोंसे मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीनको वरण कर लिया ।।१६।। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोककी सारी आशा-अभिलाषाएँ पूरी हो सकें ।।१७।। सुन्दरी! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी-सभी मुझसे द्वेष करते थे ।।१८।। कल्याणी! वे सब बल-पौरुषके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टोंका मान मर्दन करनेके लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था और कोई कारण नहीं था ।।१९।। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धनके लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेहसे सम्बन्धरहित दीपशिखाके समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्माके साक्षात्कारसे ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं ।।२०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्ने उनके नेत्रोंके आँसू और शोकके आँसुओंसे भींगे हुए स्तनोंको पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभावसबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्वकी शान्तिके लिये इतना कहकर भगवान् चुप हो गये ।।२१।। परीक्षित्! जब रुक्मिणीजीने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान्की यह अप्रिय वाणी सुनी—जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ताके अगाध समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ।।२२।। वे अपने कमलके समान कोमल और नखोंकी लालिमासे कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणोंसे धरती कुरेदने लगीं। अंजनसे मिले हुए काले-काले आँसू केशरसे रँगे हुए वक्षःस्थलको धोने लगे। मुँह नीचेको लटक गया। अत्यन्त दुःखके कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं ।।२३।। अत्यन्त व्यथा, भय और शोकके कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोगकी सम्भावनासे वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाईका कंगनतक खिसक गया। हाथका चँवर गिर पड़ा, बुद्धिकी विकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेगसे उखड़े हुए केलेके खंभेकी तरह धरतीपर गिर पड़ीं ।।२४।। भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोदकी गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाशकी दृढ़ताके कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभावसे ही परम कारुणिक भगवान् श्रीकृष्णका हृदय उनके प्रति करुणासे भर गया ।।२५।। चार भुजाओंवाले वे भगवान् उसी समय पलँगसे उतर पड़े और रुक्मिणीजीको उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशोंको बाँधकर अपने शीतल करकमलोंसे उनका मुँह पोंछ दिया ।।२६।। भगवान्ने उनके नेत्रोंके आँसू और शोकके आँसुओंसे भींगे हुए स्तनोंको पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजीको बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया ।।२७।। भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझानेमें बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तोंके एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्यकी गम्भीरताके कारण रुक्मिणीजीकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्थाके अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजीको समझाया ।।२८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—विदर्भनन्दिनी! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुननेके लिये ही मैंने हँसी-हँसीमें यह छलना की थी ।।२९।। मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहनेपर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोपसे किस प्रकार फड़कने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखनेसे नेत्रोंमें कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जानेके कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है ।।३०।। मेरी परमप्रिये! सुन्दरी! घरके काम-धंधोंमें रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थोंके लिये घर-गृहस्थीमें इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अर्द्धांगिनीके साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घड़ियाँ सुखसे बिता ली जाती हैं ।।३१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! जब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रियाको इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतमने केवल परिहासमें ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदयसे यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे ।।३२।। परीक्षित्! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवनसे पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णका मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं— ।।३३।।
रुक्मिणीजीने कहा—कमलनयन! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणोंसे युक्त, अनन्त भगवान्के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमामें स्थित, तीनों गुणोंके स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंसे सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणोंके अनुसार स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओंके पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं ।।३४।। भला, मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन्! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओंके भयसे समुद्रमें आ छिपे हैं। परन्तु राजा शब्दका अर्थ पृथ्वीके राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हींके भयसे अन्तःकरणरूप समुद्रमें चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्माके रूपमें विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओंसे वैर रखते हैं, परन्तु वे राजा कौन हैं? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो! आप राजसिंहासनसे रहित हैं, यह भी ठीक ही है; क्योंकि आपके चरणोंकी सेवा करनेवालोंने भी राजाके पदको घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूरसे ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ।।३५।। आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मोंका मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयोंमें उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त! आपके मार्गपर चलनेवाले आपके भक्तोंकी भी चेष्टाएँ जब प्रायः अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्योंके आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है? ।।३६।। आपने अपनेको अकिंचन बतलाया है; परन्तु आपकी अकिंचनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखनेके लिये कुछ नहीं है। परन्तु जिन ब्रह्मा आदि देवताओंकी पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यताके अभिमानसे अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्युके रूपमें उनके सिरपर सवार हैं ।।३७।। जगत्में जीवके लिये जितने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—उन सबके रूपमें आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियों—प्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्योंके फलस्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करनेके लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन्! उन्हीं विवेकी पुरुषोंका आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुषके सहवाससे प्राप्त होनेवाले सुख या दुःखके वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करनेके योग्य नहीं हैं ।।३८।। यह ठीक है कि भिक्षुकोंने आपकी प्रशंसा की है। परन्तु किन भिक्षुकोंने? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओंने आपकी महिमा और प्रभावका वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्तिको भी दण्ड न देनेका निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शितासे नहीं, इस बातको समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत्के आत्मा हैं और अपने प्रेमियोंको आत्मदान करते हैं। मैंने जान-बूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदिका भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहोंके इशारेसे पैदा होनेवाला काल अपने वेगसे उनकी आशा-अभिलाषाओंपर पानी फेर देता है। फिर दूसरोंकी—शिशुपाल, दन्तवक्त्र या जरासन्धकी तो बात ही क्या है? ।।३९।।
सर्वेश्वर आर्यपुत्र! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं मालूम होती कि आप राजाओंसे भयभीत होकर समुद्रमें आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुषके टंकारसे मेरे विवाहके समय आये हुए समस्त राजाओंको भगाकर अपने चरणोंमें समर्पित मुझ दासीको उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपनी कर्कश ध्वनिसे वन-पशुओंको भगाकर अपना भाग ले आवे ।।४०।। कमलनयन! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्रायः कष्ट ही उठाना पड़ता है। प्राचीन कालके अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राजराजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोड़कर आपको पानेकी अभिलाषासे तपस्या करने वनमें चले गये थे, वे आपके मार्गका अनुसरण करनेके कारण क्या किसी प्रकारका कष्ट उठा रहे हैं ।।४१।। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमारका वरण कर लो। भगवन्! आप समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलोंकी सुगन्धका बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेनेमात्रसे लोग संसारके पाप-तापसे मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हींमें निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थको भलीभाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलोंकी सुगन्ध सूँघनेको मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगोंको वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयोंसे युक्त हैं! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती ।।४२।। प्रभो! आप सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोकमें समस्त आशाओंको पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मोंके अनुसार विभिन्न योनियोंमें भटकना पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करनेवालोंका मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूपतक दे डालनेवाले आप परमेश्वरके चरणोंकी शरणमें रहूँ ।।४३।। अच्युत! शत्रुसूदन! गधोंके समान घरका बोझा ढोनेवाले, बैलोंके समान गृहस्थीके व्यापारोंमें जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तोंके समान तिरस्कार सहनेवाले, बिलावके समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासोंके समान स्त्रीकी सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें वरण करनेके लिये आपने मुझे संकेत किया है—उसी अभागिनी स्त्रीके पति हों, जिनके कानोंमें भगवान् शंकर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरोंकी सभामें गायी जानेवाली आपकी लीलाकथाने प्रवेश नहीं किया है ।।४४।। यह मनुष्यका शरीर जीवित होनेपर भी मुर्दा ही है। ऊपरसे चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशोंसे ढका हुआ है; परन्तु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ़ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्दके मकरन्दकी सुगन्ध सूँघनेको नहीं मिली है ।।४५।। कमलनयन! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातोंपर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अतः आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलोंमें मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसारकी अभिवृद्धिके लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है ।।४६।। मधुसूदन! आपने कहा कि किसी अनुरूप वरको वरण कर लो। मैं आपकी इस बातको भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुषके द्वारा जीती जानेपर भी काशी-नरेशकी कन्या अम्बाके समान किसी-किसीकी दूसरे पुरुषमें भी प्रीति रहती है ।।४७।। कुलटा स्त्रीका मन तो विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंकी ओर खिंचता रहता है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्रीको अपने पास न रखे। उसे अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है ।।४८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—साध्वी! राजकुमारी! यही बातें सुननेके लिये तो मैंने तुमसे हँसी-हँसीमें तुम्हारी वंचना की थी, तुम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनोंकी जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरशः सत्य है ।।४९।। सुन्दरी! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओंके समान बन्धनमें डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओंसे मुक्त कर देती हैं ।।५०।। पुण्यमयी प्रिये! मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परन्तु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई ।।५१।। प्रिये! मैं मोक्षका स्वामी हूँ। लोगोंको संसार-सागरसे पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकारके व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवनके विषय-सुखकी अभिलाषासे मेरा भजन करते हैं, वे मेरी मायासे मोहित हैं ।।५२।। मानिनी प्रिये! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंका आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्माको प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुखके साधन सम्पत्तिकी ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरकमें और नरकके ही समान सूकर-कूकर आदि योनियोंमें भी प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु उन लोगोंका मन तो विषयोंमें ही लगा रहता है, इसलिये उन्हें नरकमें जाना भी अच्छा जान पड़ता है ।।५३।। गृहेश्वरी प्राणप्रिये! यह बड़े आनन्दकी बात है कि तुमने अबतक निरन्तर संसार-बन्धनसे मुक्त करनेवाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियोंका चित्त दूषित कामनाओंसे भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियोंकी तृप्तिमें ही लगी रहनेके कारण अनेकों प्रकारके छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है ।।५४।। मानिनि! मुझे अपने घरभरमें तुम्हारे समान प्रेम करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाहमें आये हुए राजाओंकी उपेक्षा करके ब्राह्मणके द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था ।।५५।। तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाईको युद्धमें जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें चौसर खेलते समय बलरामजीने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जानेकी आशंकासे तुमने चुपचाप वह सारा दुःख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुणसे मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ ।।५६।। तुमने मेरी प्राप्तिके लिये दूतके द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परन्तु जब तुमने मेरे पहुँचनेमें कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय तुमने अपना यह सर्वांगसुन्दर शरीर किसी दूसरेके योग्य न समझकर इसे छोड़नेका संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका केवल अभिनन्दन करते हैं ।।५७।।
माता आज तो सिद्ध हो गई है कि मीनू अपने पिता प्रभु पर ही गई है। प्रभु की तारा ही वचनो, नजरो, विरह के तीर चलाती है। पर मैं भी तुम्हारा लाल हूं। चाहे जितना बाप बेटी मेरे दिल को लत मारे, नहीं भूलूंगा। देखता हूं कितने कलपो तक दोनों तड़पाते हैं।
माँ कहती है मेरी बुद्धि उल्टी चलती है। बचपन से सुनता रहा हूं मैं उल्टा पड़ा हुआ था। प्रभु, तुम ही जानो क्या उल्टा क्या सीधा। कौन कितना माया में फंसा है!
माता माई कब अपनी सखी के साथ नवरात्रि में कन्या पूजन करूंगी?
March 31, 2025
या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
माता हर दिन के साथ सुबह उठना कठिन हो रहा है। शक्ति एकात्रित करना कठिन हो रहा है। यही सोच कर कि माता पिता का ख्याल रखना है और मेरी सखी या अंकलजी, आंटीजी को मेरी सहायता की आवश्यकता पड़े तो कुछ तो लायक हु अपना आपको संभालता हूं। पर मीनू के बात याद कर के यहीं लगता है कि मैं नालायक ही रहूंगा। इतना नालायक कि मेरी सखी ने मेरे बारे में विचार करने से भी मन कर दिया। इतना करने के लायक भी ना समझा ने अंकलजी को रिटायरमेंट के बाद नौकरी ना कर के अपनी लाडली के साथ समय बिताने और घूमने के लिए कुछ कर पाऊं।
अथैकषष्टितमोऽध्यायः भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्धके विवाहमें रुक्मीका मारा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके गर्भसे दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणोंमें अपने पिता भगवान् श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।।१।। राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान् श्रीकृष्ण हमारे महलसे कभी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्णको मैं ही सबसे प्यारी हूँ। परीक्षित्! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान् श्रीकृष्णका तत्त्व—उनकी महिमा नहीं समझती थीं ।।२।। वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्दमें एकरस स्थित भगवान् श्रीकृष्णके कमल-कलीके समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणीसे स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने शृंगारसम्बन्धी हावभावोंसे उनके मनको अपनी ओर खींचनेमें समर्थ न हो सकीं ।।३।। वे सोलह हजारसे अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे युक्त मनोहर भौंहोंके इशारेसे ऐसे प्रेमके बाण चलाती थीं, जो काम-कलाके भावोंसे परिपूर्ण होते थे, परन्तु किसी भी प्रकारसे, किन्हीं साधनोंके द्वारा वे भगवान्के मन एवं इन्द्रियोंमें चंचलता नहीं उत्पन्न कर सकीं ।।४।।
परीक्षित्! ब्रह्मारमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमेंउनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था।
उन रानियोंमें आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाहका वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्युम्न आदि पुत्रोंका वर्णन करता हूँ ।।७।। रुक्मिणीके गर्भसे दस पुत्र हुए—प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान् श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।।८-९।।
सत्यभामाके भी दस पुत्र थे—भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु। जाम्बवतीके भी साम्ब आदि दस पुत्र थे—साम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्णको बहुत प्यारे थे ।।१०-१२।। नाग्नजिती सत्याके भी दस पुत्र हुए—वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान्, वृष, आम, शंकु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति ।।१३।। कालिन्दीके दस पुत्र ये थे—श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सबसे छोटा सोमक ।।१४।।
मद्रदेशकी राजकुमारी लक्ष्मणाके गर्भसे प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजितका जन्म हुआ ।।१५।। मित्रविन्दाके पुत्र थे—वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि और क्षुधि ।।१६।। भद्राके पुत्र थे—संग्रामजित्, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित्, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक ।।१७।। इन पटरानियोंके अतिरिक्त भगवान्की रोहिणी आदि सोलह हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान् और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नका मायावती रतिके अतिरिक्त भोजकट-नगर-निवासी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीसे भी विवाह हुआ था। उसीके गर्भसे परम बलशाली अनिरुद्धका जन्म हुआ। परीक्षित्! श्रीकृष्णके पुत्रोंकी माताएँ ही सोलह हजारसे अधिक थीं। इसलिये उनके पुत्र-पौत्रोंकी संख्या करोड़ोंतक पहुँच गयी ।।१८-१९।।
राजा परीक्षित्ने पूछा—परम ज्ञानी मुनीश्वर! भगवान् श्रीकृष्णने रणभूमिमें रुक्मीका बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बातकी घातमें रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्णसे उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थितिमें उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रुके पुत्र प्रद्युम्नजीको कैसे ब्याह दी? कृपा करके बतलाइये! दो शत्रुओंमें—श्रीकृष्ण और रुक्मीमें फिरसे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ? ।।२०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! प्रद्युम्नजी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणोंपर रीझकर रुक्मवतीने स्वयंवरमें उन्हींको वरमाला पहना दी। प्रद्युम्नजीने युद्धमें अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नर-पतियोंको जीत लिया और रुक्मवतीको हर लाये ।।२२।।
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णसे अपमानित होनेके कारण रुक्मीके हृदयकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्नको अपनी बेटी ब्याह दी ।।२३।। परीक्षित्!रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीकेन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्माके पुत्र बलीने उसके साथ विवाह किया ।।२४।। परीक्षित्! रुक्मीका भगवान् श्रीकृष्णके साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया।
अथ द्विषष्टितमोऽध्यायः ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! महात्मा बलिकी कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामनरूपधारी भगवान्को सारी पृथ्वीका दान कर दिया था। उनके सौ लड़के थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर ।।२।। दैत्यराज बलिका औरस पुत्र बाणासुर भगवान् शिवकी भक्तिमें सदा रत रहता था। समाजमें उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बातका धनी था ।।३।। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुरमें राज्य करता था। भगवान् शंकरकी कृपासे इन्द्रादि देवता नौकर-चाकरकी तरह उसकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान् शंकर ताण्डवनृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथोंसे अनेकों प्रकारके बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया ।।४।। सचमुच भगवान् शंकर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतोंके एकमात्र स्वामी प्रभुने बाणासुरसे कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ बाणासुरने कहा—‘भगवन्! आप मेरे नगरकी रक्षा करते हुए यहीं रहा करें’ ।।५।।
एक दिन बल-पौरुषके घमंडमें चूर बाणासुरने अपने समीप ही स्थित भगवान् शंकरके चरणकमलोंको सूर्यके समान चमकीले मुकुटसे छूकर प्रणाम किया और कहा— ।।६।। ‘देवाधिदेव! आप समस्त चराचर जगत्के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगोंके मनोरथ अबतक पूरे नहीं हुए हैं, उनको पूर्ण करनेके लिये आप कल्पवृक्ष हैं ।।७।। भगवन्! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परन्तु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकीमें आपको छोड़कर मुझे अपनी बराबरीका कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझसे लड़ सके ।।८।।
बाणासुरकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरने तनिक क्रोधसे कहा—‘रे मूढ़! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस समय मेरे ही समान योद्धासे तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा’ ।।१०।। परीक्षित्! बाणासुरकी बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान् शंकरकी बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान् शंकरके आदेशानुसार उस युद्धकी प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्यका नाश होनेवाला था ।।११।। परीक्षित्! बाणासुरकी एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्नमें उसने देखा कि ‘परम सुन्दर अनिरुद्धजीके साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्यकी बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्धजीको न तो कभी देखा था और न सुना ही था ।।१२।।
परीक्षित्! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान् श्रीकृष्णके पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्गसे रात्रिमें ही भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहुँची ।।२२।। वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँगपर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धिके प्रभावसे उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषाको उसके प्रियतमका दर्शन करा दिया ।।२३।। ऊषाने अपने प्रेमसे उनके मनको अपने वशमें कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्याके अन्तःपुरमें छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बातका भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये ।।२५-२६।।
परीक्षित्! पहरेदारोंसे यह समाचार जानकर कि कन्याका चरित्र दूषित हो गया है, बाणासुरके हृदयमें बड़ी पीड़ा हुई। वह झटपट ऊषाके महलमें जा धमका और देखा कि अनिरुद्धजी वहाँ बैठे हुए हैं ।।३०।। प्रिय परीक्षित्! अनिरुद्धजी स्वयं कामावतार प्रद्युम्नजीके पुत्र थे। अनिरुद्धजी उस समय अपनी सब ओरसे सज-धजकर बैठी हुई प्रियतमा ऊषाके साथ पासे खेल रहे थे। बाणासुरके साथ आये हुए सैनिक उनको पकड़नेके्पोंका हार सुशोभित हो रहा था और उस हारमें ऊषाके अंगका सम्पर्क होनेसे उसके वक्षःस्थलकी केशर लगी हुई थी। उन्हें ऊषाके सामने ही बैठा देखकर बाणासुर विस्मित—चकित हो गया ।।३२।। जब अनिरुद्धजीने देखा कि बाणासुर बहुत-से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महलोंमें घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देनेके लिये लोहेका एक भयंकर परिघ लेकर डट गये, मानो स्वयं कालदण्ड लेकर मृत्यु (यम) खड़ा हो ।।३३।। बाणासुरके साथ आये हुए सैनिक उनको पकड़नेके लिये ज्यों-ज्यों उनकी ओर झपटते, त्यों-त्यों वे उन्हें मार-मारकर गिराते जाते—ठीक वैसे ही, जैसे सूअरोंके दलका नायक कुत्तोंको मार डाले! जब बली बाणासुरने देखा कि यह तो मेरी सारी सेनाका संहार कर रहा है, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने नागपाशसे उन्हें बाँध लिया। ऊषाने जब सुना कि उसके प्रियतमको बाँध लिया गया है, तब वह अत्यन्त शोक और विषादसे विह्वल हो गयी; उसके नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहने लगी, वह रोने लगी ।।३५।।
अथ त्रिषष्टितमोऽध्यायः भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! बरसातके चार महीने बीत गये। परन्तु अनिरुद्धजीका कहीं पता न चला। उनके घरके लोग, इस घटनासे बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे ।।१।। एक दिन नारदजीने आकर अनिरुद्धका शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुरके सैनिकोंको हराना और फिर नागपाशमें बाँधा जाना—यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्णको ही अपना आराध्यदेव माननेवाले यदुवंशियोंने शोणितपुरपर चढ़ाई कर दी ।।२।। बाणासुरकी ओरसे साक्षात् भगवान् शंकर वृषभराज नन्दीपर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणोंके साथ रणभूमिमें पधारे और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीसे युद्ध किया ।।६।। परीक्षित्! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। भगवान् श्रीकृष्णसे शंकरजीका और प्रद्युम्नसे स्वामिकार्तिकका युद्ध हुआ ।।७।। बलरामजीसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णका युद्ध हुआ। बाणासुरके पुत्रके साथ साम्ब और स्वयं बाणासुरके साथ सात्यकि भिड़ गये ।।८।। भगवान् श्रीकृष्णने अपने शार्ङ्गधनुषके तीखी नोकवाले बाणोंसे शंकरजीके अनुचरों—भूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेतगण, मातृगण, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्म-राक्षसोंको मार-मारकर खदेड़ दिया ।।१०-११।। पिनाकपाणि शंकरजीने भगवान् श्रीकृष्णपर भाँति-भाँतिके अगणित अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग किया, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने बिना किसी प्रकारके विस्मयके उन्हें विरोधी शस्त्रास्त्रोंसे शान्त कर दिया ।।१२।। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्मास्त्रकी शान्तिके लिये ब्रह्मास्त्रका, वायव्यास्त्रके लिये पार्वतास्त्रका, आग्नेयास्त्रके लिये पर्जन्यास्त्रका और पाशुपतास्त्रके लिये नारायणास्त्रका प्रयोग किया ।।१३।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने जृम्भणास्त्रसे (जिससे मनुष्यको जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादेवजीको मोहित कर दिया। वे युद्धसे विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान् श्रीकृष्ण शंकरजीसे छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणोंसे बाणासुरकी सेनाका संहार करने लगे ।।१४।।
जब रथपर सवार बाणासुरने देखा कि श्रीकृष्ण आदिके प्रहारसे हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढ़कर सात्यकिको छोड़ दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णपर आक्रमण करनेके लिये दौड़ पड़ा ।।१७।। परीक्षित्! रणोन्मत्त बाणासुरने अपने एक हजार हाथोंसे एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एकपर दो-दो बाण चढ़ाये ।।१८।। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने एक साथ ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ोंको भी धराशायी कर दिया एवं शंखध्वनि की ।।१९।।तबतक बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जानेके कारण अपने नगरमें चला गया ।।२१।। इधर जब भगवान् शंकरके भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैरवाला ज्वर दसों दिशाओंको जलाता हुआ-सा भगवान् श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा ।।२२।। भगवान् श्रीकृष्णने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकाबला करनेके लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपसमें लड़ने लगे ।।२३।। अन्तमें वैष्णव ज्वरके तेजसे माहेश्वर ज्वर पीड़ित होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रतासे हाथ जोड़कर शरणमें लेनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णसे प्रार्थना करने लगा ।।२४।।
ज्वरने कहा—प्रभो! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कारण आप ही हैं। श्रुतियोंके द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारोंसे रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।।२५।। काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सूत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पंचभूत—इन सबका संघात लिंगशरीर और बीजांकुर-न्यायके अनुसार उससे कर्म और कर्मसे फिर लिंग-शरीरकी उत्पत्ति—यह सब आपकी माया है। आप मायाके निषेधकी परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।।२६।। भगवन्! देहधारी जीवोंको तभीतक ताप-सन्ताप रहता है, जबतक वे आशाके फंदोंमें फँसे रहनेके कारण आपके चरण-कमलोंकी शरण नहीं ग्रहण करते ।।२८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘त्रिशिरा! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वरसे निर्भय हो जाओ। संसारमें जो कोई हम दोनोंके संवादका स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा’ ।।२९।। भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तबतक बाणासुर रथपर सवार होकर भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये फिर आ पहुँचा ।।३०।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि बाणासुरने तो बाणोंकी झड़ी लगा दी है, तब वे छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्षकी छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो ।।३२।। जब भक्तवत्सल भगवान् शंकरने देखा कि बाणासुरकी भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्णके पास आये और स्तुति करने लगे ।।३३।।
भगवान् शंकरने कहा—प्रभो! आप वेदमन्त्रोंमें तात्पर्यरूपसे छिपे हुए परमज्योतिः-स्वरूप परब्रह्म हैं। शुद्धहृदय महात्मागण आपके आकाशके समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरूपका साक्षात्कार करते हैं ।।३४।। आकाश आपकी नाभि है, अग्नि मुख है और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण है। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा ।।३५।। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रह्मा बुद्धि। प्रजापति लिंग हैं और धर्म हृदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरोंके साथ जिसके शरीरकी तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं ।।३६।। अखण्ड ज्योतिःस्वरूप परमात्मन्! आपका यह अवतार धर्मकी रक्षा और संसारके अभ्युदय—अभिवृद्धिके लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभावसे ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनोंका पालन करते हैं ।।३७।। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित हैं—एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत्, स्वप्न और सुबुप्ति—इन तीन अवस्थाओंमें अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्त्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तुके द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयंप्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परन्तु आपका न तो कोई कारण है और न तो आपमें कारणपना ही है। भगवन्! ऐसा होनेपर भी आप तीनों गुणोंकी विभिन्न विषमताओंको प्रकाशित करनेके लिये अपनी मायासे देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि शरीरोंके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रतीत होते हैं ।।३८।। प्रभो! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलोंसे ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपोंको प्रकाशित करता है उसी प्रकार आप तो स्वयंप्रकाश हैं, परन्तु गुणोंके द्वारा मानो ढक-से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवोंको प्रकाशित करते हैं। वास्तवमें आप अनन्त हैं ।।३९।।
भगवन्! आपकी मायासे मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदिमें आसक्त हो जाते हैं और फिर दुःखके अपार सागरमें डूबने-उतराने लगते हैं ।।४०।। संसारके मानवोंको यह मनुष्य-शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं करता और आपके चरणकमलोंका आश्रय नहीं लेता—उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है ।।४१।। प्रभो! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्युका ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दुःखरूप एवं तुच्छ विषयोंमें सुखबुद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख है कि अमृतको छोड़कर विष पी रहा है ।।४२।। मैं, ब्रह्मा, सारे देवता और विशुद्ध हृदयवाले ऋषि-मुनि सब प्रकारसे और सर्वात्मभावसे आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हमलोगोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं ।।४३।। आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं। आप सबमें सम, परम शान्त, सबके सुहृद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक, अद्वितीय और जगत्के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो! हम सब संसारसे मुक्त होनेके लिये आपका भजन करते हैं ।।४४।।
देव! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लादपर आपका कृपाप्रसाद है, वैसा ही कृपाप्रसाद आप इसपर भी करें ।।४५।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—भगवन्! आपकी बात मानकर—जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्धमें जैसा निश्चय किया था—मैंने इसकी भुजाएँ काटकर उसीका अनुमोदन किया है ।।४६।। मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलिका पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लादको वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वंशमें पैदा होनेवाले किसी भी दैत्यका वध नहीं करूँगा ।।४७।। इसका घमंड चूर करनेके लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वीके लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है ।।४८।। अब इसकी चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदोंमें मुख्य होगा। अब इसको किसीसे किसी प्रकारका भय नहीं है ।।४९।। श्रीकृष्णसे इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके बाणासुरने उनके पास आकर धरतीमें माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजीको अपनी पुत्री ऊषाके साथ रथपर बैठाकर भगवान्के पास ले आया ।।५०।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने महादेवजीकी सम्मतिसे वस्त्रालंकारविभूषित ऊषा और अनिरुद्धजीको एक अक्षौहिणी सेनाके साथ आगे करके द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ।।५१।।
अथ चतुःषष्टितमोऽध्यायः नृग राजाकी कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके करकमलोंका स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवताके रूपमेंँ बहुत देरतक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जलकी खोज करने लगे। वे एक कूएँके पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा ।।२।। वह जीव पर्वतके समान आकारका एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उनका हृदय करुणासे भर आया और वे उसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करने लगे ।।३।। परन्तु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिटको चमड़े और सूतकी रस्सियोंसे बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान् श्रीकृष्णके पास जाकर निवेदन किया ।।४।। जगत्के जीवनदाता कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण उस कूएँपर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथसे खेल-खेलमें—अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया ।।५।। भगवान् श्रीकृष्णके करकमलोंका स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवताके रूपमें परिणत हो गया।
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुषको गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारणको मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुषसे पूछा—‘महाभाग! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो ।।७।। कल्याणमूर्ते! किस कर्मके फलसे तुम्हें इस योनिमें आना पड़ा था? वास्तवमें तुम इसके योग्य नहीं हो। हमलोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हमलोगोंको वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो’ ।।८।।
राजा नृगने कहा—प्रभो! मैं महाराज इक्ष्वाकुका पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसीने आपके सामने दानियोंकी गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानोंमें पड़ा होगा ।।१०।। प्रभो! आप समस्त प्राणियोंकी एक-एक वृत्तिके साक्षी हैं। भूत और भविष्यका व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञानमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं डाल सकता। अतः आपसे छिपा ही क्या है? फिर भी मौं आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये कहता हूँ ।।११।।
एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेनेवाले), तपस्वी ब्राह्मणकी एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओंमें आ मिली। मुझे इस बातका बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजानमें उसे किसी दूसरे ब्राह्मणको दान कर दिया ।।१६।। जब उस गायको वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गायके असली स्वामीने कहा—‘यह गौ मेरी है।’ दान ले जानेवाले ब्राह्मणने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृगने मुझे इसका दान किया है’ ।।१७।। वे दोनों ब्राह्मण आपसमें झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करनेके लिये मेरे पास आये। एकने कहा—‘यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरेने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।’ भगवन्! उन दोनों ब्राह्मणोंकी बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया ।।१८।। मैंने धर्मसंकटमें पड़कर उन दोनोंसे बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदलेमें एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आपलोग मुझे यह गाय दे दीजिये ।।१९।। मैं आपलोगोंका सेवक हूँ। मुझसे अनजानमें यह अपराध बन गया है। मुझपर आपलोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्टसे तथा घोर नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये’ ।।२०।। ‘राजन्! मैं इसके बदलेमें कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर गायका स्वामी चला गया। ‘तुम इसके बदलेमें एक लाख ही नहीं, दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेनेका नहीं।’ इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया ।।२१।। देवाधिदेव जगदीश्वर! इसके बाद आयु समाप्त होनेपर यमराजके दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराजने मुझसे पूछा— ।।२२।। ‘राजन्! तुम पहले अपने पापका फल भोगना चाहते हो या पुण्यका? तुम्हारे दान और धर्मके फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होनेवाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है’ ।।२३।। भगवन्! तब मैंने यमराजसे कहा—‘देव! पहले मैं अपने पापका फल भोगना चाहता हूँ।’ और उसी क्षण यमराजने कहा—‘तुम गिर जाओ।’ उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँसे गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ ।।२४।। प्रभो! मैं ब्राह्मणोंका सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बातकी उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपासे मेरे पूर्वजन्मोंकी स्मृति नष्ट न हुई ।।२५।। भगवन्! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदोंकी दृष्टिसे (अभेददृष्टिसे) अपने हृदयमें आपका ध्यान करते रहते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन्! साक्षात् आप मेरे नेत्रोंके सामने कैसे आ गये! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकारके व्यसनों, दुःखद कर्मोंमें फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसारके चक्करसे छुटकारा मिलनेका समय आता है ।।२६।। देवताओंके भी आराध्यदेव! पुरुषोत्तम गोविन्द! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवोंके स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियोंके स्वामी हैं ।।२७।। प्रभो! श्रीकृष्ण! मैं अब देवताओंके लोकमें जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलोंमें ही लगा रहे ।।२८।। आप समस्त कार्यों और कारणोंके रूपमें विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त है और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण! आप समस्त योगोंके स्वामी, योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ।।२९।।
प्रभु सुधांसु जीजाजी की फेसबुक स्टोरी में मीनू की श्री के साथ जीभ निकले हुए फोटो देख कर कुछ शांति मिली।पता नहीं क्यु मीनू की फोटो देख कर, इसे पहले कि कुछ सोच पाउ, हृदय के गहरे से एक अजीब सा आनंद और उदासी कर मिश्रीत एहसास होता है, कैसे समझो पता नहीं। जब थोड़ा फोटो के बारे में सोचा तो लगा ये तो कोई पुरानी फोटो है और चिंता ने फिर घेर लिया। कोई हलचल नहीं मिल रहा।पता नहीं मीनू कैसी है? माता मेरी सखी पर अपने आंचल की छाया बनाये रखना, चाहे मैं क्यों न तपता रहु।
माता हमारे माता पिता की जो भी परेशान है, दूर कर। आरोग्य प्रदान करो. मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा मम्मी पापा का ख्याल रखने लायक बचूंगा की नहीं। पता नहीं मीनू अंकलजी आंटीजी का ख्याल रख रही है कि बस प्रभु की तरह बड़ी-बड़ी बातें करती है?
March 31, 2025
अथ पञ्चषष्टितमोऽध्यायः श्रीबलरामजीका व्रजगमन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् बलरामजीके मनमें व्रजके नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियोंसे मिलनेकी बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथपर सवार होकर द्वारकासे नन्दबाबाके व्रजमें आये ।।१।। इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनोंसे उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीचमें पाकर सबने बड़े प्रेमसे गले लगाया। बलरामजीने माता यशोदा और नन्दबाबाको प्रणाम किया। उन लोगोंने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया ।।२।। यह कहकर कि ‘बलरामजी! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्णके साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोदमें ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओंसे उन्हें भिगो दिया ।।३।।
परीक्षित्! भगवान् बलरामजीके दर्शनसे, उनकी प्रेमभरी चितवनसे गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी! नगर-नारियोंके प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल तो हैं न? ।।९।। क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माताकी भी याद आती है! क्या वे अपनी माताके दर्शनके लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी सेवाका भी कुछ स्मरण करते हैं ।।१०।। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियोंको छोड़ना बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियोंको भी छोड़ दिया। परन्तु प्रभो! वे बात-की-बातमें हमारे सौहार्द और प्रेमका बन्धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदेश चले गये; हमलोगोंको बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परन्तु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं—तुम्हारे उपकारका बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातोंपर विश्वास न कर लेती’ ।।११-१२।।
अब गोपियोंके भाव-नेत्रोंके सामने भगवान् श्रीकृष्णकी हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातोंकी मधुर स्मृतिमें तन्मय होकर रोने लगीं ।।१५।।
आज दिन भर मन विचलित रहा। भागवत के प्रसाद भी ऐसे थे कि मन को शांति न मिली। बार बार प्रसन्न उठ रहा है कि मीनू की ऐसे क्या जीवन लक्ष्य हैं जिनमें मेरी कोई जगह नहीं। क्यों मुझसे बात किये बिना ही मना कर दिया और उस दिन कह रही थी संभव नहीं। माता, क्या मैं इतना बुरा हूँ?
अगर मैं इतना ही बुरा हूं तो क्यों मीनू और अंकलजी, मम्मी पापा को नहीं समझा देते कि मेरी शादी का विचार भूल जाए। क्यू माँ बार बार मेरी शादी की बात करती रहती है? जब मैं मेरी सखी का साथ दूंगा नहीं तो कोई और मेरे खुश रहेगी? प्रभु कैसे गुत्थिया फंसा दी है, कुछ समझ नहीं आया।प्रभु क्यों मेरे भाई बहन नहीं बने जो मम्मी पापा को खुश रखते? पता नहीं मेरी सखी के जीवन में क्या चल रहा है?
मेरी सखी साथ दे तो जी जान लगदु अपने में सुधार करने में, पर मेरी सखी के बिना कहा से शक्ति अर्जित करु। किसी और का दिन नहीं उठाया जाएगा। किसी और को वचन नहीं दे सकता।
April 1, 2025
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।।
ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।।
प्रभु, आज भी सपने में भटक रहा हूं। एक में मनीष के साथ स्कूल में किसी प्रतियोगिता के प्रश्न ढूंढ रहा था। दूसरे में तुम्हारी माया में भटकते जगत के प्राणियो को देह रहा था।
माता, बहुत खोजने के बाद आज मीनू की बातों में एक सत्य मिल गया। मीनू कह रही थी, बचपन से हमारी बात नहीं होती तो अब भी नहीं होती तो क्या बदल गया। सच में बचपन से जैसे मेरी सखी से बात करने और खेलने के लिए तड़पता रहा हूं, 22 साल बाद भी तड़पा रु। लेकिन मीनू क्यों नहीं समझती जो भावनाएँ इतने सालों में नहीं बदली वो आगे कैसे बदलेगी?
जब मीनू ने जीवन में मेरे लिए कोई जगह नहीं और नहीं मेरे लिए समय निकल सकता है तो क्या मुझे याद आती होगी। अगर मुझे याद ही नहीं रहेगा तो किस पछतावे की बात कर रही थी? अगर सही में पछतावा होगा तो क्यों मुझे याद रखेगी? मीनू की बात कुछ समझ नहीं आती
April 1, 2025
प्रभु आज तुम्हारे गूल गूल मुहिया का श्रृंगार देख कर लग रहा था कि गूल गूल गैल में लड्डू दबा के बैठो हो।
अथ षट्षष्टितमोऽध्यायः पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् बलरामजी नन्दबाबाके व्रजमें गये हुए थे, तब पीछेसे करूष देशके अज्ञानी राजा पौण्ड्रकने भगवान् श्रीकृष्णके पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान् वासुदेव मैं हूँ’ ।।१।। मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान् वासुदेव हैं और जगत्की रक्षाके लिये पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपनेको ही भगवान् मान बैठा ।।२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मन्दमति पौण्ड्रककी यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे ।।७।। भगवान् श्रीकृष्णने भी रथपर सवार होकर काशीपर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करूषका राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराजके पास रहता था) ।।१०।।
भगवान् श्रीकृष्णके आक्रमणका समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ शीघ्र ही नगरसे बाहर निकल आया ।।११।। काशीका राजा पौण्ड्रकका मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करनेके लिये तीन अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पीछे-पीछे आया। उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंचपर अभिनय करनेके लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान् श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे ।।१५।। अब शत्रुओंने भगवान् श्रीकृष्णपर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार किया ।।१६।।
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार पौण्ड्रकका तिरस्कार करके अपने तीखे बाणोंसे उसके रथको तोड़-फोड़ डाला और चक्रसे उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पहाड़की चोटियोंको उड़ा दिया था ।।२१।। इसी प्रकार भगवान्ने अपने बाणोंसे काशिनरेशका सिर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीमें गिरा दिया, जैसे वायु कमलका पुष्प गिरा देती है ।।२२।। परीक्षित्! पौण्ड्रक भगवान्के रूपका, चाहे वह किसी भावसे हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान्का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसीका स्मरण होनेके कारण वह भगवान्के सारूप्यको ही प्राप्त हुआ ।।२४।।
शरणागतवत्सल भगवान्ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे स्वरसे हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा—‘डरो मत, मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा’ ।।३७।।
अथ सप्तषष्टितमोऽध्यायः द्विविदका उद्धार
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! द्विविद नामका एक वानर था। वह भौमासुरका सखा, सुग्रीवका मन्त्री और मैन्दका शक्तिशाली भाई था ।।२।। जब उसने सुना कि श्रीकृष्णने भौमासुरको मार डाला, तब वह अपने मित्रकी मित्रताके ऋणसे उऋण होनेके लिये राष्ट्र-विप्लव करनेपर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरोंकी बस्तियोंमें आग लगाकर उन्हें जलाने लगा ।।३।।
वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियोंके झुंडमें विराजमान हैं। उनका एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्षःस्थलपर कमलोंकी माला लटक रही है ।।९।।
परीक्षित्! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजीको नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशोंकी दुर्दशापर विचार करके उस शत्रुको मार डालनेकी इच्छासे क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेगसे दौड़कर बलरामजीके सिरपर उसे दे मारा। भगवान् बलराम पर्वतकी तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथसे उस वृक्षको सिरपर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसलसे उसपर प्रहार किया।
अन्तमें कपिराज द्विविद अपनी ताड़के समान लम्बी बाँहोंसे घूँसा बाँधकर बलरामजीकी ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छातीपर प्रहार किया ।।२४।। अब यदुवंश-शिरोमणि बलरामजीने हल और मूसल अलग रख दिये तथा कुद्ध होकर दोनों हाथोंसे उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरतीपर गिर पड़ा ।।२५।। परीक्षित्! आँधी आनेपर जैसे जलमें डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरनेसे बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियोंके साथ सारा पर्वत हिल गया ।।२६।। आकाशमें देवता लोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो नमः’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने और बलरामजीपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ।।२७।। परीक्षित्! द्विविदने जगत्में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अतः भगवान् बलरामजीने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरीमें लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान् बलरामकी प्रशंसा कर रहे थे ।।२८।।
April 2, 2025
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि । नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ।।१।। नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि । जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ।।२।। ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका । क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ।।३।। चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी । विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ।।४।। धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी । क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ।।५।। हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी । भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ।।६।। अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ।।७।। पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा । सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे ।।८।। इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे । अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ।। यस्तु कुञ्जिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् । न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।।
प्रभु, अंकलजी क्यों नहीं समझते कि मुझे ब्लॉक करना है और हलचल न मिलने से मेरी हालत बस बिगड़ती रहेगी। प्रभु, काम से काम मेरे परिवार के बीच की अनबन मिटा के परिवार को साथ ला दो। मेरी सखी को नहीं घुमाने के लिए जा सकता है बाकी सब को तो घुमाने के लिए जा सकता है। प्रभु हाल चाल भी नहीं मिल रहा!
मेरे प्यारे प्यारे कालो कालो श्यामसुंदर, कितना रुलाओगे!
April 2, 2025
सिंहासनगता नित्यं पद्माञ्चित करद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
अथाष्टषष्टितमोऽध्यायः कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जाम्बवती-नन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरोंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवरमें स्थित दुर्योधनकी कन्या लक्ष्मणाको हर लाये ।।१।।
कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरोंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ोंकी अनुमति ली तथा साम्बको पकड़ लेनेकी तैयारी की ।।५।। जब महारथी साम्बने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंहके समान अकेले ही रणभूमिमें डट गये ।।६।। इधर कर्णको मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए साम्बके पास आ पहुँचे और क्रोधमें भरकर उनको पकड़ लेनेकी इच्छासे ‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ इस प्रकार ललकारते हुए बाणोंकी वर्षा करने लगे ।।७।। परीक्षित्! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णके पुत्र थे। कौरवोंके प्रहारसे वे उनपर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनोंका पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ।।८।। साम्बने अपने सुन्दर धनुषका टंकार करके कर्ण आदि छः वीरोंपर, जो अलग-अलग छः रथोंपर सवार थे, छः-छः बाणोंसे एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ।।९।।
उनमेंसे चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ोंपर, एक-एक उनके सारथियोंपर और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरोंपर छोड़ा। साम्बके इस अद्भुत हस्तलाघवको देखकर विपक्षी वीर भी मुक्त-कण्ठसे उनकी प्रशंसा करने लगे ।।१०।। इसके बाद उन छहों वीरोंने एक साथ मिलकर साम्बको रथहीन कर दिया। चार वीरोंने एक-एक बाणसे उनके चार घोड़ोंको मारा, एकने सारथिको और एकने साम्बका धनुष काट डाला ।।११।। इस प्रकार कौरवोंने युद्धमें बड़ी कठिनाई और कष्टसे साम्बको रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणाको लेकर जय मनाते हुए हस्तिनापुर लौट आये ।।१२।। परीक्षित्! नारदजीसे यह समाचार सुनकर यदुवंशियोंको बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेनकी आज्ञासे कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी करने लगे ।।१३।। बलरामजी कलहप्रधान कलियुगके सारे पाप-तापको मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियोंके लड़ाई-झगड़ेको ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्यके समान तेजस्वी रथपर सवार होकर हस्तिनापुर गये।
उद्धवजीने कौरवोंकी सभामें जाकर धृतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधनकी विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि ‘बलरामजी पधारे हैं’ ।।१७।। अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरवोंकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। वे उद्धवजीका विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथोंमें मांगलिक सामग्री लेकर बलरामजीकी अगवानी करने चले ।।१८।। तदनन्तर उन लोगोंने परस्पर एक-दूसरेका कुशल-मंगल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजीने बड़ी धीरता और गम्भीरताके साथ यह बात कही— ।।२०।।
‘सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेनने तुमलोगोंको एक आज्ञा दी है। उसे तुमलोग एकाग्रता और सावधानीके साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ।।२१।। उग्रसेनजीने कहा है—हम जानते हैं कि तुमलोगोंने कइयोंने मिलकर अधर्मसे अकेले धर्मात्मा साम्बको हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियोंमें परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अतः अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्बको उसकी नववधूके साथ हमारे पास भेज दो) ।।२२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्तिके घमंडमें चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचारकी भी परवा नहीं की और वे भगवान् बलरामजीको इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ।।२९।। बलरामजीने कौरवोंकी दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोधसे तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखातक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोरसे हँसकर कहने लगे— ।।३०।। ‘सच है, जिन दुष्टोंको अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धनका घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करनेका, रास्तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना है—ठीक वैसे ही, जैसे पशुओंको ठीक करनेके लिये डंडेका प्रयोग आवशयक होता है ।।३१।। भला, देखो तो सही—सारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोधसे भरकर लड़ाईके लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनैः-शनैः समझा-बुझाकर इन लोगोंको शान्त करनेके लिये, सुलह करनेके लिये यहाँ आया ।।३२।। फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गालियाँ बक गये हैं ।।३३।। ठीक है, भाई! ठीक है। पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या, त्रिलोकीके स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके ही स्वामी हैं! ।।३४।। क्यों? जो सुधर्मासभाको अधिकारमें करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओंके वृक्ष पारिजातको उखाड़कर ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान् श्रीकृष्ण भी राजसिंहासनके अधिकारी नहीं हैं! अच्छी बात है! ।।३५।। सारे जगत्की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरण-कमलोंकी उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियोंको नहीं रख सकते ।।३६।। ठीक है भाई! जिनके चरण-कमलोंकी धूल संत पुरुषोंके द्वारा सेवित गंगा आदि तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुटपर जिनके चरणकमलोंकी धूल धारण करते हैं; ब्रह्मा, शंकर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कलाकी भी कला हैं और जिनके चरणोंकी धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान् श्रीकृष्णके लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है! ।।३७।। बेचारे यदुवंशी तो कौरवोंका दिया हुआ पृथ्वीका एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब! हमलोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं ।।३८।। ये लोग ऐश्वर्यसे उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहे हैं। इनकी एक-एक बात कटुतासे भरी और बेसिर-पैरकी है। मेरे जैसा पुरुष—जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है—भला इनकी बातोंको कैसे सहन कर सकता है? ।।३९।। आज मैं सारी पृथ्वीको कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोधसे ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकीको भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ।।४०।। उन्होंने उसकी नोकसे बार-बार चोट करके हस्तिनापुरको उखाड़ लिया और उसे डुबानेके लिये बड़े क्रोधसे गंगाजीकी ओर खींचने लगे ।।४१।।
हलसे खींचनेपर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा, मानो जलमें कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवोंने देखा कि हमारा नगर तो गंगाजीमें गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ।।४२।। फिर उन लोगोंने लक्ष्मणाके साथ साम्बको आगे किया और अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कुटुम्बके साथ हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान् बलरामजीकी शरणमें गये ।।४३।। और कहने लगे—‘लोकाभिराम बलरामजी! आप सारे जगत्के आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो! हमलोग मूढ़ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगोंका अपराध क्षमा कर दीजिये ।।४४।। आप जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ।।४५।। अनन्त! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप खेल-खेलमें ही इस भूमण्डलको अपने सिरपर रखे रहते हैं। जब प्रलयका समय आता है, तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूपसे शयन करते हैं ।।४६।। भगवन्! आप जगत्की स्थिति और पालनके लिये विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सरके कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियोंको शिक्षा देनेके लिये है ।।४७।। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन्! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्वके रचयिता देव! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरणमें हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये’ ।।४८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित्! कौरवोंका नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहटमें पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान् बलरामजीकी शरणमें आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया ।।४९।। परीक्षित्! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्ष्मणासे बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेजमें साठ-साठ वर्षके बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्यके समान चमकते हुए सोनेके छः हजार रथ और सोनेके हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं ।।५०-५१।। यदुवंशशिरोमणि भगवान् बलरामजीने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्बके साथ कौरवोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारकाकी यात्रा की ।।५२।। अब बलरामजी द्वारकापुरीमें पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जाननेके लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवोंसे मिले। उन्होंने यदुवंशियोंकी भरी सभामें अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुरमें उन्होंने कौरवोंके साथ किया था ।।५३।। परीक्षित्! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिणकी ओर ऊँचा और गंगाजीकी ओर कुछ झुका हुआ है और इस प्रकार यह भगवान् बलरामजीके पराक्रमकी सूचना दे रहा है ।।५४।।
अथैकोनसप्ततितमोऽध्यायः देवर्षि नारदजीका भगवान्की गृहचर्या देखना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवर्षि नारदने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राज-कुमारियोंके साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मनमें भगवान्की रहन-सहन देखनेकी बड़ी अभिलाषा हुई ।।१।। वे सोचने लगे—अहो, यह कितने आश्चर्यकी बात है कि भगवान् श्रीकृष्णने एक ही शरीरसे एक ही समय सोलह हजार महलोंमें अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियोंका पाणिग्रहण किया ।।२।। देवर्षि नारद इस उत्सुकतासे प्रेरित होकर भगवान्की लीला देखनेके लिये द्वारका आ पहुँचे।
उसी द्वारकानगरीमें भगवान् श्रीकृष्णका बहुत ही सुन्दर अन्तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करनेमें विश्वकर्माने अपना सारा कला-कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी ।।७।। अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहटसे उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगरकी धूप देनेके कारण झरोखोंसे धूआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जोंपर बैठे हुए मोर बादलोंके भ्रमसे कूक-कूककर नाचने लगते ।।१२।। देवर्षि नारदजीने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महलकी स्वामिनी रुक्मिणीजीके साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान्को सोनेकी डाँड़ीवाले चँवरसे हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महलमें रुक्मिणीजीके समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं ।।१३।।
नारदजीको देखते ही समस्त धार्मिकोंके मुकुट-मणि भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके पलँगसे सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारदके युगलचरणोंमें मुकुटयुक्त सिरसे प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसनपर बैठाया ।।१४।। परीक्षित्! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण चराचर जगत्के परम गुरु हैं और उनके चरणोंका धोवन गंगाजल सारे जगत्को पवित्र करनेवाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतोंके परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुणके अनुरूप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं ही नारदजीके पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिरपर धारण किया ।।१५।। नरशिरोमणि नरके सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान् नारायणने शास्त्रोक्त विधिसे देवर्षिशिरोमणि भगवान् नारदकी पूजा की। इसके बाद अमृतसे भी मीठे किन्तु भोड़े शब्दोंमें उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा—‘प्रभो! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्यसे पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें’? ।।१६।।
देवर्षि नारदने कहा—भगवन्! आप समस्त लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनोंसे प्रेम करते हैं और दुष्टोंको दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो! आपने जगत्की स्थिति और रक्षाके द्वारा समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिये स्वेच्छासे अवतार ग्रहण किया है। भगवन्! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं ।।१७।। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलोंके दर्शन हुए हैं। आपके ये चरणकमल सम्पूर्ण जनताको परम साम्य, मोक्ष देनेमें समर्थ हैं। जिनके ज्ञानकी कोई सीमा ही नहीं है, वे ब्रह्मा, शंकर आदि सदा-सर्वदा अपने हृदयमें उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तवमें वे श्रीचरण ही संसाररूप कूएँमें गिरे हुए लोगोंको बाहर निकलनेके लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलोंकी स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ जैसे रहूँ, उनके ध्यानमें तन्मय रहूँ ।।१८।।
परीक्षित्! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका सहस्य जाननेके लिये उनकी दूसरी पत्नीके महलमें गये ।।१९।। वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजीके साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान्ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसनपर बैठाया और विविध सामग्रियोंद्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी अर्चा-पूजा की ।।२०।। इसके बाद भगवान्ने नापदजीसे अनजानकी तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे! आप तो परिपूर्ण आत्माराम—आप्तकाम हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ।।२१।। फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।’ नारदजी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये ।।२२।। उस महलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चोंको दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमें गये तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी कर रहे हैं ।।२३।। (इसी प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न महलोंमें भगवान्को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञ-कुण्डोंमें हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञोंसे देवता आदिकी आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणोंको भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञका अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं ।।२४।। कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्रीका जप कर रहे हैं। कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनको चलानेके पैतरे बदल रहे हैं ।।२५।। कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं ।।२६।। किसी महलमें उद्धव आदि मन्त्रियोंके साथ किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वारांगनाओंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं ।।२७।। कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं मंगलमय इतिहास-पुराणोंका श्रवण कर रहे हैं ।।२८।। कहीं किसी पत्नीके महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्मका सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थका सेवन कर रहे हैं—धन-संग्रह और धनवृद्धिके कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयोंका उपभोग कर रहे हैं ।।२९।। कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनोंको इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ।।३०।।
देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो किसीके साथ सन्धिकी। कहीं भगवान् बलरामजीके साथ बैठकर सत्पुरुषोंके कल्याणके बारेमें विचार कर रहे हैं ।।३१।। कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका उनके सदृश पत्नी और वरोंके साथ बड़ी धूमधामसे विधिवत् विवाह कर रहे हैं ।।३२।। कहीं घरसे कन्याओंको विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके इन विराट् उत्सवोंको देखकर सभी लोग विस्मित—चकित हो जाते थे ।।३३।। कहीं बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा समस्त देवताओंका यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे हैं ।।३४।। कहीं श्रेष्ठ यादवोंसे घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढ़कर मृगया कर रहे हैं, इस प्रकार यज्ञके लिये मेध्य पशुओंका संग्रह कर रहे हैं ।।३५।। और कहीं प्रजामें तथा अन्तःपुरके महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय जाननेके लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान् योगेश्वर जो हैं ।।३६।।
परीक्षित्! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव देखकर देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा— ।।३७।। ‘योगेश्वर! आत्मदेव! आपकी योग-माया ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमायाका रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे वह स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है ।।३८।। देवताओंके भी आराध्यदेव भगवन्! चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवन-पावनी लीलाका गान करता हुआ उन लोकोंमें विचरण करूँ’ ।।३९।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवर्षि नारदजी! मैं ही धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालोंका अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारको धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस प्रकार धर्मका आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना ।।४०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थोंको पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मोंका आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारदजीने उनको उनकी प्रत्येक पत्नीके महलमें अलग-अलग देखा ।।४१।। भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। उनकी योगमायाका परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारदके विस्मय और कौतूहलकी सीमा न रही ।।४२।। द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थकी भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंमें उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारदका बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान्का स्मरण करते हुए वहाँसे चले गये ।।४३।। राजन्! भगवान् नारायण सारे जगत्के कल्याणके लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाको स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरीमें सोलह हजारसे भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकानसे उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे ।।४४।। भगवान् श्रीकृष्णने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित्! वे विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओंका गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालोंका अनुमोदन करता है, उसे मोक्षके मार्गस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ।।४५।।
अथ सप्ततितमोऽध्यायः
भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास जरासन्धके कैदी राजाओंके दूतका आना
रुक्मिणीजी अपने प्रियतमके भुजपाशसे बँधी रहनेपर भी आलिंगन छूट जानेकी आशंकासे अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्राह्ममुहूर्तको भी असह्य समझने लगती थीं ।।३।।
भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूपका ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठता था ।।४।। परीक्षित्! भगवान्का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकारकी उपाधि या उपाधिके कारण होनेवाला अन्य वस्तुका अस्तित्व नहीं है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रियके द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चन्द्रमा-सूर्य आदिके द्वारा प्रकाशित होती है, वैसे वह आत्मस्वरूप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूपमें ही सदा-सर्वदा और कालकी सीमाके परे भी एकरस स्थित रहनेके कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसीसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशकी कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियोंके द्वारा केवल इस बातका अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्दस्वरूप है। उसीको समझानेके लिये ‘ब्रह्म’ नामसे कहा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूपका प्रतिदिन ध्यान करते ।।५।। इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जलमें स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्रीका जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषोंके पात्र आदर्श जो हैं ।।६।। इसके बाद सूर्योदय होनेके समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण करते। फिर कुलके बड़े-बुढ़ों और ब्राह्मणोंकी विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ोंवाला सीधी-शान्त गौओंका दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियोंकी माला पहना दी जाती। सींगमें सोना और खुरोंमें चाँदी मढ़ दी जाती। वे ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिलके साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते ।।७-९।। तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुलके बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियोंको प्रणाम करके मांगलिक वस्तुओंका स्पर्श करते ।।१०।।
परीक्षित्! यद्यपि भगवान्के शरीरका सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोकका अलंकार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पोंके हार और चन्दनादि दिव्य अंगरागसे अपनेको आभूषित करते ।।११।। इसके बाद वे घी और दर्पणमें अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओंका दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुरमें रहनेवाले चारों वर्णोंके लोगोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजाकी कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं बहुत ही आनन्दित होते ।।१२।। वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन और अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियोंको बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काममें लाते ।।१३।। भगवान् यह सब करते होते, तबतक दारुक नामका सारथि सुग्रीव आदि घोड़ोंसे जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान्के सामने खड़ा हो जाता ।।१४।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजीके साथ अपने हाथसे सारथिका हाथ पकड़कर रथपर सवार होते—ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान् सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ होते हैं ।।१५।। उस समय रनिवासकी स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेमसे भरी चितवनसे उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्टसे उन्हें विदा करतीं। भगवान् मुसकराकर उनके चित्तको चुराते हुए महलसे निकलते ।।१६।।
परीक्षित्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियोंके साथ सुधर्मा नामकी सभामें प्रवेश करते। उस सभाकी ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभामें जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु—ये छः ऊर्मियाँ नहीं सतातीं ।।१७।। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण सब रानियोंसे अलग-अलग विदा होकर एक ही रूपमें सुधर्मा-सभामें प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासनपर विराज जाते। उनकी अंगकान्तिसे दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरोंके बीचमें यदुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा होती, जैसे आकाशमें तारोंसे घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं ।।१८।। परीक्षित्! सभामें विदूषकलोग विभिन्न प्रकारके हास्य-विनोदसे, नटाचार्य अभिनयसे और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्योंसे अलग-अलग अपनी टोलियोंके साथ भगवान्की सेवा करतीं ।।१९।। उस समय मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान्की स्तुति करते ।।२०।। कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रोंकी व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियोंके चरित्र कह-कहकर सुनाते ।।२१।।
एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें राजसभाके द्वारपर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालोंने भगवान्को उसके आनेकी सूचना देकर उसे सभाभवनमें उपस्थित किया ।।२२।। उस मनुष्यने परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्होंने जरासन्धके दिग्विजयके समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्धके बंदी बननेका दुःख श्रीकृष्णके सामने निवेदन किया— ।।२३-२४।। ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणीके अगोचर हैं। जो आपकी शरणमें आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं ।।२५।। भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मोंमें फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासनासे विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओंमें भ्रम-भटक भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूपसे सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालताका तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूपको नमस्कार करते हैं ।।२६।। आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत्में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओंके साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतोंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमें—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेशसे मुक्त कीजिये ।।२७।। प्रभो! हम जानते हैं कि राजापनेका सुख प्रारब्धके अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुखके समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकारसे मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकारके भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसीके द्वारा जगत्के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अन्तःकरणके निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थितिसे प्राप्त होनेवाले आत्मसुखका परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी मायाके फंदेमें फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं ।।२८।। भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषोंके समस्त शोक और मोहोंको नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मोंके बन्धनसे हमें छुड़ाइये। हे अजित! अब वह यह जानकर हमलोगोंको और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये’ ।।३०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजाओंका दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि परमतेजस्वी देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। उनकी सुनहरी जटाएँ चमक रही थीं। उन्हें देखकर ऐसा मालूम हो रहा था, मानो साक्षात् भगवान् सूर्य ही उदय हो गये हों ।।३२।। ब्रह्मा आदि समस्त लोकपालोंके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही सभासदों और सेवकोंके साथ हर्षित होकर उठ खड़े हुए और सिर झुकाकर उनकी वन्दना करने लगे ।।३३।। जब देवर्षि नारद आसन स्वीकार करके बैठ गये, तब भगवान्ने उनकी विधि-पूर्वक पूजा की और अपनी श्रद्धासे उनको सन्तुष्ट करते हुए वे मधुर वाणीसे बोले— ।।३४।। ‘देवर्षे! इस समय तीनों लोकोंमें कुशल-मंगल तो है न’? आप तीनों लोकोंमें विचरण करते रहते हैं, इससे हमें यह बहुत बड़ा लाभ है कि घर बैठे सबका समाचार मिल जाता है ।।३५।। ईश्वरके द्वारा रचे हुए तीनों लोकोंमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे आप न जानते हों। अतः हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव इस समय क्या करना चाहते हैं?’ ।।३६।।
देवर्षि नारदजीने कहा—सर्वव्यापक अनन्त! आप विश्वके निर्माता हैं और इतने बड़े मायावी हैं कि बड़े-बड़े मायावी ब्रह्माजी आदि भी आपकी मायाका पार नहीं पा सकते? प्रभो! आप सबके घट-घटमें अपनी अचिन्त्य शक्तिसे व्याप्त रहते हैं—ठीक वैसे ही; जैसे अग्नि लकड़ियोंमें अपनेको छिपाये रखता है। लोगोंकी दृष्टि सत्त्व आदि गुणोंपर ही अटक जाती है, इससे आपको वे नहीं देख पाते। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार आपकी माया देखी है। इसलिये आप जो यों अनजान बनकर पाण्डवोंका समाचार पूछते हैं, इससे मुझे कोई कौतूहल नहीं हो रहा है ।।३७।। भगवन्! आप अपनी मायासे ही इस जगत्की रचना और संहार करते हैं, और आपकी मायाके कारण ही यह असत्य होनेपर भी सत्यके समान प्रतीत होता है। आप कब क्या करना चाहते हैं, यह बात भलीभाँति कौन समझ सकता है। आपका स्वरूप सर्वथा अचिन्तनीय है। मैं तो केवल बार-बार आपको नमस्कार करता हूँ ।।३८।। शरीर और इससे सम्बन्ध रखनेवाली वासनाओंमें फँसकर जीव जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकता रहता है तथा यह नहीं जानता कि मैं इस शरीरसे कैसे मुक्त हो सकता हूँ। वास्तवमें उसीके हितके लिये आप नाना प्रकारके लीलावतार ग्रहण करके अपने पवित्र यशका दीपक जला देते हैं, जिसके सहारे वह इस अनर्थकारी शरीरसे मुक्त हो सके। इसलिये मैं आपकी शरणमें हूँ ।।३९।। प्रभो! आप स्वयं परब्रह्म हैं, तथापि मनुष्योंकी-सी लीलाका नाट्य करते हुए मुझसे पूछ रहे हैं। इसलिये आपके फुफेरे भाई और प्रेमी भक्त राजा युधिष्ठिर क्या करना चाहते हैं, यह बात मैं आपको सुनाता हूँ ।।४०।। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्मलोकमें किसीको जो भोग प्राप्त हो सकता है, वह राजा युधिष्ठिरको यहीं प्राप्त है। उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। फिर भी वे श्रेष्ठ यज्ञ राजसूयके द्वारा आपकी प्राप्तिके लिये आपकी आराधना करना चाहते हैं। आप कृपा करके उनकी इस अभिलाषाका अनुमोदन कीजिये ।।४१।। भगवन्! उस श्रेष्ठ यज्ञमें आपका दर्शन करनेके लिये बड़े-बड़े देवता और यशस्वी नरपतिगण एकत्र होंगे ।।४२।। प्रभो! आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्रसे अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।४३।। त्रिभुवन-मंगल! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओंमें छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पातालमें व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती और मर्त्यलोकमें गंगाके नामसे प्रवाहित होकर सारे विश्वको पवित्र कर रही है ।।४४।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘उद्धव! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्यके तत्त्वको भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बातपर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाहके अनुसार ही काम करेंगे’ ।।४६।। जब उद्धवजीने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होनेपर भी अनजानकी तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ।।४७।।
अथैकसप्ततितमोऽध्यायः श्रीकृष्णभगवान्का इन्द्रप्रस्थ पधारना
उद्धवजीने कहा—भगवन्! देवर्षि नारदजीने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवोंके राजसूय-यज्ञमें सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतोंकी रक्षा अवश्यकर्तव्य है ।।२।। प्रभो! जब हम इस दृष्टिसे विचार करते हैं कि राजसूय-यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णयपर बिना किसी दुविधाके पहुँच जाते हैं कि पाण्डवोंके यज्ञ और शरणागतोंकी रक्षा दोनों कामोंके लिये जरासन्धको जीतना आवश्यक है ।।३।। प्रभो! केवल जरासन्धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओंकी मुक्ति और उसके कारण आपको सुयशकी भी प्राप्ति हो जायगी ।।४।। राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगोंके भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियोंका बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ।।५।। उसे आमने-सामनेके युद्धमें एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बातकी याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ।।६।। इसलिये भीमसेन ब्राह्मणके वेषमें जायँ और उससे युद्धकी भिक्षा माँगें। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थितिमें भीमसेन और जरासन्धका द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ।।७।।
प्रभो! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं। विश्वकी सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्तिसे होता है। ब्रह्मा और शंकर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्धका वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ।।८।। जब इस प्रकार आप जरासन्धका वध कर डालेंगे, तब कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रानियाँ अपने महलोंमें आपकी इस विशुद्ध लीलाका गान करेंगी कि आपने उनके शत्रुका नाश कर दिया और उनके प्राणपतियोंको छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शंखचूड़से छुड़ानेकी लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजीके उद्धारकी लीलाका तथा हमलोग आपके माता-पिताको कंसके कारागारसे छुड़ानेकी लीलाका गान करते हैं ।।९।। इसलिये प्रभो! जरासन्धका वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियोंके पुण्य-परिणामसे अथवा जरासन्धके पाप-परिणामसे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय-अज्ञका होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये ।।१०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उद्धवजीकी यह सलाह सब प्रकारसे हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंशके बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने भी उनकी बातका समर्थन किया ।।११।। अब अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने वसुदेव आदि गुरुजनोंसे अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकोंको इन्द्रप्रस्थ जानेकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दी ।।१२।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने यदुराज उग्रसेन और बलरामजीसे आज्ञा लेकर बाल-बच्चोंके साथ रानियों और उनके सब सामानोंको आगे चला दिया और फिर दारुकके लाये हुए गरुड़ध्वज रथपर स्वयं सवार हुए ।।१३।। इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ उन्होंने प्रस्थान किया।
सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्णपत्नियाँ अपनी सन्तानोंके साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन, अंगराग और पुष्पोंके हार आदिसे सज-धजकर डोलियों, रथों और सोनेकी बनी हुई पालकियोंमें चढ़कर अपने पतिदेव भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ।।१५।। देवर्षि नारदजी भगवान् श्रीकृष्णसे सम्मानित होकर और उनके निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान्के दर्शनसे उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्दमें मग्न हो गयीं। विदा होनेके समय भगवान् श्रीकृष्णने उनका नाना प्रकारकी सामग्रियोंसे पूजन किया। अब देवर्षि नारदने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्तिको हृदयमें धारण करके आकाश-मार्गसे प्रस्थान किया ।।१८।। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने जरासन्धके बंदी नरपतियोंके दूतको अपनी मधुर वाणीसे आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत! तुम अपने राजाओंसे जाकर कहना—डरो मत! तुमलोगोंका कल्याण हो। मैं जरासन्धको मरवा डालूँगा’ ।।१९।। भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियोंको भगवान् श्रीकृष्णका सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागारसे छूटनेके लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्के शुभ दर्शनकी बाट जोहने लगे ।।२०।।
जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको यह समाचार मिला कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ भगवान्की अगवानी करनेके लिये नगरसे बाहर आये ।।२३।।
भगवान् श्रीकृष्णको देखकर राजा युधिष्ठिरका हृदय स्नेहातिरेकसे गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनोंपर अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अतः वे उन्हें बार-बार अपने हृदयसे लगाने लगे ।।२५।। भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजीका पवित्र और एकमात्र निवास-स्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओंसे उसका आलिंगन करके समस्त पाप-तापोंसे छुटकारा पा गये। वे सर्वतोभावेन परमानन्दके समुद्रमें मग्न हो गये। नेत्रोंमें आँसू छलक आये, अंग-अंग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपंचके भ्रमका तनिक भी स्मरण न रहा ।।२६।। तदनन्तर भीमसेनने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णका आलिंगन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदयमें इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुनने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान् श्रीकृष्णका बड़े आनन्दसे आलिंगन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रोंमें आँसुओंकी बाढ़-सी आ गयी थी ।।२७।। अर्जुनने पुनः भगवान् श्रीकृष्णका आलिंगन किया, नकुल और सहदेवने अभिवादन किया और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धोंको यथायोग्य नमस्कार किया ।।२८।।
जब कुन्तीने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्णको देखा, तब उनका हृदय प्रेमसे भर आया। वे पलंगसे उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदीके साथ आगे गयीं और भगवान् श्रीकृष्णको हृदयसे लगा लिया ।।३९।। देवदेवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको राजमहलके अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्दके उद्रेकसे आत्म-विस्मृत हो गये; उन्हें इस बातकी भी सुधि न रही कि किस क्रमसे भगवान्की पूजा करनी चाहिये ।।४०।। भगवान् श्रीकृष्णने अपनी फूआ कुन्ती और गुरुजनोंकी पत्नियोंका अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदीने भगवान्को नमस्कार किया ।।४१।।
अथ द्विसप्ततितमोऽध्यायः पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुलके बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियोंके साथ राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णको सम्बोधित करके यह बात कही ।।१-२।।
धर्मराज युधिष्ठिरने कहा—गोविन्द! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूय-यज्ञके द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओंका यजन करना चाहता हूँ। प्रभो! आप कृपा करके मेरा यह संकल्प पूरा कीजिये ।।३।। कमलनाभ! आपके चरणकमलोंकी पादुकाएँ समस्त अमंगलोंको नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तवमें वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा करें तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते ।।४।। देवताओंके भी आराध्यदेव! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलोंकी सेवाका प्रभाव देखें। प्रभो! कुरुवंशी और सृंजयवंशी नरपतियोंमें जो लोग आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनताको दिखला दीजिये ।।५।। प्रभो! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्दके साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आपमें ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावनाके अनुसार फल मिलता ही है—ठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्षकी सेवा करनेवालेको। उस फलमें जो न्यूनाधिकता होती है वह तो न्यूनाधिक सेवाके अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते ।।६।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—शत्रु विजयी धर्मराज! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय-यज्ञ करनेसे समस्त लोकोंमें आपकी मंगलमयी कीर्तिका विस्तार होगा ।।७।। राजन्! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमें—और कहाँतक कहें, समस्त प्राणियोंको अभीष्ट है ।।८।। महाराज! पृथ्वीके समस्त नरपतियोंको जीतकर, सारी पृथ्वीको अपने वशमें करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञका अनुष्ठान कीजिये ।।९।। महाराज! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालोंके अंशसे पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगोंने अपने सद्गुणोंसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। जिन लोगोंने अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें नहीं किया है, वे मुझे अपने वशमें नहीं कर सकते ।।१०।। संसारमें कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदिके द्वारा मेरे भक्तका तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है? ।।११।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरका हृदय आनन्दसे भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयोंको दिग्विजय करनेका आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंमें अपनी शक्तिका संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ।।१२।। धर्मराज युधिष्ठिरने सृंजयवंशी वीरोंके साथ सहदेवको दक्षिण दिशामें दिग्विजय करनेके लिये भेजा। नकुलको मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ पश्चिममें, अर्जुनको केकयदेशीय वीरोंके साथ उत्तरमें और भीमसेनको मद्रदेशीय वीरोंके साथ पूर्व दिशामें दिग्विजय करनेका आदेश दिया ।।१३।। परीक्षित्! उन भीमसेन आदि वीरोंने अपने बल-पौरुषसे सब ओरके नरपतियोंको जीत लिया और यज्ञ करनेके लिये उद्यत महाराज युधिष्ठिरको बहुत-सा धन लाकर दिया ।।१४।। जब महाराज युधिष्ठिरने यह सुना कि अबतक जरासन्धपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्तामें पड़ गये। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजीने बतलाया था ।।१५।। परीक्षित्! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण—ये तीनों ही ब्राह्मणका वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्धकी राजधानी थी ।।१६।। राजा जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त और गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करनेवाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मणका वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतोंके सत्कारके समय जरासन्धके पास गये और उससे इस प्रकार याचना की— ।।१७।। ‘राजन्! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूरसे आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजनसे ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये ।।१८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जरासन्धने उन लोगोंकी आवाज, सूरत-शकल और कलाइयोंपर पड़े हुए धनुषकी प्रत्यंचाकी रगड़के चिह्नोंको देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है ।।२२।। फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय होनेपर भी मेरे भयसे ब्राह्मणका वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगनेपर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करनेपर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देनेमें भी मुझे हिचकिचाहट न होगी ।।२३।। विष्णुभगवान्ने ब्राह्मणका वेष धारण करके बलिका धन, ऐश्वर्य—सब कुछ छीन लिया; फिर भी बलिकी पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदरसे उसका गान करते हैं ।।२४।। इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान्ने देवराज इन्द्रकी राज्यलक्ष्मी बलिसे छीनकर उन्हें लौटानेके लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलिको यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्यने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वीका दान कर ही दिया ।।२५।।
मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीरसे जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मणके लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है’ ।।२६।। परीक्षित्! सचमुच जरासन्धकी बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनसे कहा—‘ब्राह्मणो! आपलोग मनचाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आपलोगोंको अपना सिर भी दे सकता हूँ’ ।।२७।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘राजेन्द्र! हमलोग अन्नके इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्धके लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्द्वयुद्धकी भिक्षा दीजिये ।।२८।। देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन है और मैं इन दोनोंका ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ’ ।।२९।। जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढ़कर बोला—‘अरे मूर्खो! यदि तुम्हें युद्धकी ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ।।३०।। परन्तु कृष्ण! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्धमें तुम घबरा जाते हो। यहाँतक कि मेरे डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्रकी शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़ूँगा ।।३१।। यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्थामें मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोड़का वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लड़ूँगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोड़के हैं’ ।।३२।। जरासन्धने यह कहकर भीमसेनको एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगरसे बाहर निकल आया ।।३३।। अब दोनों रणोन्मत्त वीर अखाड़ेमें आकर एक-दूसरेसे भिड़ गये और अपनी वज्रके समान कठोर गदाओंसे एक-दूसरेपर चोट करने लगे ।।३४।।
इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोधमें भरकर अपने घूँसोंसे एक-दूसरेको कुचल डालनेकी चेष्टा करने लगे।
दोनोंकी शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहनेपर भी दोनोंमेंसे किसीकी जीत या हार न हुई ।।३९।। दोनों वीर रातके समय मित्रके समान रहते और दिनमें छूटकर एक-दूसरेपर प्रहार करते और लड़ते। महाराज! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये ।।४०।। प्रिय परीक्षित्! अट्ठाईसवें दिन भीमसेनने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णसे कहा—‘श्रीकृष्ण! मैं युद्धमें जरासन्धको जीत नहीं सकता ।।४१।। भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धके जन्म और मृत्युका रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसीने जरासन्धके शरीरके दो टुकड़ोंको जोड़कर इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेनके शरीरमें अपनी शक्तिका संचार किया और जरासन्धके वधका उपाय सोचा ।।४२।। परीक्षित्! भगवान्का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्युका उपाय जानकर एक वृक्षकी डालीको बीचोबीचसे चीर दिया और इशारेसे भीमसेनको दिखाया ।।४३।। वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेनने भगवान् श्रीकृष्णका अभिप्राय समझ लिया और जरासन्धके पैर पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा ।।४४।। फिर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और दूसरेको अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाकी ओरसे इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्षकी डाली चीर डाले ।।४५।। लोगोंने देखा कि जरासन्धके शरीरके दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्डकोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा, नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं ।।४६।।
मगधराज जरासन्धकी मृत्यु हो जानेपर वहाँकी प्रजा बड़े जोरसे ‘हाय-हाय!’ पुकारने लगी। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमसेनका आलिंगन करके उनका सत्कार किया ।।४७।। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूप और विचारोंको कोई समझ नहीं सकता। वास्तवमें वे ही समस्त प्राणियोंके जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्धके राजसिंहासनपर उसके पुत्र सहदेवका अभिषेक कर दिया और जरासन्धने जिन राजाओंको कैदी बना रखा था, उन्हें कारागारसे मुक्त कर दिया ।।४८।।
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा, समय के साथ गुठिया और उलझती जा रही है। सबका कल्याण करो, मेरे परिवार को साथ ला दो।
April 3, 2025
कात्यायनी महामाये , महायोगिन्यधीश्वरी। नन्दगोपसुतं देवी, पति मे कुरु ते नमः।।
जय जय अम्बे, जय कात्यायनी। जय जगमाता, जग की महारानी।
कंचनाभा वराभयं पद्मधरां मुकटोज्जवलां। स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनी नमोस्तुते।
प्रभु, कुछ फोटो मिली जो हो सकता है मेरी सखी द्वार पूजित तुम्हारी माता के विविध रूपो की थी। परनातु, मेरी सखी कहीं नहीं देखी। प्रभु, सबका ख्याल तो रख रहो हो ना।
ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ।।२
श्रीवत्सांकं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम् । चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ।।३
पद्महस्तं गदाशंखरथाङ्गैरुपलक्षितम् । किरीटहारकटककटिसूत्रांगदाचितम् ।।४
भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया ।
अथ त्रिसप्ततितमोऽध्यायः जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई और भगवान्का इन्द्रप्रस्थ लौट आना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जरासन्धने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओंको जीतकर पहाड़ोंकी घाटीमें एक किलेके भीतर कैद कर रखा था। भगवान् श्रीकृष्णके छोड़ देनेपर जब वे वहाँसे निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे ।।१।। वे भूखसे दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेलमें बंद रहनेके कारण उनके शरीरका एक-एक अंग ढीला पड़ गया था। वहाँसे निकलते ही उन नरपतियोंने देखा कि सामने भगवान् श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघके समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उसपर पीले रंगका रेशमी वस्त्र फहरा रहा है ।।२।। चार भुजाएँ हैं—जिनमें गदा, शंख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। वक्षःस्थलपर सुनहली रेखा—श्रीवत्सका चिह्न है और कमलके भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नताका सदन है। कानोंमें मकराकृति कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियोंका हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर शोभा पा रहे हैं ।।३-४।। गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है। भगवान् श्रीकृष्णको देखकर उन राजाओंकी ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रोंसे उन्हें पी रहे हैं। जीभसे चाट रहे हैं, नासिकासे सूँघ रहे हैं और बाहुओंसे आलिंगन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान्के दर्शनसे ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया ।।५-६।। भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे उन राजाओंको इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैदमें रहनेका क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोड़कर विनम्र वाणीसे भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ।।७।।
राजाओंने कहा—शरणागतोंके सारे दुःख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर! सच्चिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्धके कारागारसे तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्रसे भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसारमें दुःखका कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो! अब आप हमारी रक्षा कीजिये ।।८।। मधुसूदन! हमारे स्वामी! हम मगधराज जरासन्धका कोई दोष नहीं देखते। भगवन्! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलाने-वाले लोग राज्यलक्ष्मीसे च्युत कर दिये गये ।।९।। क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुखकी—कल्याणकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरतासे भरा हुआ था, और हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूपसे हमारे सामने खड़े हैं, इस बातकी भी हम तनिक परवा नहीं करते थे ।।१२।। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! कालकी गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसीके टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हमलोगोंको श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पासे हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं ।।१३।। यही नहीं, हमें कर्मके फल स्वर्गादि लोकोंकी भी, जो मरनेके बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुननेमें ही आकर्षक जान पड़ते हैं ।।१४।। अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलोंकी विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसारकी किसी भी योनिमें जन्म क्यों न लेना पड़े ।।१५।।
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ।।१६
प्रणाम करनेवालोंके क्लेशका नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्दके प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ।।१६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कारागारसे मुक्त राजाओंने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभुने बड़ी मधुर वाणीसे उनसे कहा ।।१७।। भगवान् श्रीकृष्णने कहा—नरपतियो! तुम-लोगोंने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आजसे मुझमें तुमलोगोंकी निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ ।।१८।। देह और देहके सम्बन्धियोंसे किसी प्रकारकी आसक्ति न रखकर उदासीन रहो; अपने-आपमें, आत्मामें ही रमण करो और भजन तथा आश्रमके योग्य व्रतोंका पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्तमें तुमलोग मुझ ब्रह्मस्वरूपको ही प्राप्त हो जाओगे ।।२३।।
अब वे समस्त क्लेशोंसे छुटकारा पाकर तथा कानोंमें झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतुका अन्त हो जानेपर तारे ।।२७।। फिर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें सुवर्ण और मणियोंसे भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ोंसे युक्त रथोंपर चढ़ाया, मधुर वाणीसे तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशोंको भेज दिया ।।२८।। इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने उन राजाओंको महान् कष्टसे मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णके रूप, गुण और लीलाओंका चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानीको चले गये ।।२९।। वहाँ जाकर उन लोगोंने अपनी-अपनी प्रजासे परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानीसे भगवान्के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ।।३०।। परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भीमसेनके द्वारा जरासन्धका वध करवाकर भीमसेन और अर्जुनके साथ जरासन्धनन्दन सहदेवसे सम्मानित होकर इन्द्र-प्रस्थके लिये चले। उन विजयी वीरोंने इन्द्रप्रस्थके पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रोंको सुख और शत्रुओंको बड़ा दुःख हुआ ।।३१-३२।। इन्द्रप्रस्थनिवासियोंका मन उस शंखध्वनिको सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिरका राजसूय-यज्ञ करनेका संकल्प एक प्रकारसे पूरा हो गया ।।३३।। भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्णने राजा युधिष्ठिरकी वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्धके वधके लिये करना पड़ा था ।।३४।।
धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णके इस परम अनुग्रहकी बात सुनकर प्रेमसे भर गये, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ।।३५।।
अथ चतुःसप्ततितमोऽध्यायः भगवान्की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्धका वध और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले ।।१।। धर्मराज युधिष्ठिरने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! त्रिलोकीके स्वामी ब्रह्मा, शंकर आदि और इन्द्रादि लोकपाल—सब आपकी आज्ञा पानेके लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धासे उसको शिरोधार्य करते हैं ।।२।। अनन्त! हमलोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपनेको भूपति और नरपति। ऐसी स्थितिमें हैं तो हम दण्डके पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान्के लिये यह मनुष्य-लीलाका अभिनयमात्र है ।।३।। जैसे उदय अथवा अस्तके कारण सूर्यके तेजमें घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकारके कर्मोंसे न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ।।४।। किसीसे पराजित न होनेवाले माधव! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस प्रकारकी विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओंकी होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्तमें ऐसे पागलपनके विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँसे? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है) ।।५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे यज्ञके योग्य समय आनेपर यज्ञके कर्मोंमें निपुण वेदवादी ब्राह्मणोंको ऋत्विज्, आचार्य आदिके रूपमें वरण किया ।।६।। उनके नाम ये हैं—श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण ।।७-९।। इनके अतिरिक्त धर्मराजने द्रोणाचार्य, भीष्म-पितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदिको भी बुलवाया ।।१०।। राजन्! राजसूय-यज्ञका दर्शन करनेके लिये देशके सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र—सब-के-सब वहाँ आये ।।११।। इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणोंने सोनेके हलोंसे यज्ञभूमिको जुतवाकर राजा युधिष्ठिरको शास्त्रानुसार यज्ञकी दीक्षा दी ।।१२।। प्राचीन कालमें जैसे वरुणदेवके यज्ञमें सब-के-सब यज्ञपात्र सोनेके बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिरके यज्ञमें भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिरके यज्ञमें निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शंकरजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणोंके साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ—ये सभी उपस्थित हुए ।।१३-१५।। सबने बिना किसी प्रकारके कौतूहलके यह बात मान ली कि राजसूय-यज्ञ करना युधिष्ठिरके योग्य ही है। क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके भक्तके लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओंके समान तेजस्वी याजकोंने धर्मराज युधिष्ठिरसे विधिपूर्वक राजसूय-यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकालमें देवताओंने वरुणसे करवाया था ।।१६।।
अब सभासद् लोग इस विषयपर विचार करने लगे कि सदस्योंमें सबसे पहले किसकी पूजा—अग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मतिसे कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थितिमें सहदेवने कहा— ।।१८।। ‘यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्योंमें सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजाके पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओंके रूपमें हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूपमें भी ये ही हैं ।।१९।। यह सारा विश्व श्रीकृष्णका ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही अग्नि, आहुति और मन्त्रोंके रूपमें हैं। ज्ञानमार्ग और कर्म-मार्ग—ये दोनों भी श्रीकृष्णकी प्राप्तिके ही हेतु हैं ।।२०।। सभासदो! मैं कहाँतक वर्णन करूँ, भगवान् श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्रका भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हींका स्वरूप है। वे अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छः भावविकारोंसे रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप संकल्पसे ही जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं ।।२१।। सारा जगत् श्रीकृष्णके ही अनुग्रहसे अनेकों प्रकारके कर्मका अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोंका सम्पादन करता है ।।२२।। इसलिये सबसे महान् भगवान् श्रीकृष्णकी ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करनेसे समस्त प्राणियोंकी तथा अपनी भी पूजा हो जाती है ।।२३।। जो अपने दान-धर्मको अनन्त भावसे युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अन्तरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णको ही दान करे ।।२४।।
उस समय धर्मराज युधिष्ठिरकी यज्ञसभामें जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वरसे ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेवकी बातका समर्थन किया ।।२५।। धर्मराज युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंकी यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदोंका अभिप्राय जानकर बड़े आनन्दसे प्रेमोद्रेकसे विह्वल होकर भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की ।।२६।। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे इस प्रकार भर गये कि वे भगवान्को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे ।।२८।।
यज्ञसभामें उपस्थित सभी लोग भगवान् श्रीकृष्णको इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नमः! जय जय!’ इस प्रकारके नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाशसे स्वयं ही पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ।।२९।।
परीक्षित्! अपने आसनपर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान् श्रीकृष्णके गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभामें हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयताके साथ भगवान्को सुना-सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा— ।।३०।। ‘सभासदो! श्रुतियोंका यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करनेपर भी वह अपना काम करा ही लेता है—इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खोंकी बातसे बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धोंकी बुद्धि भी चकरा गयी है ।।३१।। न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मोंसे यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओंका उल्लंघन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें यह अग्रपूजाका पात्र कैसे हो सकता है? ।।३५।। आपलोग जानते हैं कि राजा ययातिने इसके वंशको शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषोंने इस वंशका ही बहिष्कार कर दिया है। फिर ये अग्रपूजाके योग्य कैसे हो सकते हैं? ।। इन सबने ब्रह्मर्षियोंके द्वारा सेवित मथुरा आदि देशोंका परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस्के विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्रमेंमें किला बनाकर रहने लगे। परीक्षित्! सच पूछो तो शिशुपालका सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसीसे उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान् श्रीकृष्णको सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियारकी ‘हुआँ-हुआँ’ पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातोंका कुछ भी उत्तर न दिया ।।३८।। परन्तु सभासदोंके लिये भगवान्की निन्दा सुनना असह्य था। उनमेंसे कई अपने-अपने कान बंद करके क्रोधसे शिशुपालको गाली देते हुए बाहर चले गये ।।३९।। परीक्षित्! जो भगवान्की या भगवत्परायण भक्तोंकी निन्दा सुनकर वहाँसे हट नहीं जाता, वह अपने शुभकर्मोंसे च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ।।४०।।
परीक्षित्! अब शिशुपालको मार डालनेके लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृंजयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथोंमें हथियार ले उठ खड़े हुए ।।४१।। परन्तु शिशुपालको इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभामें श्रीकृष्णके पक्षपाती राजाओंको ललकारने लगा ।।४२।। उन लोगोंको लड़ते-झगड़ते देख भगवान् श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओंको शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपालका सिर छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे काट लिया ।।४३।। जैसे आकाशसे गिरा हुआ लूक धरतीमें समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियोंके देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्णमें समा गयी ।।४५।। परीक्षित्! शिशुपालके अन्तःकरणमें लगातार तीन जन्मसे वैरभावकी अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभावसे ही सही, ध्यान करते-करते वह तन्मय हो गया—पार्षद हो गया। सच है—मृत्युके बाद होनेवाली गतिमें भाव ही कारण है ।।४६।।
परीक्षित्! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तारसे (सातवें स्कन्धमें) सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजयको सनकादि ऋषियोंके शापसे बार-बार जन्म लेना पड़ा था ।।५०।।
प्रभु, आज फिर राजाओ और युधिनजी के तुम्हारे प्रति भावे पढ़ कर आके भर आई। प्रभु, मीनू को अपनी भक्ति में डुबादो। मीनू और माता-पिता सहित तुम्हारा भजन करें। प्रभु, हम तुम्हारा ध्यान करते-करते भक्ति में तन्मय हो जाये।प्रभु, हम सब एक दूसरे को तुम्हारी स्मृति दिलाते रहें। प्रभु, तुहारे चरणकमलोंकी विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसारकी किसी भी योनिमें जन्म क्यों न लेना पड़े।।
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ।।
April 3, 2025
प्रभु, क्यू मीनू मुझे दूर भागती है, क्यू उस दिन ऐसे मुड़ के देखा कि इससे पहले कुछ समझ पता मेरा दिल बिखर गया। ऊपर से चोर कोतवाल को डांटे, ऐसी बात करती है कि मेरी कितनी चिंता है, मैंने उससे बात नहीं की, जबकी मां के कहने पर भी मुझसे बात करने की जगह गुस्से से चली गई थी। मैं शुभम की तरह हूं तो दूसरे लड़के किसकी तरह है जो उनके बारे में विचार करने को तैयार हो गई?
पूरा जीवन मेरी सखी के लायक बनने में लगा रहा, मेरी सखी के साथ पूरे परिवार को अपने दिल में बसाया, इतना भी नहीं बताया मुझे शुभम की जगह किसकी तरह होना चाहिए?
प्रभु सूरदास जी को फिर भी कुए से निकाल कर भागे थे, मुझे तो विश्वास जगाके, गिराके। देवदास भी मुझसे ज्यादा खुशनसीब था। मेरी सखी तो खुद ही द्वार बंद करके दिया फूक देगी।
बाप बेटी हाथ छुड़ाये जात हो, निर्बल जानि के मोय । हृदय से जब जाओगे, तो सबल जानूँगा तोय ।। मैये से दोनों को डांट खिलवाउंगा। और दादी से भी। याद आया प्रभु जब गोकुल में यशोदा दादी की छड़ी से बचने के लिए भागे थे।
प्रभु, मीनू कह रही थी हममें से एक को अपनी भावनाएँ दबानी होंगी। तो प्रभु जैसे बचपन से भावनाएँ दबाएँ, तड़पता रहा, क्या जीवन भा वैसे ही तड़पता रहना है?
April 3, 2025
प्रभु, अंकलजी आंटीजी कुछ कहते हैं, मीनू कुछ और, करती कुछ और। कुछ समझ नहीं आता। प्रभु तुमने ही ये गुत्थी उलझाई है, खुद ही सुलझा लो। मेरा तो रोज सर दर्द हो जात है
अथ पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
श्रीशुकदेवजी महाराजने कहा—परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धनसे बँधकर सभी बन्धु-बान्धवोंने राजसूय यज्ञमें विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था ।।३।। भीमसेन भोजनालयकी देख-रेख करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कारमें नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकारकी सामग्री एकत्र करनेका काम देखते थे ।।४।। अर्जुन गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियोंके पाँव पखारनेका काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परसनेका काम करतीं और उदार-शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे ।।५।। परीक्षित्! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीकके पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञमें विभिन्न कर्मोंमें नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिरका प्रिय और हित हो ।।६-७।।
परीक्षित्! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषोंका तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवोंका सुमधुर वाणी, विविध प्रकारकी पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदिसे भलीभाँति सत्कार हो चुका तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान्के चरणोंमें समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर गंगाजीमें यज्ञान्त-स्नान करने गये ।।८।।
इन्द्रप्रस्थके नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पोंके हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणोंसे सज-धजकर एक-दूसरेपर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरेके शरीरमें लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चलने लगे ।।१४।। वाराङ्गन्नाएँ पुरुषोंको तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओंसे सराबोर कर देते ।।१५।।
पाण्डवोंके ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियोंके ऊपर तरह-तरहके रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियोंके मुख लजीली मुसकराहटसे खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी ।।१६।।
ऋत्विजोंने पत्नी-संयाज (एक प्रकारका यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदीके साथ सम्राट् युधिष्ठिरको आचमन करवाया और इसके बाद गंगास्नान ।।१९।। उस समय मनुष्योंकी दुन्दुभियोंके साथ ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।२०।। महाराज युधिष्ठिरके स्नान कर लेनेके बाद सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोगोंने गंगाजीमें स्नान किया; क्योंकि इस स्नानसे बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है ।।२१।।
तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकारके आभूषणोंसे अपनेको सजा लिया। फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदिको वस्त्राभूषण दे-देकर उनकअँगरखी की ।।२२।। महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सबमें भगवान्के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगोंकी बार-बार पूजा करते ।।२३।। उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पोंके हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियोंके बहुमूल्य हार पहनकर देवताओंके समान शोभायमान हो रहे थे।
परीक्षित्! राजसूय यज्ञमें जितने लोग आये थे—परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि, पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियोंके साथ लोकपाल—इन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिरने की। इसके बाद वे लोग धर्मराजसे अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ।।२५-२६।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने यदुवंशी वीर साम्ब आदिको द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिरकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये, उन्हें आनन्द देनेके लिये वहीं रह गये ।।२९।। इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथोंके महान् समुद्रको, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी ।।३०।।
एक दिनकी बात है, भगवान्के परमप्रेमी महाराज युधिष्ठिरके अन्तःपुरकी सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञद्वारा प्राप्त महत्त्वको देखकर दुर्योधनका मन डाहसे जलने लगा ।।३१।।
एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनोंके तारे परम हितैषी भगवान् श्रीकृष्णके साथ मयदानवकी बनायी सभामें स्वर्णसिंहासनपर देवराज इन्द्रके समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजीके ऐश्वर्यके समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे ।।३४-३५।। उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दुःशासन आदि भाइयोंके साथ वहाँ आया। उसके सिरपर मुकुट, गलेमें माला और हाथमें तलवार थी। परीक्षित्! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकोंको झिड़क रहा था ।।३६।। उस सभामें मय दानवने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधनने उससे मोहित हो स्थलको जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जलको स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा ।।३७।। उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करनेसे रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित्! उन्हें इशारेसे श्रीकृष्णका अनुमोदन प्राप्त हो चुका था ।।३८।। इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोधसे जलने लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवनसे निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटनाको देखकर सत्पुरुषोंमें हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिरका मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया। परीक्षित्! यह सब होनेपर भी भगवान् श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वीका भार उतर जाय; और सच पूछो तो उन्हींकी दृष्टिसे दुर्योधनको वह भ्रम हुआ था ।।३९।। परीक्षित्! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय-यज्ञमें दुर्योधनको डाह क्यों हुआ? जलन क्यों हुई? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया ।।४०।।
क्षमा करना प्रभु, इतने दिनों से तुम्हें सुलाते समय मुकुट उतारना भूल गया था। आज याद आया नानी सुलाने से पहले कितने पयार से मुकुट उतार कर चादर उड़ाती थी। क्या करूँ तुम बाप बेटी से मेरी ऐसी दशा कर दी है। प्रतिदिन आरती के समय प्रार्थना करता हूं, अगर मोक्ष न मिले तो हमारे पूर्वजों पर कृपा बनाए रखना, मार्ग दर्शन करते रहना। माँ का दर्द सही करदो. मीनू पिछली बार बता रही थी कि नाना को घर बनवाते समय पैरों में छोटा लग गई थी। एक बार भी नहीं मिला. मीनू के और संबंधियों के बारे में मेरे जानने को कितना कुछ है। सबका स्वस्थ अच्छा रखना।
केतने भजन है जो मेरी सखी को सुनाना चाहता है। पता नहीं मीनू का मन कभी मुझे कुछ सुनाने का कारता है या बस बाडी बाडी ही कारति है? ना डाँट सुनाइ ना आरती। पता नहीं मेरी प्लेलिस्ट एक बार खोल के देखी भी या नहीं?
कोई कमी नहीं है, दर मइया के जाके देख
देगी तुझे दर्शन मइया, तू सर को झुका के देख
अगर आजमाना है, तो आजमा के देख
पल भर में भरेगी झोली, तू झोली फैला के देख
वो है जग से बेमिसाल सखी
माँ शेरोवाली कमाल सखी - 2
की री तुझे क्या बतलाऊं
वो है कितनी दीनदयाल सखी री, तुझे क्या बतलाऊं
तुझे क्या बतलाऊं
वो है कितनी दीनदयाल सखी री तुझे क्या बतलाऊं
तुझे क्या बतलाऊं
जो सच्चे दिल से द्वार मइया के जाता है
वो मुँह माँगा वर माँ जगजननी से पाता है - 2
फिर रहे न वो, फिर रहे न वो, कंगाल सखी
फिर रहे न वो, कंगाल सखी, हो जाये मालामाल सखी
की री तुझे क्या बतलाऊं
॥वो है कितनी दीनदयाल सखी री...॥
माँ पल -पल करती अपने भक्त की रखवाली
दुःख रोग हरे एक पल में माँ शेरोवाली - 2
करे पूरे सभी, सवाल सखी
बस मन से, भरम निकाल सखी - 2
की री तुझे क्या बतलाऊं
॥वो है कितनी दीनदयाल सखी री...॥
माँ भर दे खाली गोद, की रे आँगन भर दे रे
खुशियों के लगा दे ढेर, सुहागन कर दे रे - 2
माओं को देती, लाल सखी
रहने दे न, रे कोई मलाल सखी - 2
की री तुझे क्या बतलाऊं
॥वो है कितनी दीनदयाल सखी री...॥
हर कमी करे पूरी माँ, अपने प्यारो की
लम्बी है कहानी, मइया के उपकारों की - 2
देती है मुसीबत, टाल सखी
कहा जाये न, सारा हाल सखी - 2
की री तुझे क्या बतलाऊं
॥वो है कितनी दीनदयाल सखी री...॥
माता दरबार में ये भजन हो रहा था। मैं कब अपनी सखी को तुम्हारी महिमा सुनूंगा?
April 4, 2025
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवी नमोऽस्तु ते॥
प्रभु, कहते हो कर्म करो, पर कर्म करने के लिए शक्ति कहाँ से लाऊँ? मेरी सखी के सहारे ही तो यहां तक पहुंच हूँ। हर बीत्ते दिन के साथ शक्ति अर्जित करना कठिन हो रहा है। कोई हाल चल नहीं मिल रहा॥ प्रभु कम से कम मीनू की अंकलजी से चिपकी फोटो ही दिखा दो, मेरे अंकलजी से और इरशा कर लू।
इतनी बार कहा मेरे लिए मेरे मम्मी पापा ही सब कुछ है, और अंकलजी कहते हैं कुछ दिन में भूल जायेंगे। प्रभु, झूठ मुठ ही सही तुम भी तो रोते हो। क्या करूं तुम्हारी तरह नौटंकी नहीं आती तो सच मुच में रोता हूं।
पता नहीं सबको क्यों लगता है कि समय के साथ कुछ बदल जाएगा? अंकलजी को क्यों लगता है शादी से कुछ बदल जाएगा? पता नहीं मीनू किस "मूव ऑन" की बात कर रही थी? मैं तो और भी डूबता जा रहा हूं, बस खुशियों की इच्छा जा रही है।
अथ षट्सप्ततितमोऽध्यायः शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब मनुष्यकी-सी लीला करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बताया जायगा कि सौभनामक विमानका अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान्के हाथसे मारा गया ।।१।। शाल्व शिशुपालका सखा था और रुक्मिणीके विवाहके अवसरपर बारातमें शिशुपालकी ओरसे आया हुआ था। उस समय यदुवंशियोंने युद्धमें जरासन्ध आदिके साथ-साथ शाल्वको भी जीत लिया था ।।२।।
परीक्षित्! मूढ़ शाल्वने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान् पशुपतिकी आराधना प्रारम्भ की। यों तो पार्वतीपति भगवान् शंकर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्वका घोर संकल्प जानकर एक वर्षके बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्वसे वर माँगनेके लिये कहा ।।५।। उस समय शाल्वने यह वर माँगा कि ‘मुझे आप एक ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंसे तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियोंके लिये अत्यन्त भयंकर हो’ ।।६।। भगवान् शंकरने कह दिया ‘तथास्तु!’ इसके बाद उनकी आज्ञासे विपक्षियोंके नगर जीतनेवाले मय दानवने लोहेका सौभनामक विमान बनाया और शाल्वको दे दिया ।।७।।
परीक्षित्! प्राचीन कालमें जैसे त्रिपुरासुरने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा था, वैसे ही शाल्वके विमानने द्वारकापुरीको अत्यन्त पीड़ित कर दिया। वहाँके नर-नारियोंको कहीं एक क्षणके लिये भी शान्ति न मिलती थी ।।१२।।
परमयशस्वी वीर भगवान् प्रद्युम्नने देखा—हमारी प्रजाको बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथपर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि ‘डरो मत’ ।।१३।। इसके बाद प्राचीन कालमें जैसे देवताओंके साथ असुरोंका घमासान युद्ध हुआ था वैसे ही शाल्वके सैनिकों और यदुवंशियोंका युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगोंके रोंगटे खड़े हो जाते थे ।।१६।। प्रद्युम्नजीने अपने दिव्य अस्त्रोंसे क्षणभरमें ही सौभपति शाल्वकी सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणोंसे रात्रिका अन्धकार मिटा देते हैं ।।१७।।
परीक्षित्! मय दानवका बनाया हुआ शाल्वका वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपोंमें दीखता तो कभी एक रूपमें, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियोंको इस बातका पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है ।।२१।। शाल्व अपने विमान और सैनिकोंके साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणोंकी झड़ी लगा देते थे ।।२३।। उनके बाण सूर्य और अग्निके समान जलते हुए तथा विषैले साँपकी तरह असह्य होते थे। उनसे शाल्वका नगराकार विमान और सेना अत्यन्त पीड़ित हो गयी, यहाँतक कि यदुवंशियोंके बाणोंसे शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया ।।२४।।
परीक्षित्! शाल्वके मन्त्रीका नाम था द्युमान्, जिसे पहले प्रद्युम्नजीने पचीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्नजीपर अपनी फौलादी गदासे बड़े जोरसे प्रहार किया और ‘मार लिया, मार लिया’ कहकर गरजने लगा ।।२६।। परीक्षित्! गदाकी चोटसे शत्रुदमन प्रद्युम्नजीका वक्षःस्थल फट-सा गया। दारुकका पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथिधर्मके अनुसार उन्हें रणभूमिसे हटा ले गया ।।२७।। दो घड़ीमें प्रद्युम्नजीकी मूर्च्छा टूटी। तब उन्होंने सारथिसे कहा—‘सारथे! तूने यह बहुत बुरा किया।
सारथीने कहा—आयुष्मन्! मैंने जो कुछ किया है, सारथीका धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी! युद्धका ऐसा धर्म है कि संकट पड़नेपर सारथी रथीकी रक्षा कर ले और रथी सारथीकी ।।३२।। इस धर्मको समझते हुए ही मैंने आपको रणभूमिसे हटाया है। शत्रुने आपपर गदाका प्रहार किया था, जिससे आप मूर्च्छित हो गये थे, बड़े संकटमें थे; इसीसे मुझे ऐसा करना पड़ा ।।३३।।
अथ सप्तसप्ततितमोऽध्यायः शाल्व-उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब प्रद्युम्नजीने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथीसे कहा कि ‘मुझे वीर द्युमान्के पास फिरसे ले चलो’ ।।१।। उस समय द्युमान् यादवसेनाको तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्नजीने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करनेसे रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ।।२।। चार बाणोंसे उसके चार थोड़े और एक-एक बाणसे सारथी, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ।।३।। इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्वकी सेनाका संहार करने लगे। सौभ
बड़ा ही घमासान और भयंकर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा ।।५।। उन दिनों भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरके बुलानेसे इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपालकी भी मृत्यु हो गयी थी ।।६।।
वहाँ भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि बड़े भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवोंसे अनुमति लेकर द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ।।७।। वे मन-ही-मन कहने लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलरामजीके साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपालके पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारकापर आक्रमण कर रहे होंगे’ ।।८।। भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवोंपर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजीको नगरकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्वको देखकर अपने सारथि दारुकसे कहा— ।।९।। ‘दारुक! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्वके पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना’ ।।१०।।
भगवान् श्रीकृष्णको देखते ही उसने उनके सारथीपर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयंकर शब्द करती हुई आकाशमें बड़े वेगसे चल रही थी और बहुत बड़े लूकके समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाशसे दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथीकी ओर आते देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये ।।१२-१३।। इसके बाद उन्होंने शाल्वको सोलह बाण मारे और उसके विमानको भी, जो आकाशमें घूम रहा था, असंख्य बाणोंसे चलनी कर दिया—ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे आकाशको भर देता है ।।१४।। शाल्वने भगवान् श्रीकृष्णकी बायीं भुजामें, जिसमें शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शार्ङ्गधनुष भगवान्के हाथसे छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी ।।१५।। जो लोग आकाश या पृथ्वीसे यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ पुकार उठे।
भगवान् श्रीकृष्णने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयंकर गदासे शाल्वके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा ।।२०।। इधर जब गदा भगवान्के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्यने भगवान्के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजीने भेजा है ।।२१।। उन्होंने कहा है कि अपने पिताके प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिताको उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशुको बाँधकर ले जाय!’ ।।२२।। यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये। उनके मुँहपर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुषके समान अत्यन्त करुणा और स्नेहसे कहने लगे— ।।२३।। ‘अहो! मेरे भाई बलरामजीको तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्वका बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजीको बाँधकर ले गया? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है’ ।।२४।। भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजीके समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्णसे कहने लगा— ।।२५।।
‘मूर्ख! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’ ।।२६।। मायावी शाल्वने इस प्रकार भगवान्को फटकार कर मायारचित वसुदेवका सिर तलवारसे काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमानपर जा बैठा ।।२७।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ीके लिये अपने स्वजन वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त प्रेम होनेके कारण साधारण पुरुषोंके समान शोकमें डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्वकी फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मय दानवने बतलायी थी ।।२८।। भगवान् श्रीकृष्णने युद्धभूमिमें सचेत होकर देखा—न वहाँ दूत है और न पिताका वह शरीर; जैसे स्वप्नमें एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो! उधर देखा तो शाल्व विमानपर चढ़कर आकाशमें विचर रहा है। तब वे उसका वध करनेके लिये उद्यत हो गये ।।२९।। प्रिय परीक्षित्! इस प्रकारकी बात पूर्वापरका विचार न करनेवाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बातको भूल जाते हैं कि श्रीकृष्णके सम्बन्धमें ऐसा कहना उन्हींके वचनोंके विपरीत है ।।३०।। कहाँ अज्ञानियोंमें रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण—जिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है (भला, उनमें वैसे भावोंकी सम्भावना ही कहाँ है?) ।।३१।।
फिर उसे मार डालनेके लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्यके साथ उदयाचल शोभायमान हो ।।३५।। भगवान् श्रीकृष्णने उस चक्रसे परम मायावी शाल्वका कुण्डल-किरीटसहित सिर धड़से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्रने वज्रसे वृत्रासुरका सिर काट डाला था। उस समय शाल्वके सैनिक अत्यन्त दुःखसे ‘हाय-हाय’ चिल्ला उठे ।।३६।। परीक्षित्! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदाके प्रहारसे चूर-चूर हो गया, तब देवतालोग आकाशमें दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने मित्र शिशुपाल आदिका बदला लेनेके लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा ।।३७।।
प्रभु, तुम्हारे युद्ध का वरना अच्छा नहीं लगता, बस तुम सबका उद्धार करो हो आनंद मिलता है। पता नहीं आकाश से युद्ध देख कर क्यों दिव्य नारी खुश होते हैं, जैसा कोई क्रिकेट मैच हो?
प्रभु, मैंने तो बिना युद्ध लड़े ही विदेश से कितने लाखो ला के देश और संस्थाओं को दान कर दिया। पता नहीं कितने का सदुपयोग हुआ, पर जो भी है सब तुम्हारा तुम्हें ही अर्पण कर चुका हूं। सुना है नन्द का लाल कर्मो का बड़ा व्यापरी, सब पे कृपा करता है। तुम्ही जानो अपने नामो की महिमा का क्या करना है।
प्रभु, मीनू और अंकलजी ने अभी तक मुझे अनब्लॉक नहीं किया, बस बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे
April 4, 2025
प्रभु, तुम तो गुठिया और भी उलझाते हुए प्रश्न और भी बढ़ते जा रहे हो। पता नहीं मीनू के मन में क्या चल रहा है। कौन कितना सत्य बोल रहा है, कुछ समझ नहीं आ रहा। कैसी चिंता ना करूं?
प्रभु, स्वर्ग से तो डर लगता है, और मोक्ष तुम ही जानो, और मेरी सखी के बिना जब मैं अधूरा हूं तो भक्ति कैसी पूरी होगी? भोग लगाते समय भी वो दिन याद आ रहे हैं जब मेनू भोग लगाके प्रसाद देती थी। कब मेरी सखी के साथ मिल कर प्रसाद बनाके तुम्हें भोग लगाऊंगा? कुछ समझ नहीं आ रही, दिल बैठा जा रहा है
April 4, 2025
प्रभु, कन्या पूजन के लिए उपहार लेने गया था तो यहीं मन में आ रहा था कि मीनू क्या चयन करती है, क्या विचार होते हैं? प्रभु, कितने प्रश्न हैं, क्या जीवन में ही निकल जाएगा? क्या मीनू के मन में कभी मेरे बारे में प्रश्न उठते हैं?
अथाष्टसप्ततितमोऽध्यायः दन्तवक्त्र और विदूरथका उद्धार तथा तीर्थयात्रामें बलरामजीके हाथसे सूतजीका वध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रकके मारे जानेपर उनकी मित्रताका ऋण चुकानेके लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमिमें आ धमका। वह क्रोधके मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्रके नामपर उसके हाथमें एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित्! लोगोंने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी हिल रही है ।।१-२।।
भगवान् श्रीकृष्णने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथमें गदा लेकर वे रथसे कूद पड़े। फिर जैसे समुद्रके तटकी भूमि उसके ज्वार-भाटेको आगे बढ़नेसे रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया ।।३।। घमंडके नशेमें चूर करूषनरेश दन्तवक्त्रने गदा तानकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने पड़ गये ।।४।। कृष्ण! तुम मेरे मामाके लड़के हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रोंको मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा ।।५।। मूर्ख! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीरमें रहनेवाला कोई रोग हो! मैं अपने मित्रोंसे बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋणसे उऋण हो सकता हूँ ।।६।। जैसे महावत अंकुशसे हाथीको घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्रने अपनी कड़वी बातोंसे श्रीकृष्णको चोट पहुँचानेकी चेष्टा की और फिर वह उनके सिरपर बड़े वेगसे गदा मारकर सिंहके समान गरज उठा ।।७।। रणभूमिमें गदाकी चोट खाकर भी भगवान् श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सँभालकर उससे दन्तवक्त्रके वक्षःस्थलपर प्रहार किया ।।८।। गदाकी चोटसे दन्तवक्त्रका कलेजा फट गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरतीपर गिर पड़ा ।।९।। परीक्षित्! जैसा कि शिशुपालकी मृत्युके समय हुआ था, सब प्राणियोंके सामने ही दन्तवक्त्रके मृत शरीरसे एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीतिसे भगवान् श्रीकृष्णमें समा गयी ।।१०।।
दन्तवक्त्रके भाईका नाम था विदूरथ। वह अपने भाईकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोधके मारे लम्बी-लम्बी साँस लेता हुआ हाथमें ढाल-तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे आया ।।११।।
राजेन्द्र! जब भगवान् श्रीभगवान् श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमेंिर धड़से अलग कर दिया ।।१२।। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमें प्रवेश किया।
एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवान् जगदीश्वरः ।
र्इयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः ।।१६
योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओंके समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तवमें तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं ।।१६।।
एक बार बलरामजीने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसीका पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थोंमें स्नान करनेके बहाने द्वारकासे चले गये ।।१७।। वहाँसे चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मणभोजनके द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्योंको तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणोंके साथ जिधरसे सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े ।।१८।। वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थोंमें गये ।।१९।। परीक्षित्! तदनन्तर यमुनातट और गंगातटके प्रधान-प्रधान तीर्थोंमें होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्रमें बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान् सत्र कर रहे थे ।।२०।।
दीर्घकालतक सत्संगसत्रका नियम लेकर बैठे हुए ऋषियोंने बलरामजीको आया देख अपने-अपने आसनोंसे उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की ।।२१।। वे अपने साथियोंके साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान् व्यासके शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दीपर बैठे हुए हैं ।।२२।। बलरामजीने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जातिमें उत्पन्न होनेपर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे ऊँचे आसनपर बैठे हुए हैं और उनके आनेपर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इसपर बलरामजीको क्रोध आ गया ।।२३।। वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जातिका होनेपर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे तथा धर्मके रक्षक हमलोगोंसे ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्डका पात्र है ।।२४।। भगवान् व्यासदेवका शिष्य होकर इसने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रोंका अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मनपर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्माने झूठमूठ अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँगके लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरेका ।।२५-२६।।
जो लोग धर्मका चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्मका पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत्में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’ ।।२७।। भगवान् बलराम यद्यपि तीर्थयात्राके कारण दुष्टोंके वधसे भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथमें स्थित कुशकी नोकसे उनपर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी ।।२८।। सूतजीके मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान् बलरामजीसे कहा—‘प्रभो! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया ।।२९।।
यदुवंशशिरोमणे! सूतजीको हम लोगोंने ही ब्राह्मणोचित आसनपर बैठाया था और जबतक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तबतकके लिये उन्हें शारीरिक कष्टसे रहित आयु भी दे दी थी ।।३०।। आपने अनजानमें यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्याके समान है। हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आपपर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगोंको पवित्र करनेके लिये हुआ है; यदि आप किसीकी प्रेरणाके बिना स्वयं अपनी इच्छासे ही इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगोंको बहुत शिक्षा मिलेगी’ ।।३१-३२।।
भगवान् बलरामने कहा—मैं लोगोंको शिक्षा देनेके लिये, लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अतः इसके लिये प्रथम श्रेणीका जो प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसीका विधान कीजिये ।।३३।। आपलोग इस सूतको लम्बी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबलसे सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ ।।३४।।
ऋषियोंने कहा—बलरामजी! आप ऐसा कोई उपाय कीजिये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हमलोगोंने इन्हें जो वरदान दिया था, वह भी सत्य हो जाय ।।३५।।
भगवान् बलरामने कहा—ऋषियो! वेदोंका ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये रोमहर्षणके स्थानपर उनका पुत्र आपलोगोंको पुराणोंकी कथा सुनायेगा। उसे मैं अपनी शक्तिसे दीर्घायु, इन्द्रियशक्ति और बल दिये देता हूँ ।।३६।। ऋषियो! इसके अतिरिक्त आपलोग और जो कुछ भी चाहते हों, मुझसे कहिये। मैं आपलोगोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। अनजानमें मुझसे जो अपराध हो गया है, उसका प्रायश्चित्त भी आपलोग सोच-विचारकर बतलाइये; क्योंकि आपलोग इस बिषयके विद्वान् हैं ।।३७।।
ऋषियोंने कहा—बलरामजी! इल्वलका पुत्र बल्वल नामका एक भयंकर दानव है। वह प्रत्येक पर्वपर यहाँ आ पहुँचता है और हमारे इस सत्रको दूषित कर देता है ।।३८।। यदुनन्दन! वह यहाँ आकर पीब, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मांसकी वर्षा करने लगता है। आप उस पापीको मार डालिये। हमलोगोंकी यह बहुत बड़ी सेवा होगी ।।३९।। इसके बाद आप एकाग्रचित्तसे तीर्थोंमें स्नान करते हुए बारह महीनोंतक भारतवर्षकी परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिये। इससे आपकी शुद्धि हो जायगी ।।४०।।
अथैकोनाशीतितमोऽध्यायः बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उसका डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकट्ठाओरसे पीबकी दुर्गन्ध आने लगी ।।१।। इसके बाद यज्ञशालामें बल्वल दानवने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंकी वर्षा की। तदनन्तर हाथमें त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा ।।२।। उसका डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकट्ठा कर दिया गया हो।
उसे देखकर भगवान् बलरामजीने शत्रुसेनाकी कुंदी करने-वाले मूसल और दैत्योंको चीर-फाड़ डालनेवाले हलका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे ।।३-४।। बलरामजीने आकाशमें विचरनेवाले बल्वल दैत्यको अपने हलके अगले भागसे खींचकर उस ब्रह्मद्रोहीके सिरपर बड़े क्रोधसे एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वरसे चिल्लाता हुआ धरतीपर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्रकी चोट खाकर गेरू आदिसे लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो ।।५-६।।
नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियोंने बलरामजीकी स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होनेवाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवतालोग देवराज इन्द्रका अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया ।।७।। इसके बाद ऋषियोंने बलरामजीको दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजयन्ती माला भी दी, जो सौन्दर्यका आश्रय एवं कभी न मुरझानेवाले कमलके पुष्पोंसे युक्त थी ।।८।।
तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियोंसे विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलरामजी ब्राह्मणोंके साथ कौशिकी नदीके तटपर आये। वहाँ स्नान करके वे उस सरोवरपर गये, जहाँसे सरयू नदी निकली है ।।९।। वहाँसे सरयूके किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोड़कर प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करके वहाँसे पुलहाश्रम गये ।।१०।। वहाँसे गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियोंमें स्नान करके वे सोननदके तटपर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गयामें जाकर पितरोंका वसुदेवजीके आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गंगासागर-संगमपर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्योंसे निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वतपर गये। वहाँ परशुरामजीका दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदिमें स्नान करते हुए स्वामिकार्तिकका दर्शन करने गये तथा वहाँसे महादेवजीके निवासस्थान श्रीशैलपर पहुँचे। इसके बाद भगवान् बलरामने द्रविड़ देशके परम पुण्यमय स्थान वेंकटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँसे वे कामाक्षी—शिवकांची, विष्णुकांची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमें स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्रमें पहुँचे। श्रीरंगक्षेत्रमें भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ।।११-१४।। वहाँसे उन्होंने विष्णुभगवान्के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापोंको नष्ट करनेवाले सेतुबन्धकी यात्रा की ।।१५।।
वहाँ बलरामजीने ब्राह्मणोंको दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँसे कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियोंमें स्नान करते हुए वे मलयपर्वतपर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतोंमेंसे एक है ।।१६।। वहाँपर विराजमान अगस्त्य मुनिको उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजीने दक्षिण समुद्रकी यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवीका कन्याकुमारीके रूपमें दर्शन किया ।।१७।। इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्रमें गये और वहाँके सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थमें स्नान किया। उस तीर्थमें सर्वदा विष्णुभगवान्का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान कीं ।।१८।।
अब भगवान् बलराम वहाँसे चलकर केरल और त्रिगर्त देशोंमें होकर भगवान् शंकरके क्षेत्र गोकर्णतीर्थमें आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान् शंकर विराजमान रहते हैं ।।१९।। वहाँसे जलसे घिरे द्वीपमें निवास करनेवाली आर्यादेवीका दर्शन करने गये और फिर उस द्वीपसे चलकर शूर्पारक-क्षेत्रकी यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियोंमें स्नान करके वे दण्डकारण्यमें आये ।।२०।। वहाँ होकर वे नर्मदाजीके तटपर गये। परीक्षित्! इस पवित्र नदीके तटपर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थमें स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्रमें चले आये ।।२१।। वहीं उन्होंने ब्राह्मणोंसे सुना कि कौरव और पाण्डवोंके युद्धमें अधिकांश क्षत्रियोंका संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वीका बहुत-सा भार उतर गया ।।२२।। जिस दिन रणभूमिमें भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकनेके लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ।।२३।। महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने बलरामजीको देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहनेके लिये यहाँ पधारे हैं? ।।२४।।
उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथमें गदा लेकर एक-दूसरेको जीतनेके लिये क्रोधसे भरकर भाँति-भाँतिके पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजीने कहा— ।।२५।। ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनोंमें बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेनमें बल अधिक है और दुर्योधनने गदायुद्धमें शिक्षा अधिक पायी है ।।२६।।
इसलिये तुमलोगों-जैसे समान बलशालियोंमें किसी एककी जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुमलोग व्यर्थका युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ ।।२७।। परीक्षित्! बलरामजीकी बात दोनोंके लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनोंका वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजीकी बात न मानी। वे एक-दूसरेकी कटुवाणी और दुर्व्यवहारोंका स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे ।।२८।। भगवान् बलरामजीने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्धमें विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये। द्वारकामें उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियोंने बड़े प्रेमसे आगे आकर उनका स्वागत किया ।।२९।। वहाँसे बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। वहाँ ऋषियोंने विरोधभावसे—युद्धादिसे निवृत्त बलरामजीके द्वारा बड़े प्रेमसे सब प्रकारके यज्ञ कराये। परीक्षित्! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजीके अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रहके लिये ही था ।।३०।। सर्वसमर्थ भगवान् बलरामने उन ऋषियोंको विशुद्ध तत्त्वज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्वको अपने-आपमें और अपने-आपको सारे विश्वमें अनुभव करने लगे ।।३१।। इसके बाद बलरामजीने अपनी पत्नी रेवतीके साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रोंके साथ चन्द्रदेव होते हैं ।।३२।।
परीक्षित्! भगवान् बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणीके परे है। उन्होंने लीलाके लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलरामजीके ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी गिनती भी नहीं की जा सकती ।।३३।।
जयन्ती मंगला काली, भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा घिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोघ्स्तु ते।।
April 5, 2025
ॐ सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वथा साधिके शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमो-स्तुते
प्रभु, तुम बाप बेटी को मेरे दिल से फुटबॉल खेलने का आनंद तो मिलता है ना? फुटबॉल के रूप में ही सही, मुझे भूल ना जाना। आज रात में नींद कुली तो मन व्याकुल था। समाज नहीं आ रहा मेरी सखी को भजन कैसे भेजू। हृदय की अजीब गति और कान में सीटी, अजीब सा एहसास। सपने में भी अंकल जी से बात करने का तरीका ढूंढ रहा था। क्यों अभी तक दोनो ने मुझे ब्लॉक कर रखा है?
माता मीनू तक भजन पाहुंचा दो। आज अष्टमी है । क्या करु समझ नहीं आ रहा।
श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः। महागौरी शुभं दद्यान्महादेव-प्रमोद-दा॥
आज मम्मी पापा कन्या पूजन कर रहे हैं। मैं मीनू के साथ कन्या पूजन कब करूंगा? क्या एक और पर्व मीनू के साथ बिना चला जाएगा?
माता भवन में आज छोटी छोटी कन्याओं का पूजन हो रहा था। मीनू से जब मिला था 10 साल के थे। उसने पहले कैसे दिखती थी पता नहीं, फोटो कभी देखी नहीं। कितना कुछ मेरी सखी के बारे में जन्ने को बचपन से तड़प रहा हूँ
माता मीनू भी अपने अंकलजी, आंटीजी के साथ कन्या पूजन कर रही हैं? कुछ हाल चल नहीं मिल रहा
अथाशीतितमोऽध्यायः श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
राजोवाच भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः ।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो ।।१
राजा परीक्षित्ने कहा—भगवन्! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं ।।१।। ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुःखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिक—रसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णकी मंगलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा ।।२।। जो वाणी भगवान्के गुणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान्की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान्का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान्की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं ।।३।। वही सिर सिर है, जो चराचर जगत्को भगवान्की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रहका दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अंग भगवान् और उनके भक्तोंके चरणोदकका सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्तवमें अंग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है ।।४।।
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! जब राजा परीक्षित्ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान् श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित्से इस प्रकार कहा ।।५।।
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! एक ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे ।।६।। वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी ।।७।। एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दुःखिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली— ।।८।। ‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं ।।९।। परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधु-संतोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुःखी हो रहे हैं तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे ।।१०।। आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आपतकका दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है?’ ।।११।। इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है’ ।।१२।। यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले—‘कल्याणी! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या? यदि हो तो दे दो’ ।।१३।। तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान्को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये ।।१४।। इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ोंको लेकर द्वारकाके लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे?’ ।।१५।।
परीक्षित्! द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे ।।१६।। उनके बीच भगवान् श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया—अत्यन्त शोभा-युक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें एसे मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें डूब-उतरा रहे हों! ।।१७।।
उस समय भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लिया ।।१८।। परीक्षित्! परमानन्दस्वरूप भगवान् अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवताके अंग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे ।।१९।। परीक्षित्! कुछ समयके बाद भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया ।।२०-२१।। फिर उन्होंने बड़े आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया ।।२२।। ब्राह्मणदेवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं ।।२३।। अन्तःपुरकी स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं ।।२४।। वे आपसमें कहने लगीं—‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकी-गुरु श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोड़कर इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान हृदयसे लगाया है’ ।।२५-२६।। प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकड़कर अपने पूर्वजीवनकी उन आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं ।।२७।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—धर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं? ।।२८।। मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्रायः विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है। विद्वन्! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है ।।२९।। जगत्में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान्की मायासे निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं ।।३०।। ब्राह्मणशिरोमणे! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं ।।३१।। मित्र! इस संसारमें शरीरका कारण—जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोंकी शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये तीन गुरु होते हैं ।।३२।। मेरे प्यारे मित्र! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस जगत्में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं ।।३३।। प्रिय मित्र! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पंचमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जाना—इस संन्यासीके धर्मसे भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवा-शुश्रूषासे सन्तुष्ट होता हूँ ।।३४।।
ब्रह्मन्! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे; उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नीने ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था ।।३५।। उस समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाशमें बिजली कड़कने लगी थी ।।३६।। तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था ।।३७।।
वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई, दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरेका हाथ पकड़कर जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे ।।३८।। जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हमलोगोंको ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं ।।३९।। वे कहने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रो! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे ।।४०।। गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें ।।४१।। द्विज-शिरोमणियो! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो’ ।।४२।। प्रिय मित्र! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है ।।४३।।
ब्राह्मणदेवताने कहा—देवताओंके आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण! भला, अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।।४४।। प्रभो! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें, यह मनुष्य-लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है? ।।४५।।
April 5, 2025
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम: । नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता:स्म ताम्।।
श्रीगणेशाम्बिकाभ्यां नम:, ध्यानं समर्पयामि। श्वेते वृषे समरूढा श्वेताम्बराधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
या देवी सर्वभूतेषु मां गौरी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
प्रभु, आज कन्या पूजन के समय मीनू की याद आ रही थी। छोटे छोटे प्यारे बच्चों को देख कर याद आता है मीनू बच्चों के साथ खेलते समय कितनी खुश होती है। क्यू हर कोई मेरी सदी की बात करता है? पैर छूटे सब ऐसे ही आशीर्वाद देते हैं जो मीनू के साथ बिना चुभ ते है।
आज बहुत समय बाद थक के दिन में नींद आ गई। सपने में पापा का दांत दिखने हॉस्पिटल में गए थी। मेरे साथ मम्मी और नाना भी थे।मम्मी से झगड़ा कर रहा था नाना को हॉस्पिटल ले के क्यों आ गई, लोग मास्क पहन के घूम रहे हैं। प्रभु पापा के दांतों की संवेदनशीलता सही कर दो, तुम्हारा प्रसाद भी चुन के खाते है।
चाहे जितना कष्ट हो नाना नानी को भूल तो नहीं जाउंगा। मीनू के बड़ो में बस दादा को ही देखा है।मैं तो प्रति दिन आरती लेते समय अपने नानी नाना अज्जी के साथ मीनू के भी दादा को याद करता हूं।अंकलजी कैसे कह सकते हैं अपनी बेटी को भूल जायेंगे? जब अपनी बेटी का प्यार नहीं समझते तो मेरा क्या समझेगे।
मीनू ने कितनी बार कहा मेरे मम्मी पापा ही सब कुछ है। पता नहीं क्या मजबूरी थी कि अंकलजी इस उमर में भी रविवार को काम कर रहे हैं फिर भी मुझे साथी का अवसर नहीं दिया। प्रभु, केह तो राही थी कुछ चाहिए होगा तो मांग लेगी पर जब उस दिन अवसर ना दिया तो कैसा विश्वास करु? कैसी चिंता ना करु?
April 5, 2025
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना । का चुप साधि रहेहु बलवाना ।। पवन तनय बल पवन समाना । बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं । जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ।।
राम काज लगि तव अवतारा । सुनतहिं भयउ पर्बताकारा ।।
कनक बरन तन तेज बिराजा । मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा ।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा । लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा ।।
जामवंत मैं पूँछउँ तोही । उचित सिखावनु दीजहु मोही ।।
एतना करहु तात तुम्ह जाई । सीतहि देखि कहहु सुधि आई ।।
तब निज भुज बल राजिवनैना । कौतुक लागि संग कपि सेना ।।
छं०—कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं । त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ।।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई । रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ।।
।। श्रीगणेशाय नमः ।।
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
सुन्दरकाण्ड
श्लोक शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।।१।।
शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणोंसे परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देनेवाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजीसे निरन्तर सेवित, वेदान्तके द्वारा जाननेयोग्य, सर्वव्यापक, देवताओंमें सबसे बड़े, मायासे मनुष्यरूपमें दीखनेवाले, समस्त पापोंको हरनेवाले, करुणाकी खान, रघुकुलमें श्रेष्ठ तथा राजाओंके शिरोमणि, राम कहलानेवाले जगदीश्वरकी मैं वन्दना करता हूँ ।।१।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।।२।।
हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदयमें दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिये और मेरे मनको काम आदि दोषोंसे रहित कीजिये ।।२।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।३।।
अतुल बलके धाम, सोनेके पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीरवाले, दैत्यरूपी वन [को ध्वंस करने] के लिये अग्निरूप, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणोंके निधान, वानरोंके स्वामी, श्रीरघुनाथजीके प्रिय भक्त पवनपुत्र श्रीहनुमान्जीको मैं प्रणाम करता हूँ ।।३।।
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ।।
प्रभु, मम्मी तो आज भी अंकलजी का समर्थन करती हैं, मुझसे ज्यादा उनकी परेशानी की चिंता है। मुझे ब्लॉक किया समझ आता है, मम्मी को भी ब्लॉक कर दिया? ऊपर से उस दिन मम्मी ने पूछा कि मैसेज का उत्तर क्यों नहीं दिया तो झूठ बोलते है ध्यान नहीं दिया। मम्मी को पता नहीं कि ब्लॉक कर रखा है और मुझसे कहा नहीं गया। प्रभु, अंकलजी क्यों इतना झूठ बोलते हैं, कान खींच के सत्य की राह पर लाडो, पर सबका स्वास्थ्य बनाये रखना।
April 6, 2025
विधेहि देवि कल्याणं, विधेहि परमां श्रियम्। रूपं देहि जयं देहि, यघो देहि द्विषो जहि।।
माता, बार-बार चिंता खाए जा रही है कि उस दिन जब मैंने कहा कि "जीवन भर साथ दूंगा" तो मीनू ने क्यों कहा, क्यों निराशा के साथ कहा "कौन किसके साथ जीवन भर रहता है"? माता कुछ समझ नहीं आ रहा मीनू अंतर में क्या चल रहा है। माता, क्या मीनू ने मेरे भेजे भजन सुने?
अथैकाशीतितमोऽध्यायः सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘ब्रह्मन्! आप अपने घरसे मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेमसे थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं तो वह मेरे लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता ।।३।। जो पुरुष प्रेम-भक्तिसे फल-फूल अथवा पत्ता-पानीमेंसे कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्तका वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’ ।।४।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर भी उन ब्राह्मणदेवताने लज्जावश उन लक्ष्मीपतिको वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोचसे अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयका एक-एक संकल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मणके आनेका कारण, उनके हृदयकी बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मीकी कामनासे मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नीको प्रसन्न करनेके लिये उसीके आग्रहसे यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है’ ।।५-७।। भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा विचार करके उनके वस्त्रमेंसे चिथड़ेकी एक पोटलीमें बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’—ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया ।।८।। और बड़े आदरसे कहने लगे—‘प्यारे मित्र! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसारको तृप्त करनेके लिये पर्याप्त हैं’ ।।९।। ऐसा कहकर वे उसमेंसे एक मुट्ठी चिउड़ा खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणीके रूपमें स्वयं भगवती लक्ष्मीजीने भगवान् श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया! क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान्के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं ।।१०।।
रुक्मिणीजीने कहा—‘विश्वात्मन्! बस, बस। मनुष्यको इस लोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि प्राप्त करनेके लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नताका हेतु बन जाता है’ ।।११।। परीक्षित्! ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान् श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ ।।१२।। परीक्षित्! श्रीकृष्णसे ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं! वे अपने चित्तकी करतूतपर कुछ लज्जित-से होकर भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनजनित आनन्दमें डूबते-उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े ।।१३-१४।। वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्यकी बात है! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है! जिनके वक्षःस्थलपर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया ।।१५।। कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ।।१६।। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ! कहाँतक कहूँ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की ।।१७।। ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की ।।१८।। स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है ।।१९।। फिर भी परमदयालु श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’ ।।२०।।
इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक—भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था तो यह ऐसा कैसे हो गया’ ।।२१-२३।। इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ मंगलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये ।।२४।। पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवनसे पधारी हों ।।२५।। पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेगसे आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिंगन भी ।।२६।। प्रिय परीक्षित्! ब्राह्मणपत्नी सोनेका हार पहनी हुई दासियोंके बीचमें विमानस्थित देवांगनाके समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूपमें देखकर वे विस्मित हो गये ।।२७।। उन्होंने अपनी पत्नीके साथ बड़े प्रेमसे अपने महलमें प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्रका निवासस्थान। इसमें मणियोंके सैकड़ों खंभे खड़े थे ।।२८।।
इस प्रकार समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ गयी ।।३२।। वे मन-ही-मन कहने लगे—‘मैं जन्मसे ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धिका कारण क्या है? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता ।।३३।। यह सब कुछ उनकी करुणाकी ही देन है। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त भोग-सामग्रियोंसे युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्तको उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघसे भी बढ़कर उदार हैं, जो समुद्रको भर देनेकी शक्ति रखनेपर भी किसानके सामने न बरसकर उसके सो जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है ।।३४।। मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था, पर उदारशिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने प्रेमसे स्वीकार किया ।।३५।। मुझे जन्म-जन्म उन्हींका प्रेम, उन्हींकी हितैषिता, उन्हींकी मित्रता और उन्हींकी सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तोंका सत्संग प्राप्त हो ।।३६।। अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्तको उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’ ।।३७।। परीक्षित्! अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे अपनी पत्नीके साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयोंको ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढ़ने लगी ।।३८।।
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा कि ‘यद्यपि भगवान् अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकोंके अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं,’ अब वे उन्हींके ध्यानमें तन्मय हो गये। ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समयमें भगवान्का धाम, जो कि संतोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया ।।४०।।
अथ द्वयशीतितमोऽध्यायः भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारकामें निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलयके समय लगा करता है ।।१।। परीक्षित्! मनुष्योंको ज्योतिषियोंके द्वारा उस ग्रहणका पता पहलेसे ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याणके उद्देश्यसे पुण्य आदि उपार्जन करनेके लिये समन्तपंचक-तीर्थ कुरुक्षेत्रमें आये ।।२।। समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने सारी पृथ्वीको क्षत्रियहीन करके राजाओंकी रुधिरधारासे पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे ।।३।। जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पापकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान् परशुरामने अपने साथ कर्मका कुछ सम्बन्ध न होनेपर भी लोकमर्यादाकी रक्षाके लिये वहींपर यज्ञ किया था ।।४।।
परीक्षित्! इस महान् तीर्थयात्राके अवसरपर भारतवर्षके सभी प्रान्तोंकी जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्न, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी भी अपने-अपने पापोंका नाश करनेके लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा—ये दोनों सुचन्द्र, शुक, सारण आदिके साथ नगरकी रक्षाके लिये द्वारकामें रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभावसे ही परम तेजस्वी थे; दूसरे गलेमें सोनेकी माला, दिव्य पुष्पोंके हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचोंसे सुसज्जित होनेके कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। महाभाग्यवान् यदुवंशियोंने कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर एकाग्रचित्तसे संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहणके उपलक्ष्यमें निश्चित कालतक उपवास किया ।।५-९।।
उन्होंने ब्राह्मणोंको गोदान किया। ऐसी गौओंका दान किया जिन्हें वस्त्रोंकी सुन्दर-सुन्दर झूलें, पुष्पमालाएँ एवं सोनेकी जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहणका मोक्ष हो जानेपर परशुरामजीके बनाये हुए कुण्डोंमें यदुवंशियोंने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणोंको सुन्दर-सुन्दर पकवानोंका भोजन कराया। उन्होंने अपने मनमें यह संकल्प किया था कि भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना आदर्श और इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने ब्राह्मणोंसे अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छायावाले वृक्षोंके नीचे अपनी-अपनी इच्छाके अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित्! विश्राम कर लेनेके बाद यदुवंशियोंने अपने सुहृद् और सम्बन्धी राजाओंसे मिलना-भेंटना शुरू किया ।।१०-१२।। वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृंजय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशोंके—अपने पक्षके तथा शत्रुपक्षके—सैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित्! इनके अतिरिक्त यदुवंशियोंके परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान्के दर्शनके लिये चिरकालसे उत्कण्ठित गोपियाँ भी वँहा आयी हुई थीं। यादवोंने इन सबको देखा ।।१३-१४।। परीक्षित्! एक-दूसरेके दर्शन, मिलन और वार्तालापसे सभीको बड़ा आनन्द हुआ। सभीके हृदय-कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरेको भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगाते, उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेमके आवेगसे बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्रमें डूबने-उतराने लगते ।।१५।।
पुरुषोंकी भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरेको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवनसे देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भरने लगीं। वे एक-दूसरेका स्वागत करके तथा कुशल-मंगल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्णकी मधुर लीलाएँ आपसमें कहने-सुनने लगे ।।१७।। परीक्षित्! कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान् श्रीकृष्णको देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दुःख भूल गयीं ।।१८।।
कुन्तीने वसुदेवजीसे कहा—भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्तिके समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुःखकी बात क्या होगी? ।।१९।। भैया! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आपलोगोंका कोई दोष नहीं ।।२०।।
वसुदेवजीने कहा—बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैवके खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशमें रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है ।।२१।। बहिन! कंससे सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दिशाओंमें भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वरकृपासे हम सब पुनः अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं ।।२२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वहाँ जितने भी नरपति आये थे—वसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियोंने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन पाकर परमानन्द और शान्तिका अनुभव करने लगे ।।२३।। परीक्षित्! भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रोंके साथ गान्धारी, पत्नियोंके सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृंजय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्नजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशीनरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामान्यु, सुशर्मा, अपने पुत्रोंके साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिरके अनुयायी नृपति भगवान् श्रीकृष्णका परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ।।२४-२७।।
वेदोंने बड़े आदरके साथ भगवान् श्रीकृष्णकी कीर्तिका गान किया है। उनके चरणधोवनका जल गंगाजल, उनकी वाणी—शास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत्को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हमलोगोंके जीवनकी ही बात है, समयके फेरसे पृथ्वीका सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके चरणकमलोंके स्पर्शसे पृथ्वीमें फिर समस्त शक्तियोंका संचार हो गया। यों तो आपलोग गृहस्थीकी झंझटोंमें फँसे रहते हैं—जो नरकका मार्ग है, परन्तु आपलोगोंके घर वे सर्वव्यापक विष्णु भगवान् मूर्तिमान् रूपसे निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्रसे स्वर्ग और मोक्षतककी अभिलाषा मिट जाती है’ ।।३१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब नन्दबाबाको यह बात मालूम हुई कि श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्रमें आये हुए हैं, तब वे गोपोंके साथ अपनी सारी सामग्री गाड़ियोंपर लादकर अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण-बलराम आदिको देखनेके लिये वहाँ आये ।।३२।। नन्द आदि गोपोंको देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्दसे भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीरमें प्राणोंका संचार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरेसे मिलनेके लिये बहुत दिनोंसे आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरेको बहुत देरतक अत्यन्त गाढ़भावसे आलिंगन करते रहे ।।३३।। वसुदेवजीने अत्यन्त प्रेम और आनन्दसे विह्वल होकर नन्दजीको हृदयसे लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयीं—कंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्रको गोकुलमें ले जाकर नन्दजीके घर रख दिया था ।।३४।। भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने माता यशोदा और पिता नन्दजीके हृदयसे लगकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। परीक्षित्! उस समय प्रेमके उद्रेकसे दोनों भाइयोंका गला रुँध गया, वे कुछ भी बोल न सके ।।३५।। महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबाने दोनों पुत्रोंको अपनी गोदमें बैठा लिया और भुजाओंसे उनका गाढ़ आलिंगन किया। उनके हृदयमें चिरकालतक न मिलनेका जो दुःख था, वह सब मिट गया ।।३६।। रोहिणी और देवकीजीने व्रजेश्वरी यशोदाको अपनी अँकवारमें भर लिया। यशोदाजीने उन लोगोंके साथ मित्रताका जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनोंका गला भर आया। वे यशोदाजीसे कहने लगीं— ।।३७।। ‘यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्दजीने हमलोगोंके साथ जो मित्रताका व्यवहार किया है, वह कभी मिटनेवाला नहीं है, उसका बदला इन्द्रका ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी! भला ऐसा कौन कृतघ्न है, जो आपके उस उपकारको भूल सके? ।।३८।। देवि! जिस समय बलराम और श्रीकृष्णने अपने मा-बापको देखातक न था और इनके पिताने धरोहरके रूपमें इन्हें आप दोनोंके पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनोंकी इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियोंकी रक्षा करती हैं। तथा आपलोगोंने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मंगलके लिये अनेकों प्रकारके उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग हैं। आपलोगोंकी देख-रेखमें इन्हें किसीकी आँचतक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आपलोगोंके अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें अपने-परायेका भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी! सचमुच आपलोग परम संत हैं ।।३९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मैं कह चुका हूँ कि गोपियोंके परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शनके समय नेत्रोंकी पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकोंको बनानेवालेको ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेमकी मूर्ति गोपियोंको आज बहुत दिनोंके बाद भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन हुआ। उनके मनमें इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रोंके रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्णको हृदयमें ले जाकर गाढ़ आलिंगन किया और मन-ही-मन आलिंगन करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित्! कहाँतक कहूँ, वे उस भावको प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करनेवाले योगियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ।।४०।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि गोपियाँ मुझसे तादात्म्यको प्राप्त—एक हो रही हैं, तब वे एकान्तमें उनके पास गये, उनको हृदयसे लगाया, कुशल-मंगल पूछा और हँसते हुए यों बोले— ।।४१।। ‘सखियो! हमलोग अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका काम करनेके लिये व्रजसे बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियोंको छोड़कर हम शत्रुओंका विनाश करनेमें उलझ गये। बहुत दिन बीत गये, क्या कभी तुमलोग हमारा स्मरण भी करती हो? ।।४२।। मेरी प्यारी गोपियो! कहीं तुमलोगोंके मनमें यह आशंका तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुमलोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो? निस्सन्देह भगवान् ही प्राणियोंके संयोग और वियोगके कारण हैं ।।४३।। जैसे वायु बादलों, तिनकों, रूई और धूलके कणोंको एक-दूसरेसे मिला देती है और फिर स्वच्छन्दरूपसे उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थोंके निर्माता भगवान् भी सबका संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं ।।४४।। सखियो! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम सब लोगोंको मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति करानेवाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियोंको अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करनेमें समर्थ है ।।४५।। प्यारी गोपियो! जैसे घट, पट आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्यमें, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीचमें, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ।।४६।। इसी प्रकार सभी प्राणियोंके शरीरमें यही पाँचों भूत कारणरूपसे स्थित हैं और आत्मा भोक्ताके रूपसे अथवा जीवके रूपसे स्थित है। परन्तु मैं इन दोनोंसे परे अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुमलोग ऐसा अनुभव करो ।।४७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार गोपियोंको अध्यात्मज्ञानकी शिक्षासे शिक्षित किया। उसी उपदेशके बार-बार स्मरणसे गोपियोंका जीवकोश—लिंगशरीर नष्ट हो गया और वे भगवान्से एक हो गयीं, भगवान्को ही सदा-सर्वदाके लिये प्राप्त हो गयीं ।।४८।। उन्होंने कहा—‘हे कमलनाभ! अगाधबोध-सम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमलमें आपके चरणकमलोंका चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसारके कूएँमें गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकलनेके लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपका वह चरणकमल, घर-गृहस्थके काम करते रहनेपर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदयमें विराजमान रहे, हम एक क्षणके लिये भी उसे न भूलें ।।४९।।
हरकोई, जाने अंजाने में अस्ताके बोलता है, और बचपन से इस असत्य से भरे संसार से मन उग गया था। प्रभु, वास्तव में तो तुम सबके गुरु हो, तुम्हीं से ही अपने अंतर की बात करता आया हूं, तुम्हारा ही सहारा है। प्रभु, मीनू भी तुमसे अपने अंतर की बात कहती होगी। नहीं भी करती तो तुम तो सबके अंतर हो, सब जानते हो, ख्याल रखना। वास्तव में तो तुम ही सबके पिता, पति हो। तुम ही पालन करने वाले और रक्षा करने वाले हो
बंदऊँ राम लखन वैदेही , ये तुलसी के परम सनेही ।
April 6, 2025
प्रभु, तुम्हारे खेल सच में अबोध है। इतने दिनों से सोच-सोच के थक, तुम्हारी फुटबॉल पिचकती रहती है, पर समझ नहीं आता। बचपन से उस दिन की प्रतीक्षा में था जब सियाराम, गौरीशंकर, राधेश्याम, लक्ष्मीनारायण की तरह शिवानी... प्रभु, क्या लीला कर रहे हो तुम ही जानो। हे राम, पता नहीं और कितना टूटना बाकी है। जो भी करण है, हर तरह से इसे सर्वत्र का पछतावा बनाके छोड़ दो गे की... ऊपर से तुम्हारी लाली कहती है भूल जाओ। तुम ही बताओ, तुम को भूल जाओ, अपना नाम बदल दो, तुम्हारी माया में बह जाओ, सुध बुध खो दो, ये कैसे संभव हो सकता है? क्या अपना नाम लिखना भी कष्ट दाई हो जाएगा? प्रश्न कम न हो कर बढ़ते जा रहे हैं, ऊपर से मम्मी पापा की जीवन चक्र और संसारी बातें। बुद्धि हृदय डोनो चक्ररा रहा है। तुमसे क्या आस लगाओ क्या कहु कुछ समझ नहीं आ रहा। पता नहीं मीनू के अंतर में क्या चल रहा है?
अथ त्र्यशीतितमोऽध्यायः भगवान्की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही गोपियोंको शिक्षा देनेवाले हैं और वही उस शिक्षाके द्वारा प्राप्त होनेवाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान् श्रीकृष्णने उनपर महान् अनुग्रह किया।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुलकी स्त्रियाँ एकत्र होकर आपसमें भगवान्की त्रिभुवन-विख्यात लीलाओंका वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हींकी बातें सुनाता हूँ ।।५।।
द्रौपदीने कहा—हे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियो! तुमलोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने अपनी मायासे लोगोंका अनुकरण करते हुए तुमलोगोंका किस प्रकार पाणिग्रहण किया? ।।६-७।।
रुक्मिणीजीने कहा—द्रौपदीजी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपालके साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धके लिये तैयार थे। परन्तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ोंके झुंडमेंसे अपना भाग छीन ले जाय। क्यों न हो—जगत्में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटोंपर इन्हींकी चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान्के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्योंके आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करनेके लिये प्राप्त होते रहे, मैं उन्हींकी सेवामें लगी रहूँ ।।८।।
सत्यभामाने कहा—द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेनकी मृत्युसे बहुत दुःखी हो रहे थे, अतः उन्होंने उनके वधका कलंक भगवान्पर ही लगाया। उस कलंकको दूर करनेके लिये भगवान्ने ऋक्षराज जाम्बवान्पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिताको दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगानेके कारण डर गये। अतः यद्यापि वे दूसरेको मेरा वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणिके साथ भगवान्के चरणोंमें ही समर्पित कर दिया ।।९।।
जाम्बवतीने कहा—द्रौपदीजी! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान्को इस बातका पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति हैं। इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिनतक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़कर स्यमन्तकमणिके साथ उपहारके रूपमें मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हींकी दासी बनी रहूँ ।।१०।।
कालिन्दीने कहा—द्रौपदीजी! जब भगवान्को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणोंका स्पर्श करनेकी आशा-अभिलाषासे तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुनके साथ यमुना-तटपर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारनेवाली उनकी दासी हूँ ।।११।।
मित्रविन्दाने कहा—द्रौपदीजी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान्ने सब राजाओंको जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड कुत्तोंमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारका-पुरीमें ले आये। मेरे भाइयोंने भी मुझे भगवान्से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारनेका सौभाग्य प्राप्त होता रहे ।।१२।।
सत्याने कहा—द्रौपदीजी! मेरे पिताजीने मेरे स्वयंवरमें आये हुए राजाओंके बल-पौरुषकी परीक्षाके लिये बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलोंने बड़े-बड़े वीरोंका घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान्ने खेल-खेलमें ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरीके बच्चोंको पकड़ लेते हैं ।।१३।। इस प्रकार भगवान् बल-पौरुषके द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियोंके साथ द्वारका ले आये। मार्गमें जिन क्षत्रियोंने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवाका अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे ।।१४।।
भद्राने कहा—द्रौपदीजी! भगवान् मेरे मामाके पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हींके चरणोंमें अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजीको यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान्को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियोंके साथ मुझे इन्हींके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।।१५।। मैं अपना परम कल्याण इसीमें समझती हूँ कि कर्मके अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हींके चरणकमलोंका संस्पर्श प्राप्त होता रहे ।।१६।।
लक्ष्मणाने कहा—रानीजी! देवर्षि नारद बार-बार भगवान्के अवतार और लीलाओंका गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मीजीने समस्त लोकपालोंका त्याग करके भगवान्का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान्के चरणोंमें आसक्त हो गया ।।१७।।
साध्वी! मेरे पिता बृहत्सेन मुझपर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छाकी पूर्तिके लिये यह उपाय किया ।।१८।। महारानी! जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुनकी प्राप्तिके लिये आपके पिताने स्वयंवरमें मत्स्यवेधका आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिताने भी किया। आपके स्वयंवरकी अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहरसे ढका हुआ था, केवल जलमें ही उसकी परछाईं दीख पड़ती थी ।।१९।।
रानीजी! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीर—जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठनरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्ण—इन लोगोंने धनुषपर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछलीकी स्थितिका पता न चला ।।२३।। पाण्डववीर अर्जुनने जलमें उस मछलीकी परछाईं देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानीसे उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाणने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ।।२४।। रानीजी! इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियोंका मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियोंने मुझे पानेकी लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेधकी चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान्ने धनुष उठाकर खेल-खेलमें—अनायास ही उसपर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जलमें केवल एक बार मछलीकी परछाईं देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित्’ नामक मुहूर्त बीत रहा था ।।२५-२६।। देवीजी! उस समय पृथ्वीमें जय-जयकार होने लगा और आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।२७।। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहलेसे ही भगवान्के प्रति अनुरक्त था ।।२८-२९।। मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदंग, पखावज, शंख, ढोल, नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे ।।३०।।
तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान्ने सूर्यकी भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वीमें सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरीमें प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूपसे सजायी गयी थी। इतनी इंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे कि उनके कारण सूर्यका प्रकाश धरतीतक नहीं आ पाता था ।।३६।। मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जानेसे पिताजीको बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी-सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओंको बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकारकी सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया ।।३७।।
सोलह हजार पत्नियोंकी ओरसे रोहिणीजीने कहा—भौमासुरने दिग्विजयके समय बहुत-से राजाओंको जीतकर उनकी कन्या हमलोगोंको अपने महलमें बंदी बना रखा था। भगवान्ने यह जानकर युद्धमें भौमासुर और उसकी सेनाका संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होनेपर भी उन्होंने हमलोगोंको वहाँसे छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी! हम सदा-सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलोंका चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसारसे मुक्त करनेवाले हैं ।।४०।। साध्वी द्रौपदीजी! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनोंके भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्माका पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ—कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभुके सुकोमल चरणकमलोंकी वह श्रीरज सर्वदा अपने सिरपर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजीके वक्षःस्थलपर लगी हुई केशरकी सुगन्धसे युक्त है ।।४१-४२।। उदारशिरोमणि भगवान्के जिन चरणकमलोंका स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिनें, तिनके और घास लताएँतक करना चाहती थीं, उन्हींकी हमें भी चाह है ।।४३।।
अथ चतुरशीतितमोऽध्यायः वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान् श्रीकृष्णके प्रति उनकी पत्नियोंका कितना प्रेम है—यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान्की प्रियतमा गोपियोंने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये ।।१।। इस प्रकार जिस समय स्त्रियोंसे स्त्रियाँ और पुरुषोंसे पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीका दर्शन करनेके लिये वहाँ आये ।।२।। उनमें प्रधान ये थे—श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्योंके सहित भगवान् परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि ।।३-५।। ऋषियोंको देखकर पहलेसे बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सहसा उठकर खड़े हो गये और सबने उन विश्ववन्दित ऋषियोंको प्रणाम किया ।।६।।
इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदिसे सब राजाओंने तथा बलरामजीके साथ स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने उन सब ऋषियोंकी विधिपूर्वक पूजा की ।।७।। जब सब ऋषि-मुनि आरामसे बैठ गये, तब धर्मरक्षाके लिये अवतीर्ण भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान्का भाषण सुन रही थी ।।८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—धन्य है! हमलोगोंका जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेनेका हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरोंका दर्शन बड़े-बड़े देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हींका दर्शन हमें प्राप्त हुआ है ।।९।। जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेवको समस्त प्राणियोंके हृदयमें न देखकर केवल मूर्तिविशेषमें ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आपलोगोंके दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदिका सुअवसर भला कब मिल सकता है? ।।१०।। केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थरकी प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तवमें तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समयतक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं; परंतु संत पुरुष तो दर्शनमात्रसे ही कृतार्थ कर देते हैं ।।११।। अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मनके अधिष्ठातृ-देवता उपासना करनेपर भी पापका पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासनासे भेद-बुद्धिका नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषोंकी सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धिके विनाशक हैं ।।१२।। महात्माओ और सभासदो! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ—इन तीन धातुओंसे बने हुए शवतुल्य शरीरको ही आत्मा—अपना ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदिको ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारोंको ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जलको ही तीर्थ समझता है—ज्ञानी महापुरुषोंको नहीं, वह मनुष्य होनेपर भी पशुओंमें भी नीच गधा ही है ।।१३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान् यह क्या कह रहे हैं ।।१४।। उन्होंने बहुत देरतक विचार करनेके बाद यह निश्चय किया कि भगवान् सर्वेश्वर होनेपर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीवकी भाँति व्यवहार कर रहे हैं—यह केवल लोकसंग्रहके लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णसे कहने लगे ।।१५।।
मुनियोंने कहा—भगवन्! आपकी मायासे प्रजापतियोंके अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हमलोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्यकी-सी चेष्टाओंसे अपनेको छिपाये रखकर जीवकी भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है ।।१६।। जैसे पृथ्वी अपने विकारों—वृक्ष, पत्थर, घट आदिके द्वारा बहुत-से नाम और रूप ग्रहण कर लेती है, वास्तवमें वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होनेपर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आपसे ही इस जगत्की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है? धन्य है आपकी यह लीला! ।।१७।।
भगवन्! यद्यपि आप प्रकृतिसे परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं; तथापि समय-समयपर भक्तजनोंकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीलाके द्वारा सनातन वैदिक मार्गकी रक्षा करते हैं; क्योंकि सभी वर्णों और आश्रमोंके रूपमें आप स्वयं ही प्रकट हैं ।।१८।। भगवन्! वेद आपका विशुद्ध हृदय है; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा उसीमें आपके साकार-निराकाररूप और दोनोंके अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार होता है ।।१९।। परमात्मन्! ब्राह्मण ही वेदोंके आधारभूत आपके स्वरूपकी उपलब्धिके स्थान हैं; इसीसे आप ब्राह्मणोंका सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मणभक्तोंमें अग्रगण्य भी हैं ।।२०।। आप सर्वविध कल्याण-साधनोंकी चरमसीमा हैं और संत पुरुषोंकी एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तवमें सबके परम फल आप ही हैं ।।२१।। प्रभो! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान् हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमायाके द्वारा अपनी महिमा छिपा रखी है, हम आपको नमस्कार करते हैं ।।२२।। ये सभामें बैठे हुए राजालोग और दूसरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करनेवाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तवमें नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूपको—जो सबका आत्मा, जगत्का आदिकारण और नियन्ता है—मायाके परदेसे ढक रखा है ।।२३।। जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्नके मिथ्या पदार्थोंको ही सत्य समझ लेता है और नाममात्रकी इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले अपने स्वप्नशरीरको ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देरके लिये इस बातका बिलकुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्नशरीरके अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्थाका शरीर भी है ।।२४।। ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्थामें भी इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप मायासे चित्त मोहित होकर नाममात्रके विषयोंमें भटकने लगता है। उस समय भी चित्तके चक्करसे विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता कि आप इस जाग्रत् संसारसे परे हैं ।।२५।। प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधनाके द्वारा आपके उन चरणकमलोंको हृदयमें धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशिको नष्ट करनेवाले गंगाजलके भी आश्रय-स्थान हैं। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हमें उन्हींका दर्शन हुआ है। प्रभो! हम आपके भक्त हैं, आप हमपर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पदकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनका लिंगशरीररूप जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्तिके द्वारा नष्ट हो जाता है ।।२६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजर्षे! भगवान्की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्रसे तथा धर्मराज युधिष्ठिरजीसे अनुमति लेकर उन लोगोंने अपने-अपने आश्रमपर जानेका विचार किया ।।२७।। परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जानेका विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकड़कर बड़ी नम्रतासे निवेदन करने लगे ।।२८।।
वसुदेवजीने कहा—ऋषियो! आपलोग सर्वदेवस्वरूप हैं। मैं आपलोगोंको नमस्कार करता हूँ। आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह कि जिन कर्मोंके अनुष्ठानसे कर्मों और कर्मवासनाओंका आत्यन्तिक नाश—मोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ।।२९।।
नारदजीने कहा—ऋषियो! यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि वसुदेवजी श्रीकृष्णको अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासाके भावसे अपने कल्याणका साधन हमलोगोंसे पूछ रहे हैं ।।३०।। संसारमें बहुत पास रहना मनुष्योंके अनादरका कारण हुआ करता है। देखते हैं, गंगातटपर रहनेवाला पुरुष गंगाजल छोड़कर अपनी शुद्धिके लिये दूसरे तीर्थमें जाता है ।।३१।। श्रीकृष्णकी अनुभूति समयके फेरसे होनेवाली जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलयसे मिटनेवाली नहीं है। वह स्वतः किसी दूसरे निमित्तसे, गुणोंसे और किसीसे भी क्षीण नहीं होती ।।३२।। उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दुःखादि कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणोंके प्रवाहसे खण्डित नहीं है। वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपनेको अपनी ही शक्तियों—प्राण आदिसे ढक लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहणके द्वारा अपने नेत्रोंके ढक जानेपर सूर्यको ढका हुआ मान लेते हैं ।।३३।। परीक्षित्! इसके बाद ऋषियोंने भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी और अन्यान्य राजाओंके सामने ही वसुदेवजीको सम्बोधित करके कहा— ।।३४।। ‘कर्मोंके द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलोंका आत्यन्तिक नाश करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदिके द्वारा समस्त यज्ञोंके अधिपति भगवान् विष्णुकी श्रद्धा-पूर्वक आराधना करे ।।३५।।
त्रिकालदर्शी ज्ञानियोंने शास्त्रदृष्टिसे यही चित्तकी शान्तिका उपाय, सुगम मोक्षसाधन और चित्तमें आनन्दका उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया है ।।३६।। अपने न्यायार्जित धनसे श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तमभगवान्की आराधना करना ही द्विजाति—ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थके लिये परम कल्याणका मार्ग है ।।३७।। वसुदेवजी! विचारवान् पुरुषको चाहिये कि यज्ञ, दान आदिके द्वारा धनकी इच्छाको, गृहस्थोचित भोगोंद्वारा स्त्री-पुत्रकी इच्छाको और कालक्रमसे स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैं—इस विचारसे लोकैषणाको त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घरमें रहते हुए ही तीनों प्रकारकी एषणाओं—इच्छाओंका परित्याग करके तपोवनका रास्ता लिया करते थे ।।३८।। समर्थ वसुदेवजी! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—ये तीनों देवता, ऋषि और पितरोंका ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणोंसे छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और सन्तानोत्पत्तिसे। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसारका त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है ।।३९।। परम बुद्धिमान् वसुदेवजी! आप अबतक ऋषि और पितरोंके ऋणसे तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञोंके द्वारा देवताओंका ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान्की शरण हो जाइये ।।४०।। वसुदेवजी! आपने अवश्य ही परम भक्तिसे जगदीश्वरभगवान्की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनोंके पुत्र हुए हैं ।।४१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! परम मनस्वी वसुदेवजीने ऋषियोंकी यह बात सुनकर, उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञके लिये ऋत्विजोंके रूपमें उनका वरण कर लिया ।।४२।। राजन्! जब इस प्रकार वसुदेवजीने धर्मपूर्वक ऋषियोंको वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें परम धार्मिक वसुदेवजीके द्वारा उत्तमोत्तम सामग्रीसे युक्त यज्ञ करवाये ।।४३।। वसुदेवजीकी पत्नियोंने सुन्दर वस्त्र, अंगराग और सोनेके हारोंसे अपनेको सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्दसे अपने-अपने हाथोंमें मांगलिक सामग्री लेकर यज्ञशालामें आयीं ।।४५।।
वसुदेवजीने पहले नेत्रोंमें अंजन और शरीरमें मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियोंके साथ उन्हें ऋत्विजोंने महाभिषेककी विधिसे वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन कालमें नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमाका अभिषेक हुआ था ।।४७।। उस समय यज्ञमें दीक्षित होनेके कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणोंसे खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियोंके साथ भलीभाँति शोभायमान हुए ।।४८।। महाराज! वसुदेवजीके ऋत्विज् और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्रके यज्ञमें हुए थे ।।४९।। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियोंके साथ समस्त जीवोंके ईश्वर स्वयं भगवान् समष्टि जीवोंके अभिमानी श्रीसंकर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायणस्वरूपमें शोभायमान होते हैं ।।५०।।
वसुदेवजीने प्रत्येक यज्ञमें ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञोंके द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानके—मन्त्रोंके स्वामी विष्णु-भगवान्की आराधना की ।।५१।। इसके बाद उन्होंने उचित समयपर ऋत्विजोंको वस्त्रालंकारोंसे सुसज्जित किया और शास्त्रके अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धनके साथ अलंकृत गौएँ, पृथ्वी और सुन्दरी कन्याएँ दीं ।।५२।।
इसके बाद महर्षियोंने पत्नीसंयाज नामक यज्ञांग और अवभृथस्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके बनाये ह्रदमें—रामह्रदमें स्नान किया ।।५३।। स्नान करनेके बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियोंने वंदी-जनोंको अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं नये वस्त्राभूषणसे सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे लेकर कुत्तोंतकको भोजन कराया ।।५४।। तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री-पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृंजय आदि देशोंके राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणोंको विदाईके रूपमें बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमति लेकर यज्ञकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये ।।५५-५६।। परीक्षित्! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान् व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवोंको छोड़कर जानेमें अत्यन्त विरह-व्यथाका अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहार्द्र चित्तसे यदुवंशियोंका आलिंगन किया और बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार अपने-अपने देशको गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये ।।५७-५८।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदिने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपोंकी बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियोंसे अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम-परवश होकर बहुत दिनोंतक वहीं रहे ।।५९।। वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथका महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्दकी सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबाका हाथ पकड़कर कहा ।।६०।।
वसुदेवजीने कहा—भाईजी! भगवान्ने मनुष्योंके लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धनका नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोड़नेमें असमर्थ हैं ।।६१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबाकी मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे ।।६५।। नन्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह गये। यदुवंशियोंने जीभर उनका सम्मान किया ।।६६।। इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके व्रजवासी साथियोंको और बन्धु-बान्धवोंको खूब तृप्त किया ।।६७।। वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियोंने अलग-अलग उन्हें अनेकों प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर उन सब सामग्रियोंको लेकर नन्दबाबा, अपने व्रजके लिये रवाना हुए ।।६८।। नन्दबाबा, गोपों और गोपियोंका चित्त भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बिना ही मनके उन्होंने मथुराकी यात्रा की ।।६९।।
अथ पञ्चाशीतितमोऽध्यायः
श्रीभगवान्के द्वारा वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञानका उपदेश तथा देवकीजीके छः पुत्रोंको लौटा लाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसके बाद एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रातःकालीन प्रणाम करनेके लिये माता-पिताके पास गये। प्रणाम कर लेनेपर वसुदेवजी बड़े प्रेमसे दोनों भाइयोंका अभिनन्दन करके कहने लगे ।।१।। वसुदेवजीने बड़े-बड़े ऋषियोंके मुँहसे भगवान्की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बातका दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान् हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रोंको प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा— ।।२।।
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् संकर्षण सनातन । जाने वामस्य यत् साक्षात् प्रधानपुरुषौ परौ ।।३
यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद् यद् यथा यदा । स्यादिदं भगवान् साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरः ।।४
‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगीश्वर संकर्षण! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत्के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ।।३।। इस जगत्के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत्के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडाके लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता है—वह सब तुम्हीं हो। इस जगत्में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूपसे भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनोंके नियामक साक्षात् भगवान् भी तुम्हीं हो ।।४।।
प्रभो! सत्त्व, रज, तम—ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)—महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मामें, तुममें योगमायाके द्वारा कल्पित हैं ।।१३।। इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारोंमें अनुगत जान पड़ते हो। कल्पनाकी निवृत्ति हो जानेपर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ।।१४।। यह जगत् सत्त्व, रज, तम—इन तीनों गुणोंका प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, सुख, दुःख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्माका सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञानके कारण ही कर्मोंके फंदेमें फँसकर बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकते रहते हैं ।।१५।। परमेश्वर! मुझे शुभ प्रारब्धके अनुसार इन्द्रियादिकी सामर्थ्यसे युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी मायाके वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थसे ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ।।१६।। प्रभो! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीरके सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेहकी फाँसीसे तुमने इस सारे जगत्को बाँध रखा है ।।१७।। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवोंके स्वामी हो। पृथ्वीके भारभूत राजाओंके नाशके लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ।।१८।। इसलिये दीनजनोंके हितैषी, शरणागतवत्सल! मैं अब तुम्हारे चरणकमलोंकी शरणमें हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतोंके संसारभयको मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियोंकी लोलुपतासे भर पाया! इसीके कारण मैंने मृत्युके ग्रास इस शरीरमें आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ।।१९।। प्रभो! तुमने प्रसव-गृहमें ही हमसे कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये प्रत्येक युगमें तुम दोनोंके द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।’ भगवन्! तुम आकाशके समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तवमें तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायाका रहस्य भला कौन जान सकता है? सब लोग तुम्हारी कीर्तिका ही गान करते रहते हैं ।।२०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वसुदेवजीके ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनयसे झुककर मधुर वाणीसे कहा ।।२१।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—पिताजी! हम तो आपके पुत्र ही हैं। हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ।।२२।। पिताजी! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्—सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ।।२३।। पिताजी! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपनेमें ही गुणोंकी सृष्टि कर लेता है और गुणोंके द्वारा बनाये हुए पंचभूतोंमें एक होनेपर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होनेपर भी दृश्य, अपना स्वरूप होनेपर भी अपनेसे भिन्न, नित्य होनेपर भी अनित्य और निर्गुण होनेपर भी सगुणके रूपमें प्रतीत होता है ।।२४।। जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—ये पंचमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदिमें प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक-से प्रतीत होते हैं—परन्तु वास्तवमें सत्तारूपसे वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मामें भी उपाधियोंके भेदसे ही नानात्वकी प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैं—इस दृष्टिसे आपका कहना ठीक ही है ।।२५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके इन वचनोंको सुनकर वसुदेवजीने नानात्व-बुद्धि छोड़ दी; वे आनन्दमें मग्न होकर वाणीसे मौन और मनसे निस्संकल्प हो गये ।।२६।। कुरुश्रेष्ठ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहलेसे ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजीने अपने मरे हुए गुरुपुत्रको यमलोकसे वापस ला दिया ।।२७।। अब उन्हें अपने उन पुत्रोंकी याद आ गयी, जिन्हें कंसने मार डाला था। उनके स्मरणसे देवकीजीका हृदय आतुर हो गया, नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वरसे श्रीकृष्ण और बलरामजीको सम्बोधित करके कहा ।।२८।।
राम रामाप्रमेयात्मन् कृष्ण योगेश्वरेश्वर । वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपूरुषौ ।।२९
देवकीजीने कहा—लोकाभिराम राम! तुम्हारी शक्ति मन और वाणीके परे है। श्रीकृष्ण! तुम योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियोंके भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ।।२९।। विश्वात्मन्! तुम्हारे पुरुषरूप अंशसे उत्पन्न हुई मायासे गुणोंकी उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्रसे जगत्की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्तःकरणसे तुम्हारी शरण हो रही हूँ ।।३१।। मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजीके पुत्रको मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देनेके लिये उनकी आज्ञा तथा कालकी प्रेरणासे तुम दोनोंने उनके पुत्रको यमपुरीसे वापस ला दिया ।।३२।। तुम दोनों योगीश्वरोंके भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रोंको, जिन्हें कंसने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ।।३३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! माता देवकीजीकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंने योगमायाका आश्रय लेकर सुतल लोकमें प्रवेश किया ।।३४।। जब दैत्यराज बलिने देखा कि जगत्के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोकमें पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शनके आनन्दमें निमग्न हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्बके साथ आसनसे उठकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया ।।३५।।
अत्यन्त आनन्दसे भरकर दैत्यराज बलिने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उसपर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिरपर धारण किया। परीक्षित्! भगवान्के चरणोंका जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत्को पवित्र कर देता है ।।३६।। इसके बाद दैत्यराज बलिने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृतके समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियोंसे उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदिको उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।।३७।। परीक्षित्! दैत्यराज बलि बार-बार भगवान्के चरणकमलोंको अपने वक्षःस्थल और सिरपर रखने लगे, उनका हृदय प्रेमसे विह्वल हो गया। नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वरसे भगवान्की स्तुति करने लगे ।।३८।।
दैत्यराज बलिने कहा—बलरामजी! आप अनन्त हैं। आप इतने महान् हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सकल जगत्के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनोंके प्रवर्तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनोंको बार-बार नमस्कार करते हैं ।।३९।। भगवन्! आप दोनोंका दर्शन प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपासे वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाववाले दैत्योंको भी दर्शन दिया है ।।४०।। प्रभो! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेमसे भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है। इसलिये हमलोगोंमेंसे बहुतोंने दृढ़ वैरभावसे, कुछने भक्तिसे और कुछने कामनासे आपका स्मरण करके उस पदको प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहनेवाले सत्त्वप्रधान देवता भी नहीं प्राप्त कर सकते ।।४०-४३।। योगेश्वरोंके अधीश्वर! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्रायः यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है? ।।४४।। इसलिये स्वामी! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलोंमें लग जाय, जिसे किसीकी अपेक्षा न रखनेवाले परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँसे निकल जाऊँ। प्रभो! इस प्रकार आपके उन चरणकमलोंकी, जो सारे जगत्के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसीका संग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतोंका ही ।।४५।। प्रभो! आप समस्त चराचर जगत्के नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइये, हमारे पापोंका नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाका पालन करता है, वह विधि-निषेधके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।।४६।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘दैत्यराज! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें प्रजापति मरीचिकी पत्नी ऊर्णाके गर्भसे छः पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनी पुत्रीसे समागम करनेके लिये उद्यत हैं, हँसने लगे ।।४७।। इस परिहासरूप अपराधके कारण उन्हें ब्रह्माजीने शाप दे दिया और वे असुर-योनिमें हिरण्यकशिपुके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। अब योगमायाने उन्हें वहाँसे लाकर देवकीके गर्भमें रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंसने मार डाला। दैत्यराज! माता देवकीजी अपने उन पुत्रोंके लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ।।४८-४९।। अतः हम अपनी माताका शोक दूर करनेके लिये इन्हें यहाँसे ले जायँगे। इसके बाद ये शापसे मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोकमें चले जायँगे ।।५०।। इनके छः नाम हैं—स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पतंग, क्षुद्रभृत् और घृणि। इन्हें मेरी कृपासे पुनः सद्गति प्राप्त होगी’ ।।५१।। परीक्षित्! इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गये। दैत्यराज बलिने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकोंको लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकीको उनके पुत्र सौंप दिये ।।५२।। उन बालकोंको देखकर देवी देवकीके हृदयमें वात्सल्य-स्नेहकी बाढ़ आ गयी। उनके स्तनोंसे दूध बहने लगा। वे बार-बार उन्हें गोदमें लेकर छातीसे लगातीं और उनका सिर सूँघतीं ।।५३।। पुत्रोंके स्पर्शके आनन्दसे सराबोर एवं आनन्दित देवकीने उनको स्तन-पान कराया। वे विष्णुभगवान्की उस मायासे मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ।।५४।। परीक्षित्! देवकीजीके स्तनोंका दूध साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान् श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे! उन बालकोंने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूधके पीनेसे और भगवान् श्रीकृष्णके अंगोंका संस्पर्श होनेसे उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ।।५५।। इसके बाद उन लोगोंने भगवान् श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजीको नमस्कार किया। तदनन्तर सबके सामने ही वे देवलोकमें चले गये ।।५६।। परीक्षित्! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्णका ही कोई लीला-कौशल है ।।५७।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ।।५८।।
प्रभु, तुम्हें ब्रह्मा जी, शंकर जी, नारद जी, ऋषियों और अपने माता पिता को नाच कर तृप्त नहीं हुए जो मुझे मूर्ख को नाच रहे हो? भागवत से प्रश्नो के उत्तर तो नहीं मिल रहे, दुविधाएं और बढ़ती जा रही हैं। मेरी सखी के कल्याण के लिए पढ़ रही हूं, अपनी लाडली का ख्याल तो रख रहो है ना। ऊपर से मम्मी पापा की परेशानी। हर राह पर पछतावा ही पछतावा दिख रहा है। गुत्थियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। धर्मराज भी श्राप के करण विदुर बन के धर्म की गुत्थियाँ सुलझाते रह गए थे, पता नहीं मुझे क्या श्राप मिला है?
काल के पंजे से माता बचाओ, जय माँ अष्ट भवानी।
काल के पंजे से माता बचाओ, जय माँ अष्ट भवानी।।
हे नाम रे, सबसे बड़ा तेरा नाम, ओ शेरोंवाली, ऊँचे डेरों वाली, बिगड़े बना दे मेरे काम।
ऐसा कठिन पल, ऐसी घड़ी है, विपदा आन पड़ी है।
तू ही दिखा अब रास्ता, ये दुनिया रास्ता रोके खड़ी है।
मेरा जीवन बना इक संग्राम।।
भक्तों को दुष्टों से छुड़ाए, भुजती जोत जगाई।
जिसका नहीं है कोई जगत में, तू उसकी बन जाए।
तीनो लोक करे तोहे प्रणाम।।
कैसे मेरी सखी की चिंता ना करु?
April 7, 2025
प्रभु, भावनाओं का बदलना तो दूर, गहरी ही होती जा रही है। पता नहीं क्यों हर किसी को लगता है कि समय और डर से बदल जाएगी? तुमने भी तो गोपियों से यहीं कहा था कि तुम जो तुमसे सच्चा प्रेम करते हो, उनसे प्रेम ना कर के दूर हो जाते हो ताकि उनमें अभिमान ना आए और उनका चित्त विरह में तुम ही लग रहे। और हुआ भी ऐसे ही. फलस्वरूप गोपिया तुममें एक हो गई। क्यू भी फिर लोग ऐसी बातें करते हैं, नीराधार तर्क दे रहे हैं? ऊपर से मेरी सखी के निस्वार्थ अंजने में ही सही मुझपे बहुत उपकार किये गये हैं। मेरे जीवन का आधार है. मम्मी नानी का मेरे जीवन महतवपूर्ण स्थान पर अपनी शामताओ से परे और सद मार्ग पर रखने के लिए मेरी सखी का विशेष योगदान है। मेरे तो किसी पे उपकार नहीं, मैंने तो जो भी किया सदा ही सबको अपना मन स्वार्थ से किया। किसे मीनू को भूल सकता हूँ? कैसी ये चिंता ये पीड़ा कभी जा सकती है, बस इसके साथ जीना सामान्य बनता जा रहा है।
अथ षडशीतितमोऽध्यायः सुभद्राहरण और भगवान्का मिथिलापुरीमें राजा जनक श्रुतदेव ब्राह्मणके घर एक ही साथ जाना
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्राके लिये पृथ्वीपर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामाकी पुत्री सुभद्राका विवाह दुर्योधनके साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषयमें सहमत नहीं हैं। अब अर्जुनके मनमें सुभद्राको पानेकी लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णवका वेष धारण करके द्वारका पहुँचे ।।२-३।। अर्जुन सुभद्राको प्राप्त करनेके लिये वहाँ वर्षाकालमें चार महीनेतक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलरामजीने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं ।।४।। एक दिन बलरामजीने आतिथ्यके लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुनको बलरामजीने अत्यन्त श्रद्धाके साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने बड़े प्रेमसे भोजन किया ।।५।। अर्जुनने भोजनके समय वहाँ विवाहयोग्य परम सुन्दरी सुभद्राको देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरोंका मन हरनेवाला था। अर्जुनके नेत्र प्रेमसे प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पानेकी आकांक्षासे क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनानेका दृढ़ निश्चय कर लिया ।।६।। परीक्षित्! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीरकी गठन, भाव-भंगी स्त्रियोंका हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्राने भी मनमें उन्हींको पति बनानेका निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवनसे उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया ।।७।। अब अर्जुन केवल उसीका चिन्तन करने लगे और इस बातका अवसर ढूँढ़ने लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ। सुभद्राको प्राप्त करनेकी उत्कट कामनासे उनका चित्त चक्कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी ।।८।।
एक बार सुभद्राजी देव-दर्शनके लिये रथपर सवार होकर द्वारका-दुर्गसे बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुनने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्णकी अनुमतिसे सुभद्राका हरण कर लिया ।।९।। रथपर सवार होकर वीर अर्जुनने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकनेके लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्राके निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्राको लेकर चल पड़े ।।१०।। यह समाचार सुनकर बलरामजी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमाके दिन समुद्र। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियोंने उनके पैर पकड़कर उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए ।।११।। इसके बाद बलरामजीने प्रसन्न होकर वर-वधूके लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेजमें भेजे ।।१२।।
एक बार भगवान् श्रीकृष्णने उन दोनोंपर प्रसन्न होकर दारुकसे रथ मँगवाया और उसपर सवार होकर द्वारकासे विदेह देशकी ओर प्रस्थान किया ।।१७।। भगवान्के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे ।।१८।। परीक्षित्! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँकी नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजाकी सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करनेवालोंको भगवान् ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहोंके साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों ।।१९।। परीक्षित्! उस यात्रामें आनर्त, धन्व, कुरुजांगल, कंक, मत्स्य, पांचाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेक देशोंके नर-नारियोंने अपने नेत्ररूपी दोनोंसे भगवान् श्रीकृष्णके उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवनसे युक्त मुखारविन्दके मकरन्द-रसका पान किया ।।२०।। त्रिलोकगुरु भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे उन लोगोंकी अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियोंको अपनी दृष्टिसे परम कल्याण और तत्त्वज्ञानका दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थानपर मनुष्य और देवता भगवान्की उस कीर्तिका गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओंको उज्ज्वल बनानेवाली एवं समस्त अशुभोंका विनाश करनेवाली है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देशमें पहुँचे ।।२१।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनका समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियोंके आनन्दकी सीमा न रही। वे अपने हाथोंमें पूजाकी विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये ।।२२।। मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेवने, यह समझकर कि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण हम-लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही पधारे हैं, उनके चरणोंपर गिरकर प्रणाम किया ।।२४।।
भगवान् श्रीकृष्ण दोनोंकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंको ही प्रसन्न करनेके लिये एक ही समय पृथक्-पृथक् रूपसे दोनोंके घर पधारे और यह बात एक-दूसरेको मालूम न हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण मेरे घरके अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ।।२६।। उस समय बहुलाश्वकी विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्तिके उद्रेकसे उनका हृदय भर आया था। नेत्रोंमें आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियोंके चरणोंमें नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्बके साथ उनके चरणोंका लोकपावन जल सिरपर धारण किया और फिर भगवान् एवं भगवत्स्वरूप ऋषियोंको गन्ध, माला, वस्त्र, अलंकार, धूप, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की ।।२७-२९।। जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंको अपनी गोदमें लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्दसे धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणीसे भगवान्की स्तुति करने लगे ।।३०।।
परम शान्तिका विस्तार करनेके लिये आप ही नारायण ऋषिके रूपमें तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।३५।। प्रिय परीक्षित्! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डलीके पधारनेपर आनन्दमग्न हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भी भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियोंको अपने घर आया देखकर आनन्दविह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे ।।३८।। श्रुतदेवने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उनपर भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियोंको बैठाया, स्वागत-भाषण आदिके द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नीके साथ बड़े आनन्दसे सबके पाँव पखारे ।।३९।। परीक्षित्! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेवने भगवान् और ऋषियोंके चरणोदकसे अपने घर और कुटुम्बियोंको सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेकसे मतवाले हो रहे थे ।।४०।। तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खससे सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्नसे सबकी आराधना की ।।४१।। उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि ‘मैं तो घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान् श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियोंका, जिनके चरणोंकी धूल ही समस्त तीर्थोंको तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया?’ ।।४२।। जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आरामसे बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियोंके साथ उनकी सेवामें उपस्थित हुए। वे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श करते हुए कहने लगे ।।४३।।
आप तो तभीसे सब लोगोंसे मिले हुए हैं, जबसे आपने अपनी शक्तियोंके द्वारा इस जगत्की रचना करके आत्मसत्ताके रूपमें इसमें प्रवेश किया है ।।४४।। जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्थामें अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न-जगत्की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपोंमें अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपनेमें ही अपनी मायासे जगत्की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपोंसे प्रकाशित हो रहे हैं ।।४५।। लोग सर्वदा आपकी लीलाकथाका श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओंका अर्चन-वन्दन करते हैं और आपसमें आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं ।।४६।। जिन लोगोंका चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मोंकी वासनासे बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदयमें रहनेपर भी आप उनसे बहुत दूर हैं।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शरणागत-भयहारी भगवान् श्रीकृष्णने श्रुतदेवकी प्रार्थना सुनकर अपने हाथसे उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा ।।५०।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय श्रुतदेव! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलोंकी धूलसे लोगों और लोकोंको पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ।।५१।। देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदिके द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टिसे ही सबको पवित्र कर देते हैं।
ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्तमें यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्धकी सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के-सब आत्मस्वरूप भगवान्के ही रूप हैं ।।५६।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेवने भगवान् श्रीकृष्ण और उन ब्रह्मर्षियोंकी एकात्मभावसे आराधना की तथा उनकी कृपासे वे भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्वने भी वही गति प्राप्त की ।।५८।।
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा। तुम बाप बेटी मेरी भावनाओं के साथ क्या खेल कर रहे हो कुछ समझ नहीं आ रहा! सारे अधिकार लड़कियो के है। जिसका वो समर्थन करे सही हो जाता है चाहे जो भी निराधार करण बता दे, जिसका विरोध करे वो गलत, आधार की अवश्यकता ही नहीं!
पता है शादी से भावनाएँ कैसे बदल जाएँगी। मेरे लिए ये तो बस एक सहज मार्ग था मेरी सखी का साथ देने का, एक औपचारिकता। मेरी भावनाएँ तो जो बचपन से रही है वही रहेगी। तुम्हारी लाडली कहती है कि कुछ नहीं बदला, बचपन में भी हमारी बात नहीं होती थी, अब भी नहीं होती। याही तो मैं भी समझा रहा हूं कि जैसे बचपन से मीनू से बात करने को तड़पता रहा वैसे ही तड़पता रहूंगा, भावनाएं नहीं बदलूंगी। जब मुझसे बात करना भी नहीं चाहती तो किस स्नेह, चिंता, पछतावे की बात करती है?
पता नहीं सबको क्यों लगता है शादी से मुझे ख़ुशी मिल जाएगी? मीनू, माँ और आंटीजी की बातें तो समझ नहीं आती, तीनो मेरा दिल दुखाने वाली बातें ही करती हैं। बस रोने के कारण बढ़ जायेंगा और पछतावा की मैं ने किसी निर्दोष का जीवन बरबाद कर दिया। मेरा तो जीवन जो है है, हमें क्यों सब मुझे नहीं छोड़ते, क्यूं और मेरा दिल दुखाते है?
पता नहीं किस महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है? बचपन से देख रहा हूं लड़की हाय हमेशा सही, लड़की हाय हमेशा अच्छी, लड़कियों का हाय समर्थन, लड़की को सब आसान से मिलता है, लड़की चाहे जितना भी लड़के का मजाक उड़ालर, चाहे जीते भी अरोप लगादे, भावनाओं से खेल ले सब सही
प्रभु क्या करूँ किसी से बात करके, तुम्हारी माया के आगे कहाँ किसी को मेरी भावनाएँ समझ नहीं आती। भागवत में भी प्रेम की कोई समझ नहीं, छेड़ खानी कर के कितने विरोधाभास भर दिए हैं। AI को भी भावनाये नहीं समझ में आता। तुम कुछ बोलते नहीं।
क्यों सब मेरी ख़ुशी की बात करते हैं? मीनू भी बड़ी बड़ी बातें करके कहती है कि मुझे खुश देखना चाहती है पर मुझसे बात क्या एक मैसेज के लिए भी समय नहीं निकल सकती, उल्टा ब्लॉक कर दिया। क्या करूं बचपन से मेरी सखी से बात करें, साथ खेलें, घूमने को तड़प रहा हूं। संसार के ऐश्वर्य तो मेरी सखी के भिन्न प्रश्न हैं, स्वर्ग किस काम का?
प्रभु, इस संसार समाज में मेरी भावनाओ की जगह नहीं बनाइ तो कम से कम मेरे भाई बहन बना देते, जो मम्मी पापा को कुछ तो खुशी देते। मैं चैन से एक कोने में पड़ा रो तो लेता।
"बचपन में मेहनत कर लो, बड़े हो के मस्ती करना", "अच्छी नौकरी पा जाओ, मेहनत करो तो जीवन सवर जाएगा", सब झूठ है। बचपन से एक ही तो जीवन में लक्ष्य था, मेरा परिवार मिल जुल के ख़ुशी ख़ुशी रहे, मेरी सखी के साथ जी भर के जब चाहे निसानकोच बात कर पाउ, खेल पाउ, गुमने जाउँ। क्या मिला मेहनत से ना मेरा परिवार साथ है, ना खुश है, मीनू के ब्लॉक कर दिया, हाल चल भी नहीं मिल रहा।
एक तो मुझे हमेशा टालती रही, मुझसे बात किये बिना ही मन कर दिया, मुझे ब्लॉक कर दिया, ऊपर से मुझ पर दबाव लगता है, मुझे गुस्सा हो जाता है, मैंने बात नहीं की। ऊपर से मेरी भावनाओं का ऐसा मज़ाक बना दिया। फिर भी क्या करु प्रभु मीनू की ही चिंता लगी रहती है, कुछ अच्छा नहीं लगता।
हे राम, मीनू को किस माया ने फंसाया है जो मेरे साथ ऐसा व्यवहार करती है और बताती भी नहीं क्यों?
प्रभु तुम्हारी लाडली ने कारण बताने कि जगह बस कह दिया मेरी भावनाएँ है जो बदल नहीं सकती, और मुझसे कहती है मैं अपनी भावनाएँ बदल लूं।
क्या प्रभु कभी मुझे सत्य का पता चलेगा? कौन कितना सत्य बोल रहा है या सब मिथ्या है? अगर सब मिथ्या है, तो कुछ कर के क्या करु, अगर कुछ सत्य है तो जाने बिना कैसे विश्वास करूँ?
भागवत में भी पता नहीं क्या छेदखानी की गई है। एक ओर तो ग्रहस्थ जीवन को नरक समान बताया गया है ऊपर से जन्म होते ही इसके ऋण में है केह कर जाबस्ति भी किगई है। देश में ऐसे ही थोड़ी ना इतनी जनसंख्या है, समाज में ऐसे कुतर्क भरे हैं। कैसे किसी को मेरी भावनाएं समझ आएंगी।
April 7, 2025
अथ सप्ताशीतितमोऽध्यायः वेदस्तुति
भगवान् नारायणने ऋषियोंकी उस भरी सभामें नारदजीको उनके प्रश्नका उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियोंमें परस्पर वेदोंके तात्पर्य और ब्रह्मके स्वरूपके सम्बन्धमें विचार करते समय कही गयी थी ।।८।।
भगवान् नारायणने कहा—नारदजी! प्राचीन कालकी बात है। एक बार जनलोकमें वहाँ रहनेवाले ब्रह्माके मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियोंका ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था ।।९।। उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध-मूर्तिका दर्शन करनेके लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्मके सम्बन्धमें बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विषयमें श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूपसे लक्षित कराती हुई उसीमें सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्रमें यही प्रश्न उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ।।१०।। सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार—ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभावमें समान हैं। उन लोगोंकी दृष्टिमें शत्रु, मित्र और उदासीन एक-से हैं। फिर भी उन्होंने अपनेमेंसे सनन्दनको तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुननेके इच्छुक बनकर बैठ गये ।।११।।
सनन्दनजीने कहा—जिस प्रकार प्रातःकाल होनेपर सोते हुए सम्राट्को जगानेके लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट्के पराक्रम तथा सुयशका गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत्को अपनेमें लीन करके अपनी शक्तियोंके सहित सोये रहते हैं; तब प्रलयके अन्तमें श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करनेवाले वचनोंसे उन्हें इस प्रकार जगाती हैं ।।१२-१३।।
श्रुतियाँ कहती हैं—अजित! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभावसे ही समस्त ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियोंको फँसानेवाली मायाका नाश कर दीजिये। प्रभो! इस गुणमयी मायाने दोषके लिये—जीवोंके आनन्दादिमय सहज स्वरूपका आच्छादन करके उन्हें बन्धनमें डालनेके लिये ही सत्त्वादि गुणोंको ग्रहण किया है। जगत्में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं। इसलिये आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषयमें यदि प्रमाण पूछा जाय, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही—हम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करनेमें असमर्थ हैं, परन्तु जब कभी आप मायाके द्वारा जगत्की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थितिकी लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किंचित् आपका वर्णन करनेमें समर्थ होती हैं* ।।१४।।
इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियोंके) सारे मन्त्र अथवा सभी मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रतीत होनेवाले इस सम्पूर्ण जगत्को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराव (मिट्टीका प्याला—कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टीसे ही उत्पन्न और उसीमें लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति और प्रलय आपमें ही होती है। तब क्या आप पृथ्वीके समान विकारी हैं? नहीं-नहीं, आप तो एकरस—निर्विकार हैं। इसीसे तो यह जगत् आपमें उत्पन्न नहीं, प्रतीत है।
भगवन्! लोग सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणोंकी मायासे बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओंमें उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटीके स्वामी, उसको नचानेवाले हैं।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँचों कोशोंमें पुरुष-रूपसे रहनेवाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करनेवाले भी आप ही हैं! आपके ही अस्तित्वसे उन कोशोंके अस्तित्वका अनुभव होता है और उनके न रहनेपर भी अन्तिम अवधिरूपसे आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होनेपर भी आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तवमें जो कुछ वृत्तियोंके द्वारा अस्ति अथवा नास्तिके रूपमें अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणोंसे आप परे हैं। ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जानेपर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेधके भी साक्षी हैं और वास्तवमें आप ही एकमात्र सत्य हैं (इसलिये आपके भजनके बिना जीवका जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान् सत्यसे वंचित है)* ।।१७।।
प्रभो! हृदयसे ही आपको प्राप्त करनेका श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मरन्ध्रतक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्गको प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपरकी ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता* ।।१८।।
प्रभो! जीव जिन शरीरोंमें रहता है, वे उसके कर्मके द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तवमें उन शरीरोंके कार्य-कारणरूप आवरणोंसे वह रहित है, क्योंकि वस्तुतः उन आवरणोंकी सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होनेके कारण अंश न होनेपर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होनेपर भी निर्मित कहते हैं।
भगवन्! परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसीका ज्ञान करानेके लिये आप विविध प्रकारके अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृतके महासागरसे भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्दमें मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओंको छोड़कर मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करते—स्वर्ग आदिकी तो बात ही क्या है।
जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत्। इन दोनोंसे बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि कालके अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँतक कि शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्थामें आपको जाननेकी चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।)* ।।२४।। प्रभो! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत्की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत्-रूप दुःखोंका नाश होनेपर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्माको अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्मके द्वारा प्राप्त होनेवाले लोक और परलोकरूप व्यवहारको सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है—इस प्रकारका भेदभाव केवल अज्ञानसे ही होता है और आप अज्ञानसे सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरूप आपमें किसी प्रकारका भेदभाव नहीं है।।२५।।
यह त्रिगुणात्मक जगत् मनकी कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत्से पृथक् प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तवमें असत् होनेपर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ताके कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनोंके सम्बन्धको सिद्ध करनेवाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूपसे सत्य ही मानते हैं। सोनेसे बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिये उनको इस रूपमें जाननेवाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत् आत्मामें ही कल्पित, आत्मासे ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं* ।।२६।। भगवन्! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभावसे आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्युको तुच्छ समझकर उसके सिरपर लात मारते हैं अर्थात् उसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मोंका प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियोंसे पशुओंके समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपनेको बल्कि दूसरोंको भी पवित्र कर देते हैं—जगत्के बन्धनसे छुड़ा देते हैं।
प्रभो! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणोंसे—चिन्तन, कर्म आदिके साधनोंसे सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्तःकरण और बाह्य करणोंकी शक्तियोंसे सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वतः सिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अतः कोई काम करनेके लिये आपको इन्द्रियोंकी आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजासे कर लेकर स्वयं अपने सम्राट्को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्योंके पूज्य देवता और देवताओंके पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियोंसे पूजा स्वीकार करते हैं और मायाके अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करनेके लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं* ।।२८।।
वास्तवमें तो आपके स्वरूपमें मन और वाणीकी गति ही नहीं है। आपमें कार्य-कारणरूप प्रपंचका अभाव होनेसे बाह्य दृष्टिसे आप शून्यके समान ही जान पड़ते हैं; परन्तु उस दृष्टिके भी अधिष्ठान होनेके कारण आप परम सत्य हैं।।२९।।
इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरूपसे रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तवमें आप उनमें समरूपसे स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तवमें आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धिके विषयको जाना है, जिससे आप परे हैं।
स्वामिन्! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहनेका ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणामके द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप—जो आप हैं—कभी वृत्तियोंके अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियोंका जन्म कैसे होता है? अज्ञानके कारण प्रकृतिको पुरुष और पुरुषको प्रकृति समझ लेनेसे, एकका दूसरेके साथ संयोग हो जानेसे जैसे ‘बुलबुला’ नामकी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायुके संयोगसे उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृतिका अध्यास (एकमें दूसरेकी कल्पना) हो जानेके कारण ही जीवोंके विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्तमें जैसे समुद्रमें नदियाँ और मधुमें समस्त पुष्पोंके रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवोंकी भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्व-व्यापकता आदि वास्तविक सत्यको न जाननेके कारण ही मानी जाती है)* ।।३१।।
भगवन्! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदिके घमंडसे रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतलपर परम पवित्र और सबको पवित्र करनेवाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके हृदयमें आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषोंका चरणामृत समस्त पापों और तापोंको सदाके लिये नष्ट कर देनेवाला है। भगवन्! आप नित्य-आनन्दस्वरूप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं—आपमें मन लगा देते हैं—वे उन देह-गेहोंमें कभी नहीं फँसते जो जीवके विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणोंका नाश करनेवाले हैं। वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं* ।।३५।।
यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होनेवाले सर्पका उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्याका—भ्रमका मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तुके संयोगसे ही इस जगत्की उत्पत्ति हुई है। यदि केवल व्यवहारकी सिद्धिके लिये ही जगत्की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है।
भगवन्! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्तिके पहले नहीं था और प्रलयके बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीचमें भी एकरस परमात्मामें मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है।
जो साधक अपनी इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे रहते हैं, विषयोंसे विरक्त नहीं होते, उन्हें जीवनभर और जीवनके बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है। क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्युसे छुटकारा नहीं मिला है, लोगोंको रिझाने, धन कमाने आदिके क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरूप न जाननेके कारण अपने धर्म-कर्मका उल्लंघन करनेसे परलोकमें नरक आदि प्राप्त होनेका भय भी बना ही रहता है।।३९।।
भगवन्! आपके वास्तविक स्वरूपको जाननेवाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पाप-कर्मोंके फल सुख एवं दुःखोंको नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापनके भावसे ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेधके प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियोंके लिये हैं। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरूपका ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युगमें की हुई लीलाओं, गुणोंका गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदयमें बैठा लेता है तो अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुणगणोंके निवासस्थान प्रभो! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्योंके फल सुख-दुःखों और विधि-निषेधोंसे अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं।
भगवन्! स्वर्गादि लोकोंके अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृति भी आपकी थाह—आपका पार न पा सके; और आश्चर्यकी बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते। क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे? प्रभो! जैसे आकाशमें हवासे धूलके नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे ही आपमें कालके वेगसे अपनेसे उत्तरोत्तर दसगुने सात आवरणोंके सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले। हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूपका साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं, आपके अतिरिक्त वस्तुओंका निषेध करते-करते अन्तमें अपना भी निषेध कर देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं* ।।४१।।
देवर्षि नारदने कहा—भगवन्! आप सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप समस्त प्राणियोंके परम कल्याण—मोक्षके लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।४६।। परीक्षित्! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान् नारायणको और उनके शिष्योंको नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायनके आश्रमपर गये ।।४७।। भगवान् वेदव्यासने उनका यथोचित सत्कार किया। वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारदने जो कुछ भगवान् नारायणके मुँहसे सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजीको सुना दिया ।।४८।। राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणीसे अगोचर और समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित परब्रह्म परमात्माका वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मनका कैसे प्रवेश होता है? यही तो तुम्हारा प्रश्न था ।।४९।। परीक्षित्! भगवान् ही इस विश्वका संकल्प करते हैं तथा उसके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। वे प्रकृति और जीव दोनोंके स्वामी हैं। उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीवके साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरोंका निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं। जैसे गाढ़ निद्रा—सुषुप्तिमें मग्न पुरुष अपने शरीरका अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान्को पाकर यह जीव मायासे मुक्त हो जाता है। भगवान् ऐसे विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत्के कारण माया अथवा प्रकृतिका रत्तीभर भी अस्तित्व नहीं है। वे ही वास्तवमें अभय-स्थान हैं। उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये ।।५०।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नारदनारायणसंवादे वेदस्तुतिर्नाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः ।।८७।।
अजित! आपकी जय हो, जय हो! झूठे गुण धारण करके चराचर जीवको आच्छादित करनेवाली इस मायाको नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इसको नहीं मार सकेंगे—नहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बातका गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणोंके समुद्र हैं ।।१।।
आप जगत्के स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवनमें ही मेरा मन आपमें रम जाय। मेरे स्वामी! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा, जब मुझे इस प्रकारका मनुष्यजन्म प्राप्त होगा?
अनन्त! कहाँ बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियोंसे घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदिके अगोचर स्वरूप! (आपका ज्ञान तो बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्ध, दयासिन्धु! नरहरि देव! मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।
अनन्त महिमाशाली प्रभो! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कोंके द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश वाद-विवादके घोर अन्धकारमें भटक रहे हैं, उनके लिये आपके ज्ञानका मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये मेरे जीवनमें ऐसी सौभाग्यकी घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, श्रीशंकर, श्रीपते, गोविन्द, मधुपते—इस प्रकार आपको आनन्दमें भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।
नृसिंह! आपके सृष्टि-संकल्पसे क्षुब्ध होकर मायाने कर्मोंको जाग्रत् कर दिया है। उन्हींके कारण हम लोगोंका जन्म हुआ और अब आवागमनके चक्करमें भटककर हम दुःखी हो रहे हैं। पिताजी! आप हमारी रक्षा कीजिये।
मालामें प्रतीयमान सर्पके समान सत्यस्वरूप आपसे उदय होनेपर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है। झूठा सोना बाजारमें चल जानेपर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदोंका तात्पर्य भी जगत्की सत्यतामें नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्दस्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्दिरावन्दित श्रीहरे! मैं उसीकी वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागतको मत छोड़िये।
हे अनन्त! ब्रह्मा आदि देवता आपका अन्त नहीं जानते, न आप ही जानते और न तो वेदोंकी मुकुटमणि उपनिषदें ही जानती हैं; क्योंकि आप अनन्त हैं। उपनिषदें ‘नमो नमः’, ‘जय हो, जय हो’ यह कहकर आपमें चरितार्थ होती हैं। इसलिये मैं भी ‘नमो नमः’, ‘जय हो’, ‘जय हो’ यही कहकर आपके चरण-कमलकी उपासना करता हूँ।
प्रभु, क्या करूं इतना दिल टूटे के पर भी स्नेह नहीं जाता। इतने वर्ष से सबके लिए प्रार्थना कर रहा हूं पता ही नहीं चलता कब सब के लिए प्रार्थना करने लगता हूं। प्रभु, पता नहीं जब भागवत पढ़ो तो भी ऐसा हाल है तो सबका क्या होगा। पता नहीं मीनू की बातों में इतना विरोध क्यों, किस माया में फंसाया है?
प्रभु, तुम्हीं कर्म और गृहस्थ आश्रम का समर्थन करके रास्ते में इतने पैसे खर्च कर दिए हैं। प्रभु, मुझे तुम्हारी तरह नौटंकी नहीं आती। अंदर से विरक्त और गृहस्थ का नाटक नहीं होगा।
स्टूटियो ने भी कहा तुम्हारी कृपाके बिना अपनी शक्ति से कुछ नहीं होगा। ना घर का ना घाट का रहूँगा. हां तो सबको भक्ति में डुबागो, हां मेरी सखी का साथ। जैसी तुम्हारी इच्छा कहो, मैं क्या कहूं!
April 8, 2025
मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा। बचपन से ही सत्ये और प्रश्नों की गुत्थियों में उलझ रहा हूं। नासमझ हाय हो ना अच्छा है. भौतिकी में क्वांटम यांत्रिकी में उलझा तो कंप्यूटर की या चला गया पर प्रश्न समाप्त नहीं हुए। अभी भी फिजिक्स घूमती है. अब तो मेरे जीवन का आधार ही प्रश्नों से भर गया है। पता नहीं कितना और पागल होना बाकी है? तुमसे कुछ आस लगने से भी डर लगता है
अथाष्टाशीतितमोऽध्यायः शिवजीका संकटमोचन
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन्! भगवान् शंकरने समस्त भोगोंका परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोगसम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान् विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करनेवाले प्रायः धनी और भोग सम्पन्न नहीं होते ।।१।। दोनों प्रभु त्याग और भोगकी दृष्टिसे एक-दूसरेसे विरुद्ध स्वभाववाले हैं, परंतु उनके उपासकोंको उनके स्वरूपके विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषयमें बड़ा सन्देह है कि त्यागीकी उपासनासे भोग और लक्ष्मीपतिकी उपासनासे त्याग कैसे मिलता है? मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ ।।२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शिवजी सदा अपनी शक्तिसे युक्त रहते हैं। वे सत्त्व आदि गुणोंसे युक्त तथा अहंकारके अधिष्ठाता हैं। अहंकारके तीन भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस ।।३।। त्रिविध अहंकारसे सोलह विकार हुए—दस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अतः इन सबके अधिष्ठातृ-देवताओंमेंसे किसी एककी उपासना करनेपर समस्त ऐश्वर्योंकी प्राप्ति हो जाती है ।।४।। परन्तु परीक्षित्! भगवान् श्रीहरि तो प्रकृतिसे परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ तथा सबके अन्तःकरणोंके साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह स्वयं भी गुणातीत हो जाता है ।।५।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजन्! जिसपर मैं कृपा करता हूँ, उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसके दुःखाकुल चित्तकी परवा न करके उसे छोड़ देते हैं, ।।८।। फिर वह धनके लिये उद्योग करने लगता है, तब मैं उसका वह प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होनेके कारण जब धन कमानेसे उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दुःख समझकर वह उधरसे अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तोंका आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब मैं उसपर अपनी अहैतुक कृपाकी वर्षा करता हूँ ।।९।। मेरी कृपासे उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसीसे साधारण लोग मुझे छोड़कर मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओंकी आराधना करते हैं ।।१०।। दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं और अपने भक्तोंको साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छृंखल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठते हैं और अपने वरदाता देवताओंको भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं ।।११।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—ये तीनों शाप और वरदान देनेमें समर्थ हैं; परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान् वैसे नहीं हैं ।।१२।। इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान् शंकर एक बार वृकासुरको वर देकर संकटमें पड़ गये थे ।।१३।। परीक्षित्! वृकासुर शकुनिका पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारदको देख लिया और उनसे पूछा कि ‘तीनों देवताओंमें झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है?’ ।।१४।। परीक्षित्! देवर्षि नारदने कहा—‘तुम भगवान् शंकरकी आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणोंसे शीघ्र-से-शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराधसे तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं ।।१५।। रावण और बाणासुरने केवल वंदीजनोंके समान शंकरजीकी कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे वे उनपर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बादमें रावणके कैलास उठाने और बाणासुरके नगरकी रक्षाका भार लेनेसे वे उनके लिये संकटमें भी पड़ गये थे’ ।।१६।।
नारदजीका उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्रमें गया और अग्निको भगवान् शंकरका मुख मानकर अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा ।।१७।। इस प्रकार छः दिनतक उपासना करनेपर भी जब उसे भगवान् शंकरके दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थमें स्नान करके उसने अपने भीगे बालवाले मस्तकको कुल्हाड़ेसे काटकर हवन करना चाहा ।।१८।। परीक्षित्! जैसे जगत्में कोई दुःखवश आत्महत्या करने जाता है तो हमलोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान् शंकरने वृकासुरके आत्मघातके पहले ही अग्निकुण्डसे अग्निदेवके समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटनेसे रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुरके अंग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये ।।१९।। भगवान् शंकरने वृकासुरसे कहा—‘प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई! मैं तो अपने शरणागत भक्तोंपर केवल जल चढ़ानेसे ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठ-मूठ अपने शरीरको क्यों पीड़ा दे रहे हो?’ ।।२०।। परीक्षित्! अत्यन्त पापी वृकासुरने समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ, वही मर जाय’ ।।२१।। परीक्षित्! असकी यह याचना सुनकर भगवान् रुद्र पहले तो कुछ अनमने-से हो गये, फिर हँसकर कह दिया—‘अच्छा, ऐसा ही हो । ’
वह असुर शंकरजीके वरकी परीक्षाके लिये उन्हींके सिरपर हाथ रखनेका उद्योग करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दिये हुए वरदानसे ही भयभीत हो गये ।।२३।। बड़े-बड़े देवता इस संकटको टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अंधकारसे परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठ-लोकमें गये ।।२५।। वैकुण्ठमें स्वयं भगवान् नारायण निवास करते हैं। भक्तभयहारी भगवान्ने देखा कि शंकरजी तो बड़े संकटमें पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमायासे ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी ओर आने लगे ।।२७।। भगवान्ने मूँजकी मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंगसे ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथमें कुश लिये हुए थे। वृकासुरको देखकर उन्होंने बड़ी नम्रतासे झुककर प्रणाम किया ।।२८।।
ब्रह्मचारी-वेषधारी भगवान्ने कहा— आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि लोग सहायकोंके द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं ।।३०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्के एक-एक शब्दसे अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछनेपर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमशः अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान् शंकरके पीछे दौड़नेकी बात शुरूसे कह सुनायी ।।३१।।
श्रीभगवान्ने कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है? तब तो भाई! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या? वह तो दक्ष प्रजापतिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है ।।३२।। दानवराज! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये ।।३३।। दानव-शिरोमणे! यदि किसी प्रकार शंकरकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके ।।३४।। परीक्षित्! भगवान्ने ऐसी मोहित करनेवाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया ।।३५।। बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाशमें देवतालोग ‘जय-जय, नमो नमः, साधु-साधु!’ के नारे लगाने लगे ।।३६।।
अथैकोननवतितमोऽध्यायः
भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा तथा भगवान्का मरे हुए ब्राह्मण-बालकोंको वापस लाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार सरस्वती नदीके पावन तटपर यज्ञ प्रारम्भ करनेके लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगोंमें इस विषयपर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णुमें सबसे बड़ा कौन है? ।।१।। परीक्षित्! उन लोगोंने यह बात जाननेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे ब्रह्माके पुत्र भृगुजीको उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजीकी सभामें गये ।।२।। उन्होंने ब्रह्माजीके धैर्य आदिकी परीक्षा करनेके लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इसपर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेजसे दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया ।।३।। परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मनमें उठे हुए क्रोधको भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धिसे दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणि-मन्थनसे उत्पन्न अग्निको जलसे बुझा दे ।।४।। वहाँसे महर्षि भृगु कैलासमें गये। देवाधिदेव भगवान् शंकरने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे खड़े होकर उनका आलिंगन करनेके लिये भुजाएँ फैला दीं ।।५।।
परन्तु महर्षि भृगुने उनसे आलिंगन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेदकी मर्यादाका उल्लंघन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।’ भृगुजीकी यह बात सुनकर भगवान् शंकर क्रोधके मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगुको मारना चाहा ।।६।। परन्तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरणोंपर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान् विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठमें गये ।।७।। उस समय भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीकी गोदमें अपना सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगुजीने जाकर उनके वक्षःस्थलपर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्यासे नीचे उतरकर मुनिको सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान्ने कहा—‘ब्रह्मन्! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो! मुझे आपके शुभागमनका पता न था। इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये ।।८-९।। महामुने! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।’ यों कहकर भृगुजीके चरणोंको भगवान् अपने हाथोंसे सहलाने लगे ।।१०।। और बोले—‘महर्षे! आपके चरणोंका जल तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालोंको पवित्र कीजिये ।।११।। भगवन्! आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मीका एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणोंसे चिह्नित मेरे वक्षःस्थलपर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’ ।।१२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान्ने अत्यन्त गम्भीर वाणीसे इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्तिके उद्रेकसे उनका गला भर आया, आँखोंमें आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ।।१३।। परीक्षित्! भृगुजी वहाँसे लौटकर ब्रह्मवादी मुनियोंके सत्संगमें आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान्के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ।।१४।। भगवान् विष्णुसे ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारके ऐश्वर्य और चित्तको शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ।।१६।। शान्त, समचित्त, अकिंचन और सबको अभय देनेवाले साधु-मुनियोंकी वे ही एकमात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं ।।१७।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें किसी ब्राह्मणीके गर्भसे एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वीका स्पर्श होते ही मर गया ।।२२।। ब्राह्मण अपने बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वारपर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दुःखी मनसे विलाप करता हुआ यह कहने लगा— ।।२३।। ‘इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजाके कर्मदोषसे ही मेरे बालककी मृत्यु हुई है ।।२४।। जो राजा हिंसापरायण, दुःशील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दुःख-पर-दुःख भोगती रहती है और उसके सामने संकट-पर-संकट आते रहते हैं ।।२५।। परीक्षित्! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर वह ब्राह्मण लड़केकी लाश राजमहलके दरवाजेपर डाल गया और वही बात कह गया ।।२६।। नवें बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान् श्रीकृष्णके पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मणकी बात सुनकर उससे कहा— ।।२७।। ‘ब्रह्मन्! आपके निवासस्थान द्वारकामें कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालनका परित्याग करके किसी यज्ञमें बैठे हुए हैं! ।।२८।। जिनके राज्यमें धन, स्त्री अथवा पुत्रोंसे वियुक्त होकर ब्राह्मण दुःखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रियके वेषमें पेट पालनेवाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है ।।२९।। भगवन्! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रोंकी मृत्युसे दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तानकी रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका तो आगमें कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा’ ।।३०।।
ब्राह्मणने कहा—अर्जुन! यहाँ बलरामजी, भगवान् श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्न, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरोंके लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी इस बातपर बिलकुल विश्वास नहीं करते ।।३१-३२।।
अर्जुनने कहा—ब्रह्मन्! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ।।३३।। ब्राह्मणदेवता! आप मेरे बल-पौरुषका तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रमसे भगवान् शंकरको सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन्! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्धमें साक्षात् मृत्युको भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ।।३४।।
परीक्षित्! जब अर्जुनने उस ब्राह्मणको इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगोंसे उनके बल-पौरुषका बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर लौट गया ।।३५।। प्रसवका समय निकट आनेपर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुनके पास आया और कहने लगा—‘इस बार तुम मेरे बच्चेको मृत्युसे बचा लो’ ।।३६।। यह सुनकर अर्जुनने शुद्ध जलसे आचमन किया, तथा भगवान् शंकरको नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रोंका स्मरण किया और गाण्डीव धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथमें ले लिया ।।३७।। अर्जुनने बाणोंको अनेक प्रकारके अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके प्रसवगृहको चारों ओरसे घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृहके ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणोंका एक पिंजड़ा-सा बना दिया ।।३८।। इसके बाद ब्राह्मणीके गर्भसे एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाशमें अन्तर्धान हो गया ।।३९।। अब वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही अर्जुनकी निन्दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसककी डींगभरी बातोंपर विश्वास कर लिया ।।४०।। भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान् श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करनेमें और कौन समर्थ है? ।।४१।। मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्कार है!! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो! यह मूढ़तावश उस बालकको लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्धने हमसे अलग कर दिया है’ ।।४२।। जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबलसे तत्काल संयमनीपुरीमें गये, जहाँ भगवान् यमराज निवास करते हैं ।।४३।। वहाँ उन्हें ब्राह्मणका बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमशः इन्द्र, अग्नि, निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदिकी पुरियोंमें, अतलादि नीचेके लोकोंमें, स्वर्गसे ऊपरके महर्लोकादिमें एवं अन्यान्य स्थानोंमें गये ।।४४।।
परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मणका बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्निमें प्रवेश करनेका विचार किया। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा— ।।४५।। ‘भाई अर्जुन! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मणके सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगोंकी निर्मल कीर्तिकी स्थापना करेंगे’ ।।४६।। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुनके साथ अपने दिव्य रथपर सवार हुए और पश्चिम दिशाको प्रस्थान किया ।।४७।। उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोक-पर्वतको लाँघकर घोर अन्धकारमें प्रवेश किया ।।४८।। परीक्षित्! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था ।।४९।। योगेश्वरोंके भी परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने घोड़ोंकी यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्योंके समान तेजस्वी चक्रको आगे चलनेकी आज्ञा दी ।।५०।। सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेजसे स्वयं भगवान्के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं महान् अन्धकारको चीरता हुआ मनके समान तीव्र गतिसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान् रामका बाण धनुषसे छूटकर राक्षसोंकी सेनामें प्रवेश कर रहा हो ।।५१।। इस प्रकार सुदर्शन चक्रके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे चलकर रथ अन्धकारकी अन्तिम सीमापर पहुँचा। उस अन्धकारके पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुनकी आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये ।।५२।।
इसके बाद भगवान्के रथने दिव्य जलराशिमें प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलनेके कारण उस जलमें बड़ी-बड़ी तरंगें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियोंके सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी ।।५३।। उसी महलमें भगवान् शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फणपर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिरमें दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयंकर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलासके समान श्वेतवर्णका था और गला तथा जीभ नीले रंगकी थी ।।५४।। परीक्षित्! अर्जुनने देखा कि शेषभगवान्की सुखमयी शय्यापर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान् विराजमान हैं। उनके शरीरकी कान्ति वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुखपर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं ।।५५।। बहुमूल्य मणियोंसे जटित मुकुट और कुण्डलोंकी कान्तिसे सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गलेमें कौस्तुभ मणि है; वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है और घुटनोंतक वनमाला लटक रही है ।।५६।। अर्जुनने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा—ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालोंके अधीश्वर भगवान्की सेवा कर रही हैं ।।५७।। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान्को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शनसे कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्णके बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालोंके स्वामी भूमा पुरुषने मुसकराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणीसे कहा— ।।५८।।
‘श्रीकृष्ण और अर्जुन! मैंने तुम दोनोंको देखनेके लिये ही ब्राह्मणके बालक अपने पास मँगा लिये थे। तुम दोनोंने धर्मकी रक्षाके लिये मेरी कलाओंके साथ पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वीके भाररूप दैत्योंका संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ ।।५९।। तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत्की स्थिति और लोकसंग्रहके लिये धर्मका आचरण करो’ ।।६०।। जब भगवान् भूमा पुरुषने श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगोंने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्दके साथ ब्राह्मण-बालकोंको लेकर जिस रास्तेसे, जिस प्रकार आये थे, उसीसे वैसे ही द्वारकामें लौट आये। ब्राह्मणके बालक अपनी आयुके अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्मके समय थी। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने उनके पिताको सौंप दिया ।।६१-६२।।
भगवान् श्रीकृष्णने आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गोंके सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजाके लिये समयानुसार वर्षा करते हैं ।।६५।।
उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओंको स्वयं मार डाला और बहुतोंको अर्जुन आदिके द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओंसे उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वीमें धर्ममर्यादाकी स्थापना करा दी ।।६६।।
अथ नवतितमोऽध्यायः भगवान् श्रीकृष्णके लीला-विहारका वर्णन
लक्ष्मीपति भगवान्की यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसीमें वे निवास करते थे। भगवान् श्रीकृष्ण सोलह हजारसे अधिक पत्नियोंके एकमात्र प्राण-वल्लभ थे। उन पत्नियोंके अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे ।।१-५।। सभी पत्नियोंके महलोंमें सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँतिके कमलोंके परागसे मँहकता रहता था। उनमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान् श्रीकृष्ण उन जलाशयोंमें तथा कभी-कभी नदियोंके जलमें भी प्रवेश कर अपनी पत्नियोंके साथ जल-विहार करते थे। भगवान्के साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लेतीं, आलिंगन करतीं, तब भगवान्के श्रीअंगोंमें उनके वक्षःस्थलकी केसर लग जाती थी ।।६-७।।
उस समय गन्धर्व उनके यशका गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्दसे मृदंग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते ।।८।। भगवान्की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियोंसे उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर कर देते। इस प्रकार भगवान् अपनी पत्नियोंके साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियोंके साथ विहार कर रहे हों ।।९।।
उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी वनमाला उन रानियोंके वक्षःस्थलपर लगी हुई केसरके रंगसे रँग जाती। विहारमें अत्यन्त मग्न हो जानेके कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भावसे लहराने लगतीं। वे अपनी रानियोंको बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान् श्रीकृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियोंसे घिरकर उनके साथ क्रीड़ा कर रहा हो ।।११।।
परीक्षित्! भगवान् इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिंगन आदिसे रानियोंकी चित्तवृत्ति उन्हींकी ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बातका स्मरण ही न होता ।।१३।। परीक्षित्! रानियोंके जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दरके चिन्तनमें ही इतनी मग्न हो जातीं कि कई देरतक चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्तके समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान् श्रीकृष्णकी उपस्थितिमें ही प्रेमोन्मादके कारण उनके विरहका अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ।।१४।।
रानियाँ कहतीं—अरी कुररी! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसारमें सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान् अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं आती? तू इस तरह रात-रातभर जगकर विलाप क्यों कर रही है? सखी! कहीं कमलनयन भगवान्के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवनसे तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है? ।।१५।। अरी चकवी! तूने रातके समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वरसे पुकार रही है? हाय-हाय! तब तो तू बड़ी दुःखिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदयमें भी हमारे ही समान भगवान्की दासी होनेका भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणोंपर चढ़ायी हुई पुष्पोंकी माला अपनी चोटियोंमें धारण करना चाहती है? ।।१६।। अहो समुद्र! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहनेका रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसीसे तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधिके शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है? ।।१७।।
चन्द्रदेव! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसीसे तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणोंसे अँधेरा भी नहीं हटा सकते! क्या हमारी ही भाँति हमारे प्यारे श्यामसुन्दरकी मीठी-मीठी रहस्यकी बातें भूल जानेके कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है? क्या उसीकी चिन्तासे तुम मौन हो रहे हो? ।।१८।। मलयानिल! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदयमें कामका संचार कर रहा है? अरे तू नहीं जानता क्या? भगवान्की तिरछी चितवनसे हमारा हृदय तो पहलेसे ही घायल हो गया है ।।१९।।
श्रीमन् मेघ! तुम्हारे शरीरका सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि भगवान्के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाशमें बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो! देखो-देखो! तुम्हारा हृदय चिन्तासे भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसूकी धारा बहा रहे हो। श्यामघन! सचमुच घनश्यामसे नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना है ।।२०।।
परीक्षित्! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें ऐसा ही अनन्य प्रेम-भाव रखती थीं। इसीसे उन्होंने परमपद प्राप्त किया ।।२५।। भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाएँ अनेकों प्रकारसे अनेकों गीतोंद्वारा गान की गयी हैं। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनके सुननेमात्रसे स्त्रियोंका मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है। फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रोंसे देखती थीं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।।२६।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्मका बार-बार आचरण करके लोगोंको यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम—साधनका स्थान है ।।२८।। भगवान्के परम पराक्रमी पुत्रोंमें अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत्में फैला हुआ था। उनके नाम मुझसे सुनो ।।३२।। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध ।।३३-३४।। राजेन्द्र! भगवान् श्रीकृष्णके इन पुत्रोंमें भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नजी थे। वे सभी गुणोंमें अपने पिताके समान ही थे ।।३५।। महारथी प्रद्युम्नने रुक्मीकी कन्यासे अपना विवाह किया था। उसीके गर्भसे अनिरुद्धजीका जन्म हुआ। उनमें दस हजार हाथियोंका बल था ।।३६।। रुक्मीके दौहित्र अनिरुद्धजीने अपने नानाकी पोतीसे विवाह किया। उसके गर्भसे वज्रका जन्म हुआ। ब्राह्मणोंके शापसे पैदा हुए मूसलके द्वारा यदुवंशका नाश हो जानेपर एकमात्र वे ही बच रहे थे ।।३७।।
भगवान्के स्वरूपकी यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करनेवाले भक्त और द्वेष करनेवाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूपको प्राप्त हुए।
परीक्षित्! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान् श्रीकृष्णकी मनोहारिणी लीला-कथाओंका अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान्के परमधाममें पहुँचा देती है। यद्यपि कालकी गतिके परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान्के धाममें कालकी दाल नहीं गलती।
प्रभु, मेरे साथ तो बाप बेटी कुछ और ही खेल रहे हो। अस्वरे दे के दिखा दिए ये किसी काम का नहीं, मेहनत का कोई फल नहीं, दुख ही अच्छा लगने लगा है, खुशियों से डर लगता है। सही ग़लत, सत्ये असत्ये कुछ नहीं समझ आ रहा। तुम बाप बेटी तो मेरा चित्त चुराकुके हो, अब मेरे समय के प्रवाह में बहना क्या कर सकता है? सोचा था भागवत में तुम्हारी लीला पढ़ को मिलेगी, पर भागवत में भी जिस लीला की महिमा बार-बार बताई गई है, वो लीला तो थोड़ी सी ही वर्णित है। आज एकादशी के दिन दशम स्कन्धा समाप्त हो गया।प्रश्न कम होने की जगह बढ़ते ही जा रहे हैं।
मेरी सखी का ना हाल चल मिल रहा है, ना बाते समझ आ रही है
प्रभु, तुम बाप बेटी चित्तचोर, जो करना है करो, मेरे प्रेम में तड़पने के सिवा क्या कर सकता है? प्रभु, तुम दोनो का मनोरंजन तो कर पा रहे हूँ ना? मेरे दिल की फुटबॉल फट जाए तो बाप बेटी छोड़ के मत चल देना
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
April 8, 2025
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
श्रीमद्भागवतमहापुराणाम्
एकादशः स्कन्धः
अथ प्रथमोऽध्यायः यदुवंशको ऋषियोंका शाप
व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी कहते हैं— अपने बाहुबलसे सुरक्षित यदुवंशियोंके द्वारा पृथ्वीके भार—राजा और उनकी सेनाका विनाश करके, प्रमाणोंके द्वारा ज्ञानके विषय न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि लोकदृष्टिसे पृथ्वीका भार दूर हो जानेपर भी वस्तुतः मेरी दृष्टिसे अभीतक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है ।।३।। यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभवके कारण उच्छृंखल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदिसे भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँसके वनमें परस्पर संघर्षसे उत्पन्न अग्निके समान इस यदुवंशमें भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाममें जाऊँगा ।।४।।
राजन्! भगवान् सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मनमें निश्चय करके ब्राह्मणोंके शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाममें ले गये ।।५।। परीक्षित्! भगवान्की वह मूर्ति त्रिलोकीके सौन्दर्यका तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरीसे सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालोंके चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोक-सुन्दर थे। जिसने उनके एक चरण-चिह्नका भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपंचसे ऊपर उठकर उन्हींकी सेवामें लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वीमें अपनी कीर्तिका विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियोंने बड़ी ही सुन्दर भाषामें वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जानेके बाद लोग मेरी इस कीर्तिका गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकारसे सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णने अपने धामको प्रयाण किया ।।६-७।।
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन्! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धोंकी नित्य-निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणोंका अपराध कैसे बन गया? और क्यों ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दिया? ।।८।।
श्रीशुकदेवजीने कहा— अन्तमें श्रीहरिने अपने कुलके संहार—उपसंहारकी इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वीका भार उतरनेमें इतना ही कार्य शेष रह गया था ।।१०।। भगवान् श्रीकृष्णने ऐसे परम मंगलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगोंके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान् श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेनकी राजधानी द्वारकापुरीमें वसुदेवजीके घर यादवोंका संहार करनेके लिये कालरूपसे ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देनेपर—विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारकाके पास ही पिण्डारकक्षेत्रमें जाकर निवास करने लगे थे ।।११-१२।।
एक दिन यदुवंशके कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बानवटी नम्रतासे उनके चरणोंमें प्रणाम करके प्रश्न किया ।।१३।। वे जाम्बवतीनन्दन साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्राह्मणो! यह कजरारी आँखोंवाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछनेमें सकुचाती है। आपलोगोंका ज्ञान अमोघ—अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसवका समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र?’ ।।१४-१५।। परीक्षित्! जब उन कुमारोंने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियोंको धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणासे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खो! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ।।१६।। मुनियोंकी यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहेका मूसल मिला ।।१७।। अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला? अब लोग हमें क्या कहेंगे?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थानमें गये ।।१८।। उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभामें सब यादवोंके सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेनसे सारी घटना कह सुनायी ।।१९।। राजन्! जब सब लोगोंने ब्राह्मणोंके शापकी बात सुनी और अपनी आँखोंसे उस मूसलको देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणोंका शाप कभी झूठा नहीं होता ।।२०।। यदुराज उग्रसेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहेके बचे हुए छोटे टुकड़ेको समुद्रमें फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्धमें उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी) ।।२१।।
परीक्षित्! उस लोहेके टुकड़ेको एक मछली निगल गयी और चूरा तरंगोंके साथ बह-बहकर समुद्रके किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनोंमें एरक (बिना गाँठकी एक घास) के रूपमें उग आया ।।२२।। मछली मारनेवाले मछुओंने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो लोहेका टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याधने अपने बाणके नोकमें लगा लिया ।।२३।। भगवान् सब कुछ जानते थे। वे इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभुने ब्राह्मणोंके शापका अनुमोदन ही किया ।।२४।।
अथ द्वितीयोऽध्यायः
वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और उन्हें राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद सुनाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन! देवर्षि नारदके मनमें भगवान् श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहनेकी बड़ी लालसा थी। इसलिये वे श्रीकृष्णके निज बाहुओंसे सुरक्षित द्वारकामें—जहाँ दक्ष आदिके शापका कोई भय नहीं था, विदा कर देनेपर भी पुनः-पुनः आकर प्रायः रहा ही करते थे ।।१।। राजन्! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान्के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओंके भी उपास्य चरणकमलोंकी दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मंगलमय ध्वनिका सेवन करना न चाहे? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओरसे मृत्युसे ही घिरा हुआ है ।।२।। एक दिनकी बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अभिवादन किया तथा आरामसे बैठ जानेपर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुनः प्रणाम करके उनसे यह बात कही ।।३।। वसुदेवजीने कहा—संसारमें माता-पिताका आगमन पुत्रोंके लिये और भगवान्की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतोंका पदार्पण प्रपंचमें उलझे हुए दीन-दुःखियोंके लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है। परन्तु भगवन्! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना-फिरना तो समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होता है ।।४।। देवताओंके चरित्र भी कभी प्राणियोंके लिये दुःखके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं—जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होती है ।।५।।
सुव्रत! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसारसे—जिसमें दुःख भी सुखका विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास ही पार हो जाऊँ ।।९।।
नारदजीने कहा— जिनके गुण, लीला और नाम आदिका श्रवण तथा कीर्तन पतितोंको भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान् नारायणका तुमने आज मुझे स्मरण कराया है ।।१३।। वसुदेवजी! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्धमें संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है—ऋषभके पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेहका शुभ संवाद ।।१४।। तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रतके आग्नीध्र, आग्नीध्रके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ ।।१५।। शास्त्रोंने उन्हें भगवान् वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे ।।१६।।
उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान् नारायणके परम प्रेमी भक्त थे। उन्हींके नामसे यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था, ‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ।।१७।। भगवान् ऋषभदेवजीके शेष निन्यानबे पुत्रोंमें नौ पुत्र तो इस भारतवर्षके सब ओर स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण हो गये ।।१९।। शेष नौ संन्यासी हो गये। वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत्को अपने आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते थे ।।२२।।
उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागोंके लोकोंमें तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओंके स्थानोंमें वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ।।२३।। एक बारकी बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्षमें विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियोंके द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञमें जा पहुँचे ।।२४।। वसुदेवजी! वे योगीश्वर भगवान्के परम प्रेमी भक्त और सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्नि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागतमें खड़े हो गये ।।२५।। विदेहराज निमिने उन्हें भगवान्के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनोंपर बैठाया और प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ।।२६।। वे नवों योगीश्वर अपने अंगोंकी कान्तिसे इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमिने विनयसे झुककर परम प्रेमके साथ उनसे प्रश्न किया ।।२७।।
विदेहराज निमिने कहा—भगवन्! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान्के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान्के पार्षद संसारी प्राणियोंको पवित्र करनेके लिये विचरण किया करते हैं ।।२८।। जीवोंके लिये मनुष्य-शरीरका प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्युका भय सिरपर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभंगुर है। इसलिये अनिश्चित मनुष्य-जीवनमें भगवान्के प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनोंका, संतोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है ।।२९।। इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ! हम आपलोगोंसे यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याणका स्वरूप क्या है? और उसका साधन क्या है? इस संसारमें आधे क्षणका सत्संग भी मनुष्योंके लिये परम निधि है ।।३०।।
योगीश्वरो! यदि हम सुननेके अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मोंका उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकारसे रहित, एकरस भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मोंका पालन करनेवाले शरणागत भक्तोंको अपने-आपतकका दान कर डालते हैं ।।३१।।
पहले उन नौ योगीश्वरोंमेंसे कविजीने कहा—राजन्! भक्तजनोंके हृदयसे कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान्के चरणोंकी नित्य-निरन्तर उपासना ही इस संसारमें परम कल्याण—आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। राजन्! इन भागवतधर्मोंका अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नोंसे पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़नेपर भी अर्थात् विधि-विधानमें त्रुटि हो जानेपर भी न तो मार्गसे स्खलित ही होता है और न तो पतित—फलसे वञ्चित ही होता है ।।३५।। (भागवतधर्मका पालन करनेवालेके लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकारका कर्म ही करे।) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहंकारसे, अनेक जन्मों अथवा एक जन्मकी आदतोंसे स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान् नारायणके लिये ही है—इस भावसे उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म है) ।।३६।।
संसारमें भगवान्के जन्मकी और लीलाकी बहुत-सी मंगलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओंका स्मरण दिलानेवाले भगवान्के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-संकोच छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिये।
राजा निमिने पूछा—योगीश्वर! अब आप कृपा करके भगवद्भक्तका लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं? और कैसा स्वभाव होता है? वह मनुष्योंके साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है? क्या बोलता है? और किन लक्षणोंके कारण भगवान्का प्यारा होता है? ।।४४।। अब नौ योगीश्वरोंमेंसे दूसरे हरिजी बोले—राजन्! आत्मस्वरूप भगवान् समस्त प्राणियोंमें आत्मारूपसे—नियन्तारूपसे स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ताको ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्में ही आधेयरूपसे अथवा अध्यस्तरूपसे स्थित हैं, अर्थात् वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकारका जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान्का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ।।४५।।
राजा निमिने पूछा—योगीश्वर! अब आप कृपा करके भगवद्भक्तका लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं? और कैसा स्वभाव होता है? वह मनुष्योंके साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है? क्या बोलता है? और किन लक्षणोंके कारण भगवान्का प्यारा होता है? ।।४४।।
अब नौ योगीश्वरोंमेंसे दूसरे हरिजी बोले—राजन्! आत्मस्वरूप भगवान् समस्त प्राणियोंमें आत्मारूपसे—नियन्तारूपसे स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ताको ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्में ही आधेयरूपसे अथवा अध्यस्तरूपसे स्थित हैं, अर्थात् वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकारका जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान्का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ।।४५।।
जो भगवान्से प्रेम, उनके भक्तोंसे मित्रता, दुःखी और अज्ञानियोंपर कृपा तथा भगवान्से द्वेष करनेवालोंकी उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटिका भागवत है ।।४६।। और जो भगवान्के अर्चा-विग्रह—मूर्ति आदिकी पूजा तो श्रद्धासे करता है, परन्तु भगवान्के भक्तों या दूसरे लोगोंकी विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणीका भगवद्भक्त है ।।४७।। जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा शब्द-रूप आदि विषयोंका ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छाके प्रतिकूल विषयोंसे द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयोंके मिलनेपर हर्षित नहीं होता—उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान्की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है ।।४८।। संसारके धर्म हैं—जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिको प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान्की स्मृतिमें इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है ।।४९।। जिसके मनमें विषय-भोगकी इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज वासनाओंका उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान् वासुदेवमें ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है ।।५०।।
जिनका इस शरीरमें न तो सत्कुलमें जन्म, तपस्या आदि कर्मसे तथा न वर्ण, आश्रम एवं जातिसे ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान्का प्यारा है ।।५१।।
जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदिमें ‘यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थोंमें समस्वरूप परमात्माको देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्पसे विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान्का उत्तम भक्त है ।।५२।।
राजन्! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं—भगवान्के ऐसे चरणकमलोंसे आधे क्षण, आधे पलके लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणोंकी सन्निधि और सेवामें ही संलग्न रहता है; यहाँतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृतिका तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तवमें भगवद्भक्त वैष्णवोंमें अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है ।।५३।। रासलीलाके अवसरपर नृत्य-गतिसे भाँति-भाँतिके पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान्के चरणोंके अंगुलि-नखकी मणि-चन्द्रिकासे जिन शरणागत भक्तजनोंके हृदयका विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदयमें वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होनेपर सूर्यका ताप नहीं लग सकता ।।५४।। विवशतासे नामोच्चारण करनेपर भी सम्पूर्ण अघ-राशिको नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान् श्रीहरि जिसके हृदयको क्षणभरके लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेमकी रस्सीसे उनके चरण-कमलोंको बाँध रखा है, वास्तवमें ऐसा पुरुष ही भगवान्के भक्तोंमें प्रधान है ।।५५।।
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा। भागवत के मार्ग पर चलने के लिए मुझसे नौटंकी नहीं होगी। हर तरह से फसा रखा है। और गृहस्थ मेरी सखी के साथ बिना संभव नहीं। मीनू और सबकी बात पर विचार कर के बुद्धि चकराती है। ये भी विश्वास नहीं कि सब सही है और विश्वास पैदा करने पर मीनू मुझे कुछ संकेत भी देगी। प्रभु, तुम ही जानो अपने खेल।
सबका कल्याण करो। तुम ही जानो कैसे
April 9, 2025
अच्युतम केशवं विष्णुं हरिम सत्यं नारायणम
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा। दिन रात मीनू की बातों का विश्लेषण ही करता रहता हूँ। क्या करूं कुछ समझ नहीं आ रहा। खुद कहती है शादी के मामले में अंकलजी, आंटीजी भी उस पर दबाव नहीं बना सकते और मुझे अपने अफसोस के नाम पर इमोशनल ब्लैकमेल कर रही थी। मुझसे बात करने के लिए भी समय नहीं है, मुझसे कहती है भूल जाओ, तो पता नहीं खुद मुझे क्यों भूलना नहीं चाहती? मुझसे कह रही थी "मेरी भावनाएं समझो", खुद मेरी भावनाएं नहीं समझती के मेरे लिए भूलना संभव नहीं। पता नहीं खुद अपनी भावनाएं समझती हैं कि नहीं? खुद ही अपनी हरकतें और बातों से अपने और अंकलजी, आंटीजी की बातें काटती हैं।
हाल चल देने से भी मना कर दिया।
April 9, 2025
अथ तृतीयोऽध्यायः माया, मायासे पार होनेके उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोगका निरूपण
राजा निमिने पूछा—भगवन्! सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान्की माया बड़े-बड़े माया-वियोंको भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अतः अब मैं उस मायाका स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ।।१।।
अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजीने कहा—राजन्! (भगवान्की माया स्वरूपतः अनिर्वचनीय है, इसलिये उसके कार्योंके द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष परमात्मा जिस शक्तिसे सम्पूर्ण भूतोंके कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा मोक्षकी सिद्धिके लिये अथवा अपने उपासकोंकी उत्कृष्ट सिद्धिके लिये स्वनिर्मित पंचभूतोंके द्वारा नाना प्रकारके देव, मनुष्य आदि शरीरोंकी सृष्टि करते हैं, उसीको माया कहते हैं ।।३।। इस प्रकार पंचमहाभूतोंके द्वारा बने हुए प्राणि-शरीरोंमें उन्होंने अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश किया और अपनेको ही पहले एक मनके रूपमें और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय—इन दस रूपोंमें विभक्त कर दिया तथा उन्हींके द्वारा विषयोंका भोग कराने लगे ।।४।। वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामीके द्वारा प्रकाशित इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करता है और इस पंचभूतोंके द्वारा निर्मित शरीरको आत्मा—अपना स्वरूप मानकर उसीमें आसक्त हो जाता है। (यह भगवान्की माया है) ।।५।।
उस समय शेषनाग—संकर्षणके मुँहसे आगकी प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायुकी प्रेरणासे वे लपटें पाताललोकसे जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं—यह भगवान्की माया है ।।१०।। इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथीकी सूँडके समान मोटी-मोटी धाराओंसे सौ वर्षतक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जलमें डूब जाता है—यह भगवान्की माया है ।।११।। राजन्! उस समय जैसे बिना ईंधनके आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीरको छोड़कर सूक्ष्मस्वरूप अव्यक्तमें लीन हो जाते हैं—यह भगवान्की माया है ।।१२।। वायु पृथ्वीकी गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जलके रूपमें हो जाती है और जब वही वायु जलके रसको खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्नि बन जाता है—यह भगवान्की माया है ।।१३।। जब अन्धकार अग्निका रूप छीन लेता है, तब वह अग्नि वायुमें लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायुकी स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाशमें लीन हो जाता है—यह भगवान्की माया है ।।१४।। राजन्! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाशके शब्द गुणको हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहंकारमें लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहंकारमें लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहंकारसे उत्पन्न देवताओंके साथ सात्त्विक अहंकारमें प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकारके कार्योंके साथ अहंकार महत्तत्त्वमें लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृतिमें और प्रकृति ब्रह्ममें लीन होती है। फिर इसीके उलटे क्रमसे सृष्टि होती है—यह भगवान्की माया है ।।१५।।
राजा निमिने पूछा—महर्षिजी! इस भगवान्की मायाको पार करना उन लोगोंके लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मनको वशमें नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदिमें आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं? ।।१७।।
अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले— घर, पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है? ।।१९।। इसी प्रकार जो मनुष्य मायासे पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरनेके बाद प्राप्त होनेवाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं। क्योंकि इस लोककी वस्तुओंके समान वे भी कुछ सीमित कर्मोंके सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वीके छोटे-छोटे राजाओंके समान बराबरवालोंसे होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुखवालोंके प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेषका भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्यवालोंके प्रति घृणा रहती है एवं कर्मोंका फल पूरा हो जानेपर वहाँसे पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाशका भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ।।२०।।
इसलिये जो परम कल्याणका जिज्ञासु हो, उसे गुरुदेवकी शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म—वेदोंके पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रह्ममें परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभवके द्वारा प्राप्त हुई रहस्यकी बातोंको बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहारके प्रपंचमें विशेष प्रवृत्त न हो ।।२१।। इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करे ।।२३।। मिट्टी, जल आदिसे बाह्य शरीरकी पवित्रता, छल-कपट आदिके त्यागसे भीतरकी पवित्रता, अपने धर्मका अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें हर्ष-विषादसे रहित होना सीखे ।।२४।।
भगवान्की प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले शास्त्रोंमें श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्रकी निन्दा न करना, प्राणायामके द्वारा मनका, मौनके द्वारा वाणीका और वासनाहीनताके अभ्याससे कर्मोंका संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियोंको अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर रखना और मनको कहीं बाहर न जाने देना सीखे ।।२६।। राजन्! भगवान्की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हींका श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीरसे जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान्के लिये करना सीखे ।।२७।। यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचारका पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपनेको प्रिय लगता हो—सब-का-सब भगवान्के चरणोंमें निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ।।२८।। जिन संत पुरुषोंने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णका अपने आत्मा और स्वामीके रूपमें साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जंगम दोनों प्रकारके प्राणियोंकी सेवा; विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्योंमें भी परोपकारी सज्जनोंकी और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतोंकी करना सीखे ।।२९।।
राजन्! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापोंको एक क्षणमें भस्म कर देते हैं। सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें। इस प्रकार साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते-करते प्रेम-भक्तिका उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेकसे पुलकित-शरीर धारण करते हैं ।।३१।।
उनके हृदयकी बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अबतक भगवान् नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किसे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे? इस तरह सोचते-सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान्की लीलाकी स्फूर्ति हो जानेसे ऐसा देखकर कि परमैश्वर्यशाली भगवान् गोपियोंके डरसे छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शनकी अनुभूतिसे आनन्दमग्न हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भावमें स्थित होकर भगवान्के साथ बातचीत करने लगते हैं। कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणोंका गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढ़ने लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी सन्निधिमें स्थित होकर परम शान्तिका अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ।।३२।। राजन्! जो इस प्रकार भागवतधर्मोंकी शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान् नारायणके परायण होकर उस मायाको अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजेसे निकलना बहुत ही कठिन है ।।३३।।
राजा निमिने पूछा—महर्षियो! आपलोग परमात्माका वास्तविक स्वरूप जाननेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्माका ‘नारायण’ नामसे वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है? ।।३४।।
स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च ।
देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन संजीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ।।३५
अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजीने कहा—राजन्! जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका निमित्त-कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी—परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओंमें उनके साक्षीके रूपमें विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधिमें भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्तासे ही सत्ता-वान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करनेमें समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तुको आप ‘नारायण’ समझिये ।।३५।।
नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा प्राणेन्द्रियाणि च यथानलमर्चिषः स्वाः ।
शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयाऽऽत्ममूल- मर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः ।।३६
जैसे चिनगारियाँ न तो अग्निको प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्वमें—आत्मस्वरूपमें न तो मनकी गति है और न वाणीकी, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पासतक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’—इत्यादि श्रुतियोंके शब्द भी वह यह है—इस रूपमें उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध करानेवाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूपसे अपना मूल—निषेधका मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेधके आधारकी, आत्माकी सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेधकी वृत्ति किसमें है—इन प्रश्नोंका कोई उत्तर ही न रहे, निषेधकी ही सिद्धि न हो ।।३६।।
जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेदसे उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक होनेपर भी इन्द्रियोंके सहयोगसे उसमें अनेकताकी कल्पना हो जाती है ।।३८।।
राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो! अब आपलोग हमें कर्मयोगका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलकी निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ।।४१।। एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकुके सामने ब्रह्माजीके मानस पुत्र सनकादि ऋषियोंसे पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होनेपर भी मेरे प्रश्नका उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था? कृपा करके मुझे बतलाइये ।।४२।।
यह वेद परोक्षवादात्मक* है। यह कर्मोंकी निवृत्तिके लिये कर्मका विधान करता है, जैसे बालकको मिठाई आदिका लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञोंको स्वर्ग आदिका प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त करता है ।।४४।।
इसलिये फलकी अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान्को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्मका ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मोंकी निवृत्तिसे प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदोंमें स्वर्गादिरूप फलका वर्णन है, उसका तात्पर्य फलकी सत्यतामें नहीं है, वह तो कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करानेके लिये है ।।४६।।
(हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा) इत्यादि मन्त्रोंसे न्यास करे और अपने इष्टदेवके मूलमन्त्रके द्वारा देश, काल आदिके अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्रीसे प्रतिमा आदिमें अथवा हृदयमें भगवान्की पूजा करे ।।५०-५१।। अपने-अपने उपास्यदेवके विग्रहकी हृदयादि अंग, आयुधादि उपांग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्रद्वारा पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षतके* तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान् श्रीहरिको नमस्कार करे ।।५२-५३।। अपने-आपको भगवन्मय ध्यान करते हुए ही भगवान्की मूर्तिका पूजन करना चाहिये। निर्माल्यको अपने सिरपर रखे और आदरके साथ भगवद्विग्रहको यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ।।५४।। इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदयमें आत्मरूप श्रीहरिकी पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ।।५५।।
अथ चतुर्थोऽध्यायः भगवान्के अवतारोंका वर्णन
राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो! भगवान् स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी भक्तिके वश होकर अनेकों प्रकारके अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते हैं। आपलोग कृपा करके भगवान्की उन लीलाओंका वर्णन कीजिये, जो वे अबतक कर चुके हैं, कर रहे हैं या करेंगे ।।१।।
अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजीने कहा—राजन्! भगवान् अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणोंको गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वीके धूलि-कणोंको गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान्के अनन्त गुणोंका कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ।।२।। भगवान्ने ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन पाँच भूतोंकी अपने-आपसे अपने-आपमें सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रह्माण्डका निर्माण करके उसमें लीलासे अपने अंश अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूपसे नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्योंके फलस्वरूप जीव ही होता है) तब उन आदिदेव नारायणको ‘पुरुष’ नामसे कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है ।।३।। उन्हींके इस विराट् ब्रह्माण्ड शरीरमें तीनों लोक स्थित हैं। उन्हींकी इन्द्रियोंसे समस्त देहधारियोंकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरूपसे ही स्वतःसिद्ध ज्ञानका संचार होता है। उनके श्वास-प्रश्वाससे सब शरीरोंमें बल आता है तथा इन्द्रियोंमें ओज (इन्द्रियोंकी शक्ति) और कर्म करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। उन्हींके सत्त्व आदि गुणोंसे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीरके जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं ।।४।। पहले-पहल जगत्की उत्पत्तिके लिये उनके रजोगुणके अंशसे ब्रह्मा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसारकी स्थितिके लिये अपने सत्त्वांशसे धर्म तथा ब्राह्मणोंके रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुणके अंशसे जगत्के संहारके लिये रुद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हींसे परिवर्तनशील प्रजाकी उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं ।।५।।
दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम था मूर्ति। वह धर्मकी पत्नी थी। उसके गर्भसे भगवान्ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूपमें अवतार लिया। उन्होंने आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले उस भगवदाराधनरूप कर्मका उपदेश किया, जो वास्तवमें कर्मबन्धनसे छुड़ानेवाला और नैष्कर्म्य स्थितिको प्राप्त करानेवाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्मका अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रममें उसी कर्मका आचरण करते हुए विराजमान हैं ।।६।।
बहुत-से लोग तो ऐसे होते हैं जो भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी एवं आँधी-पानीके कष्टोंको तथा रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके वेगोंको, जो अपार समुद्रोंके समान हैं, सह लेते हैं—पार कर जाते हैं। परन्तु फिर भी वे उस क्रोधके वशमें हो जाते हैं, जो गायके खुरसे बने गड्ढेके समान है और जिससे कोई लाभ नहीं है—आत्मनाशक है। और प्रभो! वे इस प्रकार अपनी कठिन तपस्याको खो बैठते हैं ।।११।।
भगवान् विष्णुने अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत्के कल्याणके लिये बहुत-से कलावतार ग्रहण किये हैं। विदेहराज! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभके रूपमें अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कारके साधनोंका उपदेश किया है। उन्होंने ही हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरोंका संहार करके उन लोगोंके द्वारा चुराये हुए वेदोंका उद्धार किया है ।।१७।। प्रलयके समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियोंकी—धान्यादिकी रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वीका रसातलसे उद्धार करते समय हिरण्याक्षका संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान्ने अमृत-मन्थनका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया और उन्हीं भगवान् विष्णुने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्रको ग्राहसे छुड़ाया ।।१८।।
एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। वे जब कश्यप ऋषिके लिये समिधा ला रहे थे तो थककर गायके खुरसे बने हुए गड्ढेमें गिर पड़े, मानो समुद्रमें गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान्ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वृत्रासुरको मारनेके कारण जब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी और वे उसके भयसे भागकर छिप गये, तब भगवान्ने उस हत्यासे इन्द्रकी रक्षा की; और जब असुरोंने अनाथ देवांगनाओंको बंदी बना लिया, तब भी भगवान्ने ही उन्हें असुरोंके चंगुलसे छुड़ाया। जब हिरण्यकशिपुके कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषोंको भय पहुँचने लगा तब उनको निर्भय करनेके लिये भगवान्ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपुको मार डाला ।।१९।। उन्होंने देवताओंकी रक्षाके लिये देवासुर संग्राममें दैत्यपतियोंका वध किया और विभिन्न मन्वन्तरोंमें अपनी शक्तिसे अनेकों कलावतार धारण करके त्रिभुवनकी रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचनाके बहाने इस पृथ्वीको दैत्यराज बलिसे छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओंको दे दिया ।।२०।। परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। परशुरामजी तो हैहय-वंशका प्रलय करनेके लिये मानो भृगुवंशमें अग्नि रूपसे ही अवतीर्ण हुए थे।
सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङकं सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः ।।२१
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।
उन्हीं भगवान्ने रामावतारमें समुद्रपर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लंकाको मटियामेट कर दिया। उनकी कीर्ति समस्त लोकोंके मलको नष्ट करनेवाली है। सीतापति भगवान् राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं ।।२१।। राजन्! अजन्मा होनेपर भी पृथ्वीका भार उतारनेके लिये वे ही भगवान् यदुवंशमें जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
फिर आगे चलकर भगवान् ही बुद्धके रूपमें प्रकट होंगे और यज्ञके अनधिकारियोंको यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकारके तर्क-वितर्कोंसे मोहित कर लेंगे और कलियुगके अन्तमें कल्कि-अवतार लेकर वे ही शूद्र राजाओंका वध करेंगे ।।२२।। महाबाहु विदेहराज! भगवान्की कीर्ति अनन्त है। महात्माओंने जगत्पति भगवान्के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मोंका प्रचुरतासे गान भी किया है ।।२३।।
प्रभु, भागवत में भी लिखा है कि तुम गुरु और सत्संग तक पहुंच सकते हो। भागवत पथ के मेरे गुरु तो तुम और तुम्हारी लाडली ही है। और सत्संग भी तभी संभव है जब मीनू मेरा साथ दे। भागवत में भी कहा है तुम्हारे मार्ग पर अपने साथी को तुम्हारा याद दिलाना चाहिए। प्रभु, काम से काम मीनू को तुम्हारी याद ही दिलाती रही, इतनी तो कृपा कर दो। प्रश्नो की अग्नि तेवर होती जा रही है, और किसी पर विश्वास करना कठिन है। फिर भी सबके प्रति भावनाएँ नहीं बदलतीं। हे राम, तुमने भी तो अपने से चोट खाके भी किसी को दोष ना दे कर सबको हृदय से लगाया रखा। रोना और हृदय के बिखर जाने के बाद भी राह से ना तुमने ही तो दिखाया। हे कल्याणकर्ता, सबका कल्याण करो। तुम्हारा ही सहारा है।
April 10, 2025
ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन : कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम :
अथ पञ्चमोऽध्यायः भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्की पूजाविधिका वर्णन
धनका एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्मसे ही परम-तत्त्वका ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठामें ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेदकी बात है कि लोग उस धनका उपयोग घर-गृहस्थीके स्वार्थोंमें या कामभोगमें ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्युका शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ।।१२।। सौत्रामणि यज्ञमें भी सुराको सूँघनेका ही विधान है, पीनेका नहीं। यज्ञमें पशुका आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नीके साथ मैथुनकी आज्ञा भी विषयभोगके लिये नहीं, धार्मिक परम्पराकी रक्षाके निमित्त सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवादके वचनोंमें फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्मको जानते ही नहीं ।।१३।।
राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान् किस समय किस रंगका, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ।।१९।।
अब नवें योगीश्वर करभाजनजीने कहा—राजन्! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगोंमें भगवान्के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियोंसे उनकी पूजा की जाती है ।।२०।। सत्ययुगमें भगवान्के श्रीविग्रहका रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है तथा वे वल्कलका ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्षकी माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं ।।२१।।
वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामोंके द्वारा भगवान्के गुण, लीला आदिका गान करते हैं ।।२३।। राजन्! त्रेतायुगमें भगवान्के श्रीविग्रहका रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभागमें वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञके रूपमें रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रोंको धारण किया करते हैं ।।२४।। उस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिकी आराधना करते हैं ।।२५।। त्रेतायुगमें अधिकांश लोग विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामोंसे उनके गुण और लीला आदिका कीर्तन करते है ।।२६।।
वे लोग इस प्रकार भगवान्की स्तुति करते हैं—‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान् वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप संकर्षण! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान् प्रद्युम्न और अनिरुद्धके रूपमें हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान्को हम नमस्कार करते हैं ।।२९-३०।।
कलियुगमें भगवान्का श्रीविग्रह होता है कृष्ण-वर्ण—काले रंगका। जैसे नीलम मणिमेंसे उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अंगकी छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अंग, कौस्तुभ आदि उपांग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदोंसे संयुक्त रहते हैं। कलियुगमें श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम, गुण, लीला आदिके कीर्तनकी प्रधानता रहती है ।।३२।। वे लोग भगवान्की स्तुति इस प्रकार करते हैं—‘प्रभो! आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करनेयोग्य, माया-मोहके कारण होनेवाले सांसारिक पराजयोंका अन्त कर देनेवाले तथा भक्तोंकी समस्त अभीष्ट वस्तुओंका दान करनेवाले कामधेनुस्वरूप हैं। वे तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थस्वरूप हैं; शिव, ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरणमें आ जाय उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकोंकी समस्त आर्ति और विपत्तिके नाशक तथा संसार-सागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। महापुरुष! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ।।३३।। भगवन्! आपके चरणकमलोंकी महिमा कौन कहे? रामावतारमें अपने पिता दशरथजीके वचनोंसे देवताओंके लिये भी वांछनीय और दुस्त्यज राज्य-लक्ष्मीको छोड़कर आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फिरे! सचमुच आप धर्मनिष्ठताकी सीमा हैं। और महापुरुष! अपनी प्रेयसी सीताजीके चाहनेपर जान-बूझकर आपके चरणकमल मायामृगके पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेमकी सीमा हैं। प्रभो! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ’ ।।३४।।
इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—सभी पुरुषार्थोंके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीहरि ही हैं ।।३५।। कलि-युगमें केवल संकीर्तनसे ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। इसलिये इस युगका गुण जाननेवाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुगकी बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं ।।३६।। देहाभिमानी जीव संसारचक्रमें अनादि कालसे भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान्की लीला, गुण और नामके कीर्तनसे बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसारमें भटकना मिट जाता है और परम शान्तिका अनुभव होता है ।।३७।। राजन्! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरकी प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुगमें हो; क्योंकि कलियुगमें कहीं-कहीं भगवान् नारायणके शरणागत उन्हींके आश्रयमें रहनेवाले बहुत-से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह! कलियुगमें द्रविड़देशमें अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नामकी नदियाँ बहती हैं। राजन्! जो मनुष्य इन नदियोंका जल पीते हैं, प्रायः उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् वासुदेवके भक्त हो जाते हैं ।।३८-४०।।
राजन्! जो मनुष्य ‘यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक है’—इत्यादि कर्म-वासनाओंका अथवा भेद-बुद्धिका परित्याग करके सर्वात्मभावसे शरणागतवत्सल, प्रेमके वरदानी भगवान् मुकुन्दकी शरणमें आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियोंके ऋणसे उऋण हो जाता है; वह किसीके अधीन, किसीका सेवक, किसीके बन्धनमें नहीं रहता ।।४१।।
नारदजी कहते हैं— वसुदेवजी! तुम्हारे और देवकीके यशसे तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है; क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्रके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ।।४६।। तुमलोगोंने भगवान्के दर्शन, आलिंगन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने, खिलाने आदिके द्वारा वात्सल्य-स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो ।।४७।। वसुदेवजी! शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओंने तो वैरभावसे श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन-बोलन आदिका स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते—स्वाभाविकरूपसे ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्यमुक्तिके अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेमभाव और अनुरागसे श्रीकृष्णका चिन्तन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्णकी प्राप्ति होनेमें कोई सन्देह है क्या? ।।४८।।
अथ षष्ठोऽध्यायः देवताओंकी भगवान्से स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना तथा यादवोंको प्रभासक्षेत्र जानेकी तैयारी करते देखकर उद्धवका भगवान्के पास आना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवर्षि नारद वसुदेवजीको उपदेश करके चले गये, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियोंके साथ ब्रह्माजी, भूतगणोंके साथ सर्वेश्वर महादेवजी और मरुद्गणोंके साथ देवराज इन्द्र द्वारकानगरीमें आये। साथ ही सभी आदित्यगण, आठों वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अंगिराके वंशज ऋषि, ग्यारहों रुद्र, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर और किन्नर भी वहीं पहुँचे। इन लोगोंके आगमनका उद्देश्य यह था कि मनुष्यका-सा मनोहर वेष धारण करनेवाले और अपने श्यामसुन्दर विग्रहसे सभी लोगोंका मन अपनी ओर खींचकर रमा लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करें; क्योंकि इस समय उन्होंने अपना श्रीविग्रह प्रकट करके उसके द्वारा तीनों लोकोंमें ऐसी पवित्र कीर्तिका विस्तार किया है, जो समस्त लोकोंके पाप-तापको सदाके लिये मिटा देती है ।।१-४।। द्वारकापुरी सब प्रकारकी सम्पत्ति और ऐश्वर्योंसे समृद्ध तथा अलौकिक दीप्तिसे देदीप्यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोगोंने अनूठी छबिसे युक्त भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन किये। भगवान्की रूप-माधुरीका निर्निमेष नयनोंसे पान करनेपर भी उनके नेत्र तृप्त न होते थे। वे एकटक बहुत देरतक उन्हें देखते ही रहे ।।५।। उन लोगोंने स्वर्गके उद्यान नन्दन-वन, चैत्ररथ आदिके दिव्य पुष्पोंसे जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको ढक दिया और चित्र-विचित्र पदों तथा अर्थोंसे युक्त वाणीके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे ।।६।।
देवताओंने प्रार्थना की—स्वामी! कर्मोंके विकट फंदोंसे छूटनेकी इच्छावाले मुमुक्षुजन भक्ति-भावसे अपने हृदयमें जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमलको हमलोगोंने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणीसे साक्षात् नमस्कार किया है। अहो! आश्चर्य है!* ।।७।। अजित! आप मायिक रज आदि गुणोंमें स्थित होकर इस अचिन्त्य नाम-रूपात्मक प्रपंचकी त्रिगुणमयी मायाके द्वारा अपने-आपमें ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे आप लिप्त नहीं होते हैं; क्योंकि आप राग-द्वेषादि दोषोंसे सर्वथा मुक्त हैं और अपने निरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्दमें मग्न रहते हैं ।।८।। स्तुति करनेयोग्य परमात्मन्! जिन मनुष्योंकी चित्तवृत्ति राग-द्वेषादिसे कलुषित हैं, वे उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्म भले ही करें; परंतु उनकी वैसी शुद्धि नहीं हो सकती, जैसी श्रवणके द्वारा सम्पुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषोंकी आपकी लीलाकथा, कीर्तिके विषयमें दिनोंदिन बढ़कर परिपूर्ण होनेवाली श्रद्धासे होती है ।।९।।
अनन्त! वामनावतारमें दैत्यराज बलिकी दी हुई पृथ्वीको नापनेके लिये जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोकमें पहुँच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजयध्वज हो। ब्रह्माजीके पखारनेके बाद उससे गिरती हुई गंगाजीके जलकी तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा रही हों। उसे देखकर असुरोंकी सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना निर्भय। आपका वह चरणकमल साधुस्वभाव पुरुषोंके लिये आपके धाम वैकुण्ठलोककी प्राप्तिका और दुष्टोंके लिये अधो-गतिका कारण है। भगवन्! आपका वही पादपद्म हम भजन करनेवालोंके सारे पाप-ताप धो-बहा दे ।।१३।।
आपने त्रिलोकीकी पाप-राशिको धो बहानेके लिये दो प्रकारकी पवित्र नदियाँ बहा रखी हैं—एक तो आपकी अमृतमयी लीलासे भरी कथानदी और दूसरी आपके पाद-प्रक्षालनके जलसे भरी गंगाजी। अतः सत्संगसेवी विवेकीजन कानोंके द्वारा आपकी कथा-नदीमें और शरीरके द्वारा गंगाजीमें गोता लगाकर दोनों ही तीर्थोंका सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं ।।१९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समस्त देवताओं और भगवान् शंकरके साथ ब्रह्माजीने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की। इसके बाद वे प्रणाम करके अपने धाममें जानेके लिये आकाशमें स्थित होकर भगवान्से इस प्रकार कहने लगे ।।२०।।
ब्रह्माजीने कहा—सर्वात्मन् प्रभो! पहले हमलोगोंने आपसे अवतार लेकर पृथ्वीका भार उतारनेके लिये प्रार्थना की थी। सो वह काम आपने हमारी प्रार्थनाके अनुसार ही यथोचितरूपसे पूरा कर दिया ।।२१।। आपने सत्यपरायण साधुपुरुषोंके कल्याणार्थ धर्मकी स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओंमें ऐसी कीर्ति फैला दी, जिसे सुन-सुनाकर सब लोग अपने मनका मैल मिटा देते हैं ।।२२।। आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंशमें अवतार लिया और जगत्के हितके लिये उदारता और पराक्रमसे भरी अनेकों लीलाएँ कीं ।।२३।। प्रभो! कलियुगमें जो साधुस्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओंका श्रवण-कीर्तन करेंगे वे सुगमतासे ही इस अज्ञानरूप अन्धकारसे पार हो जायँगे ।।२४।। पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो! आपको यदुवंशमें अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस वर्ष बीत गये हैं ।।२५।। सर्वाधार! अब हमलोगोंका ऐसा कोई काम बाकी नहीं है, जिसे पूर्ण करनेके लिये आपके यहाँ रहनेकी आवश्यकता हो। ब्राह्मणोंके शापके कारण आपका यह कुल भी एक प्रकारसे नष्ट हो ही चुका है ।।२६।। इसलिये वैकुण्ठनाथ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाममें पधारिये और अपने सेवक हम लोकपालोंका तथा हमारे लोकोंका पालन-पोषण कीजिये ।।२७।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—ब्रह्माजी! आप जैसा कहते हैं, मैं पहलेसे ही वैसा निश्चय कर चुका हूँ। मैंने आपलोगोंका सब काम पूरा करके पृथ्वीका भार उतार दिया ।।२८।। परन्तु अभी एक काम बाकी है; वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम, वीरता-शूरता और धन-सम्पत्तिसे उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेपर तुले हुए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्रको उसके तटकी भूमि ।।२९।। यदि मैं घमंडी और उच्छृंखल यदुवंशियोंका यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगा तो ये सब मर्यादाका उल्लंघन करके सारे लोकोंका संहार कर डालेंगे ।।३०।। निष्पाप ब्रह्माजी! अब ब्राह्मणोंके शापसे इस वंशका नाश प्रारम्भ हो चुका है। इसका अन्त हो जानेपर मैं आपके धाममें होकर जाऊँगा ।।३१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अखिललोकाधिपति भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा, तब ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम किया और देवताओंके साथ वे अपने धामको चले गये ।।३२।। उनके जाते ही द्वारकापुरीमें बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर यदुवंशके बड़े-बूढ़े भगवान् श्रीकृष्णके पास आये। भगवान् श्रीकृष्णने उनसे यह बात कही ।।३३।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—गुरुजनो! आजकल द्वारकामें जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। आपलोग जानते ही हैं कि ब्राह्मणोंने हमारे वंशको ऐसा शाप दे दिया है, जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि यदि हमलोग अपने प्राणोंकी रक्षा चाहते हों तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है। हमलोग आज ही परम पवित्र प्रभासक्षेत्रके लिये निकल पड़ें ।।३४-३५।। प्रभासक्षेत्रकी महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापतिके शापसे चन्द्रमाको राजयक्ष्मा रोगने ग्रस लिया था, उस समय उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोगसे छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओंकी अभिवृद्धि भी प्राप्त हो गयी ।।३६।। हमलोग भी प्रभासक्षेत्रमें चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरोंका तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुणवाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन करायेंगे। वहाँ हमलोग उन सत्पात्र ब्राह्मणोंको पूरी श्रद्धासे बड़ी-बड़ी दान-दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े संकटोंको वैसे ही पार कर जायँगे, जैसे कोई जहाजके द्वारा समुद्र पार कर जाय! ।।३७-३८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुलनन्दन! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियोंने एक मतसे प्रभास जानेका निश्चय कर लिया और सब अपने-अपने रथ सजाने-जोतने लगे ।।३९।। परीक्षित्! उद्धवजी भगवान् श्रीकृष्णके बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियोंको यात्राकी तैयारी करते देखा, भगवान्की आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे तब वे जगत्के एकमात्र अधिपति भगवान् श्रीकृष्णके पास एकान्तमें गये, उनके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे ।।४०-४१।।
उद्धवजीने कहा—योगेश्वर! आप देवाधिदेवोंके भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओंके श्रवण-कीर्तनसे जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। आप चाहते तो ब्राह्मणोंके शापको मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंशका संहार करके, इसे समेटकर अवश्य ही इस लोकका परित्याग कर देंगे ।।४२।। परन्तु घुँघराली अलकोंवाले श्यामसुन्दर! मैं आधे क्षणके लिये भी आपके चरणकमलोंके त्यागकी बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी! आप मुझे भी अपने धाममें ले चलिये ।।४३।। प्यारे कृष्ण! आपकी एक-एक लीला मनुष्योंके लिये परम मंगलमयी और कानोंके लिये अमृतस्वरूप है। जिसे एक बार उस रसका चसका लग जाता है, उसके मनमें फिर किसी दूसरी वस्तुके लिये लालसा ही नहीं रह जाती। प्रभो! हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँतक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या, आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थितिमें हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं? ।।४४-४५।। हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाये हुए चन्दन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किये हुए गहनोंसे अपने-आपको सजाते रहे। हम आपकी जूठन खानेवाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी मायापर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अतः प्रभो! हमें आपकी मायाका डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोगका) ।।४६।। हम जानते हैं कि मायाको पार कर लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका पालन करके अध्यात्मविद्याके लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकारकी कठिन साधनासे उन संन्यासियोंके हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियोंकी शान्तिरूप नैष्कर्म्य-अवस्थामें स्थित होकर आपके ब्रह्मनामक धामको प्राप्त होते हैं ।।४७।। महायोगेश्वर! हमलोग तो कर्म-मार्गमें ही भ्रम-भटक रहे हैं! परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनोंके साथ आपके गुणों और लीलाओंकी चर्चा करेंगे तथा मनुष्यकी-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और हास-परिहासकी स्मृतिमें तल्लीन हो जायँगे। केवल इसीसे हम दुस्तर मायाको पार कर लेंगे। (इसलिये हमें मायासे पार जानेकी नहीं, आपके विरहकी चिन्ता है। आप हमें छोड़िये नहीं, साथ ले चलिये) ।।४८-४९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! हाथोंसे, चरणोंसे, घुटनोंसे, वक्षःस्थलसे, सिरसे, नेत्रोंसे, मनसेतब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवक उद्धवजीसे कहा ।।५०।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ।।६।।
* यहाँ साष्टांग प्रणामसे तात्पर्य है— दोर्भ्यां पादाभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा । मनसा वचसा चेति प्रणामोऽष्टांग ईरितः ।। हाथोंसे, चरणोंसे, घुटनोंसे, वक्षःस्थलसे, सिरसे, नेत्रोंसे, मनसे और वाणीसे—इन आठ अंगोंसे किया गया प्रणाम साष्टांग प्रणाम कहलाता है।
प्रभु, आज दिन भर ऑफिस में काम निकल गया। अजजेब स खलिपन भावहीन्ता है। यंत्रचारी की तरह बार काम करता रहा, कुछ अच्छा नहीं रग रहा। अभी तक कुछ हल नहीं। कुछ समझ नहीं आ रहा मेरी सखी के मन और जीवन में क्या चल रहा है। क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा। प्रभु, सब को अपनी शरण में रखो
April 11, 2025
भजु दीन बंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम्। रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम्।।
माता, आज भी स्वप्न में मीनू मेरी बात सुने बिना ही ना करती रही। हर कोई मुझे ही गलत कहता रहा। फिर से ये मन यंत्रचरित्त की तरह, ऑफिस की समस्याएं हल करने में ही डूबा जा रहा है। कल दिन भर, रात ढाई बजे तक काम में ही लगा रहा। फिर से अग्यन की पेहलियो में उलझता जा रहा हूँ। जीवन गुठियो का पहाड़ बन गया है। मेरी सखी और अंकलजी, आंटीजी ने ही मेरे जीवन को असत्यो से भर दिया। पता नहीं मेरी सखी के मन में क्या चल रहा है? माता क्या कभी मेरे बारे में कुछ कहा?
भोले बाबा, तुम्हारी लाडली प्रतिदिन तुम्हें जल चढ़ाने आती थी। आज भी अगर कोई मंदिर में नहीं तो घर में अंकलजी, आंटीजी के साथ पूजा करती होंगी। क्या कभी मेरे नंगे बदन ने कुछ कहा, क्या मुझ पर कभी गुस्सा किया? तुमसे क्या काम है मुझे कुछ श्राप देने को कहा? मैं तो बात करने को बचपन से तड़प रहा हूं। जो तोडा सी बात की भी तो वो विरोधभासो से भरी थी।
प्रभु, तुम्हारा मोह भी नहीं जाता। मेरी सखी ने मुझे बहुत विरह में जलाया और तुमने भी अग्नि में घी डाला और वायु से उसे फैलाते रहे। तुम्हें भी बड़ा आनंद आ रहा था मुझे चिढ़ाने। इतने दिनों से तुम्हारे द्वारिकाधीश मंदिर का लाइव यूट्यूब पर देख रहा हूं। पहले तो ढाडी वाले पुजारी, ढाडी के निमंत्रण दिखा कर मुझे चिढ़ा रहे थे, आज कल नहीं दिख रहे। ऐसे ऐसे सपने और परिस्थित बना देते हो कि तुम आस लगने से डर लगता है।
राम सियाराम सियारम सियाराम जय जय राम
मेरे राम, तेरा नाम एक साँचा दूजा ना कोई
April 11, 2025
अथ सप्तमोऽध्यायः अवधूतोपाख्यान—पृथ्वीसे लेकर कबूतरतक आठ गुरुओंकी कथा
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—महाभाग्यवान् उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकोंमें होकर अपने धामको चला जाऊँ ।।१।। पृथ्वीपर देवताओंका जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी कामके लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे मैं बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुआ था ।।२।। अब यह यदुवंश, जो ब्राह्मणोंके शापसे भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्धसे नष्ट हो जायगा। आजके सातवें दिन समुद्र इस पुरी—द्वारकाको डुबो देगा ।।३।। प्यारे उद्धव! जिस क्षण मैं मर्त्यलोकका परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मंगल नष्ट हो जायँगे और थोड़े ही दिनोंमें पृथ्वीपर कलियुगका बोलबाला हो जायगा ।।४।। जब मैं इस पृथ्वीका त्याग कर दूँ तब तुम इसपर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव! कलियुगमें अधिकांश लोगोंकी रुचि अधर्ममें ही होगी ।।५।। अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवोंका स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्यप्रेमसे मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टिसे पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरण करो ।।६।। इस जगत्में जो कुछ मनसे सोचा जाता है, वाणीसे कहा जाता है, नेत्रोंसे देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियोंसे अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सपनेकी तरह मनका विलास है। इसलिये मायामात्र है, मिथ्या है—ऐसा समझ लो ।।७।। जिस पुरुषका मन अशान्त है, असंयत है, उसीको पागलकी तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तवमें यह चित्तका भ्रम ही है। नानात्वका भ्रम हो जानेपर ही ‘यह गुण है’ और ‘यह दोष’ इस प्रकारकी कल्पना करनी पड़ती है। जिसकी बुद्धिमें गुण और दोषका भेद बैठ गया है, दृढ़मूल हो गया है, उसीके लिये कर्म*, अकर्म† और विकर्मरूप‡ भेदका प्रतिपादन हुआ है ।।८।। इसलिये उद्धव! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथमें ले लो और केवल इन्द्रियोंको ही नहीं, चित्तकी समस्त वृत्तियोंको भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत् अपने आत्मामें ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्मसे एक है, अभिन्न है ।।९।। जब वेदोंके मुख्य तात्पर्य—निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञानसे भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्माके अनुभवमें ही आनन्दमग्न रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियोंके आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी भी विघ्नसे तुम पीडित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न करनेवालोंकी आत्मा भी तुम्हीं होगे ।।१०।। जो पुरुष गुण और दोष-बुद्धिसे अतीत हो जाता है वह बालकके समान निषिद्ध कर्मसे निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धिसे नहीं। वह विहित कर्मका अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धिसे नहीं ।।११।। जिसने श्रुतियोंके तात्पर्यका यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चयसे सम्पन्न हो गया है वह समस्त प्राणियोंका हितैषी सुहृद् होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्वको मेरा ही स्वरूप—आत्मस्वरूप देखता है; इसलिये उसे फिर कभी जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ना पड़ता ।।१२।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान्के परम प्रेमी उद्धवजीने उन्हें प्रणाम करके तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिकी इच्छासे यह प्रश्न किया ।।१३।।
उद्धवजीने कहा—भगवन्! आप ही समस्त योगियोंकी गुप्त पूँजी योगोंके कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगोंके आधार, उनके कारण और योगस्वरूप भी हैं। आपने मेरे परम-कल्याणके लिये उस संन्यासरूप त्यागका उपदेश किया है ।।१४।। परन्तु अनन्त! जो लोग विषयोंके चिन्तन और सेवनमें घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओंका त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्वस्वरूप! उनमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं, उनके लिये तो इस प्रकारका त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा निश्चय है ।।१५।। प्रभो! मैं भी ऐसा ही हूँ; मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस भावसे मैं आपकी मायाके खेल, देह और देहके सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदिमें डूब रहा हूँ। अतः भगवन्! आपने जिस संन्यासका उपदेश किया है, उसका तत्त्व मुझ सेवकको इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ ।।१६।। मेरे प्रभो! आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालोंसे अबाधित, एकरस सत्य हैं। आप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश आत्मस्वरूप हैं। प्रभो! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्त्वका उपदेश करनेवाला आपके अतिरिक्त देवताओंमें भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने बड़े-बड़े देवता हैं, वे सब शरीराभिमानी होनेके कारण आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि मायाके वशमें हो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियोंसे अनुभव किये जानेवाले बाह्य विषयोंको सत्य मानते हैं। इसीलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये ।।१७।। भगवन्! इसीसे चारों ओरसे दुःखोंकी दावाग्निसे जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप निर्दोष देश-कालसे अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठलोकके निवासी एवं नरके नित्य सखा नारायण हैं। (अतः आप ही मुझे उपदेश कीजिये) ।।१८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धव! संसारमें जो मनुष्य ‘यह जगत् क्या है? इसमें क्या हो रहा है?’ इत्यादि बातोंका विचार करनेमें निपुण हैं, वे चित्तमें भरी हुई अशुभ वासनाओंसे अपने-आपको स्वयं अपनी विवेक-शक्तिसे ही प्रायः बचा लेते हैं ।।१९।। समस्त प्राणियोंका विशेषकर मनुष्यका आत्मा अपने हित और अहितका उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमानके द्वारा अपने हित-अहितका निर्णय करनेमें पूर्णतः समर्थ है ।।२०।। सांख्य-योगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनिमें इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति आदिके आश्रयभूत मुझ आत्मतत्त्वको पूर्णतः प्रकटरूपसे साक्षात्कार कर लेते हैं ।।२१।।
मैंने एक पैरवाले, दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चारसे अधिक पैरवाले और बिना पैरके—इत्यादि अनेक प्रकारके शरीरोंका निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्यका ही शरीर है ।।२२।। इस मनुष्य-शरीरमें एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जानेवाले हेतुओंसे जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमानसे अग्राह्य अर्थात् अहंकार आदि विषयोंसे भिन्न मुझ सर्वप्रवर्त्तक ईश्वरको साक्षात् अनुभव करते हैं* ।।२३।। इस विषयमें महात्मा-लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदुके संवादके रूपमें है ।।२४।। एक बार धर्मके मर्मज्ञ राजा यदुने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया ।।२५।।
राजा यदुने पूछा—ब्रह्मन्! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होनेपर भी बालकके समान संसारमें विचरते रहते हैं ।।२६।। ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदिकी अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व-जिज्ञासामें प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसीकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती ।।२७।। मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करनेमें समर्थ, विद्वान् और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणीसे तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड, उन्मत्त अथवा पिशाचके समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ।।२८।। संसारके अधिकांश लोग काम और लोभके दावानलसे जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आपतक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वनमें दावाग्नि लगनेपर उससे छूटकर गंगाजलमें खड़ा हो ।।२९।। ब्रह्मन्! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसारके स्पर्शसे भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मामें ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्दका अनुभव कैसे होता है? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये ।।३०।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदुकी बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदयमें ब्राह्मण-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजीका अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभावसे सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजीने कहा ।।३१।।
ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजीने कहा—राजन्! मैंने अपनी बुद्धिसे बहुत-से गुरुओंका आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत्में मुक्तभावसे स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन गुरुओंके नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ।।३२।।
मेरे गुरुओंके नाम हैं—पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट ।।३३-३४।। राजन्! मैंने इन चौबीस गुरुओंका आश्रय लिया है और इन्हींके आचरणसे इस लोकमें अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है ।।३५।। वीरवर ययातिनन्दन! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ, सुनो ।।३६।। मैंने पृथ्वीसे उसके धैर्यकी, क्षमाकी शिक्षा ली है। लोग पृथ्वीपर कितना आघात और क्या-क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसीसे बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसारके सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धके अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समयपर भिन्न-भिन्न प्रकारसे जान या अनजानमें आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुषको चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्गपर ज्यों-का-त्यों चलता रहे ।।३७।।
पृथ्वीके ही विकार पर्वत और वृक्षसे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरोंके हितके लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरोंका हित करनेके लिये ही हुआ है, साधु पुरुषको चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकारकी शिक्षा ग्रहण करे ।।३८।। मैंने शरीरके भीतर रहनेवाले वायु—प्राणवायुसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्रकी इच्छा रखता है और उसकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधकको भी चाहिये कि जितनेसे जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेपमें उतने ही विषयोंका उपयोग करना चाहिये जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थकी बातोंमें न लग जाय ।।३९।। शरीरके बाहर रहनेवाले वायुसे मैंने यह सीखा है कि जैसे वायुको अनेक स्थानोंमें जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसीका भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होनेपर विभिन्न प्रकारके धर्म और स्वभाववाले विषयोंमें जाय, परन्तु अपने लक्ष्यपर स्थिर रहे। किसीके गुण या दोषकी ओर झुक न जाय, किसीसे आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ।।४०।। गन्ध वायुका गुण नहीं, पृथ्वीका गुण है। परन्तु वायुको गन्धका वहन करना पड़ता है। ऐसा करनेपर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्धसे उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधकका जबतक इस पार्थिव शरीरसे सम्बन्ध है, तबतक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदिका भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपनेको शरीर नहीं, आत्माके रूपमें देखनेवाला साधक शरीर और उसके गुणोंका आश्रय होनेपर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है ।।४१।। राजन्! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मारूपसे सर्वत्र स्थित होनेके कारण ब्रह्म सभीमें है। साधकको चाहिये कि सूतके मनियोंमें व्याप्त सूतके समान आत्माको अखण्ड और असंगरूपसे देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाशसे ही की जा सकती है। इसलिये साधकको आत्माकी आकाशरूपताकी भावना करनी चाहिये ।।४२।। आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायुकी प्रेरणासे बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होनेपर भी आकाश अछूता रहता है। आकाशकी दृष्टिसे यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्यके चक्करमें न जाने किन-किन नामरूपोंकी सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्माके साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ।।४३।।
जिस प्रकार जल स्वभावसे ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करनेवाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थोंके दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारणसे भी लोग पवित्र हो जाते हैं—वैसे ही साधकको भी स्वभावसे ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चाहिये। जलसे शिक्षा ग्रहण करनेवाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारणसे लोगोंको पवित्र कर देता है ।।४४।।
राजन्! मैंने अग्निसे यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेजसे दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रहके लिये कोई पात्र नहीं—सब कुछ अपने पेटमें रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेनेपर भी विभिन्न वस्तुओंके दोषोंसे वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्यासे देदीप्यमान, इन्द्रियोंसे अपराभूत, भोजनमात्रका संग्रही और यथायोग्य सभी विषयोंका उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखे, किसीका दोष अपनेमें न आने दे ।।४५।।
जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदिमें) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। वह कहीं-कहीं ऐसे रूपमें भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्निके समान ही भिक्षारूप हवन करनेवालोंके अतीत और भावी अशुभको भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है ।।४६।। साधक पुरुषको इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियोंमें रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखायी पड़ती है—वास्तवमें वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी मायासे रचे हुए कार्य-कारणरूप जगत्में व्याप्त होनेके कारण उन-उन वस्तुओंके नाम-रूपसे कोई सम्बन्ध न होनेपर भी उनके रूपमें प्रतीत होने लगता है ।।४७।। मैंने चन्द्रमासे यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस कालके प्रभावसे चन्द्रमाकी कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्मसे लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीरकी हैं, आत्मासे उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है ।।४८।। जैसे आगकी लपट अथवा दीपककी लौ क्षण-क्षणमें उत्पन्न और नष्ट होती रहती है—उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता—वैसे ही जलप्रवाहके समान वेगवान् कालके द्वारा क्षण-क्षणमें प्राणियोंके शरीरकी उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता ।।४९।। राजन्! मैंने सूर्यसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणोंसे पृथ्वीका जल खींचते और समयपर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियोंके द्वारा समयपर विषयोंका ग्रहण करता है और समय आनेपर उनका त्याग—उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रियके किसी भी विषयमें आसक्ति नहीं होती ।।५०।।
स्थूलबुद्धि पुरुषोंको जलके विभिन्न पात्रोंमें प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्हींमें प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियोंके भेदसे ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्तिमें आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्यके समान एक ही है। स्वरूपतः उसमें कोई भेद नहीं है ।।५१।।
यह मनुष्य-शरीर मुक्तिका खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतरकी तरह अपनी घर-गृहस्थीमें ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचेतक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्रकी भाषामें वह ‘आरूढ़च्युत’ है ।।७४।।
हे प्रभु, और कितना और तोड़ोगे। भागवत भी स्वार्थ, आनंद, शांति, अपने ही कल्याण की बात करता है। ये सब किस कम के। प्रभु, मेरी सखी और हमारे माता-पिता का कल्याण कर रहे हो ना?
हे रणछोड़, हेम अपने माया के चक्रवियु मी छोड़ कर मत भाग जनना!
जिह्वे रसज्ञे मधुरप्रिया त्वं, सत्यं हितं त्वां परमं वदामि। आवर्णये त्वं मधुराक्षराणि, गोविन्द दामोदर माधवेति॥
April 12, 2025
नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं॥
निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं॥
प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं॥
दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृन्द भंजनं॥
मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं॥
नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं । शची पति प्रियानुजं॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सराः॥
पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले॥
विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं॥
तमेकमद्भुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं॥
भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं॥
अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे॥
पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं॥
व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुताः॥
प्रभु, माँ क्यों बार-बार मेरी शादी की बात करती है। कल कह रही थी कि कोई प्यारी सी बहु ले आओ। मेरे लिए तो मेरी सखी ही प्यारी है. ख़ुशियों से भी प्यारी, कैसे भूल सकती हूँ। पता नहीं सबको क्यों लगता है शादी से कुछ बदल जाएगा। शादी में ऐसा क्या जो मेरी भावनाओं को बदल दे। तुमने भी गोपियों से शादी नहीं की, फिर भी विरह में उनका चित्त तुम पर और डूबता रहा और भावनाएं गहरी होती गईं। इतनी की तुम्हारी पत्नी से पहले तुममें कैवल्य हो गया। प्रभु, अपनी लड़ली को सदा हृदय से लगाये रखना
प्रभु, क्या करो तुमने जो परिवार दिया, सबने इतना मुझे बुरा भला कहा, फिर भी मम्मी पापा, अंकलजी आंटीजी का स्नेह नहीं जाता। अभी भी मम्मी पापा से बच्चे चिपकते रहते हैं, और मीनू जैसे अंकलजी से चिपकी रहती थी मेरा भी मन काटा है। स्वार्थ भी किसी काम का नहीं. सबको सारा लेकर तुम तक पहुंचूंगा, अकेले कैसे आजाउ?
अथाष्टमोऽध्यायः अवधूतोपाख्यान—अजगरसे लेकर पिंगलातक नौ गुरुओंकी कथा
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन्! बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जायष्टा करनेपर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्गमें या नरकमें—कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिये सुख और दुःखका रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकारका प्रयत्न न करे ।।१।। बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय
समुद्रसे मैंने यह सीखा है कि साधकको सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्तसे उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरंगोंसे रहित शान्त समुद्र ।।५।। देखो, समुद्र वर्षाऋतुमें नदियोंकी बाढ़के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतुमें घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधकको भी सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिसे प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटनेसे उदास ही होना चाहिये ।।६।।
राजन्! मैंने पतिंगेसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूपपर मोहित होकर आगमें कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला पुरुष जब स्त्रीको देखता है तो उसके हाव-भावपर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकारमें, नरकमें गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओंकी वह माया है, जिससे जीव भगवान् या मोक्षकी प्राप्तिसे वञ्चित रह जाता है ।।७।। जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थोंमें फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोगके लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेकबुद्धि खोकर पतिंगेके समान नष्ट हो जाता है ।।८।। राजन्! संन्यासीको चाहिये कि गृहस्थोंको किसी प्रकारका कष्ट न देकर भौंरेकी तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीरके लिये उपयोगी रोटीके कुछ टुकड़े कई घरोंसे माँग ले* ।।९।। जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे—चाहे वे छोटे हों या बड़े—उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रोंसे उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ।।१०।।
राजन्! मैंने हाथीसे यह सीखा कि संन्यासीको कभी पैरसे भी काठकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनीके अंग-संगसे हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह भी बँध जायगा* ।।१३।। मैंने मधु निकालनेवाले पुरुषसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसारके लोभी पुरुष बड़ी कठिनाईसे धनका संचय तो करते रहते हैं, किन्तु वह संचित धन न किसीको दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालनेवाला मधुमक्खियोंद्वारा संचित रसको निकाल ले जाता है वैसे ही उनके संचित धनको भी उसकी टोह रखनेवाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ।।१५।।
अब मैं तुम्हें मछलीकी सीख सुनाता हूँ। जैसे मछली काँटेमें लगे हुए मांसके टुकड़ेके लोभसे अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वादका लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मनको मथकर व्याकुल कर देनेवाली अपनी जिह्वाके वशमें हो जाता है और मारा जाता है ।।१९।। विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियोंपर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वशमें नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देनेसे और भी प्रबल हो जाती है ।।२०।। मनुष्य और सब इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेनेपर भी तबतक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जबतक रसनेन्द्रियको अपने वशमें नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रियको वशमें कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं ।।२१।। नृपनन्दन! प्राचीन कालकी बात है, विदेहनगरी मिथिलामें एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिंगला। मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ; सावधान होकर सुनो ।।२२।। वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रिके समय किसी पुरुषको अपने रमणस्थानमें लानेके लिये खूब बन-ठनकर—उत्तम वस्त्राभूषणोंसे सजकर बहुत देरतक अपने घरके बाहरी दरवाजेपर खड़ी रही ।।२३।। नररत्न! उसे पुरुषकी नहीं, धनकी कामना थी और उसके मनमें यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुषको उधरसे आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करनेके लिये ही आ रहा है ।।२४।।
राजन्! सचमुच आशा और सो भी धनकी—बहुत बुरी है। धनीकी बाट जोहते-जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्तिसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दुःख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्यका कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुखका ही हेतु ।।२७।। जब पिंगलाके चित्तमें इस प्रकार वैराग्यकी भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन्! मनुष्य आशाकी फाँसीपर लटक रहा है। इसको तलवारकी तरह काटनेवाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ।।२८।। प्रिय राजन्! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ोंसे ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धनसे उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़नेकी इच्छा भी नहीं करता ।।२९।।
पिंगलाने यह गीत गाया था—हाय! हाय! मैं इन्द्रियोंके अधीन हो गयी। भला! मेरे मोहका विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषोंसे, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषयसुखकी लालसा करती हूँ। कितने दुःखकी बात है! मैं सचमुच मूर्ख हूँ ।।३०।। देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदयमें ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान् विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थका सच्चा धन भी देनेवाले हैं।
यह जीव संसारके कूएँमें गिरा हुआ है। विषयोंने इसे अंधा बना दिया है, कालरूपी अजगरने इसे अपने मुँहमें दबा रखा है। अब भगवान्को छोड़कर इसकी रक्षा करनेमें दूसरा कौन समर्थ है ।।४१।। जिस समय जीव समस्त विषयोंसे विरक्त हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है। इसलिये बड़ी सावधानीके साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत् कालरूपी अजगरसे ग्रस्त है ।।४२।।
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन्! पिंगला वेश्याने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियोंकी दुराशा, उनसे मिलनेकी लालसाका परित्याग कर दिया और शान्तभावसे जाकर वह अपनी सेजपर सो रही ।।४३।।
अथ नवमोऽध्यायः अवधूतोपाख्यान—कुररसे लेकर भृंगीतक सात गुरुओंकी कथा
अवधूत दत्तात्रेयजीने कहा—राजन्! मनुष्योंको जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुःखका कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिंचनभावसे रहता है—शरीरकी तो बात ही अलग, मनसे भी किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता—उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है ।।१।। एक कुररपक्षी अपनी चोंचमें मांसका टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीननेके लिये उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुररपक्षीने अपनी चोंचसे मांसका टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ।।२।। मुझे मान या अपमानका कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालोंको जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मामें ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालकसे ली है। अतः उसीके समान मैं भी मौजसे रहता हूँ ।।३।। इस जगत्में दो ही प्रकारके व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्दमें मग्न रहते हैं—एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ।।४।।
राजन्! मैंने बाण बनानेवालेसे यह सीखा है कि आसन और श्वासको जीतकर वैराग्य और अभ्यासके द्वारा अपने मनको वशमें कर ले और फिर बड़ी सावधानीके साथ उसे एक लक्ष्यमें लगा दे ।।११।। जब परमानन्दस्वरूप परमात्मामें मन स्थिर हो जाता है तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओंती धूलको धो बहाता है। सत्त्वगुणकी वृद्धिसे रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोंका त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधनके बिना अग्नि ।।१२।। इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मामें ही स्थिर—निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थका भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनानेमें इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबलके साथ राजाकी सवारी निकल गयी और उसे पतातक न चला ।।१३।।
राजन्! मैंने साँपसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासीको सर्पकी भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थानमें न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदिमें पड़ा रहे, बाहरी आचारोंसे पहचाना न जाय।
अब मकड़ीसे ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान्ने पूर्वकल्पमें बिना किसी अन्य सहायकके अपनी ही मायासे रचे हुए जगत्को कल्पके अन्तमें (प्रलयकाल उपस्थित होनेपर) कालशक्तिके द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपनेमें लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदसे शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधारसे रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनोंके नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत्के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति कालके प्रभावसे सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियोंको साम्यावस्थामें पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूपसे एक और अद्वितीयरूपसे विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकारकी उपाधिका उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति कालके द्वारा अपनी त्रिगुणमयी मायाको क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणोंकी पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकारकी सृष्टिका मूल कारण है। उसीमें यह सारा विश्व, सूतमें ताने-बानेकी तरह ओतप्रोत है और इसीके कारण जीवको जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़ना पड़ता है ।।१६-२०।। जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुँहके द्वारा जाला फैलाती है, उसीमें विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत्को अपनेमेंसे उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूपसे विहार करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं ।।२१।।
राजन्! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओंसे ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीरसे जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ।।२४।। यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्यकी शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीरको पकड़ रखनेका फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीरसे तत्त्वविचार करनेमें सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिये मैं इससे असंग होकर विचरता हूँ ।।२५।।
वैसे तो भगवान्ने अपनी अचिन्त्य शक्ति मायासे वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकारकी योनियाँ रचीं; परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्यशरीरकी सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धिसे युक्त है जो ब्रह्मका साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ।।२८।। यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही—मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थकी प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मोंके बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्युके पहले ही मोक्ष-प्राप्तिका प्रयत्न कर ले। इस जीवनका मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियोंमें प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ।।२९।।
राजन्! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत्से वैराग्य हो गया। मेरे हृदयमें ज्ञान-विज्ञानकी ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहंकार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीमें विचरण करता हूँ ।।३०।। राजन्! अकेले गुरुसे ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धिसे भी बहुत कुछ सोचने-समझनेकी आवश्यकता है। देखो! ऋषियोंने एक ही अद्वितीय ब्रह्मका अनेकों प्रकारसे गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे तो ब्रह्मके वास्तविक स्वरूपको कैसे जान सकोगे?) ।।३१।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्यारे उद्धव! गम्भीरबुद्धि अवधूत दत्तात्रेयने राजा यदुको इस प्रकार उपदेश किया। यदुने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नतासे इच्छानुसार पधार गये ।।३२।। हमारे पूर्वजोंके भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेयकी यह बात सुनकर समस्त आसक्तियोंसे छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियोंका परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ।।३३।।
अथ दशमोऽध्यायः लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव! साधकको चाहिये कि सब तरहसे मेरी शरणमें रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे पालन करे। साथ ही जहाँतक उनसे aविरोध न हो वहाँतक निष्कामभावसे अपने वर्ण, आश्रम और कुलके अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे ।।१।। निष्काम होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोंका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार करे कि जगत्के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ।।२।। इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न-अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण पूर्ववत् असत्य ही है ।।३।। जो पुरुष मेरी शरणमें है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये ।।४।। अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और नियमोंके पालनसे भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ।।५।। शिष्यको अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे—किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा बनाये रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न करे ।।६।। जिज्ञासुका परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक सम आत्माको देखे और किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ।।७।। उद्धव! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोंका बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहकी अपेक्षा आत्मामें महान् विलक्षणता है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है ।।८।। जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपनेको शरीर मान लेता है तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ।।९।।
ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है ।।१०।। प्यारे उद्धव! इस जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जाननेकी इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये ।।११।। (यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्निकी उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब आत्माके अतिरिक्त और कोर्इ वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है* ।।१२-१३।।
ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ोंका भी कभी दुःखसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ।।१८।।
प्यारे उद्धव! लौकिक सुखके समान पार-लौकिहोनेके साथ ही वहाँके है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालोंसे होड़ चलती है, अधिक सुख भोगने-वालोंके प्रति असूया होती है—उनके गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटोंसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँके सुख भी क्षयके निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार-स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा ।।२५।। जबतक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है ।।२६।।
सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित—केवल दो परार्द्ध है ।।३०।। जबतक गुणोंकी विषमता है अर्थात् शरीरादिमें मैं और मेरेपनका अभिमान है; तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ।।३२।। जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कर्मोंका ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है ।।३३।। प्यारे उद्धव! जब मायाके गुणोंमें क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ) ।।३४।।
उद्धवजीने पूछा—भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलोंमें क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निर्लिप्त है, देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धनकी प्राप्ति कैसे होती है? ।।३५।। बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल-त्याग आदि कैसे करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ।।३६।। अच्युत! प्रश्नका मर्म जाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये—एक ही आत्मा अनादि गुणोंके संसर्गसे नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ।।३७।।
प्रभु, ये सुख दुख की बात कुछ समझ नहीं आती। पता नहीं भगवत इसे मुक्त करना चाहता है कि बार-बार याद। प्रभु तुम्हारा मोह कैसे छूट सकता है?
April 12, 2025
प्रभु, मेरी भावनाओं से खिलवाड करने में तुम बाप बेटी को आनंद मिल रहा है ना! झूठ और अनजान से भरे इस संसार से तो पहले वह मन हट रहा था, तुमने बाप बेटी ने ही बांधा था। अब क्या करना चाहते हो समझ नहीं आ रहा। ऐसे में संसार समझ नहीं आता था अब जीवन का आधार भी झूठ से भर गया है। हर तरफ़ से तो बंद रखा है और कहते हो कर्म करो। मेरे हाथ में क्या है. अगर चाहते हो विरक्त हो तो मम्मी पापा को समझा दो मेरी शादी का विचार भूल जाए। अगर चाहते हो ग्रहस्थ हो जौ तो मेरी सखी समझो।
मुझ में तुझ में बस भेद यही, मैं नर हूँ तुम नारायण हो, मैं हूँ संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में ॥
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में
प्रभु, जितना भी विचार करु तुम्हारा ये जीव तो नालायक ही है। इतना भी लायक ना बनपाया कि तुम्हारी लाडली इसे सत्य बता सके। प्रभु, अपनी लाडली को अपनी शरण में रखना। सबको अपने चरणो की प्रदान करो।
अथ दशमोऽध्यायः लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव! साधकको चाहिये कि सब तरहसे मेरी शरणमें रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे पालन करे। साथ ही जहाँतक उनसे विरोध न हो वहाँतक निष्कामभावसे अपने वर्ण, आश्रम और कुलके अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे ।।१।। निष्काम होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोंका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार करे कि जगत्के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ।।२।। इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न-अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण पूर्ववत् असत्य ही है ।।३।। जो पुरुष मेरी शरणमें है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये ।।४।। अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और नियमोंके पालनसे भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ।।५।। शिष्यको अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे—किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा बनाये रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न करे ।।६।। जिज्ञासुका परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक सम आत्माको देखे और किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ।।७।। उद्धव! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोंका बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहकी अपेक्षा आत्मामें महान् विलक्षणता है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है ।।८।। जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपनेको शरीर मान लेता है तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ।।९।।
ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है ।।१०।। प्यारे उद्धव! इस जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जाननेकी इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये ।।११।। (यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्निकी उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब आत्माके अतिरिक्त और कोर्इ वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है* ।।१२-१३।।
ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ोंका भी कभी दुःखसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ।।१८।। प्यारे उद्धव! लौकिक सुखके समान पार-लौकिहोनेके साथ ही वहाँके है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालोंसे होड़ चलती है, अधिक सुख भोगने-वालोंके प्रति असूया होती है—उनके गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटोंसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँके सुख भी क्षयके निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार-स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा ।।२५।। जबतक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है ।।२६।।
सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित—केवल दो परार्द्ध है ।।३०।। जबतक गुणोंकी विषमता है अर्थात् शरीरादिमें मैं और मेरेपनका अभिमान है; तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा ।।३२।। जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कर्मोंका ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है ।।३३।। प्यारे उद्धव! जब मायाके गुणोंमें क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ) ।।३४।।
उद्धवजीने पूछा—भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलोंमें क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निर्लिप्त है, देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धनकी प्राप्ति कैसे होती है? ।।३५।। बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल-त्याग आदि कैसे करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ।।३६।। अच्युत! प्रश्नका मर्म जाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये—एक ही आत्मा अनादि गुणोंके संसर्गसे नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ।।३७।।
अथैकादशोऽध्यायः बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
उन तत्त्वज्ञ मुक्त पुरुषोंके शरीरको चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोगसे पूजा करने लगे—वे न तो किसीके सतानेसे दुःखी होते हैं और न पूजा करनेसे सुखी ।।१५।। जो समदर्शी महात्मा गुण और दोषकी भेददृष्टिसे ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करनेवालेकी स्तुति करते हैं और न बुरे काम करनेवालेकी निन्दा; न वे किसीकी अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसीको झिड़कते ही हैं ।।१६।। जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहारमें अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्दमें ही मग्न रहते हैं और जडके समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ।।१७।।
प्रिय उद्धव! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचारके द्वारा आत्मामें जो अनेकताका भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मामें अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसारके व्यवहारोंसे उपराम हो जाय ।।२१।। यदि तुम अपना मन परब्रह्ममें स्थिर न कर सको तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो ।।२२।। मेरी कथाएँ समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। श्रद्धाके साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओंका गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये ।।२३।। मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थका सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुषके प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ।।२४।। भक्तिकी प्राप्ति सत्संगसे होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्यका अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतोंके उपदेशोंके अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपदको—वास्तविक स्वरूपको सहजहीमें प्राप्त हो जाता है ।।२५।।
उद्धवजीने पूछा—भगवन्! बड़े-बड़े संत आपकी कीर्तिका गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचारसे संत पुरुषका क्या लक्षण है? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संतलोग आदर करते हैं? ।।२६।। भगवन्! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत्के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्तका रहस्य बतलाइये ।।२७।। भगवन्! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृतिसे परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रह्म हैं। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीलाके लिये स्वेच्छासे ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तवमें आप ही भक्ति और भक्तका रहस्य बतला सकते हैं ।।२८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्यारे उद्धव! मेरा भक्त कृपाकी मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणीसे वैरभाव नहीं रखता और घोर-से-घोर दुःख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवनका सार है सत्य, और उसके मनमें किसी प्रकारकी पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करनेवाला होता है ।।२९।। उसकी बुद्धि कामनाओंसे कलुषित नहीं होती। वह संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रहसे सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तुके लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्त्वके चिन्तनमें सदा संलग्न रहता है ।।३०।। वह प्रमादरहित, गम्भीरस्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु—ये छहों उसके वशमें रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसीसे किसी प्रकारका सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरोंका सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्धकी बातें दूसरोंको समझानेमें बड़ा निपुण होता है और सभीके साथ मित्रताका व्यवहार करता है। उसके हृदयमें करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्वका उसे यथार्थ ज्ञान होता है ।।३१।। प्रिय उद्धव! मैंने वेदों और शास्त्रोंके रूपमें मनुष्योंके धर्मका उपदेश किया है, उनके पालनसे अन्तःकरणशुद्धि आदि गुण और उल्लंघनसे नरकादि दुःख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदिमें विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजनमें लगा रहता है, वह परम संत है ।।३२।। मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ—इन बातोंको जाने, चाहे न जाने; किन्तु जो अनन्यभावसे मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचारसे मेरे परम भक्त हैं ।।३३।।
भद्र! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी—ये सब मेरी पूजाके स्थान हैं ।।४२।। प्यारे उद्धव! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा सूर्यमें मेरी पूजा करनी चाहिये। हवनके द्वारा अग्निमें, आतिथ्यद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणमें और हरी-हरी घास आदिके द्वारा गौमें मेरी पूजा करे ।।४३।। भाई-बन्धुके समान सत्कारके द्वारा वैष्णवमें, निरन्तर ध्यानमें लगे रहनेसे हृदयाकाशमें, मुख्य प्राण समझनेसे वायुमें और जल-पुष्प आदि सामग्रियों-द्वारा जलमें मेरी आराधना की जाती है ।।४४।। गुप्त मन्त्रोंद्वारा न्यास करके मिट्टीकी वेदीमें, उपयुक्त भोगोंद्वारा आत्मामें और समदृष्टिद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंमें मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभीमें क्षेत्रज्ञ आत्माके रूपसे स्थित हूँ ।।४५।। इन सभी स्थानोंमें शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओंवाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान् विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रताके साथ मेरी पूजा करनी चाहिये ।।४६।। इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे यज्ञ-यागादि इष्ट और कुआँ-बावली बनवाना आदि पूर्त्तकर्मोंके द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत-पुरुषोंकी सेवा करनेसे मेरे स्वरूपका ज्ञान भी हो जाता है ।।४७।। प्यारे उद्धव! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्संग और भक्तियोग—इन दो साधनोंका एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्रायः इन दोनोंके अतिरिक्त संसारसागरसे पार होनेका और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ ।।४८।। प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्यकी बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुननेके भी इच्छुक हो ।।४९।।
अथ द्वादशोऽध्यायः सत्संगकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! जगत्में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वशमें कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त्त और दक्षिणासे भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँतक कहूँ—व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्संगके समान मुझे वशमें करनेमें समर्थ नहीं हैं ।।१-२।। निष्पाप उद्धवजी! यह एक युगकी नहीं, सभी युगोंकी एक-सी बात है। सत्संगके द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरोंको मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्योंमें वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृतिके बहुत-से जीवोंने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्संगके प्रभावसे ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ।।३-६।। उन लोगोंने न तो वेदोंका स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषोंकी उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी। बस, केवल सत्संगके प्रभावसे ही वे मुझे प्राप्त हो गये ।।७।। गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रजके हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग—ये तो साधन-साध्यके सम्बन्धमें सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भावके द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये ।।८।। उद्धव! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियोंकी व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनोंके द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्संगके द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ ।।९।। उद्धव! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजीके साथ मुझे व्रजसे मथुरा ले आये, उस समय गोपियोंका हृदय गाढ़ प्रेमके कारण मेरे अनुरागके रंगमें रँगा हुआ था। मेरे वियोगकी तीव्र व्याधिसे वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी ।।१०।। तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावनमें था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ—वे रासकी रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षणके समान बिता दी थीं; परन्तु प्यारे उद्धव! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्पके समान हो गयीं ।।११।। जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधिमें स्थित होकर तथा गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्रमें मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेमके द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति-पुत्रादिकी भी सुध-बुध नहीं रह गयी थी ।।१२।। उद्धव! उन गोपियोंमें बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूपको नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान् न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभावसे मुझसे मिलनेकी आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओंने केवल संगके प्रभावसे ही मुझ परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लिया ।।१३।। इसलिये उद्धव! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुननेयोग्य तथा सुने हुए विषयका भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप मुझ एककी ही शरण सम्पूर्ण रूपसे ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरणमें आ जानेसे तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ।।१४-१५।।
उद्धवजीने कहा—सनकादि योगेश्वरोंके भी परमेश्वर प्रभो! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मनका सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्मका पालन करना चाहिये या सब कुछ छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधामें लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भली-भाँति समझाइये ।।१६।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! जिस परमात्माका परोक्षरूपसे वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति—जीवन-दान करनेवाले हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परा वाणी नामक प्राणके साथ मूलाधारचक्रमें प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरकचक्र (नाभि-स्थान) में आकर पश्यन्ती वाणीका मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेशमें स्थित विशुद्ध नामक चक्रमें आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणीके रूपमें व्यक्त होते हैं। फिर क्रमशः मुखमें आकर ह्रस्व-दीर्घादि मात्रा, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल—वैखरी वाणीका रूप ग्रहण कर लेते हैं ।।१७।। अग्नि आकाशमें ऊष्मा अथवा विद्युत्के रूपसे अव्यक्तरूपमें स्थित है। जब बलपूर्वक काष्ठमन्थन किया जाता है, तब वायुकी सहायतासे वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारीके रूपमें प्रकट होती है और फिर आहुति देनेपर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्मस्वरूपसे क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणीके रूपमें प्रकट होता हूँ ।।१८।। इसी प्रकार बोलना, हाथोंसे काम करना, पैरोंसे चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदासे मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मनसे संकल्प-विकल्प करना, बुद्धिसे समझना, अहंकारके द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्वके रूपमें सबका ताना-बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणके सारे विकार; कहाँतक कहूँ—समस्त कर्ता, करण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं ।।१९।। यह सबको जीवित करनेवाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमलका कारण है। यह आदि-पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेतमें बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगतिसे मायाका आश्रय लेकर शक्ति-विभाजनके द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपोंमें प्रतीत होने लगता है ।।२०।। जैसे तागोंके ताने-बानेमें वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मामें ही ओतप्रोत है। जैसे सूतके बिना वस्त्रका अस्तित्व नहीं है; किन्तु सूत वस्त्रके बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत्के न रहनेपर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है—परमात्माके बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूपसे नित्य है। इसका स्वरूप ही है—कर्मकी परम्परा तथा इस वृक्षके फल-फूल हैं—मोक्ष और भोग ।।२१।।
प्रिय उद्धव! वास्तवमें मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकारका रूप है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बातको गुरुओंके द्वारा समझ लेता है, वही वास्तवमें समस्त वेदोंका रहस्य जानता है ।।२३।। अतः उद्धव! तुम इस प्रकार गुरुदेवकी उपासनारूप अनन्य भक्तिके द्वारा अपने ज्ञानकी कुल्हाड़ीको तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानीसे जीवभावको काट डालो। फिर परमात्मस्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रोंको भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूपमें ही स्थित हो रहो ।।२४।।
अथ त्रयोदशोऽध्यायः हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! सत्त्व, रज और तम—ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्माके नहीं। सत्त्वके द्वारा रज और तम—इन दो गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुणकी शान्तवृत्तिके द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियोंको भी शान्त कर देना चाहिये ।।१।। जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, तभी जीवको मेरे भक्तिरूप स्वधर्मकी प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओंका सेवन करनेसे ही सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्ममें प्रवृत्ति होने लगती है ।।२।। जिस धर्मके पालनसे सत्त्वगुणकी वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुणको नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हींके कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ।।३।।
साधकको चाहिये कि आसन और प्राणवायुपर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समयके अनुसार बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी उत्साहसे उसीमें जुड़ जाय ।।१३।। प्रिय उद्धव! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियोंने योगका यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मनको सब ओरसे खींचकर विराट् आदिमें नहीं, साक्षात् मुझमें ही पूर्णरूपसे लगा दें ।।१४।।
उद्धवजीने कहा—श्रीकृष्ण! आपने जिस समय जिस रूपसे, सनकादि परमर्षियोंको योगका आदेश दिया था, उस रूपको मैं जानना चाहता हूँ ।।१५।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पितासे योगकी सूक्ष्म अन्तिम सीमाके सम्बन्धमें इस प्रकार प्रश्न किया था ।।१६।।
सनकादि परमर्षियोंने पूछा—पिताजी! चित्त गुणों अर्थात् विषयोंमें घुसा ही रहता है और गुण भी चित्तकी एक-एक वृत्तिमें प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपसमें मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थितिमें जो पुरुष इस संसारसागरसे पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनोंको एक-दूसरेसे अलग कैसे कर सकता है? ।।१७।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! यद्यपि ब्रह्माजी सब देवताओंके शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियोंके जन्मदाता हैं। फिर भी सनकादि परमर्षियोंके इस प्रकार पूछनेपर ध्यान करके भी वे इस प्रश्नका मूल कारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी ।।१८।। उद्धव! उस समय ब्रह्माजीने इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये भक्तिभावसे मेरा चिन्तन किया। तब मैं हंसका रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ ।।१९।। मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजीको आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणोंकी वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं?’ ।।२०।। प्रिय उद्धव! सनकादि परमार्थतत्त्वके जिज्ञासु थे; इसलिये उनके पूछनेपर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो— ।।२१।। ‘ब्राह्मणो! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्वसे सर्वथा रहित है, तब आत्माके सम्बन्धमें आपलोगोंका ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है? अथवा मैं यदि उत्तर देनेके लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदिका आश्रय लेकर उत्तर दूँ? ।।२२।। देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पंच-भूतात्मक होनेके कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थ-रूपसे भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थितिमें ‘आप कौन हैं?’ आपलोगोंका यह प्रश्न ही केवल वाणीका व्यवहार है। विचारपूर्वक नहीं है, अतः निरर्थक है ।।२३।। मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आपलोग तत्त्व-विचारके द्वारा समझ लीजिये ।।२४।। पुत्रो! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्तमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीवके देह हैं—उपाधि हैं। अर्थात् आत्माका चित्त और विषयके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।।२५।। इसलिये बार-बार विषयोंका सेवन करते रहनेसे जो चित्त विषयोंमें आसक्त हो गया है और विषय भी चित्तमें प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनोंको अपने वास्तविकसे अभिन्न मुझ परमात्माका साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये ।।२६।। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ सत्त्वादि गुणोंके अनुसार होती हैं और बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्दका स्वभाव नहीं। इन वृत्तियोंका साक्षी होनेके कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूतिसे युक्त है ।।२७।। क्योंकि बुद्धि-वृत्तियोंके द्वारा होनेवाला यह बन्धन ही आत्मामें त्रिगुणमयी वृत्तियोंका दान करता है। इसलिये तीनों अवस्थाओंसे विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्वमें स्थित होकर इस बुद्धिके बन्धनका परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनोंका युगपत् त्याग हो जाता है ।।२८।। यह बन्धन अहंकारकी ही रचना है और यही आत्माके परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और परमानन्दस्वरूपको छिपा देता है। इस बातको जानकर विरक्त हो जाय और अपने तीन अवस्थाओंमें अनुगत तुरीयस्वरूपमें होकर संसारकी चिन्ताको छोड़ दे ।।२९।। जबतक पुरुषकी भिन्न-भिन्न पदार्थोंमें सत्यत्वबुद्धि, अहंबुद्धि और ममबुद्धि युक्तियोंके द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तबतक वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है—जैसे स्वप्नावस्थामें जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ।।३०।। आत्मासे अन्य देह आदि प्रतीयमान नाम-रूपात्मक प्रपंचका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होनेवाले वर्णाश्रमादिभेद, स्वर्गादिफल और उनके कारणभूत कर्म—ये सब-के-सब इस आत्माके लिये वैसे ही मिथ्या हैं; जैसे स्वप्नदर्शी पुरुषके द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ ।।३१।।
प्राण और इन्द्रियोंके साथ यह शरीर भी प्रारब्धके अधीन है। इसलिये अपने आरम्भक (बनानेवाले) कर्म जबतक हैं, तबतक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है। परन्तु आत्मवस्तुका साक्षात्कार करनेवाला तथा समाधिपर्यन्त योगमें आरूढ़ पुरुष स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपंचके सहित उस शरीरको फिर कभी स्वीकार नहीं करता, अपना नहीं मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्थाके शरीर आदिको ।।३७।। सनकादि ऋषियो! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सांख्य और योग दोनोंका गोपनीय रहस्य है। मैं स्वयं भगवान् हूँ, तुमलोगोंको तत्त्वज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ, ऐसा समझो ।।३८।। विप्रवरो! मैं योग, सांख्य, सत्य, ऋत (मधुरभाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह)—इन सबका परम गति—परम अधिष्ठान हूँ ।।३९।। मैं समस्त गुणोंसे रहित हूँ और किसीकी अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असंगता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं; क्योंकि मैं सबका हितैषी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्त्वादि गुणोंके परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं ।।४०।।
April 13, 2025
राम नाम रटते रहो, जब तक घट में प्राण। कभी तो दीन दयाल के भनक पड़ेगी कान॥
राम रमैया गाए जा राम से लगन लगाए जा। राम ही तारे राम उभरे, राम नाम दोहराए जा॥
सुबह यहाँ तो श्याम वहां है, राम बिना आराम कहाँ है। राम रमैया गाये जा, प्रभु से प्रीत लगाए जा॥
भटकाए जब भूल भुलैया, बीच भावर जब अटके नैया। राम रमैया गाये जा, हर उलझन सुलझाए जा॥
राम नाम बिन जागा सोया, अन्धिआरे में जीवन खोया। राम रमैया गाये जा, मन का दीप जलाए जा॥
राम रमैया गाए जा राम से लगन लगाए जा॥
प्रभु, मेरी तो याददाश्त अच्छी नहीं फिर भी इतना कुछ याद है, क्यों ये सब मेरे दिल से लगी है और दिन रात यहीं चलता रहता मीनू ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया। मीनू की याददाश्त तो अच्छी है, अंकलजी जब कुछ याद रखना होता है, मीनू से याद दिलाने को कहते हैं, फिर भी कहती है याद नहीं। मुझे भूलना भी नहीं चाहती और याद भी नहीं रखा, पता नहीं क्या सोच है? पता नहीं खुद भी जानती है कि नहीं?
प्रभु, भगवत में तुम्हारी लीलाओ की जगह पिछले कुछ दिनों से बस बाटे ही चल रही है। तुम्हारी बाल लीला के विवरण में आनंद था पर बाद में मुझे सन्देश मिला, सब बता दिया गया, विस्तार से नहीं। क्या करु प्रभु, भी सांस में भटक रहा है। मेरे जीवन की गुठिया सुलझी नहीं, दिल तड़प रहा है और मन फिजिक्स की गुठिया की ओर दौड़ रहा है। चिंता हो रही है, मीनू के अंतर में भी तो दिल और मन के बीच प्रतिद्वंद तो नहीं?
हे राम, उलझने कब सुलझोगे? पता नहीं मीनू को किस उलझानो में है कि मुझसे सत्य भी नहीं बोल सकी? मैं भी इस लायक ना बन सका कि मेरी सखी, मुझपे भरोसा करके, निसानकोच मुझे सत्य बता सके। प्रभु, मेरी सखी तक मेरी क्षमा प्रार्थना मांगो कि मैं मेरी सखी का साथ देने लायक न बन सका। तुम सदा अपनी लाडली के साथ रहना। वास्तव में तुम ही तो हमारे सब कुछ हो।
अथ चतुर्दशोऽध्यायः भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
उद्धवजीने पूछा—श्रीकृष्ण! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याणके अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एककी प्रधानता है? ।।१।। मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोगको ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओरसे आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ।।२।। भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समयके फेरसे प्रलयके अवसरपर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टिका समय आया, तब मैंने अपने संकल्पसे ही इसे ब्रह्माको उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्मका ही वर्णन है ।।३।।
प्रिय उद्धव! जो सब ओरसे निरपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदिकी आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरणको सब प्रकारसे मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्माके रूपमें स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुखका अनुभव करता है, वह विषय-लोलुप प्राणियोंको किसी प्रकार मिल नहीं सकता ।।१२।। जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित—अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एक-एक कोना आनन्दसे भरा हुआ है ।।१३।। जियने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है। वह योगकी बड़ी बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता ।।१४।।
उद्धवजी! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं—अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षणमें बढ़नेवाली मेरी प्रगल्भ भक्तिके प्रभावसे प्रायः विषयोंसे पराजित नहीं होता ।।१८।। उद्धव! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियोंके बड़े ढेरको भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशिको पूर्णतया जला डालती है ।।१९।। उद्धव! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़नेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ।।२०।। मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र—जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं ।।२१।। इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वञ्चित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त, धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करनेमें असमर्थ है ।।२२।। जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्दके आँसू आँखोंसे छलकने नहीं लगते तथा अन्तरंग और बहिरंग भक्तिकी बाढ़में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तबतक इसके शुद्ध होनेकी कोई सम्भावना नहीं है ।।२३।।
जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ।।२७।। इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथका राज्य।
उद्धवजीने पूछा—कमलनयन श्यामसुन्दर! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भावसे ध्यान करे? ।।३१।। भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही—ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर आरामसे बैठ जाय, हाथोंको अपनी गोदमें रख ले और दृष्टि अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमावे ।।३२।। इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक—इन प्राणायामोंके द्वारा नाड़ियोंका शोधन करे। प्राणायामका अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियोंको जीतनेका भी अभ्यास करना चाहिये ।।३३।। हृदयमें कमलनालगत पतले सूतके समान ॐकारका चिन्तन करे, प्राणके द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानादके समान स्वर स्थिर करे। उस स्वरका ताँता टूटने न पावे ।।३४।। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकार-सहित प्राणायामका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही प्राणवायु वशमें हो जाता है ।।३५।। इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपरकी ओर है और मुँह नीचेकी ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपरकी ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पँखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है ।।३६।। कर्णिकापर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्निका न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्निके अंदर मेरे इस रूपका स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यानके लिये बड़ा ही मंगलमय है ।।३७।।
मेरे अवयवोंकी गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनोंतक लंबी मनोहर चार भुजाएँ हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकत-मणिके समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुखपर मन्द-मन्द मुसकानकी अनोखी ही छटा है। दोनों ओरके कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजीका चिह्न वक्षःस्थलपर दायें-बायें विराजमान है। हाथोंमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गलेमें वनमाला लटक रही है। चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं, गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थानपर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा-प्रसादकी वर्षा कर रही है। उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूपका ध्यान करना चाहिये और अपने मनको एक-एक अंगमें लगाना चाहिये ।।३८-४१।।
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच ले और मनको बुद्धिरूप सारथिकी सहायतासे मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंगमें क्यों न लगे ।।४२।। जब सारे शरीरका ध्यान होने लगे, तब अपने चित्तको खींचकर एक स्थानमें स्थिर करे और अन्य अंगोंका चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकानकी छटासे युक्त मेरे मुखका ही ध्यान करे ।।४३।। जब चित्त मुखारविन्दमें ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर आकाशमें स्थिर करे। तदनन्तर आकाशका चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूपमें आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे ।।४४।। जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योतिसे मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपनेमें मुझे और मुझ सर्वात्मामें अपनेको अनुभव करने लगता है ।।४५।।
अथ पञ्चदशोऽध्यायः भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योगधारणाके द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णतः प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है ।।३१।। प्यारे उद्धव! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूपकी धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं ।।३२।। परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगोंका अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियोंका प्राप्त होना एक विघ्न ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समयका दुरुपयोग होता है ।।३३।। जगत्में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादिके द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योगके द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योगकी अन्तिम सीमा—मेरे सारूप्य, सालोक्य आदिकी प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधनसे नहीं प्राप्त हो सकती ।।३४।। ब्रह्मवादियोंने बहुत-से साधन बतलाये हैं—योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियोंका एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ ।।३५।। जैसे स्थूल पंचभूतोंमें बाहर, भीतर—सर्वत्र सूक्ष्म पंच-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतोंके अतिरिक्त स्थूल भूतोंकी कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियोंके भीतर द्रष्टारूपसे और बाहर दृश्यरूपसे स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतरका भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक—अद्वितीय आत्मा हूँ ।।३६।।
प्रभु, बचपन से ही संसार के झूठ और गलत धारणाओं में भटकता, सत्य खोज करता रहा। कोई मेरी भावनाएं नहीं समझता था। पता नहीं बचपन से ही मेरी सखी पे इतना विश्वास क्यों था। लगता था कि कोई समझेगा तो वो मेरी सखी। जिस तरह से इतनी घृणित रही है अपनो ने मेरे जीवन में वही भर दिया। प्रभु, तुम कहते हो किसी से द्वेष ना करो, क्या असत्य से भी नहीं?
प्रभु, जैस पायरे उद्धव! केहते हो, पियारी मीनू केह कर अपनी लडली को हृदये से लगाई राखना।
किससे बंधु बैर जगत में कोई नहीं पराया। हर मानव में प्रतिबिंबित है उसी ब्रह्म की छाया।।
जैसे माला के मनकों में केवल अंक पिरोया, उसी भांति प्रति व्यक्ति में वही ईश है सोया।
दीन दरिद्रों में मुस्काया, धनियों में वे रोया, उसने पाया जिसने अपने दंभ, दर्प को खोया।
जगदीश्वर को प्यार कर्म से उसे न भायी काया।।
किससे बंधु बैर
प्रेम मलय शीतलता देता, वैर बढ़ाता ताप रे, प्रेम सदा आशीष बाँटता, वैर सदा अभिशाप रे।
प्रेम नदी की मंद धार है, वैर मरुस्थल आँधी, प्रेम मंद मुस्कान प्रदाता, वैर आती और व्याधि।
वैर चूसता रक्त, प्रेम करता है उसे सवाया।।
किससे बंधु बैर
किसकी हुई आज तक बोलो साम, दाम, दंड, भरती, आँखें मिंजते ही भाइ पड़ी रही गी धरती।
यही वस्तु है जीवों का, नित्य बंधन है करती, फिर स्वार्थ बड़ा अलबेला, जग भी इन पर मरती।
सब जग तो फँस जाता है, दुर्गम कैसी माया, रे दुर्गम कैसी माया।।
किससे बंधु बैर जगत में कोई नहीं पराया। हर मानव में प्रतिबिंबित है उसी ब्रह्म की छाया।।
प्रभु, मेरी सखी कोई सीढ़ी तोड़ी ना है जो ऊपर चढ़ के चोर दूं। अपनों ने मुझे तुम्हारा रास्ता दिखाया है, चाहे झूठ और अविश्वास से ही सही। कैसे सबको साथ लाये बिना, तुम्हारे पास आउ
April 13, 2025
अथ षोडशोऽध्यायः भगवान्की विभूतियोंका वर्णन
यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओंकी गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियोंकी गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियोंकी गणना तो हो ही कैसे सकती है ।।३९।। ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है ।।४०।।
उद्धवजी! मैंने तुम्हारे प्रश्नके अनुसार संक्षेपसे विभूतियोंका वर्णन किया। ये सब परमार्थ-वस्तु नहीं हैं, मनोविकारमात्र हैं; क्योंकि मनसे सोची और वाणीसे कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है ।।४१।। इसलिये तुम वाणीको स्वच्छन्दभाषणसे रोको, मनके संकल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणोंको वशमें करो और इन्द्रियोंका दमन करो। सात्त्विक बुद्धिके द्वारा प्रपंचाभिमुख बुद्धिको शान्त करो। फिर तुम्हें संसारके जन्म-मृत्युरूप बीहड़ मार्गमें भटकना नहीं पड़ेगा ।।४२।। जो साधक बुद्धिके द्वारा वाणी और मनको पूर्णतया वशमें नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़ेमें भरा हुआ जल ।।४३।। इसलिये मेरे प्रेमी भक्तको चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धिसे वाणी, मन और प्राणोंका संयम करे। ऐसा कर लेनेपर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ।।४४।।
अथ सप्तदशोऽध्यायः वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण
उद्धवजीने कहा— प्रभो! महाबाहु माधव! पहले आपने हंसरूपसे अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजीको अपने परमधर्मका उपदेश किया था ।।३।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्योंको परमकल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें उन धर्मोंका उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ।।९।। जिस समय इस कल्पका प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्योंका ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युगमें सब लोग जन्मसे ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है ।।१०।। उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणोंसे युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समयके निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्माकी उपासना करते थे ।।११।। परम भाग्यवान् उद्धव! सत्ययुगके बाद त्रेतायुगका आरम्भ होनेपर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्यासे होता, अध्वर्यु और उद्गाताके कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञके रूपसे मैं प्रकट हुआ ।।१२।।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः । वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः ।।१३
विराट् पुरुषके मुखसे ब्राह्मण, भुजासे क्षत्रिय, जंघासे वैश्य और चरणोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरणसे होती है ।।१३।।
गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम । वक्षःस्थानाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः ।।१४
उद्धवजी! विराट् पुरुष भी मैं ही हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरुस्थलसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थलसे वानप्रस्थाश्रम और मस्तकसे संन्यासाश्रमकी उत्पत्ति हुर्इ है ।।१४।।
वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः । आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमाः ।।१५
इन वर्ण और आश्रमोंके पुरुषोंके स्वभाव भी इनके जन्मस्थानोंके अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमोंके स्वभाव उत्तम और अधम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवालोंके अधम हुए ।।१५।।
शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम् । मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः ।।१६
शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य—ये ब्राह्मण वर्णके स्वभाव हैं ।।१६।।
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः । स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्रप्रकृतयस्त्विमाः ।।१७
तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य—ये क्षत्रिय वर्णके स्वभाव हैं ।।१७।।
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनम् । अतुष्टिरर्थोपचयैर्वैश्यप्रकृतयस्त्विमाः ।।१८
आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणोंकी सेवा करना और धनसंचयसे सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्णके स्वभाव हैं ।।१८।।
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया । तत्र लब्धेन सन्तोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमाः ।।१९
ब्राह्मण, गौ और देवताओंकी निष्कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्णके स्वभाव हैं ।।१९।।
अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः । कामः क्रोधश्च तर्षश्च२ स्वभावोऽन्तेवसायिनाम् ।।२०
अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोककी परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णाके वशमें रहना—ये अन्त्यजोंके स्वभाव हैं ।।२०।।
अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता । भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः ।।२१
उद्धवजी! चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें; सत्यपर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें ।।२१।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोंके क्रमसे यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुलमें रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे। आचार्यके बुलानेपर वेदका अध्ययन करे और उसके अर्थका भी विचार करे ।।२२।।
ब्रह्मचारीको पवित्रताके साथ एकाग्रचित्त होकर अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओंकी उपासना करनी चाहिये तथा सायंकाल और प्रातःकाल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्रीका जप करना चाहिये ।।२६।।
यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्योंको समान-रूपसे है। परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ करानेका अधिकार केवल ब्राह्मणोंको ही है ।।४०।। ब्राह्मणको चाहिये कि इन तीनों वृत्तियोंमें प्रतिग्रह अर्थात् दान लेनेकी वृत्तिको तपस्या, तेज और यशका नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ करानेके द्वारा ही अपना जीवन-निर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियोंमें भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों—तो अन्न कटनेके बाद खेतोंमें पड़े हए दाने बीनकर ही अपने जीवनका निर्वाह कर ले ।।४१।। उद्धव! ब्राह्मणका शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्तमें अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करनेके लिये है ।।४२।।
जो ब्राह्मण घरमें रहकर अपने महान् धर्मका निष्कामभावसे पालन करता है और खेतोंमें तथा बाजारोंमें गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवनका निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परमशान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ।।४३।। जो लोग विपत्तिमें पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मणको विपत्तियोंसे बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियोंसे उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्रमें डूबते हुए प्राणीको नौका बचा लेती है ।।४४।। राजा पिताके समान सारी प्रजाका कष्टसे उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजोंकी रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे ।।४५।। जो राजा इस प्रकार प्रजाकी रक्षा करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर अन्त समयमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर स्वर्गलोकमें जाता है और इन्द्रके साथ सुख भोगता है ।।४६।। यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादिसे अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्य-वृत्तिका आश्रय ले ले, और जबतक विपत्ति दूर न हो जाय तबतक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्तिका सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियोंकी वृत्तिसे भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्थामें नीचोंकी सेवा—जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे ।।४७।। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदिके द्वारा अपने जीवनका निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकारके द्वारा अथवा विद्यार्थियोंको पढ़ाकर अपनी आपत्तिके दिन काट दे, परन्तु नीचोंकी सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले ।।४८।। वैश्य भी आपत्तिके समय शूद्रोंकी वृत्ति सेवासे अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्तिका आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव! ये सारी बातें आपत्तिकालके लिये ही हैं। आपत्तिका समय बीत जानेपर निम्नवर्णोंकी वृत्तिसे जीविकोपार्जन करनेका लोभ न करे ।।४९।।
गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीतिसे उपार्जित अपने शुद्ध धनसे अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजनको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधिके साथ ही यज्ञ करे ।।५१।। प्रिय उद्धव! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमें आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होनेपर भी भजनमें प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोककी सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोकके भोग भी नाशवान् ही हैं ।।५२।। यह जो स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु और गुरुजनोंका मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊपर कुछ बटोही इकट्ठे हो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटनेतक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालोंका सम्बन्ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है;
इस प्रकार घर-गृहस्थीकी वासनासे जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता, उन्हींमें उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकमें जाता है ।।५८।।
अथाष्टादशोऽध्यायः वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रममें जाना चाहे, तो अपनी पत्नीको पुत्रोंके हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्तसे अपनी आयुका तीसरा भाग वनमें ही रहकर व्यतीत करे ।।१।।
प्रिय उद्धव! जो पुरुष बड़े कष्टसे किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान् तपस्याको स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलोंकी प्राप्तिके लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा? इसलिये तपस्याका अनुष्ठान निष्कामभावसे ही करना चाहिये ।।१०।।
यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलुके अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्तिकालको छोड़कर सदाके लिये है ।।१५।। नेत्रोंसे धरती देखकर पैर रखे, कपड़ेसे छानकर जल पिये, मुँहसे प्रत्येक बात सत्यपूत—सत्यसे पवित्र हुई ही निकाले और शरीरसे जितने भी काम करे, बुद्धि-पूर्वक—सोच-विचार कर ही करे ।।१६।। वाणीके लिये मौन, शरीरके लिये निश्चेष्ट स्थिति और मनके लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीरपर बाँसके दण्ड धारण करनेसे दण्डी स्वामी नहीं हो जाता ।।१७।। संन्यासीको चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितोंको छोड़कर चारों वर्णोंकी भिक्षा ले।
भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियोंके आश्रमसे ही ग्रहण करे; क्योंकि कटे हुए खेतोंके दानेसे बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्तको शुद्ध कर देती है और उससे बचा-खुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।।२५।।
ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्षकी भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमोंकी मर्यादामें बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नोंको छोड़-छाड़कर, वेद-शास्त्रके विधि-निषेधोंसे परे होकर स्वच्छन्द विचरे ।।२८।। वह बुद्धिमान् होकर भी बालकोंके समान खेले। निपुण होकर भी जडवत् रहे, विद्वान् होकर भी पागलकी तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियोंका जानकार होकर भी पशुवृत्तिसे (अनियत आचारवान्) रहे ।।२९।। उसे चाहिये कि वेदोंके कर्मकाण्ड-भागकी व्याख्यामें न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्कसे बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ।।३०।। वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मनमें किसी भी प्राणीसे उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणीको उद्विग्न न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नतासे सह ले; किसीका अपमान न करे।
भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षासे ही प्राणोंकी रक्षा होती है। प्राण रहनेसे ही तत्त्वका विचार होता है और तत्त्वविचारसे तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ।।३४।। संन्यासीको प्रारब्धके अनुसार अच्छी या बुरी—जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसीसे पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायँ, उन्हींसे काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपनकी कल्पना न करे ।।३५।। जैसे मैं परमेश्वर होनेपर भी अपनी लीलासे ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमोंका लीलासे ही आचरण करे। वह शास्त्रविधिके अधीन होकर—विधि-किंकर होकर न करे ।।३६।। क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुषको भेदकी प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्माके साक्षात्कारसे नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेदकी प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जानेपर वह मुझसे एक हो जाता है ।।३७।।
उद्धवजी! (यह तो हुई ज्ञानवान्की बात, अब केवल वैराग्यवान्की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसारके विषयोंके भोगका फल दुःख-ही-दुःख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्तिके साधनोंको न जानता हो तो भगवच्चिन्तनमें तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुकी शरण ग्रहण करे ।।३८।। वह गुरुकी दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले। जबतक ब्रह्मका ज्ञान हो, तबतक बड़े आदरसे मुझे ही गुरुके रूपमें समझता हुआ उनकी सेवा करे ।।३९।। किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहोंपर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथि बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदयमें न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासीका वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्मका सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओंको, अपने-आपको और अपने हृदयमें स्थित मुझको ठगनेकी चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्रके संन्यासीकी वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनोंसे हाथ धो बैठता है ।।४०-४१।। संन्यासीका मुख्य धर्म है—शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थीका मुख्य धर्म है—तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थका मुख्य धर्म है—प्राणियोंकी रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारीका मुख्य धर्म है—आचार्यकी सेवा ।।४२।। गृहस्थ भी केवल ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रीका सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियोंके प्रति प्रेमभाव—ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभीको करनी चाहिये ।।४३।। जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभावसे अपने वर्णाश्रमधर्मके द्वारा मेरी सेवामें लगा रहता है और समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ।।४४।। उद्धवजी! मैं सम्पूर्ण लोकोंका एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका परम कारण ब्रह्म हूँ। नित्य-निरन्तर बढ़नेवाली अखण्ड भक्तिके द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ।।४५।। इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालनके द्वारा अन्तःकरणको शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्यको—मेरे स्वरूपको जान लेता है और ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ।।४६।। मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियोंका धर्म बतलाया है। यदि इस धर्मानुष्ठानमें मेरी भक्तिका पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ।।४७।।
प्रभु, इस मिथ्या संसार में सबको सत्यवादी बना दो। मेरी सखी और सब, कभी असत्ये ना बोले।
जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा । सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा ॥
जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा
लक्ष्मीनारायण नारायण हरि हरि। सत्यनारायण नारायण हरि हरि
April 14, 2025
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
माँ की दया की तो सीमा ना होती, जो बालक मलिन हो तो माँ ही है धोती
जो बालक मलिन हो तो माँ ही है धोती
मेरे मन को ऐसा माँ निर्मल बना दे, मुझे माँ तू अपने ही हाथों सजा के
मुझे माँ तू अपने ही हाथों सजा के
माँ अपने ही काबिल मुझे तुम बना के, के भक्ति के पथ पर मुझे माँ चला लो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
मैं पापी हूँ मैया तू है पाप भंजन, तू करदे दया माँ तू कर दे निरंजन
तू करदे दया माँ तू कर दे निरंजन
तू भोली तेरे भोलेभाले भंडारी, वो नंदी पे बैठे तू सिंह पे सवारी
वो नंदी पे बैठे तू सिंह पे सवारी, तू भक्तों की मैया तू भूलें भुलाये
तू भक्तों की मैया तू भूलें भुलाये
मेरे पाप को मैया दिल से भुला दो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
तेरे नाम की ज्योति हृदय में मेरे, मेरा ध्यान मैयाजी चरणों में तेरे
मेरा ध्यान मैयाजी चरणों में तेरे
परिपक्व हो और कबहूँ ना बिसरे, तेरी भक्ति करके माँ पल-पल ये निखरे
तेरी भक्ति करके माँ पल-पल ये निखरे
तुम अपना के मुझको माँ अपना ही करलो, के अपने में मैयाजी मुझको समा लो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो, जगत के झमेलों ने मुझको रूलाया
जो है सच्ची प्रीती उसी से भुलाया
जो है सच्ची प्रीती उसी से भुलाया
ना दर दर भटकना मुझे अब भवानी, हैं दिल में जो बातें तुम्हीं को सुनानी
हैं दिल में जो बातें तुम्हीं को सुनानी
मुझे अपनी यादों के अश्रु माँ देदो
मुझे अपनी यादों के अश्रु माँ देदो, माँ अपने ही आंचल में मुझको छुपा लो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
जगत के भंवर में मैं आन फंसा हूँ
जगत के भंवर में मैं आन फंसा हूँ, जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
तुम्हे ना पुकारूँ तो किसको पुकारूँ, मैं सपनों में मैया तेरी छव(छवि) निहारूँ
मैं सपनों में मैया तेरी छव निहारूँ
हो पतितों की रक्षक मेरी मात अम्बे, तू है भक्तवत्सल तू ही जगदम्बे
तू है भक्तवत्सल तू ही जगदम्बे
दयामयी दाती दया अब तू करदे
दयामयी दाती दया अब तू करदे, के दास किंचण तो अब माँ बचा लो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
तेरा नाम है दाती दीनदयाला, है लाखों को तूने भंवर से निकाला
है लाखों को तूने भंवर से निकाला
हूँ मैं भी तो मैया उन्हीं से हूँ बिछुड़ा, हूँ फूल जैसे कोई डाली से उखड़ा
हूँ फूल जैसे कोई डाली से उखड़ा
जगत की तपिश से मैं मुरझा ना जाऊँ
जगत की तपिश से मैं मुरझा ना जाऊँ, मुझे भी माँ अब तो गोदी बिठा लो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ, जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
माँ तेरी इच्छा से संसार सारा, करी तूने करूणा मुझे है पुकारा
करी तूने करूणा मुझे है पुकारा
जहाँ रखना अपनी लग्न में ही रखना, मुझे तेरी भक्ति का रस है माँ चखना
मुझे तेरी भक्ति का रस है माँ चखना
मैं मैया तेरा हूँ तेरा ही रहूँगा, मेरे चित्त को अपने में माता लगा लो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
मैं तेरा हूँ माता, मुझे तुम संभालो
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ
मैं चरणों में तेरे आन पड़ा हूँ, जगत के भंवर से मुझे तुम निकालो
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
हे करूणा की सागर, हे ममतामयी माँ
हे ममतामयी माँ
हे ममतामयी माँ
हे ममतामयी माँ
माँ
माता, दिन रात प्रश्नों में वह भटकता रहता है। पता नहीं मेरी सखी किन परिस्थितियों में फंसी है। क्या मुझे इतना नासमझ समझ, क्यों समझ ती है कि कुछ भी बोल देगी और मैं मनाऊंगा। माता, चिंता तो और भी बढ़ती जा रही है। प्रभु पर विश्वास है, पर ये भी जानता हूं कि विचित्र लेले कर के नाचते हैं, पता नहीं और क्या करेंगे, कोई समझ नहीं सकता। पता नहीं बचपन से अंकलजी पर इतना विश्वास था। कुछ मैनो में मेरी सखी से भी ज्यादा। क्या यही मेरे जीवन की सबसे...?
माता हम सबको अपने आंचल में छुपालो।
April 14, 2025
अथैकोनविंशोऽध्यायः भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहलेके समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्मको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करनेकी युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे ।।१५।। जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमें अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाध होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ।।१६।। श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणोंमें यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य प्रपंच अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपंचसे विरक्त हो जाता है ।।१७।। विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कर्मोंके परिणामी—नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्टको भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमंगल, दुःखदायी एवं नाशवान् समझे ।।१८।।
निष्पाप उद्धवजी! भक्तियोगका वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ।।१९।। जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामोंका संकीर्तन करे; मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति करे ।।२०।। मेरी सेवा-पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टांग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढ़कर करे और समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखे ।।२१।। अपने एक-एक अंगकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ।।२२।। मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ।।२३।। उद्धवजी! जो मनुष्य इन धर्मोंका पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है? ।।२४।।
इस प्रकारके धर्मोंका पालन करनेसे चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है, उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ।।२५।। यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है ।।२६।। उद्धव! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असंग—निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं ।।२७।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘यम’ बारह हैं—अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमोंकी संख्या भी बारह ही हैं। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनोंकी संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं ।।३३-३५।। बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम ‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दुःखके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है ।।३६।। किसीसे द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है ।।३७।। इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मोंमें आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है ।।३८।। धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है ।।३९।। मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है ।।४०।। निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगोंकी कामना ही ‘दुःख’ है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है ।।४१।। शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्तकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे! तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणोंका खजाना है ।।४२-४३।। जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है ।।४४।। प्यारे उद्धव! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुण-दोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निःसंकल्प स्वरूपमें स्थित रहे—वही सबसे बड़ा गुण है ।।४५।।
अथ विंशोऽध्यायः ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्मके शुभकर्मसे सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदिमें उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोगका अधिकारी है। उसे भक्तियोगके द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है ।।८।। कर्मके सम्बन्धमें जितने भी विधि-निषेध हैं, उनके अनुसार तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक कर्ममय जगत् और उससे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंसे वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें श्रद्धा न हो जाय ।।९।।
अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीरमें रहते-रहते ही निषिद्ध कर्मका परित्याग कर देता है और रागादि मलोंसे भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इस संसार-सागरसे पार जानेकेत्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होनेपर मेरी भक्ति प्राप्त होती है ।।११।। यह विधि-निषेधरूप कर्मका अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकोंमें रहनेवाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीरमें अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर ज्ञान अथवा भक्तिकी प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरकका भोगप्रधान शरीर किसी भी साधनके उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान् पुरुषको न तो स्वर्गकी अभिलाषा करनी चाहिये और न नरककी ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीरकी भी कामना न करनी चाहिये; क्योंकि किसी भी शरीरमें गुणबुद्धि और अभिमान हो जानेसे अपने वास्तविक स्वरूपकी प्राप्तिके साधनमें प्रमाद होने लगता है ।।१२-१३।। यद्यपि यह मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी—सत्य वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होनेके पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्युके चक्करसे सदाके लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय ।।१४।। यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराजके दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्षको छोड़कर उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीरको छोड़कर मोक्षका भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दुःख ही भोगता रहता है ।।१५।। प्रिय उद्धव! ये दिन और रात क्षण-क्षणमें शरीरकी आयुको क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भयसे काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोड़कर परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन-मरणसे निरपेक्ष होकर अपने आत्मामें ही शान्त हो जाता है ।।१६।। यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदृढ़ नौका है।
जैसे सवार घोड़ेको अपने वशमें करते समय उसे अपने मनोभावकी पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छाके अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशमें कर लेता है, वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वशमें कर लेना भी परम योग है ।।२१।। सांख्यशास्त्रमें प्रकृतिसे लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टिका जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रमसे शरीर आदिका प्रकृतिमें लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तबतक जारी रखना चाहिये, जबतक मन शान्त—स्थिर न हो जाय ।।२२।। जो पुरुष संसारसे विरक्त हो गया है और जिसे संसारके पदार्थोंमें दुःख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनोंके उपदेशको भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूपके ही चिन्तनमें संलग्न रहता है। इस अभ्याससे बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चंचलता, जो अनात्मा शरीर आदिमें आत्मबुद्धि करनेसे हुई है, छोड़ देता है ।।२३।। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गोंसे, वस्तुतत्त्वका निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्यासे तथा मेरी प्रतिमाकी उपासनासे—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मन परमात्माका चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है ।।२४।।
जो साधक समस्त कर्मोंसे विरक्त हो गया हो, उनमें दुःखबुद्धि रखता हो, मेरी लीलाकथाके प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दुःखरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्यागमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगोंको तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदयसे दुःखजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधाकी स्थितिसे छुटकारा पानेके लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेमसे मेरा भजन करे ।।२७-२८।। इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा भजन करनेसे मैं उस साधकके हृदयमें आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदयकी सारी वासनाएँ अपने संस्कारोंके साथ नष्ट हो जाती हैं ।।२९।। इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्माका साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदयकी गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्म-वासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं ।।३०।। इसीसे जो योगी मेरी भक्तिसे युक्त और मेरे चिन्तनमें मग्न रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्यकी आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्रायः मेरी भक्तिके द्वारा ही हो जाता है ।।३१।। कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याणसाधनोंसे जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोगके प्रभावसे ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है ।।३२-३३।। मेरे अनन्यप्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते ।।३४।। उद्धवजी! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् निःश्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षताका ही दूसरा नाम है। इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसीको मेरी भक्ति प्राप्त होती है ।।३५।। मेरे अनन्यप्रेमी भक्तोंका और उन समदर्शी महात्माओंका; जो बुद्धिसे अतीत परमतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेधसे होनेवाले पुण्य और पापसे कोई सम्बन्ध ही नहीं होता ।।३६।। इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्ममार्गोंका आश्रय लेते हैं, वे मेरे परम कल्याण-स्वरूप धामको प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं ।।३७।।
अथैकविंशोऽध्यायः गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— गुरुमुखसे सुनकर भलीभाँति हृदयंगम कर लेनेसे मन्त्रकी और मुझे समर्पित कर देनेसे कर्मकी शुद्धि होती है। उद्धवजी! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म—इन छहोंके शुद्ध होनेसे धर्म और अशुद्ध होनेसे अधर्म होता है ।।१५।।
एक ही वस्तुके विषयमें किसीके लिये गुण और किसीके लिये दोषका विधान गुण और दोषोंकी वास्तविकताका खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोषका यह भेद कल्पित है ।।१६।।
जिन-जिन दोषों और गुणोंसे मनुष्यका चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओंके बन्धनसे वह मुक्त हो जाता है। मनुष्योंके लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याणका साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भयको मिटानेवाला है ।।१८।।
उद्धवजी! जैसे बच्चोंसे ओषधिमें रुचि उत्पन्न करनेकेुष्योंके लिये उन-उन लोकोंको परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती; परन्तु बहिर्मुख पुरुषोंके लिये अन्तःकरणशुद्धिके द्वारा परम कल्याणमय मोक्षकी विवक्षासे ही कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चोंसे ओषधिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं।
वे अपने परम पुरुषार्थको नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादिका जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियोंमें भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियोंके घोर अन्धकारमें आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्थामें कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिरसे उन्हें उन्हीं विषयोंमें क्यों प्रवृत्त करेगा? ।।२५।। दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदोंका यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंका वर्णन देखते हैं और उन्हींको परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियोंका ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ।।२६।। विषय-वासनाओंमें फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंको ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्निके द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मोंमें ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्तमें देवलोक, पितृलोक आदिकी ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जानेके कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपदका पता नहीं लगता ।।२७।। प्यारे उद्धव! उनके पास साधना है तो केवल कर्मकी और उसका कोई फल है तो इन्द्रियोंकी तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत्के रूपमें है, वह परमात्मा मैं उनके हृदयमें ही हूँ ।।२८।।
उद्धवजी! स्वर्गादि परलोक स्वप्नके दृश्योंके समान हैं, वास्तवमें वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुननेमें बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँके भोगोंके लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकारके संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभकी आशासे मूलधनको भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञोंद्वारा अपने धनका नाश करते हैं ।।३१।। वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुणमें स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियोंसे उतने ही परिश्रमसे मेरी पूजा नहीं करते ।।३२।। वे जब इस प्रकारकी पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोकमें यज्ञोंके द्वारा देवताओंका यजन करके स्वर्गमें जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवारमें पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियोंको मेरे सम्बन्धकी बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ।।३३-३४।।
उद्धवजी! वेदोंमें तीन काण्ड हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डोंके द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्माकी एकता, सभी मन्त्र और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि इस विषयको खोलकर नहीं, गुप्तभावसे बतलाते हैं और मुझे भी इस बातको गुप्तरूपसे कहना ही अभीष्ट है* ।।३५।। वेदोंका नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्त्ति हैं, इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणीके रूपमें प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्रके समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है।
भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्दके द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णोंका संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्तकारणके द्वारा हृदयाकाशसे अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणीको स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकारके द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ (य, र, ल, व)—इन वर्णोंसे विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषाके रूपमें वह विस्तृत हुई है ।।३८-४०।। (चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दोंमेंसे कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ।।४१।। वह वेदवाणी कर्मकाण्डमें क्या विधान करती है, उपासनाकाण्डमें किन देवताओंका वर्णन करती है और ज्ञानकाण्डमें किन प्रतीतियोंका अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकारके विकल्प करती है—इन बातोंको इस सम्बन्धमें श्रुतिके रहस्यको मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ।।४२।। मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्डमें मेरा ही विधान करती हैं, उपासनाकाण्डमें उपास्य देवताओंके रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्डमें आकाशादिरूपसे मुझमें ही अन्य वस्तुओंका आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियोंका बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेदका आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्तमें सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूपसे मैं ही शेष रह जाता हूँ ।।४३।।
April 15, 2025
मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा क्या करु। मीनू ने क्यू मुझे सत्य नहीं बताया? जीवन भर भौतिकी और दुनिया की गलत धारणाओं को विचार प्रयोगों और विरोधाभासों से खोजा और सत्य को ढूंढा गया। क्या मुझे इतना मूर्ख समझती है, या तुम बाप बेटी मिल कर मेरी परीक्षा ले रहे हो?
सुबह उठकर मम्मी पापा जब एक्सरसाइज करने को कहते हैं, यहीं मन में चलता रहता है, क्या मीनू एक्सरसाइज करती है? क्या मीनू को कोई ये सब याद दिलाता है? फोटो देख के तो लग नहीं रहा है अपना ख्याल रख रही है। ऊपर से इतना सब पोट रखा था।
प्रभु, अभी तक भावनाएँ बदलने की जगह और गहरी होती जा रही हैं। समय के साथ बच्चा होता जा रहा हूँ। बचपन के दिन वापस आएँ, और इस बार मेरी सखी के साथ खेलु, बात करू, नाक लड़ाउ
प्रभु, हर तरह से तुम्हारा समाज ही दोषी दिखता है। द्वापर में दैत्यो ने क्षत्रियों का रूप लेकर उत्पात मचाया था, इस बार ढोंगी धर्म के ठेकेदार ब्राह्मणो का, और बचे कुछ ब्राह्मणों को भी भ्रष्टाचार कर दिया। पता नहीं वो सत्यवादी धर्मी ब्राह्मण कह गए, वो सुदामा जैसा, जिनकी तुम भी सेवा करते हो, हृदय से लगते हो?
कब आओगे प्रभु?
मेरी सखी ने सत्ये क्यू नहीं बताया!
अथ द्वाविंशोऽध्यायः तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक
भगवान् श्रीकृष्णने कहा— उद्धवजी! जिन लोगोंने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि कालसे अविद्यासे ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान करानेके लिये किसी अन्य सर्वज्ञकी आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृतिके कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर—इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये) ।।१०।। पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीरमें जीव और ईश्वरका अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेदकी कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञानकी बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृतिका गुण है ।।११।। तीनों गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्माके नहीं, प्रकृतिके ही हैं। इन्हींके द्वारा जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्माका गुण नहीं, प्रकृतिका ही गुण सिद्ध होता है ।।१२।। इस प्रसंगमें सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है। और गुणोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वोंकी—दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है) ।।१३।। उद्धवजी! (यदि तीनों गुणोंको प्रकृतिसे अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलयको देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वोंकी संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनोंके अतिरिक्त पचीस ये हैं—) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ ।।१४।। श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये ज्ञानेन्द्रियोंके पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच—सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले पाँच कर्म—चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना—इनके द्वारा तत्त्वोंकी संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये ।।१५-१६।। सृष्टिके आरम्भमें कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पंचभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूपमें प्रकृति ही रहती है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी सहायतासे जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओंका केवल साक्षीमात्र बना रहता है ।।१७।। महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकारको प्राप्त होते हुए पुरुषके ईक्षणसे शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृतिका आश्रय लेकर उसीके बलसे ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते हैं ।।१८।।
उद्धवजी! इस प्रकार ऋषि-मुनियोंने भिन्न-भिन्न प्रकारसे तत्त्वोंकी गणना की है। सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मतमें बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है ।।२५।।
उद्धवजीने कहा—श्यामसुन्दर! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष—दोनों एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपसमें इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो? ।।२६।। कमलनयन श्रीकृष्ण! मेरे हृदयमें इनकी भिन्नता और अभिन्नताको लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणीसे मेरे सन्देहका निवारण कर दीजिये ।।२७।। भगवन्! आपकी ही कृपासे जीवोंको ज्ञान होता है और आपकी माया-शक्तिसे ही उनके ज्ञानका नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाकी विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटानेमें समर्थ हैं ।।२८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा—इन दोनोंमें अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत्में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणोंके क्षोभसे ही बना है ।।२९।। प्रिय मित्र! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणोंसे अनेकों प्रकारकी भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टिको तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं—अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत ।।३०।। उदाहरणार्थ—नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्र-गोलकमें स्थित सूर्यदेवताका अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरेके आश्रमसे सिद्ध होते हैं। और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाशमें स्थित सूर्यमण्डल इन तीनोंकी अपेक्षासे मुक्त है, क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदोंका मूलकारण, उनका साक्षी और उनसे परे है। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाशसे समस्त सिद्ध पदार्थोंकी मूलसिद्धि है। उसीके द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षुके तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका और चित्त आदिके भी तीन-तीन भेद हैं* ।।३१।। प्रकृतिसे महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्वसे अहंकार। इस प्रकार यह अहंकार गुणोंके क्षोभसे उत्पन्न हुआ प्रकृतिका ही एक विकार है। अहंकारके तीन भेद हैं—सात्त्विक, तामस और राजस। यह अहंकार ही अज्ञान और सृष्टिकी विविधताका मूलकारण है ।।३२।।
आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका इन पदार्थोंसे न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवादकी ही बात है! अस्ति-नास्ति (है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूपसे जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूलकारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवादका कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे—अपने वास्तविक स्वरूपसे विमुख हैं, वे इस विवादसे मुक्त नहीं हो सकते ।।३३।।
उद्धवजीने पूछा—भगवन्! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापोंके फलस्वरूप ऊँची-नीची योनियोंमें जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्माका एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाना, अकर्ताका कर्म करना और नित्य-वस्तुका जन्म-मरण कैसे सम्भव है? ।।३४।। गोविन्द! जो लोग आत्मज्ञानसे रहित हैं, वे तो इस विषयके ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते। और इस विषयके विद्वान् संसारमें प्रायः मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी मायाकी भूल-भुलैयामें पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ।।३५।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! मनुष्योंका मन कर्म-संस्कारोंका पुंज है। उन संस्कारोंके अनुसार भोग प्राप्त करनेके लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसीका नाम है लिंगशरीर। वही कर्मोंके अनुसार एक शरीरसे दूसरे शरीरमें, एक लोकसे दूसरे लोकमें आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिंगशरीरसे सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपनेको लिंगशरीर ही समझ बैठता है, उसीमें अहंकार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है ।।३६।।
यह वर्तमान देहमें स्थित जीव जैसे पूर्व देहका स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथमें स्थित जीव भी पहलेके स्वप्न और मनोरथको स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथमें पूर्व सिद्ध होनेपर भी अपनेको नवीन-सा ही समझता है ।।४०।।
प्यारे उद्धव! कालकी गति सूक्ष्म है। उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरोंकी उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होनेके कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते ।।४२।। जैसे कालके प्रभावसे दियेकी लौ, नदियोंके प्रवाह अथवा वृक्षके फलोंकी विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियोंके शारीरोंकी आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है ।।४३।। जैसे यह उन्हीं ज्योतियोंका वही दीपक है, प्रवाहका यह वही जल है—ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तनमें व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवेकी पुरुषोंका ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है ।।४४।। यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मोंके बीजद्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्तिसे वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठसे युक्त अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है ।।४५।।
उद्धवजी! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु—ये नौ अवस्थाएँ शरीरकी ही हैं ।।४६।। यह शरीर जीवसे भिन्न है और ये ऊँची-नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथके अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणोंके संगसे इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जानेपर इन्हें छोड़ भी देता है ।।४७।।
जो शरीर और उसकी अवस्थाओंका साक्षी है, वह शरीरसे सर्वथा पृथक् है ।।४९।। अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीरसे आत्माका विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोगमें सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसीमें मोहित हो जाते हैं। इसीसे उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है ।।५०।।
आत्माका विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है ।।५३-५४।। विषयोंके सत्य न होनेपर भी जो जीव विषयोंका ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्नमें प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती ।।५५।।
प्रिय उद्धव! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियोंसे विषयोंको मत भोगो। आत्म-विषयक अज्ञानसे प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेद-भाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो ।।५६।। असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणीद्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बाँधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरहसे विचलित करें, निष्ठासे डिगानेकी चेष्टा करें; उनके किसी भी उपद्रवसे क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थका तो पता नहीं है। अतः जो अपने कल्याणका इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयोंसे अपनी विवेक-बुद्धिद्वारा ही—किसी बाह्य साधनसे नहीं—अपनेको बचा लेना चाहिये। वस्तुतः आत्म-दृष्टि ही समस्त विपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र साधन है ।।५७-५८।।
उद्धवजीने कहा—भगवन्! आप समस्त वक्ताओंके शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनोंसे किये गये तिरस्कारको अपने मनमें अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अतः जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवनमें धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये ।।५९।। विश्वात्मन्! जो आपके भागवतधर्मके आचरणमें प्रेम-पूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरणकमलोंका ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषोंके अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी दुष्टोंके द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है ।।६०।।
अथ त्रयोविंशोऽध्यायः एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवगुरु बृहस्पतिके शिष्य उद्धवजी! इस संसारमें प्रायः ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनोंकी कटुवाणीसे बिंधे हुए अपने हृदयको सँभाल सकें ।।२।। मनुष्यका हृदय मर्मभेदी बाणोंसे बिंधनेपर भी उतनी पीडाका अनुभव नहीं करता, जितनी पीडा उसे दुष्टजनोंके मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं ।।३।। उद्धवजी! इस विषयमें महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो ।।४।। एक भिक्षुकको दुष्टोंने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद्गार प्रकट किये थे। उन्हींका इस इतिहासमें वर्णन है ।।५।। प्राचीन समयकी बात है, उज्जैनमें एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बातमें आ जाया करता था ।।६।। उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियोंको कभी मीठी बातसे भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलानेकी तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्मसे रीते घरमें रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्तिके द्वारा समयपर अपने शरीरको भी सुखी नहीं करता था ।।७।। उसकी कृपणता और बुरे स्वभावके कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुःखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मनको प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था ।।८।। वह लोक-परलोक दोनोंसे ही गिर गया था। बस, यक्षोंके समान धनकी रखवाली करता रहता था। उस धनसे वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनोंतक इस प्रकार जीवन बितानेसे उसपर पंचमहायजके भागी देवता बिगड़ उठे ।।९।। उदार उद्धवजी! पंचमहायज्ञके भागियोंके तिरस्कारसे उसके पूर्व-पुण्योंका सहारा—जिसके बलसे अबतक धन टिका हुआ था—जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रमसे इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आँखोंके सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया ।।१०।। उस नीच ब्राह्मणका कुछ धन तो उसके कुटुम्बियोंने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोपसे नष्ट हो गया, कुछ समयके फेरसे मारा गया। कुछ साधारण मनुष्योंने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्डके रूपमें शासकोंने हड़प लिया ।।११।। उद्धवजी! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियोंने भी उसकी ओरसे मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ताने घेर लिया ।।१२।। धनके नाशसे उसके हृदयमें बड़ी जलन हुई। उसका मन खेदसे भर गया। आँसुओंके कारण गला रुँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मनमें संसारके प्रति महान् दुःखबुद्धि और उत्कट वैराग्यका उदय हो गया ।।१३।।
देवताओंके भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्मको और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मण-शरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थका नाश करते हैं, वे अशुभ गतिको प्राप्त होते हैं ।।२२।। यह मनुष्य-शरीर मोक्ष और स्वर्गका द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य है जो अनर्थोंके धाम धनके चक्करमें फँसा रहे ।।२३।। जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और धनके दूसरे भागीदारोंको उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्षके समान धनकी रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य ही अधोगतिको प्राप्त होता है ।।२४।। मैं अपने कर्तव्यसे च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमादमें अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकीलोग जिन साधनोंसे मोक्षतक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हींको मैंने धन इकट्ठा करनेकी व्यर्थ चेष्टामें खो दिया। अब बुढ़ापेमें मैं कौन-सा साधन करूँगा ।।२५।। मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धनकी व्यर्थ तृष्णासे निरन्तर क्यों दुःखी रहते हैं? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसीकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहा है ।।२६।। यह मनुष्य-शरीर कालके विकराल गालमें पड़ा हुआ है। इसको धनसे, धन देनेवाले देवताओं और लोगोंसे, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करनेवालोंसे तथा पुनः-पुनः जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले सकाम कर्मोंसे लाभ ही क्या है? ।।२७।।
इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशामें पहुँचाया है और मुझे जगत्के प्रति यह दुःख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुतः वैराग्य ही इस संसार-सागरसे पार होनेके लिये नौकाके समान है ।।२८।। मैं अब ऐसी अवस्थामें पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभमें ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थके सम्बन्धमें सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीरको तपस्याके द्वारा सुखा डालूँगा ।।२९।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! उस उज्जैननिवासी ब्राह्मणने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पनकी गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया ।।३१।। अब उसके चित्तमें किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्तिके प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें कर लिया।
उद्धवजी! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरहसे उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते ।।३३।। कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्षमाला और कन्था ही लेकर भाग जाता।
वे लोग उस मौनी अवधूतको तरह-तरहसे बोलनेके लिये विवश करते और जब वह इसपर भी न बोलता तो उसे पीटते ।।३५-३६।। कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सीसे बाँधने लगते ।।३७।। कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपणने धर्मका ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रोंने घरसे निकाल दिया; तब इसने भीख माँगनेका रोजगार लिया है ।।३८।। ओहो! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्यमें बड़े भारी पर्वतके समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुलेसे भी बढ़कर ढोंगी और दृढ़निश्चयी है’ ।।३९।।
किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदिके कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदिसे दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदिके द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुकके मनमें इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्मके कर्मेंका फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा ।।४१।। यद्यपि नीच मनुष्य तरह-तरहके तिरस्कार करके उसे उसके धर्मसे गिरानेकी चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़तासे अपने धर्ममें स्थिर रहता और सात्त्विक धैर्यका आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ।।४२।।
ब्राह्मण कहता—मेरे सुख अथवा दुःखका कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मनको ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसार-चक्रको चला रहा है ।।४३।। सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसीने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियोंकी सृष्टि की है। उन वृत्तियोंके अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकारके कर्म होते हैं और कर्मोंके अनुसार ही जीवकी विविध गतियाँ होती हैं ।।४४।। मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहनेपर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवका सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञानसे सब कुछ देखता रहता है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मनको स्वीकार करके उसके द्वारा विषयोंका भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मोंके साथ आसक्ति होनेके कारण वह उनसे बँध जाता है ।।४५।।
दान, अपने धर्मका पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान्में लग जाय। मनका समाहित हो जाना ही परम योग है ।।४६।। जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मोंका फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चंचल है अथवा आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मोंसे अबतक कोई लाभ नहीं हुआ ।।४७।। सभी इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं। मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान्से भी बलवान्, अत्यन्त भयंकर देव है। जो इसको अपने वशमें कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियोंका विजेता है ।।४८।। सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीरको ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानोंको भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्योंको चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत्के लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ।।४९।।
मैं भी इसीका आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान्के चरणकमलोंकी सेवाके द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञानसागरको अनायास ही पार कर लूँगा ।।५८।।
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः सांख्ययोग
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्रका निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन कालके बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है तो वह भेदबुद्धिमूलक सुख-दुःखादिरूप भ्रमका तत्काल त्याग कर देता है ।।१।। युगोंसे पूर्व प्रलयकालमें आदिसत्ययुगमें और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओंमें यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकारके भेदभावसे रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ।।२।। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्ममें किसी प्रकारका विकल्प नहीं है, वह केवल—अद्वितीय सत्य है; मन और वाणीकी उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीवके रूपमें—दृश्य और द्रष्टाके रूपमें—दो भागोंमें विभक्त-सा हो गया ।।३।। उनमेंसे एक वस्तुको प्रकृति कहते हैं। उसीने जगत्में कार्य और कारणका रूप धारण किया है। दूसरी वस्तुको, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं ।।४।। उद्धवजी! मैंने ही जीवोंके शुभ-अशुभ कर्मोंके अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण प्रकट हुए ।।५।। उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्वमें विकार होनेपर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवोंको मोहमें डालनेवाला है ।।६।। वह तीन प्रकारका है—सात्त्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मनका कारण है; इसलिये वह जड-चेतन—उभयात्मक है ।।७।। तामस अहंकारसे पंचतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतोंकी उत्पत्ति हुई। तथा राजस अहंकारसे इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहंकारसे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता* प्रकट हुए ।।८।। ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणासे एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्ड-रूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ।।९।। जब वह अण्ड जलमें स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूपसे इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभिसे विश्वकमलकी उत्पत्ति हुई। उसीपर ब्रह्माका आविर्भाव हुआ ।।१०।। विश्वसमष्टिके अन्तःकरण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा भूः, भुवः, स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग—इन तीन लोकोंकी और इनके लोकपालोंकी रचना की ।।११।। देवताओंके निवासके लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादिके लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदिके लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकोंसे ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धोंके निवासस्थान हुए ।।१२।। सृष्टिकार्यमें समर्थ ब्रह्माजीने असुर और नागोंके लिये पृथ्वीके नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकोंमें त्रिगुणात्मक कर्मोंके अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ।।१३।। योग, तपस्या और संन्यासके द्वारा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोगसे मेरा परम धाम मिलता है ।।१४।। यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारोंसे युक्त है। मैं ही कालरूपसे कर्मोंके अनुसार उनके फलका विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाहमें पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्चगति प्राप्त हो जाती है ।।१५।। जगत्में छोटे-बड़े, मोटे-पतले—जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनोंके संयोगसे ही सिद्ध होते है ।।१६।।
ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणोंमें लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी कालमें लीन हो जाती है ।।२६।। काल मायामय जीवमें और जीव मुझ अजन्मा आत्मामें लीन हो जाता है। आत्मा किसीमें लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है। वह जगत्की सृष्टि और लयका अधिष्ठान एवं अवधि है ।।२७।। उद्धवजी! जो इस प्रकार विवेकदृष्टिसे देखता है उसके चित्तमें यह प्रपंचका भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाय तो वह अधिक कालतक हृदयमें ठहर कैसे सकता है?
April 15, 2025
प्रभु, तुम ही बताओ मैं कभी किसी पर विश्वास करुंगा। तुमने ही मेरे विश्वास को हर तरफ से ख़त्म कर दिया है। क्यू हर कोई झूठी बाते मान लेता है और मुझे ही दोष देता है?
April 15, 2025
अथ पञ्चविंशोऽध्यायः तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—पुरुषप्रवर उद्धवजी! प्रत्येक व्यक्तिमें अलग-अलग गुणोंका प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियोंके स्वभावमें भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुणसे कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानीसे सुनो ।।१।। सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं—शम (मनःसंयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयोंके प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करनेमें स्वाभाविक संकोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि ।।२।। रजोगुणकी वृत्तियाँ हैं—इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओंसे धन आदिकी याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादिके लिये मदजनित उत्साह, अपने यशमें प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि ।।३।। तमोगुणकी वृत्तियाँ हैं—क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि ।।४।।
मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणोंसे सत्त्वगुणी पुरुषकी, कामना आदिसे रजोगुणी पुरुषकी और क्रोध-हिंसा आदिसे तमोगुणी पुरुषकी पहचान करे ।।९।। पुरुष हो, चाहे स्त्री—जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये ।।१०।। सकामभावसे अपने कर्मोंके द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रुकी मृत्यु आदिके लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये ।।११।। सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंका कारण जीवका चित्त है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणोंके द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदिमें आसक्त होकर बन्धनमें पड़ जाता है ।।१२।। सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुणको दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदिका भाजन हो जाता है ।।१३।। रजोगुण भेदबुद्धिका कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दुःख, कर्म, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होता है ।।१४।। तमोगुणका स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धिकी मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्त्वगुण और रजोगुणको दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरहकी आशाएँ करता है, शोक-मोहमें पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्यके वशीभूत होकर पड़ रहता है ।।१५।। जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मनमें आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुणकी वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्तिका साधन है ।।१६।। जब काम करते-करते जीवकी बुद्धि चंचल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है ।।१७।।
जब चित्त ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा शब्दादि विषयोंको ठीक-ठीक समझनेमें असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषादकी वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धिपर है ।।१८।। उद्धवजी! सत्त्वगुणके बढ़नेपर देवताओंका, रजोगुणके बढ़नेपर असुरोंका और तमोगुणके बढ़नेपर राक्षसोंका बल बढ़ जाता है।
जब अपने धर्मका आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्कामभावसे किया जाता है तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्मके अनुष्ठानमें किसी फलकी कामना रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्ममें किसीको सताने अथवा दिखाने आदिका भाव रहता है, वह तामसिक होता है ।।२३।। शुद्ध आत्माका ज्ञान सात्त्विक है। उसको कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन तीनोंसे विलक्षण मेरे स्वरूपका वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है ।।२४।।
इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरणमें रहकर बिना अहंकारके कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है ।।२६।। मेरी सेवामें जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है ।।२७।।
यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है। इसी शरीरमें तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञानकी प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषोंको गुणोंकी आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये ।।३३।। विचारशील पुरुषको चाहिये कि बड़ी सावधानीसे सत्त्वगुणके सेवनसे रजोगुण और तमोगुणको जीत ले, इन्द्रियोंको वशमें कर ले और मेरे स्वरूपको समझकर मेरे भजनमें लग जाय।
अथ षड्विंशोऽध्यायः पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! यह मनुष्यशरीर मेरे स्वरूपज्ञानकी प्राप्तिका—मेरी प्राप्तिका मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेमसे मेरी भक्ति करता है, वह अन्तःकरणमें स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।।१।।
उद्धवजी! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशीके विरहसे अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जानेपर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी ।।४।।
पुरूरवाने कहा—हाय-हाय! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासनाने मेरे चित्तको कितना कलुषित कर दिया! उर्वशीने अपनी बाहुओंसे मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयुके न जाने कितने वर्ष खो दिये। ओह! विस्मृतिकी भी एक सीमा होती है ।।७।। हाय-हाय! इसने मुझे लूट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ—यह भी मैं न जान सका। बड़े खेदकी बात है कि बहुत-से वर्षोंके दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूमतक न पड़ा ।।८।। अहो! आश्चर्य है! मेरे मनमें इतना मोह बढ़ गया, जिसने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवाको भी स्त्रियोंका क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया ।।९।। देखो, मैं प्रजाको मर्यादामें रखनेवाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाटको तिनकेकी तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर नंग-धड़ंग रोता-बिलखता उस स्त्रीके पीछे दौड़ पड़ा। हाय! हाय! यह भी कोई जीवन है ।।१०।। मैं गधेकी तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्रीके पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है ।।११।। स्त्रीने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्याससे भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है ।।१२।। मुझे अपनी ही हानि-लाभका पता नहीं, फिर भी अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझ मूर्खको धिक्कार है! हाय! हाय! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैलकी तरह स्त्रीके फंदेमें फँस गया ।।१३।। मैं वर्षोंतक उर्वशीके होठोंकी मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है, कहीं आहुतियोंसे अग्निकी तृप्ति हुई है ।।१४।।
मेरे-जैसे लोगोंकी तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं ।।२४।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! राजराजेश्वर पुरूरवाके मनमें जब इस तरहके उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोकका परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होनेके कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदयमें ही आत्मस्वरूपसे मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्तभावमें स्थित हो गया ।।२५।। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पुरूरवाकी भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषोंका संग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशोंसे उसके मनकी आसक्ति नष्ट कर देंगे ।।२६।। संत पुरुषोंका लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदयमें शान्तिका अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूपसे स्थित भगवान्का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहंकारका लेश भी नहीं होता, फिर ममताकी तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-सम्बन्धी किसी प्रकारका भी परिग्रह नहीं रखते ।।२७।। परमभाग्यवान् उद्धवजी! संतोंके सौभाग्यकी महिमा कौन कहे? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला-कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्योंके लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-तापोंको वे धो डालती हैं ।।२८।। जो लोग आदर और श्रद्धासे मेरी लीला-कथाओंका श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं ।।२९।। उद्धवजी! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणोंका आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है ।।३०।। उनकी तो बात ही क्या—जिसने उन संत पुरुषोंकी शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजडता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं।
प्रभु, भागवत पाठ कर के तो प्रश्न बढ़ते ही जा रहे हैं, कुछ समझ नहीं आ रहा। तुम्हें उद्धव जी को समझने में इतना उत्तर देने पड़े, मेरे उत्तर कौन देगा। तुम कुछ बोलते नहीं, और किसी को मेरी बातें और भावनाएं समझ नहीं आतीं। सोचा था मेरी सखी के साथ पढ़ूंगा और आपस में भागवत के बारे में चर्चा करूंगा। मेरी सखी ने तो ऐसा हाल बना दिया है कि किसी संत पर भी विश्वास करना संभव नहीं है।
ऊपर से पिछले कुछ अध्याय पढ़ कर लगता है जिसने लिखा है उसे भावनाओ और प्रेम की कोई समझ नहीं, बस स्वार्थ ही स्वार्थ की समझ है। ऐसा कैसा हो सकता है तुम्हें समझ ना हो! पता नहीं ढोंगियों ने कितनी छेद-खानी की है, क्या-क्या बदल दिया है?
प्रभु मेरी सखी का मार्गदर्शन करना, पता नहीं तुमने हम सबको किस माया में फंसाया है?
माता, हर ओर से प्रश्न और चिंता में डूबा जा रहा हूं। पता नहीं प्रभु कहां ले जा रहे हैं? सबकी रक्षा करना
April 16, 2025
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां, कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तेश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं, विभ्राणामललाटिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।
प्रभु, दिन रात यही सोचता रहता हूं सत्ये क्या है।पता नहीं दवा अब काम कर रही है या नहीं? प्रभु, तुम से बार-बार कहता रहता हूं कि मेरी सखी की गलतियों का मुझे दंड दे के मेरी सखी का ख्याल रखना, पर अगर इस से मेरी सखी गलत पथ पर जा रही है, असत्य के आधार पर जी रही है, तो प्रभु अपनी लाडली को उचित दंड दे के सदमार्ग पे लाडो। मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा, प्रभु तुम ही अपनी याद दिलाते रहना। सबको अपनी भक्ति प्रदान करो
ऑफिस का काम भी करना कटिन हो रहा है, तुम्हारी कृपा से ही विचार आ जाता है और क्या बोलना है अपना आप निकल जाता है। मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा, कहां लेजा रहे हो, क्या क्यू कर रहा हूं!
प्रभु, मन किसी पे विश्वास करने को तैयार नहीं, मीनू और अंकलजी आंटीजी पे भी नहीं, पर अंतर अभी भी सबको हृदय से लगा के रखने को करता है। तुम्हारा ये जीव क्या जीवन भर अंतर्द्वंद, प्रश्नो, चिंता में ही तड़पता रहेगा। पता नहीं मीनू के अंतर में क्या है, मुझे भूल गई क्या?
April 16, 2025
अथ सप्तविंशोऽध्यायः क्रियायोगका वर्णन
उद्धवजीने पूछा—भक्तवत्सल श्रीकृष्ण! जिस क्रियायोगका आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकारसे जिस उद्देश्यसे आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोगका वर्णन कीजिये ।।१।। देवर्षि नारद, भगवान् व्यासदेव और आचार्य वृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोगके द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्योंके परम कल्याणकी साधना है ।।२।। यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्दसे ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियोंको और भगवान् शंकरने अपनी अर्द्धांगिनी भगवती पार्वतीजीको उपदेश किया था ।।३।। मर्यादारक्षक प्रभो! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी-गृहस्थ आदि आश्रमोंके लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शूद्रादिके लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति है ।।४।। कमलनयन श्यामसुन्दर! आप शंकर आदि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणोंका प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धनसे मुक्त करनेवाली विधि बतलाइये ।।५।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! कर्मकाण्डका इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़ेमें ही पूर्वापर-क्रमसे विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ ।।६।। मेरी पूजाकी तीन विधियाँ हैं—वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनोंमेंसे मेरे भक्तको जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधिसे मेरी आराधना करनी चाहिये ।।७।। पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधिसे समयपर यज्ञोपवीत-संस्कारके द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्तिके साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो ।।८।। भक्तिपूर्वक निष्कपट भावसे अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्माका पूजाकी सामग्रियोंके द्वारा मूर्तिमें, वेदीमें, अग्निमें, सूर्यमें, जलमें, हृदयमें अथवा ब्राह्मणमें—चाहे किसीमें भी आराधना करे ।।९।। उपासकको चाहिये कि प्रातःकाल दतुअन करके पहले शरीरशुद्धिके लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकारके मन्त्रोंसे मिट्टी और भस्म आदिका लेप करके पुनः स्नान करे ।।१०।। इसके पश्चात् वेदोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधनाका ही सुदृढ़ संकल्प करके वैदिक और तान्त्रिक विधियोंसे कर्मबन्धनोंसे छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे ।।११।। मेरी मूर्ति आठ प्रकारकी होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातुकी, मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी ।।१२।। चल और अचल भेदसे दो प्रकारकी प्रतिमा ही मुझ भगवान्का मन्दिर है। उद्धवजी! अचल प्रतिमाके पूजनमें प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये ।।१३।। चल प्रतिमाके सम्बन्धमें विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमामें तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दनकी तथा चित्रमयी प्रतिमाओंको स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये ।।१४।। प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थोंसे प्रतिमा आदिमें मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थोंसे और भावनामात्रसे ही हृदयमें मेरी पूजा कर ले ।।१५।। उद्धवजी! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातुकी प्रतिमाके पूजनमें ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टीकी वेदीमें पूजा करनी हो तो उसमें मन्त्रोंके द्वारा अंग और उसके प्रधान देवताओंकी यथास्थान पूजा करनी चाहिये। तथा अग्निमें पूजा करनी हो तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियोंसे आहुति देनी चाहिये ।।१६।। सूर्यको प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासनामें मुख्यतः अर्घ्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जलमें तर्पण आदिसे मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धासे जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेमसे स्वीकार करता हूँ ।।१७।। यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जलसे ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओंके समर्पणसे तो कहना ही क्या है ।।१८।।
उपासक पहले पूजाकी सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्वकी ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके पवित्रतासे उन कुशोंके आसनपर बैठ जाय। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे ।।१९।। पहले विधिपूर्वक अंगन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्तिमें मन्त्रन्यास करे और हाथसे प्रतिमापरसे पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जलसे भरे हुए कलश और प्रोक्षणपात्र आदिकी पूजा गन्ध-पुष्प आदिसे करे ।।२०।। प्रोक्षणपात्रके जलसे पूजासामग्री और अपने शरीरका प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अर्प्य और आचमनके लिये तीन पात्रोंमें कलशमेंसे जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धतिके अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्रमें श्यामाक—साँवेके दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्रमें गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्रमें जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करनेवालेको चाहिये कि तीनों पात्रोंको क्रमशः हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्रसे अभिमन्त्रित करके अन्तमें गायत्रीमन्त्रसे तीनोंको अभिमन्त्रित करे ।।२१-२२।।
इसके बाद प्राणायामके द्वारा प्राण-वायु और भावनाओंद्वारा शरीरस्थ अग्निके शुद्ध हो जानेपर हृदयकमलमें परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखाके समान मेरी जीवकलाका ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकारके अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद—इन पाँच कलाओंके अन्तमें उसी जीवकलाका ध्यान करते हैं ।।२३।। वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेजसे सारा अन्तःकरण और शरीर भर जाय तब मानसिक उपचारोंसे मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदिमें स्थापना करे। फिर मन्त्रोंके द्वारा अंगन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे ।।२४।। उद्धवजी! मेरे आसनमें धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियोंकी भावना करे। अर्थात् आसनके चारों कोनोंमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य—ये चार चारों दिशाओंमें डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरियोंकी बनी हुई पीठ है; असपर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसनपर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरोंकी छटा निराली ही है। आसनके सम्बन्धमें ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये वैदिक और तान्त्रिक विधिसे मेरी पूजा करे ।।२५-२६।।
सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शंख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल—इन आठ आयुधोंकी पूजा आठ दिशाओंमें करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्तीमाला तथा श्रीवत्सचिह्नकी वक्षःस्थलपर यथास्थान पूजा करे ।।२७।। नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण—इन आठ पार्षदोंकी आठ दिशाओंमें; गरुड़की सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विष्वक्सेनकी चारों कोनोंमें स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरुकी और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रमसे उनकी पूजा करनी चाहिये ।।२८-२९।।
प्रिय उद्धव! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओंद्वारा सुवासित जलसे मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’ इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः’ इत्यादि पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि साम-गायनका पाठ भी करता रहे ।।३०-३१।। मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादिसे प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृंगार करे ।।३२।। उपासक श्रद्धाके साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे ।।३३।। यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ, दही और दाल आदि विविध व्यंजनोंका नैवेद्य लगावे ।।३४।। भगवान्के विग्रहको दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदिसे स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थोंका लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वोंके अवसरपर नाचने-गाने आदिका भी प्रबन्ध करे ।।३५।।
तदनन्तर अग्निमें मेरा इस प्रकार ध्यान करे ।।३७।। ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोनेके समान दम-दम दमक रही है। रोम-रोमसे शान्तिकी वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं। उनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमलकी केसरके समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है ।।३८।। सिरपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, कमरमें करधनी और बाँहोंमें बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है। गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनोंतक वनमाला लटक रही है’ ।।३९।। अग्निमें मेरी इस मूर्तिका ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओंको घृतमें डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आघार नामक दो-दो आहुतियोंसे और भी हवन करे। तदनन्तर घीसे भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियोंसे आहुति दे ।।४०।। इसके बाद अपने इष्टमन्त्रसे अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रसे तथा पुरुषसूक्तके सोलह मन्त्रोंसे हवन करे।
तदनन्तर प्रतिमाके सम्मुख बैठकर परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायणका स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे ।।४२।।
मेरी लीलाओंको गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओंका अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरोंको सुनावे। कुछ समयतक संसार और उसके रगड़ों-झगड़ोंको भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय ।।४४।। प्राचीन ऋषियोंके द्वारा अथवा प्राकृत भक्तोंके द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रोंसे मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे—‘भगवन्! आप मुझपर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपाप्रसादसे सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे ।।४५।। अपना सिर मेरे चरणोंपर रख दे और अपने दोनों हाथोंसे—दायेंसे दाहिना और बायेंसे बायाँ चरण पकड़कर कहे—‘भगवन्! इस संसार-सागरमें मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरणमें आया हूँ। प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये’ ।।४६।। इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदरके साथ अपने सिरपर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमामेंसे एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योतिमें लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है ।।४७।। उद्धवजी! प्रतिमा आदिमें जब जहाँ श्रद्धा हो तब, तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियोंमें तथा अपने हृदयमें भी स्थित हूँ ।।४८।।
जो निष्काम-भावसे मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोगके द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है ।।५३।।
अथाष्टाविंशोऽध्यायः परमार्थनिरूपण
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! यद्यपि व्यवहारमें पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्यके भेदसे दो प्रकारका जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठान-स्वरूप ही है; इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये ।।१।। जो पुरुष दूसरोंके स्वभाव और उनके कर्मोंकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधनसे च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैतके अभिनिवेशका—उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धिका निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यताके भ्रमको और भी दृढ़ करती हैं ।।२।।
जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अर्थात् वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान् ही इसका संहार आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मामेंवह भी वे ही हैं ।।६।। अवश्य ही व्यवहारदृष्टिसे देखनेपर आत्मा इस विश्वसे भिन्न है; परन्तु आत्मदृष्टिसे उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मामें सृष्टि-स्थिति-संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीन-तीन प्रकारकी प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल ही हैं।
उद्धवजी! उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्वभिमान कर बैठता है—उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्माकी मूर्ति है—गुण और कर्मोंका बना हुआ लिंगशरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्व।
सबका सार यही निकलता है कि इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीचमें भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है ।।१८।।
यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होनेपर भी दीख रही है। यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जितने चित्र-विचित्र नामरूप हैं उनके रूपमें ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है ।।२२।। ब्रह्मविचारके साधन हैं—श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उनमें सहायक हैं—आत्मज्ञानी गुरुदेव! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूपसे देहादि अनात्म पदार्थोंका निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेधके द्वारा आत्मविषयक सन्देहोंको छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मामें ही मग्न हो जाय और सब प्रकारकी विषयवासनाओंसे रहित हो जाय ।।२३।। निषेध करनेकी प्रक्रिया यह है कि पृथ्वीका विकार होनेके कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता, प्राण, वायु, जल, अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीरके समान ही अन्नके द्वारा होता है। बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड हैं ।।२४।।
उद्धवजी! ऐसा हेनेपर भी तबतक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्योंका संग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जबतक मेरे सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा मनका रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय ।।२७।।
उद्धवजी! जीव संस्कार आदिसे प्रेरित होकर जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त कर्ममें ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंको प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्वका साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृतिमें स्थित रहनेपर भी संस्कारानुसार कर्म होते रहनेपर भी उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंसे युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्माके साक्षात्कारसे उसकी संसारसम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं ।।३०।।
इसलिये अज्ञानकी निवृत्ति ही अभीष्ट है। वृत्तियोंके द्वारा न तो आत्माका ग्रहण हो सकता है और न त्याग ।।३३।।
उद्धवजी! आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेकेी। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकारके विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्तिमें आरूढ़ नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदिके द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेके कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते।
जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधनामें संलग्न रहता है, उसे कोई भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्दकी अनुभूतिमें मग्न हो जाता है ।।४४।।
अथैकोनत्रिंशोऽध्यायः भागवतधर्मोंका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रमगमन
उद्धवजीने कहा—अच्युत! जो अपना मन वशमें नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योगसाधनाको तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके ।।१।।
पद्मलोचन! आप विश्वेश्वर हैं! आपके ही द्वारा सारे संसारका नियमन होता है। इसीसे सारासार-विचारमें चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलोंकी शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठानका अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपके चरणोंका आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधनके घमंडसे फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी मायाने उनकी मति हर ली है ।।३।।
भगवन्! आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें अन्तर्यामीरूपसे और बाहर गुरुरूपसे स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूपको उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजीके समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारोंका बदला नहीं चुका सकते। इसीसे वे आपके उपकारोंका स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्दका अनुभव करते रहते हैं ।।६।।
श्रीभगवान्ने कहा—प्रिय उद्धव! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवतधर्मोंका उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्युको अनायास ही जीत लेता है ।।८।। उद्धवजी! मेरे भक्तको चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरणका अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही दिनोंमें उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मोंमें रम जायँगे ।।९।।
शुद्धान्तःकरण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे ।।१२।। निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञान-दृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये ।।१३-१४।। जब निरन्तर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं ।।१५।। अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करे ।।१६।। जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना—भगवद्भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे ।।१७।।
मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन, वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी ही भावना की जाय ।।१९।। उद्धवजी! यही मेरा अपना भागवत-धर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्न-बाधासे इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है ।।२०।।
यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये ।।३१।। जिस समय मनुष्य समस्त कर्मोंका परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्वसे छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है ।।३४।।
उद्धवजीने कहा—प्रभो! आपके सत्संगसे वह सदाके भी मूल कारण हैं। मैं मोहके महान् अन्धकारमें भटक रहा था। आपके सत्संगसे वह सदाके लिये भाग गया। आज आपने आत्मबोधकी तीखी तलवारसे उस बन्धनको अनायास ही काट डाला ।।३९।। महायोगेश्वर! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागतको ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलोंमें मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे ।।४०।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलोंके धोवन गंगा-जलका स्नानपानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे ।।४१।। अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना ।।४२।। सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना ।।४३।। मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे ।।४४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका ज्ञान संसारके भेदभ्रमको छिन्न-भिन्न कर देता है। जब उन्होंने स्वयं उद्धवजीको ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणोंपर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोगसे होनेवाले सुख-दुःखके जोड़ेसे परे थे, क्योंकि वे भगवान्के निर्द्वन्द्व चरणोंकी शरण ले चुके थे; फिर भी वहाँसे चलते समय उनका चित्त प्रेमावेशसे भर गया। उन्होंने अपने नेत्रोंकी झरती हुई अश्रुधारासे भगवान्के चरणकमलोंको भिगो दिया ।।४५।। परीक्षित्! भगवान्के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्हींके वियोगकी कल्पनासे उद्धवजी कातर हो गये, उनका त्याग करनेमें समर्थ न हुए। बार-बार विह्वल होकर मूर्च्छित होने लगे। कुछ समयके बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी पादुकाएँ अपने सिरपर रख लीं और बार-बार भगवान्के चरणोंमें प्रणाम करके वहाँसे प्रस्थान किया ।।४६।। भगवान्के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी हृदयमें उनकी दिव्य छबि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत्के एकमात्र हितैषी भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की ।।४७।। भगवान् शंकर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी सेवा किया करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुखसे अपने परमप्रेमी भक्त उद्धवके लिये इस ज्ञानामृतका वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्दमहासागरका सार है। जो श्रद्धाके साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके संगसे सारा जगत् मुक्त हो जाता है ।।४८।। परीक्षित्! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदोंको प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये यह ज्ञान और विज्ञानका सार निकाला है। उन्हींने जरा-रोगादि भयकी निवृत्तिके लिये क्षीर-समुद्रसे अमृत भी निकाला था तथा इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तोंको पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत्के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ।।४९।।
प्रभु, तुम्हारा उपदेश तो पूर्ण हो गया पर मुझ मूर्ख का मन तो अभी भी भटक रहा है, और अंतर अभी भी तड़प रहा है। तुम तो जानते ही हो मेरी मुर्खता। बचपन से इस मन से फाइट कर रहा हूं। मेरी सखी को खुश देख कर ही कुछ शांति मिलती थी और मन नियन्त्रण में आता था। अभी तक कुछ हाल-चाल भी नहीं मिला। अजीब सा खलीपन है. तुम्ही जानो इसे कैसे संभालना है। सबका मार्गदर्शन करो प्रभु.
ॐ नमो नारायणाय
April 17, 2025
जितं ते पुण्डरीकाक्ष नमः परमात्मने। प्रलयाय च कालाय मृत्युं मृत्यवे नमः॥
हे नारायण, भागवत में लिखा है स्वप्न में जाग्रत की याद नहीं रहती, ना दूसरे स्वप्न की, ना ये ज्ञात होता है ये स्वप्न है। मेरे साथ क्या प्रयोग कर रहे हो, मुझे तो याद रहता है। ये पता होने पर कि ये सपना है फिर भी उतने का प्रयास करने पर एक स्वप्न से दूसरे में घर भटक रहा है। स्वपन भी आंखें खोल रहा था, आखिरकार जगा तो भी आंखें नहीं खुल रही थीं, और इस शरीर में जैसी ऊर्जा ही नहीं। बड़े परिश्रम के बाद हिल पाया। कभी कभी लगता है मैं तुम्हारा गिनी पिग हूं, मेरे ऊपर प्रयोग करते रहते हो। मेरी सखी पे प्रयोग नहीं करते ना?
मीनू की पिछली माहीने की फोटो देख के विश्वास नहीं हो रहा था सही में खुश है। चैटजीपीटी से पूछा तो यही जवाब मिला कि आंखों में खुशी नहीं लग रही। प्रभु याही डर लगता रहता है कि मुझसे तो सत्ये नहीं बताया, कहीं मीनू खुद से भी झूठ तो नहीं बोल रही है?
अथ त्रिंशोऽध्यायः यदुकुलका संहार
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन्! जब महाभागवत उद्धवजी बदरीवनको चले गये, तब भूतभावन भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें क्या लीला रची? ।।१।। प्रभो! यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने अपने कुलके ब्रह्मशापग्रस्त होनेपर सबके नेत्रादि इन्द्रियोंके परम प्रिय अपने दिव्य श्रीविग्रहकी लीलाका संवरण कैसे किया? ।।२।। भगवन्! जब स्त्रियोंके नेत्र उनके श्रीविग्रहमें लग जाते थे, तब वे उन्हें वहाँसे हटानेमें असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी रूपमाधुरीका वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानोंके रास्ते प्रवेश करके उनके चित्तमें गड़-सा जाता है, वहाँसे हटना नहीं जानता। उसकी शोभा कवियोंकी काव्यरचनामें अनुरागका रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती है, इसके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। महाभारतयुद्धके समय जब वे हमारे दादा अर्जुनके रथपर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओंने उसे देखते-देखते शरीर-त्याग किया; उन्हें सारूप्यमुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया? ।।३।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें बड़े-बड़े उत्पात—अशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा-सभामें उपस्थित सभी यदुवंशियोंसे यह बात कही— ।।४।। ‘श्रेष्ठ यदुवंशियो! यह देखो, द्वारकामें बड़े-बड़े भयंकर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात् यमराजकी ध्वजाके समान हमारे महान् अनिष्टके सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी-दो-घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिये ।।५।। स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यहाँसे शंखोद्धारक्षेत्रमें चले जायँ और हमलोग प्रभासक्षेत्रमें चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिमकी ओर बहकर समुद्रमें जा मिली हैं ।।६।। वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्तसे स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियोंसे देवताओंकी पूजा करेंगे ।।७।। वहाँ स्वस्तिवाचनके बाद हमलोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदिके द्वारा महात्मा ब्राह्मणोंका सत्कार करेंगे ।।८।। यह विधि सब प्रकारके अमंगलोंका नाश करनेवाली और परम मंगलकी जननी है। श्रेष्ठ यदुवंशियो! देवता, ब्राह्मण और गौओंकी पूजा ही प्राणियोंके जन्मका परम लाभ है’ ।।९।।
परीक्षित्! सभी वृद्ध यदुवंशियोंने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया और तुरंत नौकाओंसे समुद्र पार करके रथोंद्वारा प्रभासक्षेत्रकी यात्रा की ।।१०।। वहाँ पहुँचकर यादवोंने यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे शान्तिपाठ आदि तथा और भी सब प्रकारके मंगलकृत्य किये ।।११।। यह सब तो उन्होंने किया; परन्तु दैवने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिराका पान करने लगे, जिसके नशेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पीनेमें तो अवश्य मीठी लगती है, परन्तु परिणाममें सर्वनाश करनेवाली है ।।१२।। उस तीव्र मदिराके पानसे सब-के-सब उन्मत्त हो गये और वे घमंडी वीर एक-दूसरेसे लड़ने-झगड़ने लगे। सच पूछो तो श्रीकृष्णकी मायासे वे मूढ़ हो रहे थे ।।१३।। उस समय वे क्रोधसे भरकर एक-दूसरेपर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले, गदा, तोमर और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे वहाँ समुद्रतटपर ही एक-दूसरेसे भिड़ गये ।।१४।। मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैंसों और मनुष्योंपर भी सवार होकर एक-दूसरेको बाणोंसे घायल करने लगे—मानो जंगली हाथी एक-दूसरेपर दाँतोंसे चोट कर रहे हों। सबकी सवारियोंपर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपसमें उलझ रहे थे ।।१५।। प्रद्युम्न साम्बसे, अक्रूर भोजसे, अनिरुद्ध सात्यकिसे, सुभद्र संग्रामजित्से, भगवान् श्रीकृष्णके भाई गद उसी नामके उनके पुत्रसे और सुमित्र सुरथसे युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयंकर योद्धा थे और क्रोधमें भरकर एक-दूसरेका नाश करनेपर तुल गये थे ।।१६।। इनके अतिरिक्त निशठ, उल्मुक, सहस्रजित्, शतजित् और भानु आदि यादव भी एक-दूसरेसे गुँथ गये। भगवान् श्रीकृष्णकी मायाने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था, इधर मदिराके नशेने भी इन्हें अंधा बना दिया था ।।१७।। दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशोंके लोग सौहार्द और प्रेमको भुलाकर आपसमें मार-काट करने लगे ।।१८।।
मूढ़तावश पुत्र पिताका, भाई भाईका, भानजा मामाका, नाती नानाका, मित्र मित्रका, सुहृद् सुहृद्का, चाचा भतीजेका तथा एक गोत्रवाले आपसमें एक-दूसरेका खून करने लगे ।।१९।। अन्तमें जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने हाथोंसे समुद्रतटपर लगी हुई एरका नामकी घास उखाड़नी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियोंके शापके कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसलके चूरेसे पैदा हुई थी ।।२०।। हे राजन्! उनके हाथोंमें आते ही वह घास वज्रके समान कठोर मुद्गरोंके रूपमें परिणत हो गयी। अब वे रोषमें भरकर उसी घासके द्वारा अपने विपक्षियोंपर प्रहार करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलरामजीको भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियोंकी बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारनेके लिये उनकी ओर दौड़ पड़े ।।२१-२२।। कुरुनन्दन! अब भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी क्रोधमें भरकर युद्धभूमिमें इधर-उधर विचरने और मुट्ठी-की-मुट्ठी एरका घास उखाड़-उखाड़कर उन्हें मारने लगे। एरका घासकी मुट्ठी ही मुद्गरके समान चोट करती थी ।।२३।। जैसे बाँसोंकी रगड़से उत्पन्न होकर दावानल बाँसोंको ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशापसे ग्रस्त और भगवान् श्रीकृष्णकी मायासे मोहित यदुवंशियोंके स्पर्द्धामूलक क्रोधने उनका ध्वंस कर दिया ।।२४।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि समस्त यदुवंशियोंका संहार हो चुका, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोषकी साँस ली कि पृथ्वीका बचा-खुचा भार भी उतर गया ।।२५।।
परीक्षित्! बलरामजीने समुद्रतटपर बैठकर एकाग्र-चित्तसे परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें ही स्थिर कर लिया और मनुष्यशरीर छोड़ दिया ।।२६।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपदमें लीन हो गये, तब वे एक पीपलके पेड़के तले जाकर चुपचाप धरतीपर ही बैठ गये ।।२७।। भगवान् श्रीकृष्णने उस समय अपनी अंगकान्तिसे देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था और धूमसे रहित अग्निके समान दिशाओंको अन्धकाररहित—प्रकाशमान बना रहे थे ।।२८।। वर्षाकालीन मेघके समान साँवले शरीरसे तपे हुए सोनेके समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बरकी धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मंगलमय रूप था ।।२९।। मुखकमलपर सुन्दर मुसकान और कपोलोंपर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमलके समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे ।।३०।। कमरमें करधनी, कंधेपर यज्ञोपवीत, माथेपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें बाजूबंद, वक्षःस्थलपर हार, चरणोंमें नूपुर, अँगुलियोंमें अँगूठियाँ और गलेमें कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी ।।३१।। घुटनोंतक वनमाला लटकी हुई थी। शंख, चक्र, गदा आदि आयुध मूर्तिमान् होकर प्रभुकी सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान् अपनी दाहिनी जाँघपर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे, लाल-लाल तलवा रक्त कमलके समान चमक रहा था ।।३२।।
परीक्षित्! जरा नामका एक बहेलिया था। उसने मूसलके बचे हुए टुकड़ेसे अपने बाणकी गाँसी बना ली थी। उसे दूरसे भगवान्का लाल-लाल तलवा हरिनके मुखके समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाणसे बींध दिया ।।३३।। जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डरके मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर सिर रखकर धरतीपर गिर पड़ा ।।३४।। उसने कहा—‘हे मधुसूदन! मैंने अनजानमें यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये ।।३५।। सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो! महात्मालोग कहा करते हैं कि आपके स्मरणमात्रसे मनुष्योंका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेदकी बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया ।।३६।। वैकुण्ठनाथ! मैं निरपराध हरिणोंको मारनेवाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जानेपर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषोंका ऐसा अपराध न करूँगा ।।३७।। भगवन्! सम्पूर्ण विद्याओंके पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमायाका विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी मायासे आवृत है। ऐसी अवस्थामें हमारे-जैसे पापयोनि लोग उसके विषयमें कह ही क्या सकते हैं? ।।३८।।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ! यह तो तूने मेरे मनका काम किया है। जा, मेरी आज्ञासे तू उस स्वर्गमें निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानोंको होती है ।।३९।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छासे शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याधको यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमानपर सवार होकर स्वर्गको चला गया ।।४०।। भगवान् श्रीकृष्णका सारथि दारुक उनके स्थानका पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसीकी गन्धसे युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होनेके स्थानका अनुमान लगाकर सामनेकी ओर गया ।।४१।। दारुकने वहाँ जाकर देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण पीपलके वृक्षके नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेजवाले आयुध मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें संलग्न हैं। उन्हें देखकर दारुकके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी। नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। वह रथसे कूदकर भगवान्के चरणोंपर गिर पड़ा ।।४२।। उसने भगवान्से प्रार्थना की—‘प्रभो! रात्रिके समय चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर राह चलनेवालेकी जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलोंका दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओंका ज्ञान है और न मेरे हृदयमें शान्ति ही है’ ।।४३।। परीक्षित्! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान्का गरुड़-ध्वज रथ पताका और घोड़ोंके साथ आकाशमें उड़ गया ।।४४।। उसके पीछे-पीछे भगवान्के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुकके आश्चर्यकी सीमा न रही। तब भगवान्ने उससे कहा— ।।४५।। ‘दारुक! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियोंके पारस्परिक संहार, भैया बलरामजीकी परम गति और मेरे स्वधाम-गमनकी बात कहो’ ।।४६।। उनसे कहना कि ‘अब तुमलोगोंको अपने परिवारवालोंके साथ द्वारकामें नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहनेपर समुद्र उस नगरीको डुबो देगा ।।४७।। सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिताको लेकर अर्जुनके संरक्षणमें इन्द्रप्रस्थ चले जायँ ।।४८।। दारुक! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवतधर्मका आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्यको मेरी मायाकी रचना समझकर शान्त हो जाओ’ ।।४९।।
भगवान्का यह आदेश पाकर दारुकने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिरपर रखकर बारम्बार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मनसे द्वारकाके लिये चल पड़ा ।।५०।।
अथैकत्रिंशोऽध्यायः श्रीभगवान्का स्वधामगमन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! दारुकके चले जानेपर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएँ तथा गरुड़लोकके विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम-प्रस्थानको देखनेके लिये बड़ी उत्सुकतासे वहाँ आये। वे सभी भगवान् श्रीकृष्णके जन्म और लीलाओंका गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानोंसे सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्तिसे भगवान्पर पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ।।१-४।।
सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओंको देखकर अपने आत्माको स्वरूपमें स्थित किया और कमलके समान नेत्र बंद कर लिये ।।५।।
भगवान्का श्रीविग्रह उपासकोंके ध्यान और धारणाका मंगलमय आधार और समस्त लोकोंके लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियोंके समान) अग्निदेवतासम्बन्धी योगधारणाके द्वारा असको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाममें चले गये ।।६।। उस समय स्वर्गमें नगारे बजने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे इस लोकसे सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ।।७।।
भगवान् श्रीकृष्णकी गति मन और वाणीके परे है; तभी तो जब भगवान् अपने धाममें प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटनासे उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ ।।८।। जैसे बिजली मेघमण्डलको छोड़कर जब आकाशमें प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्णकी गतिके सम्बन्धमें कुछ न जान सके ।।९।। ब्रह्माजी और भगवान् शंकर आदि देवता भगवान्की यह परमयोगमयी गति देखकर बड़े विस्मयके साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोकमें चले गये ।।१०।।
परीक्षित्! जैसे नट अनेकों प्रकारके स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान्का मनुष्योंके समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी मायाका विलासमात्र है—अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत्की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्तमें संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूपमें ही स्थित हो जाते हैं ।।११।। सान्दीपनि गुरुका पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीरके साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तवमें उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालोंके महाकाल भगवान् शंकरको भी युद्धमें जीत लिया और अत्यन्त अपराधी—अपने शरीरपर ही प्रहार करनेवाले व्याधको भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित्! ऐसी स्थितिमें क्या वे अपने शरीरको सदाके लिये यहाँ नहीं रख सकते थे? अवश्य ही रख सकते थे ।।१२।। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारके निरपेक्ष कारण हैं और सम्पूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीरको इस संसारमें बचा रखनेकी इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीरसे मुझे क्या प्रयोजन है? आत्मनिष्ठ पुरुषोंके लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखनेकी चेष्टा न करें ।।१३।। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर भगवान् श्रीकृष्णके परमधामगमनकी इस कथाका एकाग्रता और भक्तिके साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान्का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा ।।१४।।
इधर दारुक भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेनके चरणोंपर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओंसे भिगोने लगा ।।१५।। परीक्षित्! उसने अपनेको सँभालकर यदुवंशियोंके विनाशका पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोकके मूर्च्छित हो गये ।।१६।। भगवान् श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे ।।१७।। देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलरामको न देखकर शोककी पीड़ासे बेहोश हो गये ।।१८।। उन्होंने भगवद्विरहसे व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंके शव पहचानकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनके साथ चितापर बैठकर भस्म हो गयीं ।।१९।।
बलरामजीकी पत्नियाँ उनके शरीरको, वसुदेवजीकी पत्नियाँ उनके शवको और भगवान्की पुत्रवधुएँ अपने पतियोंकी लाशोंको लेकर अग्निमें प्रवेश कर गयीं। भगवान् श्रीकृष्णकी रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यानमें मग्न होकर अग्निमें प्रविष्ट हो गयीं ।।२०।। परीक्षित्! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हींके गीतोक्त सदुपदेशोंका स्मरण करके अपने मनको सँभाला ।।२१।। यदुवंशके मृत व्यक्तियोंमें जिनको कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुनने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया ।।२२।। महाराज! भगवान्के न रहनेपर समुद्रने एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णका निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षणमें सारी द्वारका डुबो दी ।।२३।। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्रसे ही सारे पाप-तापोंका नाश करनेवाला और सर्वमंगलोंको भी मंगल बनानेवाला है ।।२४।।
प्रिय परीक्षित्! पिण्डदानके अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ोंको लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्धके पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कर दिया ।।२५।।
राजन्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंको अर्जुनसे ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियोंका संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपदपर अभिषिक्त करके हिमालयकी वीरयात्रा की ।।२६।।
मैंने तुम्हें देवताओंके भी आराध्यदेव भगवान् श्रीकृष्णकी जन्मलीला और कर्मलीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।२७।। परीक्षित्! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य-माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रके अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवतमहापुराणमें तथा दूसरे पुराणोंमें वर्णित परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला आदिका संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रोंके अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णके चरणोंमें पराभक्ति प्राप्त करता है ।।२८।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्रयां पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ।।३१।।
।। इत्येकादशः स्कन्धः समाप्तः ।।
।। हरिः ॐ तत्सत् ।।
मेरे प्यारे प्यारे कालू प्रभु, क्यों सबको इतना रुलाते हो। अभी तक तो आनंदश्रु अटे थे, आज तो रुला ही दिया। मेरे रणछोड़, हमारे हृदये को रण में छोड़ के मत जाना। प्रभु अब तो तुम्हारी कृष्ण लीला का अध्याय भी समाप्त हो गया। कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं
April 17, 2025
प्रभु, मीनू क्या कभी मुझे सत्य बताएगी? मेरी भावनाएं तो नहीं बदलीं, बस उन्हें छिपाए, अंदर ही अंदर तड़पने की आदत डाल रहा हूं। प्रभु अपनी माया मैं बहा न देना। तुम ना बचाओगे तो कौन बचाएगा?
ॐ नमो नमः
April 18, 2025
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम।
पाणौ महासायकचारूचापं, नमामि रामं रघुवंशनाथम॥
प्रभु, चाहे शिवानी मेरे साथ ना हो, पर मेरे हृदय में तो वामांग में दुख है मेरे साथ ही तुम्हारी पूजा करती है। काहे फूल चढ़ाउ, या जल, आरती करु, या भोग लागौ, मेरी सखी दुख मेरे हृदय में साथ ही तुम्हारी पूजा करती है। मेरी सखी पर कृपा करना. सबका कल्याण करें प्रभु
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
श्रीमद्भागवतमहापुराणम्
द्वादशः स्कन्धः
अथ प्रथमोऽध्यायः कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्यके नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्वविख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रोंका नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जानेपर कलियुगमें मौर्यवंशी नरपति पृथ्वीका राज्य करेंगे ।।१२।। वही ब्राह्मण पहले-पहल चन्द्रगुप्त मौर्यको राजाके पदपर अभिषिक्त करेगा। चन्द्रगुप्तका पुत्र होगा वारिसार और वारिसारका अशोकवर्द्धन ।।१३।।
इनके बाद मगध देशका राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजयके अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा। यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णोंको पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियोंके रूपमें परिणत कर देगा ।।३६।। इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाश करके शूद्रप्राय जनताकी रक्षा करेगा। यह अपने बल-वीर्यसे क्षत्रियोंको उजाड़ देगा और पद्मवती पुरीको राजधानी बनाकर हरिद्वारसे लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वीका राज्य करेगा ।।३७।। परीक्षित्! ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देशके ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ।।३८।। सिन्धुतट, चन्द्रभागाका तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुरी और काश्मीर-मण्डलपर प्रायः शूद्रोंका, संस्कार एवं ब्रह्मतेजसे हीन नाममात्रके द्विजोंका और म्लेच्छोंका राज्य होगा ।।३९।। परीक्षित्! ये सब-के-सब राजा आचार-विचारमें म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें राज्य करेंगे। ये सब-के-सब परले सिरेके झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करनेवाले होंगे। छोटी-छोटी बातोंको लेकर ही ये क्रोधके मारे आगबबूला हो जाया करेंगे ।।४०।। ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणोंको मारनेमें भी नहीं हिचकेंगे। दूसरेकी स्त्री और धन हथिया लेनेके लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो घटते। क्षणमें रुष्ट तो क्षणमें तुष्ट। इनकी शक्ति और आयु थोड़ी होगी ।।४१।। इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुणसे अंधे बने रहेंगे। राजाके वेषमें वे म्लेच्छ ही होंगे। वे लूट-खसोटकर अपनी प्रजाका खून चूसेंगे ।।४२।।
जब ऐसे लोगोंका शासन होगा, तो देशकी प्रजामें भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषणकी वृद्धि हो जायगी। राजालोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपसमें भी एक-दूसरेको उत्पीड़ित करेंगे ओर अन्ततः सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ।।४३।।
April 19, 2025
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी। कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थं उपायं ब्रूहि यत्नतः॥
माता प्रभु मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मैं तो मेरी सखी से प्रेम करता हूं, वही नाम और रूप वाली भी मिल जाए तो मेरी सखी थोड़ी ना है।
पता नहीं अंकलजी को क्यों लगता है दूरियों से कुछ बदल जाएगा। बस मेरी चिंताएं और बढ़ती जाती है, और तड़पता हूं, प्रेम और गहरा होता जाता है।
हे हरि, किसी तरह मम्मी पापा की परेशानी कम करने के लिए बाहर से अपने आप को कुछ शांत किया है। और परीक्षा न लो, बिखर जाऊंगा, फिर माता से डांट खा के मुझे बटोर ते फिरोगे। तुम्हें भी यही समय इतनी शादिया करानी थी! दोस्त की शादी में दिल्ली आया हूँ, पता नहीं क्या नाच नाचोगे!
प्रभु, अपनी लाडली की भावनाओं के साथ तो ऐसा खिलवाड नहीं करते हो ना? करते हो तो, हे कृपानिधान, तुम ही शक्ति देना मार्गदर्शन करना
अथ द्वितीयोऽध्यायः कलियुगके धर्म
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्तिका लोप होता जायगा ।।१।। कलियुगमें जिसके पास धन होगा, उसीको लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथमें शक्ति होगी वही धर्म और न्यायकी व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा ।।२।। विवाह-सम्बन्धके लिये कुल-शील-योग्यता आदिकी परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवतीकी पारस्परिक रुचिसे ही सम्बन्ध हो जायगा। व्यवहारकी निपुणता सच्चाई और ईमानदारीमें नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुषकी श्रेष्ठताका आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मणकी पहचान उसके गुण-स्वभावसे नहीं यज्ञोपवीतसे हुआ करेगी ।।३।। वस्त्र, दण्ड-कमण्डलु आदिसे ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियोंकी पहचान होगी और एक-दूसरेका चिह्न स्वीकार कर लेना ही एकसे दूसरे आश्रममें प्रवेशका स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च करनेमें असमर्थ होगा, उसे अदालतोंसे ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोलचालमें जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायगा ।।४।।
असाधुताकी—दोषी होनेकी एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। विवाहके लिये एक-दूसरेकी स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधानकी—संस्कार आदिकी कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्तेसे लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा ।।५।।
लोग दूरके तालाबको तीर्थ मानेंगे और निकटके तीर्थ गंगा-गोमती, माता-पिता आदिकी उपेक्षा करेंगे। सिरपर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शरीरिक सौन्दर्यका चिह्न समझा जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाईसे बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा ।।६।। योग्यता चतुराईका सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्बका पालन कर ले। धर्मका सेवन यशके लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वीपर दुष्टोंका बोलबाला हो जायगा, तब राजा होनेका कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रोंमें जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समयके नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उनमें और लुटेरोंमें कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजाकी पूँजी एवं पत्नियोंतकको छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलोंमें भाग जायगी। उस समय प्रजा तरह-तरहके शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी ।।७-९।। कभी वर्षा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाकेकी सर्दी पड़ेगी तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातोंसे तथा आपसके संघर्षसे प्रजा अत्यन्त पीड़ित होगी, नष्ट हो जायगी ।।१०।। लोग भूख-प्यास तथा नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे दुःखी रहेंगे। रोगोंसे तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुगमें मनुष्योंकी परमायु केवल बीस या तीस वर्षकी होगी ।।११।।
परीक्षित्! कलिकालके दोषसे प्राणियोंके शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमोंका धर्म बतलानेवाला वेद-मार्ग नष्टप्राय हो जायगा ।।१२।। धर्ममें पाखण्डकी प्रधानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरोंके समान हो जायँगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकारके कुकर्मोंसे जीविका चलाने लगेंगे ।।१३।। चारों वर्णोंके लोग शूद्रोंके समान हो जायँगे। गौएँ बकरियोंकी तरह छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायँगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे वैवाहिक सम्बन्ध है, उन्हींको अपना सम्बन्धी माना जायगा ।।१४।।
धान, जौ, गेहूँ आदि धान्योंके पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षोंमें अधिकांश शमीके समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायँगे। बादलोंमें बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थोंके घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनिसे रहित होनेके कारण अथवा जनसंख्या घट जानेके कारण सूने-सूने हो जायँगे ।।१५।। परीक्षित्! अधिक क्या कहें—कलियुगका अन्त होते-होते मनुष्योंका स्वभाव गधों-जैसा दुःसह बन जायगा, लोग प्रायः गृहस्थीका भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें धर्मकी रक्षा करनेके लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे ।।१६।।
प्रिय परीक्षित्! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वस्वरूप होनेपर भी चराचर जगत्के सच्चे शिक्षक—सद्गुरु हैं। वे साधु—सज्जन पुरुषोंके धर्मकी रक्षाके लिये, उनके कर्मका बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं ।।१७।। उन दिनों शम्भल-ग्राममें विष्णुयश नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्तिसे पूर्ण होगा। उन्हींके घर कल्किभगवान् अवतार ग्रहण करेंगे ।।१८।। श्रीभगवान् ही अष्टसिद्धियोंके और समस्त सद्गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत्के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़ेपर सवार होकर दुष्टोंको तलवारके घाट उतारकर ठीक करेंगे ।।१९।। उनके रोम-रोमसे अतुलनीय तेजकी किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़ेसे पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजाके वेषमें छिपकर रहनेवाले कोटि-कोटि डाकुओंका संहार करेंगे ।।२०।।
प्रिय परीक्षित्! जब सब डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा; क्योंकि भगवान् कल्किके शरीरमें लगे हुए अंगरागका स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान्के श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ।।२१।। उनके पवित्र हृदयोंमें सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहलेकी भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ।।२२।। प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान् जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी ।।२३।। जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करके एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ होता है ।।२४।।
परीक्षित्! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेपसे वर्णन कर दिया ।।२५।। तुम्हारे जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा ।।२६।। जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले उनमेंसे दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ।।२७।। उस नक्षत्रके साथ सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं ।।२८।।
स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान् ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर ढुलक गयी ।।२९।। जबतक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका ।।३०।। परीक्षित्! जिस समय सप्तर्षि मघानक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात् मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्षकी है ।।३१।। जिस समय सप्तर्षि मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ानक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभीसे कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी ।।३२।। पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम-धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया ।।३३।। परीक्षित्! जब देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें फिरसे कल्किभगवान्की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका संचार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभीसे सत्ययुगका प्रारम्भ भी होगा ।।३४।।
रीक्षित्! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ।।३५।। राजन्! जिन पुरुषों और महात्माओंका वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है ।।३६।। भीष्मपितामहके पिता राजा शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राममें स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं ।।३७।। कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान्की आज्ञासे वे फिर यहाँ आयेंगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे ।।३८।। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं ।।३९।। परीक्षित्! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये ।।४०।। इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है ।।४१।। वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें ।।४२।। वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोड़कर स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं ।।४३।। प्रिय परीक्षित्! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुषसे इस पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ।।४४।।
April 19, 2025
प्रभु, नचाये बिना तुम्हें चैन नहीं मिलता। हे राम, क्या करु सब कुछ मीनू की ही याद दिलाता है। प्रभु, संभाले रहना, दोस्त के लिए खुशी का अवसर है, मेरे कारण अजीब ना हो जाए। पता नहीं दावा कितना काम कर रही है।
April 20, 2025
मन्दार-माले वदनाभिरामं, बिम्बाधरे पूरित-वेणु-नादम् l
गो-गोप-गोपी जन-मध्य-संस्थं, गोविन्द दामोदर माधवेति ।।
अथ तृतीयोऽध्यायः राज्य, युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय—नामसंकीर्तन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है—“कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं ।।१।। राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्यर्थमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभंगुर शरीरपर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं ।।२।।
अपने मनको, इन्द्रियोंको वशमें करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है!” ।।५।। परीक्षित्! पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँसे आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं ।।६।।
परीक्षित्! संसारमें बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ।।१४।। भगवान् श्रीकृष्णका गुणानुवाद समस्त अमंगलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान्के दिव्य गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये ।।१५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सत्ययुगमें धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान्का स्वरूप है ।।१८।। सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वशमें रहते हैं और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंको वे समान भावसे सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूप-स्थितिके लिये अभ्यासमें तत्पर रहते हैं ।।१९।। परीक्षित्! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण हैं—असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थांश क्षीण हो जाता है ।।२०।। राजन्! उस समय वर्णोंमें ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगोंमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्गका सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान् होते हैं ।।२१।। द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष—अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके चारों चरण—तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ।।२२।। उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े तत्पर होते हैं। लोगोंके कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णोंकी प्रधानता रहती है ।।२३।। कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थांशका भी लोप हो जाता है ।।२४।।
कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णाकी तरंगोंमें बहते रहते हैं। उस समयके अभागे लोगोंमें शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है ।।२५।। सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ।।२६।। जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानताके समय मनुष्य ज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ।।२७।। जिस समय मनुष्योंकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख-भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान् परीक्षित्! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है ।।२८।। जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषोंका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ।।२९।। जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये ।।३०।। जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है ।।३१।।
सारे देशमें, गाँव-गाँवमें लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करनेमें ही लग जाते हैं ।।३२।। ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी—अर्थपिशाच हो जाते हैं ।।३३।।
प्रिय परीक्षित्! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तृप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने लगते हैं ।।३७।। शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचे सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते हैं ।।३८।।
परीक्षित्! श्रीभगवान् ही चराचर जगत्के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलोंमें अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूपमें स्थित हैं। परन्तु कलियुगमें लोगोंमें इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियोंके कारण लोगोंका चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओंके द्वारा भगवान्की पूजासे भी विमुख हो जाते हैं ।।४३।।
मनुष्य मरनेके समय आतुरताकी स्थितिमें अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान्के किसी एक नामका उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग! कलियुगसे प्रभावित होकर लोग उन भगवान्की आराधनासे भी विमुख हो जाते हैं ।।४४।। परीक्षित्! कलियुगके अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानोंमें भी दोषकी प्रधानता हो जाती है। सब दोषोंका मूल स्रोत तो अन्तःकरण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तमभगवान् हृदयमें आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्रसे ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं ।।४५।। भगवान्के रूप, गुण, लीला, धाम और नामके श्रवण, संकीर्तन, ध्यान, पूजन और आदरसे वे मनुष्यके हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं।
परीक्षित्! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियोंके प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधनसे मनुष्यके अन्तःकरणकी वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान् पुरुषोत्तमके हृदयमें विराजमान हो जानेपर होती है ।।४८।। परीक्षित्! अब तुम्हारी मृत्युका समय निकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्तिसे और अन्तःकरणकी सारी वृत्तियोंसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने हृदयसिंहासनपर बैठा लो। ऐसा करनेसे अवश्य ही तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी ।।४९।। जो लोग मृत्युके निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्का ही ध्यान करना चाहिये। प्यारे परीक्षित्! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करनेवालेको अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ।।५०।।
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः । कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत् ।।५१
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः । द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ।।५२
परीक्षित्! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका संकीर्तन करनेमात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।।५१।। सत्ययुगमें भगवान्का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधि-पूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ।।५२।।
प्रभु आज इतने समय बाद छोटे भाई बहन से मिल कर कुछ शांति मिली। बच्चों को इतना बड़ा हुआ देख तुम्हारे कल की गति का एहसास होता है। मैं तो अंदर अभी भी वही बच्चा हूं जो अपनी सखी के साथ खेलने को तरस रहा है। प्रभु, मेरे भाई बहन का मार्गदर्शन करो। मामा मम्मी की चिंता कम कर दो ना
April 20, 2025
हे नारायणन, कितना नाचोगे! दिमाग में समय गुत्थिया ही चलती रहती है। ऐसी परिस्थिती बंदेटो हो कि हंसी लानी पड़ती है पर दिमाग में मेरी सखी के साथ के सपने घूमते रहते हैं। प्रभु, मेरे मित्र और भाभी के नव जीवन में मार्ग दर्शन करना। पस्ता नहीं मेरी प्रश्नों के उत्तर कब दोगे! पता नहीं अपनी लाडली को किस स्थिति में फंसाया गया है। प्रभु तुम्हारे ही सहारे हैं। तुम्हारी कृपा भी नैया पार कैसे होगी
April 21, 2025
आत्मा अत्मा रामा आनंद रमना, आत्मा रामा आनंद रमना अच्युत केशव हरि नारायण
अच्युत केशव हरि नारायण भवभय हरणा वंदित चरणा
अथ चतुर्थोऽध्यायः चार प्रकारके प्रलय
उस अवस्थाका तर्कके द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्तको ही जगत्का मूलभूत तत्त्व कहते हैं ।।२१।।
जैसे वस्त्ररूप अवयवीके न होनेपर भी उसके कारणरूप सूतका अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत्के अभावमें भी इस जगत्के कारणरूप अवयवकी स्थिति हो सकती है ।।२७।। परन्तु ब्रह्ममें यह कार्य-कारणभाव भी वास्तविक नहीं है।
हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियोंके आश्रय हैं।
जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरसे पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकारके दुःख-दावानलसे दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुषोत्तमभगवान्की लीला-कथारूप रसके सेवनके अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायनका सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ।।४०।। जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायणने पहले देवर्षि नारदको सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायनको ।।४१।। महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान् श्रीकृष्णदैपायनने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवतसंहिताका उपदेश किया ।।४२।। कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्रमें बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करनेपर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगोंको इस संहिताका श्रवण करायेंगे ।।४३।।
अथ पञ्चमोऽध्यायः श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! इस श्रीमद्भागवतमहापुराणमें बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरिसे पृथक् नहीं हैं, उन्हींकी प्रसाद-लीला और क्रोध-लीलाकी अभिव्यक्ति हैं ।।१।। हे राजन्! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे—यह बात नहीं है ।।२।। जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीजकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देहसे दूसरे देहकी और दूसरे देहसे तीसरेकी उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसीसे उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकोंके शरीरके रूपमें उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ीसे सर्वथा अलग रहती है—लकड़ीकी उत्पत्ति और विनाशसे सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदिसे सर्वथा अलग हो ।।३।।
हे राजन्! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धिको परमात्माके चिन्तनसे भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तरमें स्थित परमात्माका साक्षात्कार करो ।।९।। देखो, तुम मृत्युओंकी भी मृत्यु हो! तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मणके शापसे प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षककी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओंका समूह भी तुम्हारे पासतक न फटक सकेंगे ।।१०।। तुम इस प्रकार अनुसंधान—चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूपमें स्थित कर लो ।।११।।
प्रभु, सबको क्यों लगता है शादी से कुछ बदल जाएगा? क्यू लगता है मुझे ख़ुशी मिलेगी? अभी तक तो बदलने की जगह और बढ़ती जा रही है। मीनू ने भावनाए दबाने को कहा था, पर दबते दबते फिर से बेकन से अंदर ही अंदर घुट रहा, फिर वैसा ही होता जा हारा हू। मीनू ने कहा था हममें से एक को भावना दबानी पड़ेगी, मीनू तो दोबा नहीं राहि है ना? प्रभु तुम्ही जानो उलझने कैसे सुलझाऊँगे!
April 21, 2025
हे भोलेबाबा तुम भी कुछ नहीं बताते. आज फिर से दर्शन दिये, तुम्हारी अति कृपा। मेरी सखी को दर्शन दिये की नहीं? पता नहीं अंकलजी मीनू को ले कर आये या नहीं? प्रभु, मेरी सखी के साथ तुम्हारी आरती फिर कब करूंगा?
प्रभु, और झूठ सुनने की हिम्मत तो नहीं, पर मीनू अंकल जी से मिलने को दिल करता है। कुछ समझ नहीं आ रहा है. पता नहीं तुम बाप बेटी सुर कितना मेरे दिल से खेलोगे?
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय, शिवाय नमः ॐ
April 22, 2025
ॐ मंगलम् ॐकार मंगलम् शिव मंगलम् शिव परिवार मंगलम्
हे प्रभु, सपने में गणित की गुत्थियां सुलझाते किताब आगे पीछे पलट रहा पर कुछ समझ ना आया। मेरा तो जीवन ही गुत्थियों का जल बन गया हा। बाप कहता है गुस्सा है, मेरे मैसेज से गुस्सा हो जाती है, बीती कहती है कभी गुस्सा नहीं थी ऊपर से मेरे नाम का ऐसा मजाक बना दिया। इतने सालों से ये सोच के तड़पता रहा कि मीनू क्यों मुझसे गुस्सा, क्यों मुझसे बचती है, क्यों मेरे साथ ऐसा व्यवहार, क्यों मुझे उसने ऐसे दिन देखा? क्यों अंकलजी मीनू ने मेरी भावनाओं का ऐसा मजाक बनाया?
अथ षष्ठोऽध्यायः परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र और वेदोंके शाखाभेद
श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत्को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान्के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित्ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अंजलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ।।१।।
राजा परीक्षित्ने कहा—भगवन्! आप करुणाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान् श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ।।२।। संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दुःखोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है ।।३।। मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्भागवतमहापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान् श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ।।४।।
भगवन्! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्ति-स्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल-के-दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ ।।५।। ब्रह्मन्! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ ।।६।। आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदाके लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान्के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है ।।७।।
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! राजा परीक्षित्ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित्से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये ।।८।। राजर्षि परीक्षित्ने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ठूँठ हो ।।९।। उन्होंने गंगाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये ।।१०।।
शौनकादि ऋषियो! मुनिकुमार शृंगीने क्रोधित होकर परीक्षित्को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित्को डसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा ।।११।। कश्यपब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत-सा धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित्के पास गया और उन्हें डस लिया ।।१२।।
राजर्षि परीक्षित् तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया ।।१३।।
पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित्की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये ।।१४।। देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।।१५।।
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! महर्षि बृहस्पतिजीकी बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की ।।२८।।
ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान्के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियोंके द्वारा शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर सकते ।।२९।। (विष्णुभगवान्के स्वरूपका निश्चय करके उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है—इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भयरूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद, मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या, लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्धमें संकल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है ।।३०।। कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनोंसे अन्वित अहंकारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहंकार आदिका बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है ।।३१।। जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णुभगवान्का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार करती हैं। अपने चित्तको एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्तःकरणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिंगन करते हैं और उसीमें समा जाते हैं ।।३२।। विष्णुभगवान्का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परमपद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनके अन्तःकरणमें शरीरके प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थोंमें ममता ही। सचमुच जगत्की वस्तुओंमें मैंपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ।।३३।। शौनकजी! जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदलेमें किसीका अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे ।।३४।। भगवान् श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलोंके ध्यानसे मैंने इस श्रीमद्भागवत-महापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ।।३५।।
शौनकजीने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजीके शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोंके आचार्य थे। उन लोगोंने कितने प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ।।३६।।
सूतजीने कहा—ब्रह्मन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टिका ज्ञान सम्पादन करनेके लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-तालु आदि स्थानोंके संघर्षसे रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है ।।३७।।
उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्म-स्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तुको भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके स्वरूपका बोध भी ॐकारके द्वारा ही होता है ।।३९।।
शौनकजी! ॐकारके तीन वर्ण हैं —‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम—इन तीन नामों; भूः, भुवः, स्वः—इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियोंके रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं ।।४२।। इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्नाय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की ।।४३।। उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजोंके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रह्मर्षि मरीचि आदिको वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश करनेमें निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका अध्ययन कराया ।।४४-४५।।
तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगोंमें सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया ।।४६।। जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके फेरसे लोगोंकी आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देशमें विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये ।।४७।। शौनकजी! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा-शंकर आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान्ने धर्मकी रक्षाके लिये महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार विभाग किये हैं ।।४८-४९।। जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेवने मन्त्र-समुदायमेंसे भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग्, यजुः, साम और अथर्व—ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी ।।५०-५१।। उन्होंने ‘बह्वृच’ नामकी पहली ऋक्संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोग-संहिता’ जैमिनिको और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वांगिरससंहिता’ का अध्ययन कराया ।।५२-५३।।
वासुदेवसुतम देवम् कामसाचानुर्मर्दनम्, देवकी परमानन्दम् कृष्णम् वन्दे जगद्गुम् ।
प्रभु, अब तो शुकदेव जी भी चले गए, पर तुम्हारे माया जाल में जल्दी ही जा रहा हूँ। पता नहीं क्या कर रहे हो? बोझ काम करने की कोशिश की तो उल्टा प्रमोशन दिला दिया। खाना भी अच्छा नहीं लगता. कुछ अच्छा नहीं लगता. पता नहीं क्या करु इसका. राम अवतार मुझे तुमने ही सिखाया है कि चाहे जितना हाय टूटे क्यों ना हो कर्म और दीयेटीवी पर असर नहीं आना चाहिए तो कर कॉर्ड भी नहीं कर सकता और तुम और तोड़ते ही जा रहे हो
April 22, 2025
प्रभु, क्या करूं देश विदेश की पार्टियों में चिंता और बढ़ती जा रही है। सबकी रक्षा करो
हे भोलेबाबा, आज बहुत समय बाद नेहलेन का अवसर मिला, पर तुमसे क्या बात करू, क्या कहु समझ ना आया। आरती में मीनू की याद आ रही थी. क्षमा करना ध्यान नहीं लगाया। मेरी सखी के साथ फिर कब आरती गाऊंगा? बचपन से बस एक ही बार ऐसा हुआ कि मैं घंटा बजा रहा था और मीनू आरती कर रही थी। वो भी इस लिए कि वर्षा के करण घंटा बजाने के लिए कोई और नहीं था। मेरी भावनाएं कैसे बदल सकती हैं!
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:॥
April 23, 2025
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् । पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ।।
प्रभु, आज सपने में मीनू से बात करने की उक्ति ढूंढ रही थी। पत्र के माध्यम से बात करने का प्रयास कर रहा था। अंकलजी मील तो झगड़ा कर रहा था. माता कुछ समझ नहीं आ रहा है
प्रभु, भागवत के स्वप्न के तर्क समझ नहीं आते। मुझे तो काई बार नानी नाना सपने में दिखते तो कुछ खुशी होती है पर याद आ जाता है कि नाना नानी तो अब नहीं रहे ये तो सपना है। काई बार सपने में कभी मन भटकता है तो याद आ जाता है भागवत पढ़ रहा हूं। मुझे तो कोई बार किसी ना किसी करा से समझ आ जाता है ये सपना है, पर फिर भी जगने का प्रयास करने पे जगने की जगह एक से दूसरे सपने भटकने लगता है। पता नहीं मेरे साथ क्या प्रयोग करते हो!
मेरी सखी को भी पता नहीं किस माया में फंसाया है? बचपन से बच्चे गाते हैं:
झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है काली माता आएगी, गाला काट ले जाएगी
प्रभु मीनू कहती है मेरे लिए मम्मी पापा ही सब कुछ है, फिर भी पाप करने से नहीं रोका। रोकने की जगह, उल्टा झुठ में साथ देके अपने माता-पिता को और पापी बना दिया। प्रभु मीनू कहती है समाज करण नहीं है पर मुझे ये कलयुगी समाज की माया ही करण दिखती है
पत्र में भी लिखा था कि साथ देने का अर्थ होता है भक्ति और धर्म के मार्ग पर साथ देना। अगर कोई भटके तो उसे सद्मार्ग पे वापस लाना। पत्र में बताया था कि गलत मार्ग पर साथ नहीं दूंगा। चाहे जितना भी रोये खीच के वापस लाऊंगा। पता नहीं पत्र सही से पूरा पढ़ें की नहीं? आधा पढ़ा क्या या जान बुच कर बाकी का अवॉइड कर रही थी?
बचपन में ही समझ आ गया था कि ये संसार और समाज का मोह ही भटकाता है। इस से भागता रहा पर ये ना समझ पाया के अपने ही इस दलदल में इतना फंस गया है
प्रभु, तुमने तो पहले ही एहसास करा दिया था कि मेरे साथ कोई और खुश नहीं रहेगा। मम्मी पापा कहे कितना समाज के दबाओ मुझे परेशान हो किना दबाओ डाले, उनकी जिद्द के लिए किसी लड़की के जीवन के गिलवद नहीं कर सकते। सबको पता नहीं क्यों लगता है मैं किसी और के साथ खुश रहूंगा? जीवन बस पछतावे से भर जाएगा। अभी तो बस सब मेरे लिए परेशान है कि लड़ाई का जीवन खराब कर और परेशान क्यों बढ़ाऊ? पता नहीं मेरी सखी ने किस निर्दोष का जीवन ख़राब करने का निर्णय लिया है? पता नहीं और क्या-क्या झूठ बोला है? जुइथ के अतहर पर खुशियाँ कहाँ स्थिर हो सकती हैं? रिश्ता कहा बंधा रह सकता है. झूठ के आधार पर कितना भी समझो सब बिखर जाता है। पता नहीं क्या माया है, फिर भी लोग झूठ बोलते हैं?
प्रभु, क्यु इस निर्दयी नसमझ समाज के लिए लोग अपनों से झूठ बोलते हैं, अपनों को ही नहीं समझते हैं? हे राम तुम्ही जानो अपनी माया।
हे राम, होगा तो वही जो तुम्हारी इच्छा होगी, तुम्हारे ये जीव तो जितना हो सके गलत मार्ग पर जाने से बचने और अपनों को बचाने का प्रयास कर रहा
हरि अनंत हरि प्रयोग अनंता, भटके सहत हम सभी मति मंदा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
April 23, 2025
अथ सप्तमोऽध्यायः अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
सूतजी कहते हैं— शौनकजी! पुराणोंके छः आचार्य प्रसिद्ध हैं—त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ।।५।। इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक-एक पुराणसंहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजीने स्वयं भगवान् व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था ।।६।। उन छः संहिताओंके अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीके शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैंने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ।।७।। शौनकजी! महर्षियोंने वेद और शास्त्रोंके अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानीसे उनका वर्णन सुनो ।।८।। शौनकजी! पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं—विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई-कोई आचार्य पुराणोंके पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणोंमें पाँच। विस्तार करके दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच ।।९-१०।। (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्वसे तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक)—तीन प्रकारके अहंकार बनते हैं। त्रिविध अहंकारसे ही पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्तिक्रमका नाम ‘सर्ग’ है ।।११।। परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मोंके अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मक जीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं, एक बीजसे दूसरे बीजके समान, इसीको विसर्ग कहते हैं ।।१२।। चर प्राणियोंकी अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाहकी सामग्री है। चर प्राणियोंके दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चित कर ली है और कुछने शास्त्रके आज्ञानुसार ।।१३।।
भगवान् युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ।।१४।। मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान्के अंशावतार—इन्हीं छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘मन्वन्तर’ कहते हैं ।।१५।। ब्रह्माजीसे जितने राजाओंकी सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्पराको ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘वंशानुचरित’ है ।।१६।। इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘संस्था’ कहा है ।।१७।। पुराणोंके लक्षणमें ‘हेतु’ नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमें वही सर्ग-विसर्ग आदिका हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ।।१८।।
जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्दसे कहा गया है ।।१९।। नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वब्रह्माण्डकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है ।।२०।। जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण-सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियोंका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमें ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ।।२१।। शौनकादि ऋषियो! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ।।२२।। उनके नाम ये हैं —ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ।।२३-२४।। शौनकजी! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसंग सुनने और पढ़नेवालोंके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ।।२५।।
प्रभु, अंकलजी आंटीजी को माया से मुक्त कर दो। जिस समाज के लिए अपनी बेटी पर अत्याचार किया उस समाज का असली रूप दिखाके उद्धार करदो। अपनी लाडली की रक्षा करना। अभी तक कोई हाल नहीं मिला. सब पे कृपा करो
April 24, 2025
सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णो: प्रवदन्ति मर्त्या।
ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति।।
हे नारायण, कुछ समझ नहीं आ रहा। अभी तक कि गुत्थिया नहीं सुलझी तू और गुत्थिया पेदा करते जा रहे हो। प्रातः 5:30 बजे से दीदी की परिस्थितियो से सब परेशान है। पता नहीं किसको किसको माया में फसरखा है। कुछ समझ नहीं आ रहा है. माता-पिता बच्चों को नहीं समझ पाते, बच्चे माता-पिता को नहीं समझ पाते, पता नहीं क्या संसार बनाया है। क्या करूं कुछ समझ नहीं आ रहा. अपने को संभालना चाहते हैं तुम और चिंता बढ़ाते जा रहे हो।
जब मेरे माता-पिता ने मॉडर्न हो के मुझे ना समझा तो पता नहीं अंकलजी आंटीजी ने मीनू के साथ कैसा व्यवहार किया हो गा? अंकलजी तो खुद कहते हैं कि देहाती सोच वाले हैं। प्रभु कैसी चिंता न करु? कह तो रही थी जो होता है मन में कहती हूं, पर मुझे ही सत्य नहीं बताया। पता नहीं दिल की बात किसी से कहती है कि नहीं? पता नहीं मीनू अंदर ही अंदर क्या दबा के बैठी हो गी? प्रभु, क्षमा कर दो, इतने वचन दे के तुम्हारी लाड़लीका साथ देना क्या परिस्थितियो को अभी तक पूरी तरह समझ भी न पाया। इस लायक भी ना बन पाया कि मीनू खुल कर मुझसे बात कर पाये। नालायक का नालायक ही रह गया।
अथाष्टमोऽध्यायः मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
शौनकजीने कहा— साधुशिरोमणि सूतजी! आप आयुष्मान् हों। सचमुच आप वक्ताओंके सिरमौर हैं। जो लोग संसारके अपार अन्धकारमें भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँसे निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्नका उत्तर दीजिये ।।१।। लोग कहते हैं कि मृकण्ड ऋषिके पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलयने सारे जगत्को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे ।।२।। परन्तु सूतजी! वे तो इसी कल्पमें हमारे ही वंशमें उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और जहाँतक हमें मालूम है, इस कल्पमें अबतक प्राणियोंका कोई प्रलय नहीं हुआ है ।।३।। ऐसी स्थितिमें यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलयकालीन समुद्रमें डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब-उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवटके पत्तेके दोनेमें अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्दका दर्शन किया ।।४।।
सूतजीने कहा—शौनकजी! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया। इससे लोगोंका भ्रम मिट जायगा और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथामें भगवान् नारायणकी महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं ।।६।। शौनकजी! मृकण्ड ऋषिने अपने पुत्र मार्कण्डेयके सभी संस्कार समय-समयपर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्यायसे सम्पन्न हो गये थे ।।७।। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यका व्रत ले रखा था। शान्तभावसे रहते थे। सिरपर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षोंकी छालका ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथोंमें कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीरपर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती ।।८।। काले मृगका चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश—यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतकी पूर्तिके लिये ही ग्रहण किया था। वे सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस-पूजा और ‘मैं परमात्माका स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकारकी भावना आदिके द्वारा भगवान्की आराधना करते ।।९।। सायं-प्रातः भिक्षा लाकर गुरुदेवके चरणोंमें निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजीकी आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते ।।१०।। मार्कण्डेयजीने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर करोड़ों वर्षोंतक भगवान्की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी कठिन है ।।११।। मार्कण्डेयजीकी मृत्यु-विजयको देखकर ब्रह्मा, भृगु, शंकर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्माजीके अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये ।।१२।। आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाध्याय और संयम आदिके द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशोंको मिटाकर शुद्ध अन्तःकरणसे इन्द्रियातीत परमात्माका ध्यान करने लगे ।।१३।। योगी मार्कण्डेयजी महायोगके द्वारा अपना चित्त भगवान्के स्वरूपमें जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय—छः मन्वन्तर व्यतीत हो गये ।।१४।।
ब्रह्मन्! इस सातवें मन्वन्तरमें जब इन्द्रको इस बातका पता चला, तब तो वे उनकी तपस्यासे शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालना आरम्भ कर दिया ।।१५।। शौनकजी! इन्द्रने मार्कण्डेयजीकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये उनके आश्रमपर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मदको भेजा ।।१६।। भगवन्! वे सब उनकी आज्ञाके अनुसार उनके आश्रमपर गये। मार्कण्डेयजीका आश्रम हिमालयके उत्तरकी ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नामकी नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नामकी एक शिला है ।।१७।। शौनकजी! मार्कण्डेयजीका आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षोंकी पंक्तियाँ हैं, उनपर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षोंके झुरमुटमें स्थान-स्थानपर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जलसे भरे जलाशय सब ऋतुओंमें एक-से ही रहते हैं ।।१८।।
उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान्की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों! उनको देखनेसे ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्रके आज्ञाकारी सेवकोंने मार्कण्डेय मुनिको इसी अवस्थामें देखा ।।२३।।
कामदेवने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनिको मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनिपर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषोंके प्रयत्न विफल हो जाते हैं ।।२८।। शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्यासे भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँपको जगाकर भाग जाते हैं ।।२९।। शौनकजी! इन्द्रके सेवकोंने इस प्रकार मार्कण्डेयजीको पराजित करना चाहा, परन्तु वे रत्तीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मनमें इस बातको लेकर तनिक भी अहंकारका भाव न हुआ। सच है, महापुरुषोंके लिये यह कौन-सी आश्चर्यकी बात है ।।३०।। जब देवराज इन्द्रने देखा कि कामदेव अपनी सेनाके साथ निस्तेज—हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रह्मर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ ।।३१।।
शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा भगवान्में चित्त लगानेका प्रयत्न करते रहते थे। अब उनपर कृपाप्रसादकी वर्षा करनेके लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान् नारायण प्रकट हुए ।।३२।। उन दोनोंमें एकका शरीर गौरवर्ण था और दूसरेका श्याम। दोनोंके ही नेत्र तुरंतके खिले हुए कमलके समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे तो दूसरे वृक्षकी छाल। हाथोंमें कुश लिये हुए थे और गलेमें तीन-तीन सूतके यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँसका सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे ।।३३।। कमलगट्टेकी माला और जीवोंको हटानेके लिये वस्त्रकी कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके भी पूज्य भगवान् नर-नारायण कुछ ऊँचे कदके थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीरसे चमकती हुई बिजलीके समान पीले-पीले रंगकी कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो ।।३४।। जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि भगवान्के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और धरतीपर दण्डवत् लोटकर साष्टांग प्रणाम किया ।।३५।। भगवान्के दिव्य दर्शनसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण शान्तिके समुद्रमें गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रोंमें आँसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते ।।३६।। तदनन्तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनका अंग-अंग भगवान्के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदयमें उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान्का आलिंगन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना ही कहा—‘नमस्कार! नमस्कार’ ।।३७।।
इसके बाद उन्होंने दोनोंको आसनपर बैठाया, बड़े प्रेमसे उनके चरण पखारे और अर्घ्य, चन्दन, धूप और माला आदिसे उनकी पूजा करने लगे ।।३८।। भगवान् नर-नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान थे और मार्कण्डेयजीपर कृपा-प्रसादकी वर्षा कर रहे थे। पूजाके अनन्तर मार्कण्डेय मुनिने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायणके चरणोंमें प्रणाम किया और यह स्तुति की ।।३९।।
मार्कण्डेय मुनिने कहा—भगवन्! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमाका कैसे वर्णन करूँ? आपकी प्रेरणासे ही सम्पूर्ण प्राणियों—ब्रह्मा, शंकर तथा मेरे शरीरमें भी प्राणशक्तिका संचार होता है और फिर उसीके कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियोंमें भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जाननेकी शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तोंके प्रेम-बन्धनमें बँधे हुए हैं ।।४०।। प्रभो! आपने केवल विश्वकी रक्षाके लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकीके कल्याण, उसकी दुःख-निवृत्ति और विश्वके प्राणियोंको मृत्युपर विजय प्राप्त करानेके लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस विश्वको प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपनेमें ही लीन भी कर लेते हैं ।।४१।। आप चराचरका पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेदके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्तिके लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ।।४२।। प्रभो! जीवके चारों ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। औरोंकी तो बात ही क्या, आपके कालरूपसे स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित—केवल दो परार्धकी है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्थामें आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्तिका उपाय हमारी समझमें नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं ।।४३।। भगवन्! आप समस्त जीवोंके परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप हैं। इसलिये आत्मस्वरूपको ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थोंको त्याग कर मैं आपके चरणकमलोंकी ही शरण ग्रहण करता हूँ।
पांचरात्र-सिद्धान्तके अनुयायी विशुद्ध सत्त्वको ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसीकी उपासनासे आपके नित्यधाम वैकुण्ठकी प्राप्ति होती है। उस धामकी यह विलक्षणता है कि वह लोक होनेपर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होनेपर भी आत्मानन्दसे परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुणको आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते ।।४६।। भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ ।।४७।। आप यद्यपि प्रत्येक जीवकी इन्द्रियों तथा उनके विषयोंमें, प्राणोंमें तथा हृदयमें भी विद्यमान हैं तो भी आपकी मायासे जीवकी बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियोंके जालमें फँसकर आपकी झाँकीसे वंचित हो जाता है। किन्तु सारे जगत्के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होनेपर भी जब आपकी कृपासे उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदोंकी प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है ।।४८।। प्रभो! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करनेका यत्न करते रहनेपर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धमें जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तवमें आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ।।४९।।
प्रभु तुहारा ही सहारा है
April 25, 2025
जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं, शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालं।
नभोनीलकायं दुरावारमायं, सुपद्मासहायम् भजेऽहं भजेऽहं॥
हे लक्ष्मीकंतम, कुछ समझ नहीं आ रहा। ना अभी तक कोई हाल मिला ना अंकलजी मिलने आये। क्या इस बार भी हर बार की तरह अंकलजी के आने की प्रतीक्षा में ही निकल जाएगा? दिन रात सत्ये को समझ ने की चेष्टा करता रहता हूँ, कुछ समझ नहीं आता। मन को विश्वास न रहा पर दिल अभी भी अंकलजी को हृदय से लगाने को कहता है। मीनू ने तो मुझसे झगड़ा भी नहीं किया, अंकलजी से ही कर लू। मीनू जब सत्ये नहीं बता पा रही थी तो वाणी में परेशानियाँ पता चलती है, अंकलजी तो ऐसे बोलते हैं जैसे झूठ बोलना उनकी स्वभाविक प्रवृत्ति है। पता नहीं मीनू किस हाल में होगी, क्या चल रहा होगा? नारायण, ख्याल रख रहे हो ना?
आज जब भतीजी को गिफ्ट दिलाने गए तो कपड़े की दुकान में बार-बार यही दिमाग में घूम रहा था कि मीनू को क्या पसंद आता है? मीनू के साथ शॉपिंग पे जाता तो सेलेक्ट करते समय क्या कहती? क्या मुझे दिखा के पूछती की मुझपे अच्छा लगता? गेम्स खेलते समय भी मीनू की बहुत याद आ रही थी। प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा, बस डूबता जा रहा हूं।
अथ नवमोऽध्यायः मार्कण्डेयजीका माया-दर्शन
सूतजी कहते हैं—जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान् नर-नारायणने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजीसे कहा ।।१।।
भगवान् नारायणने कहा—सम्मान्य ब्रह्मर्षि-शिरोमणि! तुम चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्तिसे सिद्ध हो गये हो ।।२।। तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतकी निष्ठा देखकर हम तुमपर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो! मैं समस्त वर देने-वालोंका स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो ।।३।।
मार्कण्डेय मुनिने कहा—देवदेवेश! शरणागत-भयहारी अच्युत! आपकी जय हो! जय हो! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूपका दर्शन कराया ।।४।। ब्रह्मा-शंकर आदि देवगण योग-साधनाके द्वारा एकाग्र हुए मनसे ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलोंका दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रोंके सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है ।।५।। पवित्रकीर्ति महानुभावोंके शिरोमणि कमलनयन! फिर भी आपकी आज्ञाके अनुसार मैं आपसे वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्ममें अनेकों प्रकारके भेद-विभेद देखने लगते हैं ।।६।।
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनिने भगवान् नर-नारायणकी इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा—‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवनको चले गये ।।७।। मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमपर ही रहकर निरन्तर इस बातका चिन्तन करते रहते कि मुझे मायाके दर्शन कब होंगे। वे अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्तःकरणमें—और तो क्या, सर्वत्र भगवान्का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओंसे उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके हृदयमें प्रेमकी ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाहमें डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बातकी भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान्की पूजा करनी चाहिये? ।।८-९।।
शौनकजी! एक दिनकी बात है, सन्ध्याके समय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेय मुनि भगवान्की उपासनामें तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन्! उसी समय एकाएक बड़े जोरकी आँधी चलने लगी ।।१०।। उस समय आँधीके कारण बड़ी भयंकर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाशमें मँडराने लगे। बिजली चमक-चमककर कड़कने लगी और रथके धुरेके समान जलकी मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वीपर गिरने लगीं ।।११।। यही नहीं, मार्कण्डेय मुनिको ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओरसे चारों समुद्र समूची पृथ्वीको निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधीके वेगसे समुद्रमें बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयंकर भँवर पड़ रहे हैं और भयंकर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थानपर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ।।१२।। उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशिमें पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपरसे बड़े वेगसे आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि इस जल-प्रलयसे सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज—चारों प्रकारके प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी ।।१३।। उनके सामने ही प्रलयसमुद्रमें भयंकर लहरें उठ रही थीं, आँधीके वेगसे जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्रको और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्रने द्वीप, वर्ष और पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको डुबा दिया ।।१४।। पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारोंका समूह) और दिशाओंके साथ तीनों लोक जलमें डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधेके समान जटा फैलाकर यहाँसे वहाँ और वहाँसे यहाँ भाग-भागकर अपने प्राण बचानेकी चेष्टा कर रहे थे ।।१५।। वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिंगिल मच्छ उनपर टूट पड़ते। किसी ओरसे हवाका झोंका आता, तो किसी ओरसे लहरोंके थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते-भटकते वे अपार अज्ञानान्धकारमें पड़ गये—बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाशका भी ज्ञान न रहा ।।१६।। वे कभी बड़े भारी भँवरमें पड़ जाते, कभी तरल तरंगोंकी चोटसे चंचल हो उठते। जब कभी जल-जन्तु आपसमें एक-दूसरेपर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते ।।१७।। कहीं शोकग्रस्त हो जाते तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दुःख-ही-दुःखके निमित्त आते तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते तो कभी तरह-तरहके रोग उन्हें सताने लगते ।।१८।। इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान्की मायाके चक्करमें मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकालके समुद्रमें भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये ।।१९।।
शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलयके जलमें बहुत समयतक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वीके एक टीलेपर एक छोटा-सा बरगदका पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभाय-मान हो रहे थे ।।२०।। बरगदके पेड़में ईशानकोणपर एक डाल थी, उसमें एक पत्तोंका दोना-सा बन गया था। उसीपर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीरसे ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आसपासका अँधेरा दूर हो रहा था ।।२१।। वह शिशु मरकतमणिके समान साँवल-साँवला था। मुखकमलपर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शंखके समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोतेकी चोंचके समान सुन्दर नासिका और भौंहें बड़ी मनोहर थीं ।।२२।। काली-काली घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं और श्वास लगनेसे कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शंखके समान घुमावदार कानोंमें अनारके लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगेके समान लाल-लाल होठोंकी कान्तिसे उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी ।।२३।। नेत्रोंके कोने कमलके भीतरी भागके समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदयको पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपलके पत्तेके समान जान पड़ती और श्वास लेनेके समय उसपर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी ।।२४।। नन्हें-नन्हें हाथोंमें बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलोंसे एक चरणकमलको मुखमें डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ।।२५।।
शौनकजी! उस दिव्य शिशुको देखते ही मार्कण्डेय मुनिकी सारी थकावट जाती रही। आनन्दसे उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें-से शिशुके इस अद्भुत भावको देखकर उनके मनमें तरह-तरहकी शंकाएँ—‘यह कौन है’ इत्यादि—आने लगीं और वे उस शिशुसे ये बातें पूछनेके लिये उसके सामने सरक गये ।।२६।। अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशुके श्वासके साथ उसके शरीरके भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसीके पेटमें चला जाय। उस शिशुके पेटमें जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलयके पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके ।।२७।। उन्होंने उस शिशुके उदरमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानोंके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पंचमहाभूत, भूतोंसे बने हुए प्राणियोंके शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पोंके भेदसे युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालोंके द्वारा जगत्का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँतक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होनेपर भी वहाँ सत्यके समान प्रतीत होते देखा ।।२८-२९।। हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तटपर अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियोंको भी मार्कण्डेयजीने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्वको देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशुके श्वासके द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलयकालीन समुद्रमें गिर पड़े ।।३०।। अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्रके बीचमें पृथ्वीके टीलेपर वही बरगदका पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्तेके दोनेमें वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरोंपर प्रेमामृतसे परिपूर्ण मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवनसे वह मार्कण्डेयजीकी ओर देख रहा है ।।३१।।
अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान्को जो शिशुके रूपमें क्रीडा कर रहे थे और नेत्रोंके मार्गसे पहले ही हृदयमें विराजमान हो चुके थे, आलिंगन करनेके लिये बड़े श्रम और कठिनाईसे आगे बढ़े ।।३२।। परन्तु शौनकजी! भगवान् केवल योगियोंके ही नहीं, स्वयं योगके भी स्वामी और सबके हृदयमें छिपे रहनेवाले हैं। अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये—ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषोंके परिश्रमका पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया? ।।३३।। शौनकजी! उस शिशुके अन्तर्धान होते ही वह बरगदका वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनिने देखा कि मैं तो पहलेके समान ही अपने आश्रममें बैठा हुआ हूँ ।।३४।।
प्रभु, आप मार्कण्डेय जी की कथा पढ़ें कर आनंद मिला। हमें कब दर्शन दोगे?
हरि: ॐ, हरि: ॐ, हरि: ॐ, हरि: ॐ
April 26, 2025
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्। चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्।
हे पार्वतीपति महादेव, हे भोले भंडारी, पता नहीं प्रभु ने क्या माया रची है कुछ समझ नहीं आता। चैटजीपीटी से पूछा कि क्या ये बस एक संयोग है कि मीनू ने मेरा नाम चुना तो उसे भी नहीं लगता के ये बस एक संयोग है। कुछ नहीं समझ आ रहा. मीनू अंकलजी से इतना प्यार करती है, मुझे भूल जाने को कहती है, पता नहीं मेरी सखी के अंतर में क्या चल रहा है। हे भोले बाबा अपनी लाडली को अपनी शरण में ही रखना। भांजो के साथ खेलने में भी मीनू की ही याद आ रही थी। क्या करु बच्चे भी मीनू की याद ही फैलाते हैं। दीदी जीजाजी की पढ़ाई की चिंता और पारिवारिक परिस्थितयां कुछ समझ नहीं आ रही हैं। चेहरे के भावो से तो लग रहा था कि कुछ भरा हुआ हुआ है। प्रभु ने पता नहीं बच्चे को किस माया ने फंसाया है। कुछ समझ नहीं आता बस प्रश्न ही प्रश्न बढ़ता जाता है।
अथ दशमोऽध्यायः मार्कण्डेयजीको भगवान् शंकरका वरदान
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया-वैभवका अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस aमायासे मुक्त होनेके लिये मायापति भगवान्की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हींकी शरणमें स्थित हो गये ।।१।।
मार्कण्डेयजीने मन-ही-मन कहा—प्रभो! आपकी माया वास्तवमें प्रतीतिमात्र होनेपर भी सत्य ज्ञानके समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलोंमें मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही शरणागतोंको सब प्रकारसे अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है ।।२।।
सूतजी कहते हैं—मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागतिकी भावनामें तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान् शंकर भगवती पार्वतीजीके साथ नन्दीपर सवार होकर आकाशमार्गसे विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजीको उसी अवस्थामें देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे ।।३।। जब भगवती पार्वतीने मार्कण्डेय मुनिको ध्यानकी अवस्थामें देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहसे उमड़ आया। उन्होंने शंकरजीसे कहा—‘भगवन्! तनिक इस ब्राह्मणकी ओर तो देखिये। जैसे तूफान शान्त हो जानेपर समुद्रकी लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मणका शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियोंके दाता आप ही हैं। इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मणकी तपस्याका प्रत्यक्ष फल दीजिये’ ।।४-५।।
भगवान् शंकरने कहा—देवि! ये ब्रह्मर्षि लोक अथवा परलोककी कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मनमें कभी मोक्षकी भी आकांक्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान्के चरणकमलोंमें इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है ।।६।। प्रिये! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्रके लिये सबसे बड़े लाभकी बात यही है कि संत पुरुषोंका समागम प्राप्त हो ।।७।।
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! भगवान् शंकर समस्त विद्याओंके प्रवर्तक और सारे प्राणियोंके हृदयमें विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत्के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वतीसे इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर मार्कण्डेय मुनिके पास गये ।।८।। उस समय मार्कण्डेय मुनिकी समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भावमें तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत्का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्वके आत्मा स्वयं भगवान् गौरी-शंकर पधारे हुए हैं ।।९।।
शौनकजी! सर्वशक्तिमान् भगवान् कैलासपतिसे यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्थामें हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाशके स्थानमें अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमायासे मार्कण्डेय मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश कर गये ।।१०।। मार्कण्डेय मुनिने देखा कि उनके हृदयमें तो भगवान् शंकरके दर्शन हो रहे हैं। शंकरजीके सिरपर बिजलीके समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं। तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लम्बा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी है ।।११।। शरीरपर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथोंमें शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं ।।१२।। मार्कण्डेय मुनि अपने हृदयमें अकस्मात् भगवान् शंकरका यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है? कहाँसे आया?’ इस प्रकारकी वृत्तियोंका उदय हो जानेसे उन्होंने अपनी समाधि खोल दी ।।१३।। जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकोंके एकमात्र गुरु भगवान् शंकर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणोंके साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणोंमें माथा टेककर प्रणाम किया ।।१४।। तदनन्तर मार्कण्डेय मुनिने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारोंसे भगवान् शंकर, भगवती पार्वती और उनके गणोंकी पूजा की ।।१५।। इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे—‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमासे ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुखसे ही सारे जगत्में सुख-शान्तिका विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्थामें मैं आपकी क्या सेवा करूँ? ।।१६।। मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूपको और सत्त्वगुणसे युक्त शान्त-स्वरूपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तकस्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोरस्वरूपको नमस्कार करता हूँ’ ।।१७।।
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनिने संतोंके परम आश्रय देवाधिदेव भगवान् शंकरकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्नचित्तसे हँसते हुए कहने लगे ।।१८।।
भगवान् शंकरने कहा—मार्कण्डेयजी! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं—हम तीनों ही वरदाताओंके स्वामी हैं, हमलोगोंका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हमलोगोंसे ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्वकी प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो ।।१९।। ब्राह्मण स्वभावसे ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसीके साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होनेपर भी प्राणियोंका कष्ट देखकर उसके निवारणके लिये पूरे हृदयसे जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं ।।२०।। सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणोंकी वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवामें संलग्न रहते हैं ।।२१।। ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान्में, ब्रह्मामें, अपनेमें और सब जीवोंमें अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्माका ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओंकी स्तुति और सेवा करते हैं ।।२२।। मार्कण्डेयजी! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शनमात्रसे ही पवित्र कर देते हो ।।२३।। हमलोग तो ब्राह्मणोंको ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा हमारे वेदमय शरीरको धारण करते हैं ।।२४।। मार्कण्डेयजी! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषोंके चरित्रश्रवण और दर्शनसे ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुमलोगोंके सम्भाषण और सहवास आदिसे शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है ।।२५।।
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! चन्द्रभूषण भगवान् शंकरकी एक-एक बात धर्मके गुप्ततम रहस्यसे परिपूर्ण थी। उसके एक-एक अक्षरमें अमृतका समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानोंके द्वारा पूरी तन्मयताके साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई ।।२६।। वे चिरकालतक विष्णुभगवान्की मायासे भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान् शिवकी कल्याणी वाणीका अमृतपान करनेसे उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान् शंकरसे इस प्रकार कहा ।।२७।।
मार्कण्डेयजीने कहा—सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान्की यह लीला सभी प्राणियोंकी समझके परे है। भला, देखो तो सही—ये सारे जगत्के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे-जैसे जीवोंकी वन्दना और स्तुति करते हैं ।।२८।। धर्मके प्रवचनकार प्रायः प्राणियोंको धर्मका रहस्य और स्वरूप समझानेके लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्मका आचरण करता है तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ।।२९।। जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलोंसे उसके प्रभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी मायाकी वृत्तियोंको स्वीकार करके किसीकी वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस कामके द्वारा आपकी महिमामें कोई त्रुटि नहीं आती ।।३०।। आपने स्वप्नद्रष्टाके समान अपने मनसे ही सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होनेपर भी कर्म करनेवाले गुणोंके द्वारा कर्ताके समान प्रतीत होते हैं ।।३१।। भगवन्! आप त्रिगुणस्वरूप होनेपर भी उनके परे उनकी आत्माके रूपमें स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञानके मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।।३२।। अनन्त! आपके श्रेष्ठ दर्शनसे बढ़कर ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदानके रूपमें माँगूँ? मनुष्य आपके दर्शनसे ही पूर्णकाम और सत्यसंकल्प हो जाता है ।।३३।। आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तोंकी भी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेनेपर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान्में, उनके शरणागत भक्तोंमें और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे ।।३४।।
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनिने सुमधुर वाणीसे इस प्रकार भगवान् शंकरकी स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वतीकी प्रसाद-प्रेरणासे यह बात कही ।।३५।। महर्षे! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मामें तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ ।।३६।। ब्रह्मन्! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमानके समस्त विशेष ज्ञानोंका एक अधिष्ठानरूप ज्ञान और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थितिकी प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराणका आचार्यत्व भी प्राप्त हो ।।३७।।
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान् शंकर मार्कण्डेय मुनिको वर देकर भगवती पार्वतीसे मार्कण्डेय मुनिकी तपस्या और उनके प्रलयसम्बन्धी अनुभवोंका वर्णन करते हुए वहाँसे चले गये ।।३८।। भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनिको उनके महायोगका परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान्के अनन्यप्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदयसे पृथ्वीपर विचरण किया करते हैं ।।३९।। परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने भगवान्की योगमायासे जिस अद्भुत लीलाका अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगोंको सुना दिया ।।४०।। शौनकजी! यह जो मार्कण्डेयजीने अनेक कल्पोंका—सृष्टि-प्रलयोंका अनुभव किया, वह भगवान्की मायाका ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हींके लिये था, सर्वसाधारणके लिये नहीं। कोई-कोई इस मायाकी रचनाको न जानकर अनादि-कालसे बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शंका नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्पके हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजीकी आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी?) ।।४१।।
भृगुवंशशिरोमणे! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेय-चरित्र सुनाया है, वह भगवान् चक्रपाणिके प्रभाव और महिमासे भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओंके कारण प्राप्त होनेवाले आवागमनके चक्करसे सर्वदाके लिये छूट जाते हैं ।।४२।।
भोले बाबा हम भी प्रभु की माया मे भटके हैं, कृपा करो, कल्याण करो।
ॐ नमः शिवाय
April 27, 2025
वामांग गौरी जटा मध्य गंगे, तिलकसदृश बालशशि भाल सोहे।
कंठे गरल नाग वक्षे विभूषित, अत्यद्भूतं पाहि माम् आशुतोषम्।।
प्रभु, कुछ समझ नहीं आ रहा। अभी तक अंकलजी मिलने भी नहीं आये। सपने में पता चला कि मीनू नीट का रिजल्ट देखने कहीं आ रही है। दोस्त के साथ जा रहा था तो रस्ते में एक बाबा मिला। उसने मेरी छाती पर कुछ डंडा जैसा रखा और मेरे शरीर का भार जाने लगा, और मैं हवा में उड़ गया। उसके बाद किसी आधुनिक दुनिया की माया में सुपरमैन भटकता रहा।
प्रभु हर कोई मेरी शादी के पीछे ही क्यू लगा रहता है। क्यू कोई ये नहीं समझता कि मेरी सखी बिना में अंदर ही अंदर तड़पता रहूंगा और परिस्थितिया और खराब हो जाएगी। क्यों हर कोई इस समाज की गलत धारणाओं का समर्थन करता है। विरोध नहीं कर सकता तो कम से कम गलत का समर्थन तो करना नहीं चाहता, इससे ही तो बुराइयां बढ़ती जाती हैं। सुख और शांति के लिए ना तो मेरे प्रभु को छोड़ सकता हूँ ना ही मेरी सखी को।
प्रभु, जब मेरी सखी की बातों में इतना विरोध है और कुछ और ही बताता है तो कैसे शांत रहु। अंदर से तो यही लग रहा है कि मीनू ने परिस्थितियो और परिवार, खास तोर में आंटीजी की परेशानी, जिसका कारण अभी तक नहीं समझ आया है पर कुछ समाज का ही लगता है, हालात से तंग आ कर, अपने हिस्से से समझौता कर के ये फैसला लिया है। अभी भी कोई समस्या नहीं है, प्रश्न कम नहीं हो रहे।
प्रभु, ये कैसी समाज की माया है कि माता-पिता बच्चों की भावनाएं नहीं समझते
प्रभु, कुछ समझ नहीं आता माँ को किसे समझा, हर किसी से मेरे प्यार को एक तरफ कह कर मुझे गलत साबित करने में लग जाती है। प्यार में हर कोई न्यूटन लॉ क्यों लगता है। समय ने तो न्यूटन लॉ को भी अधूरा और सीमित साबित कर दिया।
पता नहीं माँ क्यों इतने डर में रहती है। कभी कभी परेशान हो के झल्लात में क्या क्या बोल देते हैं। प्रभु, ऐसा कैसा हो सकता है कि नानी नाना मेरी हालत देख कर तुम्हारे साथ हंस रहे हो? हा तुम जरूर परेशान होगे!
पता नहीं मीनू से पहली बार क्या बात की? क्यों मीनू को लगा कि उस पर आरोप लग रहा है कि उसने अपने माता-पिता से कुछ छिपाया है?
मीनू भी परिस्थियों से तंग आ कर क्या कहती है। सब मुझे परिस्थितियों का सामना करने को कहते हैं और खुद समाज से डरते हैं और परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं।
मेरे लिया भी तो आसान नहीं था मीनू की फोटो देखना, फिर भी यही सोच के हिम्मत जुटाई कि पता नहीं मीनू किन परिस्थितियों में है कि बातों में इतना विरोध है। सत्ये के खोज में भटकता रहा हु. प्रभु कुछ समझ नहीं आ रहा।
प्रभु, तुम ही सबका मार्गदर्शन करो।
April 27, 2025
अथैकादशोऽध्यायः भगवान्के अंग, उपांग और आयुधोंका रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणोंका वर्णन
शौनकजीने कहा—सूतजी! आप भगवान्के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ।।१।। हमलोग क्रियायोगका यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पांचरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान्की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अंग, गरुडादि उपांग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं? भगवान् आपका कल्याण करें ।।२-३।।
सूतजीने कहा—शौनकजी! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पांचरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान्की जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें नमस्कार करके आपलोगोंको वही सुनाता हूँ ।।४।। भगवान्के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत—इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है ।।५।। यह भगवान्का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं ।।६।।
प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं ।।७।। लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमाकी चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुषके सिरपर उगे हुए बाल हैं ।।८।। शौनकजी! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाणसे सात बित्तेका है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थितिके साथ अपने सात बित्तेका है ।।९।।
कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः । तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात् श्रीवत्समुरसा विभुः ।।१०
स्वयं भगवान् अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्षःस्थलपर श्रीवत्सरूपसे ।।१०।।
वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म्—इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं ।।११।। देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं ।।१२।। मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभि-कमलके रूपमें वर्णित हुआ है ।।१३।। वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राण-तत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पांचजन्य शंख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं ।।१४।। आकाशके समान निर्मल आकाशस्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हुए हैं ।।१५।। इन्द्रियोंको ही भगवान्के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है ।।१६।।
सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान्की पूजाका स्थान है, अन्तःकरणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देना ही भगवान्की पूजा है ।।१७।। ब्राह्मणो! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छः पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान् अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं ।।१८-१९।।
आत्मस्वरूप भगवान्की उनसे कभी न बिछुड़नेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान्के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान्के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ।।२०।।
शौनकजी! स्वयं भगवान् ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको चतुर्व्यूहके रूपमें कहा जाता है ।।२१।। वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं ।।२२।। इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं ।।२३।।
द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक् स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत् ।
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः ।।२४
शौनकजी! वही सर्वस्वरूप भगवान् वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं ।।२४।।
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रु- ग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य ।
गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत- तीर्थश्रवः श्रवणमंगल पाहि भृत्यान् ।।२५
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके द्रोही भूपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द! आपके नाम, गुण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ।।२५।।
शौनकजीने कहा—सूतजी! भगवान् श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित्से (पंचम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीनेमें बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियोंके नाम क्या हैं? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान् ही हैं; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ।।२७-२८।।
सूतजीने कहा—समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् विष्णु ही हैं। अनादि अविद्यासे अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंमें भ्रमण किया करता है ।।२९।।
असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं ।।३०।। शौनकजी! एक भगवान् ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं ।।३१।। कालरूपधारी भगवान् सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं ।।३२।।
शौनकजी! ये सब सूर्यरूप भगवान्की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।।४५।। ये सूर्यदेव अपने छः गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेक-बुद्धिका विस्तार करते हैं ।।४६।। सूर्यभगवान्के गणोंमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ।।४७।। नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं ।।४८।। इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं ।।४९।। इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान् श्रीहरि ही कल्प-कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन-पोषण करते-रहते हैं ।।५०।।
प्रभु, ऐसा कैसा हो सकता है कि भागवत में प्रेम की समझ नहीं है। तुम्हें तो भाव का भूखा कहते हैं. कुछ समझ नहीं आ रहा ढोंगियो ने कितना छेड़खानी की है। संडे भी निकल गया और अंकलजी ना मिलने आये ना हाल चल मिला। प्रभु, विचित्र हो रहा हूं, ऊपर से जिसको देखो मेरी शादी की बात करता है। इस प्रश्न पर को अवैध बना देना चाहिए
मीनू तो बाते इतनी मॉडर्न करती है, कहती है समाज से कोई मतलब नहीं, मुझसे कभी गुस्सा नहीं थी, फिर भी ऑनलाइन मुझसे बात करने की जगह ब्लॉक कर दिया। अंकलजी ने मेरी भावनाएँ समझी होतीं तो समझ जाते कि जो झूठ बोला उसे मैं नहीं डिगुंगा। खुद कहते हैं मैं इतना समझदार हूं फिर भी मुझे झूठ से रोकने चले थे। पता नहीं मेरे अंकलजी भी क्या मुर्खता करते हैं। झुठ का चयन करने से पहले मेरी भावनाएं तो समझनी चाहिए थी
प्रभु, झूठ बोलना पाप है बचपन में ही सिखाया जाता है। मीनू तो कह रही थी "मेरे लिए मेरे मम्मी पापा ही सब कुछ है", फिर भी क्यों पाप करने से रोकने की जगह मदद कर के उन्हें साला पापी बना दिया? हे पतितपावन, रक्षा करो
खुद कहती है कि अपने मम्मी पापा से कुछ नहीं छुपाते, तो अंकलजी को ये क्यों नहीं सिखाया। अंकलजी कह रहे हैं कि मेरे मम्मी पापा को अपने मम्मी पापा के समान मानते हैं। खुद भी यही कहती है. क्यों उन्हें छुपाया, झूठ बोला? अंकलजी ने तो मम्मी को भी ब्लॉक कर दिया और कहते हैं मैसेज नहीं
April 28, 2025
वरप्रद शुभप्रद तमयुग पदांबुज, सुखप्रद यशप्रद तवयुग करांबुज।करुणाजले सिक्त शुभ युग दृगांबुज, कुरुवास हृदये मम् सीता रामम्॥ गुणग्राम युगमूर्ति जय सीता रामम्॥
हे प्रभु, अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि जिस झूठ के कारण दुनिया से दूरी बनी र, वही झूठ जिसने मेरी सखी से ज्यादा विश्वास किया उसी ने मेरे जीवन में भर दिया। पहले से ही मेरे लिए किसी और से शादी करना संभव नहीं था, अब तो अंकलजी ने मीनू पे विवाह करना मुश्किल कर दिया है, लेकिन जीवन में विश्वास करना तो असंभव है। इस कलयुग में तो सबका अर्थ ही
इतने सालों से सोच रहा हूँ क्यों झरना बह रहा है, क्यू मन की जेल में कैद है। क्यों नहीं समझ पाया? प्रभु, मुझे क्यों इतना नालायक बनाया के मेरी सखी की भावनाएं नहीं समझ पाई, भावनात्मक रूप से भी साथ ना दे पाया?
प्रभु, जिनका स्वभाव झूठ बोलना होता है उनके लिए तो चारो वर्नो में भी जगह नहीं है। कृपा करो प्रभु। मेरे अंकलजी आंटीजी को सद मार्ग दिखाओ, और मेरी सखी को शक्ति दो इस असत्य को रोकें अपने माता पिता को सत्य की राह पे लेन की
अथ द्वादशोऽध्यायः श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
सूतजी कहते हैं—भगवद्भक्तिरूप महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मोंका संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ ।।१।। शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान् विष्णुका यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्योंके श्रवण करनेयोग्य है ।।२।। इस श्रीमद्भागवतपुराणमें सर्वपापापहारी स्वयं भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदयमें विराजमान, सबकी इन्द्रियोंके स्वामी और प्रेमी भक्तोंके जीवनधन हैं ।।३।। इस श्रीमद्भागवतपुराणमें परम रहस्यमय—अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वका वर्णन हुआ है। उस ब्रह्ममें ही इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस पुराणमें उसी परमतत्त्वका अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्तिके साधनोंका स्पष्ट निर्देश है ।।४।। शौनकजी! इस महापुराणके प्रथम स्कन्धमें भक्तियोगका भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोगसे उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखनेवाले वैराग्यका भी वर्णन किया गया है। परीक्षित्की कथा और व्यास-नारद-संवादके प्रसंगसे नारदचरित्र भी कहा गया है ।।५।। राजर्षि परीक्षित् ब्राह्मणका शाप हो जानेपर किस प्रकार गंगातटपर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजीके साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्धमें ही है ।।६।। योगधारणाके द्वारा शरीरत्यागकी विधि, ब्रह्मा और नारदका संवाद, अवतारोंकी संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदिके क्रमसे प्राकृतिक सृष्टिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन द्वितीय स्कन्धमें हुआ है ।।७।।
तीसरे स्कन्धमें पहले-पहल विदुरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रेयजीके समागम और संवादका प्रसंग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिताके विषयमें प्रश्न है और फिर प्रलयकालमें परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है ।।८।। गुणोंके क्षोभसे प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियोंके द्वारा कार्य-सृष्टिका वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुषकी स्थितिका स्वरूप समझाया गया है ।।९।। तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म कालका स्वरूप, लोक-पद्मकी उत्पत्ति, प्रलय-समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार करते समय वराहभगवान्के द्वारा हिरण्याक्षका वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्योंकी सृष्टि एवं रुद्रोंकी उत्पत्तिका प्रसंग है। इसके पश्चात् उस अर्द्धनारी-नरके स्वरूपका विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियोंकी अत्यन्त उत्तम आद्या प्रकृति शतरूपाका जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापतिका चरित्र, उनसे मुनिपत्नियोंका जन्म, महात्मा भगवान् कपिलका अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूतिके संवादका प्रसंग आता है ।।१०-१३।। चौथे स्कन्धमें मरीचि आदि नौ प्रजापतियोंकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथुका चरित्र तथा प्राचीनबर्हि और नारदजीके संवादका वर्णन है। पाँचवें स्कन्धमें प्रियव्रतका उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरतके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियोंका वर्णन; ज्योतिश्चक्रके विस्तार एवं पाताल तथा नरकोंकी स्थितिका निरूपण हुआ है ।।१४-१६।। शौनकादि ऋषियो! छठे स्कन्धमें ये विषय आये हैं—प्रचेताओंसे दक्षकी उत्पत्ति; दक्ष-पुत्रियोंकी सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियोंका जन्म-कर्म; वृत्रासुरकी उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्धके विषय बतलाये जाते हैं—) इस स्कन्धमें मुख्यतः दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लादके उत्कृष्ट चरित्रका निरूपण है ।।१७-१८।।
आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोंकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोंमें होनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णुके अवतार—कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यतः राजवंशोंका वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंशविस्तार, महात्मा सुद्युम्न, इला एवं ताराके उपाख्यान—इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति, खट्वांग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान् रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह-त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है ।।१९-२४।। भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्त-नन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही हैं। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लड़के यदुका वंशविस्तार कहा गया है ।।२५-२६।। शौनकादि ऋषियो! इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोंका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया। बचपनमें ही छकड़ेको उलट दिया ।।२७-२८।। तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला ।।२९।।
दावानलसे घिरे गोपोंकी रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया ।।३०।। इसके बाद गोपियोंने भगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान् श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान्ने यज्ञपत्नियोंपर कृपा की। उनके पतियों—ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ ।।३१।। गोवर्द्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान्का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियोंके साथ रास-क्रीडा की ।।३२।। दुष्ट शंखचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया ।।३३।। उस प्रसंगपर व्रजसुन्दरियोंने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया ।।३४।। सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया ।।३५।। जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया ।।३६।। स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान्ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रुक्मिणीका हरण किया ।।३७।।
बाणासुरके साथ युद्धके प्रसंगमें महादेवजी-पर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएँ काट डालीं। प्राग्-ज्योतिषपुरके स्वामी भौमासुरको मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं ।।३८।। शिशुपाल, पौण्ड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पंचजन आदि दैत्योंके बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान्ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान्के चक्रने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया ।।३९-४०।। शौनकादि ऋषियो! ग्यारहवें स्कन्धमें इस बातका वर्णन हुआ है कि भगवान्ने ब्राह्मणोंके शापके बहाने किस प्रकार यदुवंशका संहार किया। इस स्कन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और उद्धवका संवाद बड़ा ही अद्भुत है ।।४१।। उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णयका निरूपण हुआ है और अन्तमें यह बात बतायी गयी है कि भगवान् श्रीकृष्णने अपने आत्मयोगके प्रभावसे किस प्रकार मर्त्यलोकका परित्याग किया ।।४२।। बारहवें स्कन्धमें विभिन्न युगोंके लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगोंके व्यवहारका वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलि-युगमें मनुष्योंकी गति विपरीत होती है। चार प्रकारके प्रलय और तीन प्रकारकी उत्पत्तिका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है ।।४३।। इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित्के शरीरत्यागकी बात कही गयी है। तदनन्तर वेदोंके शाखा-विभाजनका प्रसंग आया है। मार्कण्डेयजीकी सुन्दर कथा, भगवान्के अंग-उपांगोंका स्वरूपकथन और सबके अन्तमें विश्वात्मा भगवान् सूर्यके गणोंका वर्णन है ।।४४।।
शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने इस सत्संगके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसरपर मैंने हर तरहसे भगवान्की लीला और उनके अवतार-चरित्रोंका ही कीर्तन किया है ।।४५।।
पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन् । हरये नम इत्युच्चैर्मुच्यते सर्वपातकात् ।।४६
जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है—‘हरये नमः’, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।४६।।
संकीर्त्यमानो भगवाननन्तः श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।
प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवातिवातः ।।४७
यदि देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन्न भगवान् श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका संकीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुषके सारे दुःख मिटा देते हैं—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ।।४७।।
जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान्के नाम, लीला, गुण आदिका उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान्के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ।।४८।। जिस वचनके द्वारा भगवान्के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है। मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्रके समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है ।।४९।।
जिस वाणीसे—चाहे वह रस, भाव, अलंकार आदिसे युक्त ही क्यों न हो—जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान् रहते हैं ।।५०।। इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टिसे दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवान्के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ।।५१।। वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान्को अर्पण नहीं किया गया है—वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो—सर्वदा अमंगलरूप, दुःख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है? ।।५२।।
यशःश्रियामेव परिश्रमः परो वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु ।
अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयो- र्गुणानुवादश्रवणादिभिर्हरेः ।।५३
वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है—केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति। परन्तु भगवान्के गुण, लीला, नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोंकी अविचल स्मृति प्रदान करता है ।।५३।।
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमंगलोंको नष्ट कर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है। उसीके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान्की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान्के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है ।।५४।।
शौनकादि ऋषियो! आपलोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं! क्योंकि आपलोग बड़े प्रेमसे निरन्तर अपने हृदयमें सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्व-शक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेवसे रहित नारायण भगवान्को स्थापित करके भजन करते रहते हैं ।।५५।। जिस समय राजर्षि परीक्षित् अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियोंकी भरी सभामें सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराजसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षिके मुखसे इस आत्मतत्त्वका श्रवण किया था। आपलोगोंने उसका स्मरण कराकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आपलोगोंका बड़ा ऋणी हूँ ।।५६।। शौनकादि ऋषियो! भगवान् वासुदेवकी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसंगमें उन्हींकी महिमाका वर्णन किया है; जो सारे अशुभ संस्कारोंको धो बहाती है ।।५७।। जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धाके साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्तःकरणको पवित्र बना लेता है ।।५८।। जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशीके दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पापकी प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है ।।५९।। जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्तःकरणको अपने वशमें करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारकामें इस पुराणसंहिताका पाठ करता है, वह सारे भयोंसे मुक्त हो जाता है ।।६०।। जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तनसे देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ।।६१।।
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके पाठसे ब्राह्मणको मधुकुल्या, घृतकुल्या और पयःकुल्या (मधु, घी एवं दूधकी नदियाँ अर्थात् सब प्रकारकी सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवतके पाठसे भी मिलता है ।।६२।। जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिताका अध्ययन करता है, उसे उसी परमपदकी प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान्ने किया है ।।६३।। इसके अध्ययनसे ब्राह्मणको ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञानको प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रियको समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेरका पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है ।।६४।। भगवान् ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलोंको ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करनेके लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान्का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवत-महापुराणमें तो प्रत्येक कथा-प्रसंगमें पद-पदपर सर्वस्वरूप भगवान्का ही वर्णन हुआ है ।।६५।। वे जन्म-मृत्यु आदि विकारोंसे रहित, देशकाला-दिकृत परिच्छेदोंसे मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत्की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ।।६६।।
उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्म- न्युपरचितस्थिरजंगमालयाय ।
भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने सुरऋषभाय नमः सनातनाय ।।६७
जिन्होंने अपने स्वरूपमें ही प्रकृति आदि नौ शक्तियोंका संकल्प करके इस चराचर जगत्की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूपसे स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओंके आराध्यदेव सनातन भगवान्के चरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ ।।६७।।
स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावो- ऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।
व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ।।६८
श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्दमें ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थितिसे उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरकी मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओंने उनकी वृत्तियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत्के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इस महापुराणका विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ।।६८।।
अथ त्रयोदशोऽध्यायः विभिन्न पुराणोंकी श्लोक-संख्या और श्रीमद्भागवतकी महिमा
सूत उवाच
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदै- र्गायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।।१
सूतजी कहते हैं—ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियोंके द्वारा जिनके गुण-गानमें संलग्न रहते हैं; साम-संगीतके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अंग, पद, क्रम एवं उपनिषदोंके सहित वेदोंद्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगीलोग ध्यानके द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मनसे जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहनेपर भी देवता, दैत्य, मनुष्य—कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूपको पूर्णतया न जान सका, उन स्वयंप्रकाश परमात्माको नमस्कार है ।।१।।
जिस समय भगवान्ने कच्छपरूप धारण किया था और उनकी पीठपर बड़ा भारी मन्दराचल मथानीकी तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचलकी चट्टानोंकी नोकसे खुजलानेके कारण भगवान्को तनिक सुख मिला। वे सो गये और श्वासकी गति तनिक बढ़ गयी। उस समय उस श्वासवायुसे जो समुद्रके जलको धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वासवायुके थपेड़ोंके फलस्वरूप ज्वार-भाटोंके रूपमें दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अबतक विश्राम न मिला। भगवान्की वही परमप्रभावशाली श्वासवायु आपलोगोंकी रक्षा करे ।।२।।
शौनकजी! अब पुराणोंकी अलग-अलग श्लोक-संख्या, उनका जोड़, श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये। इसके दानकी पद्धति तथा दान और पाठ आदिकी महिमा भी आपलोग श्रवण कीजिये ।।३।। ब्रह्मपुराणमें दस हजार श्लोक, पद्मपुराणमें पचपन हजार, श्रीविष्णुपुराणमें तेईस हजार और शिवपुराणकी श्लोकसंख्या चौबीस हजार है ।।४।। श्रीमद्भागवतमें अठारह हजार, नारदपुराणमें पचीस हजार, मार्कण्डेयपुराणमें नौ हजार तथा अग्निपुराणमें पन्द्रह हजार चार सौ श्लोक हैं ।।५।। भविष्यपुराणकी श्लोक-संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रह्मवैवर्तपुराणकी अठारह हजार तथा लिंगपुराणमें ग्यारह हजार श्लोक हैं ।।६।। वराहपुराणमें चौबीस हजार, स्कन्ध-पुराणकी श्लोक-संख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराणकी दस हजार ।।७।। कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकोंका और मत्स्यपुराण चौदह हजार श्लोकोंका है। गरुड़पुराणमें उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रह्माण्डपुराणमें बारह हजार ।।८।। इस प्रकार सब पुराणोंकी श्लोकसंख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है। उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अठारह हजार श्लोकोंका है ।।९।। शौनकजी! पहले-पहल भगवान् विष्णुने अपने नाभिकमलपर स्थित एवं संसारसे भयभीत ब्रह्मापर परम करुणा करके इस पुराणको प्रकाशित किया था ।।१०।। इसके आदि, मध्य और अन्तमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी कथाएँ हैं। इस महापुराणमें जो भगवान् श्रीहरिकी लीला-कथाएँ हैं, वे तो अमृतस्वरूप हैं ही; उनके सेवनसे सत्पुरुष और देवताओंको बड़ा ही आनन्द मिलता है ।।११।। आपलोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदोंका सार है ब्रह्म और आत्माका एकत्वरूप अद्वितीय सद्वस्तु। वही श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य विषय है। इसके निर्माणका प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य-मोक्ष ।।१२।।
जो पुरुष भाद्रपद मासकी पूर्णिमाके दिन श्रीमद्भागवतको सोनेके सिंहासनपर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती है ।।१३।। संतोंकी सभामें तभीतक दूसरे पुराणोंकी शोभा होती है, जबतक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवतमहापुराणके दर्शन नहीं होते ।।१४।। यह श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदोंका सार है। जो इस रस-सुधाका पान करके छक चुका है, वह किसी और पुराण-शास्त्रमें रम नहीं सकता ।।१५।। जैसे नदियोंमें गंगा, देवताओंमें विष्णु और वैष्णवोंमें श्रीशंकरजी सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही पुराणोंमें श्रीमद्भागवत है ।।१६।। शौनकादि ऋषियो! जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें काशी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणोंमें श्रीमद्भागवतका स्थान सबसे ऊँचा है ।।१७।। यह श्रीमद्भागवतपुराण सर्वथा निर्दोष है। भगवान्के प्यारे भक्त वैष्णव इससे बड़ा प्रेम करते हैं। इस पुराणमें जीवन्मुक्त परमहंसोंके सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय एवं मायाके लेशसे रहित ज्ञानका गान किया गया है। इस ग्रन्थकी सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि इसका नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति भी ज्ञान-वैराग्य एवं भक्तिसे युक्त है। जो इसका श्रवण, पठन और मनन करने लगता है, उसे भगवान्की भक्ति प्राप्त हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है ।।१८।। यह श्रीमद्भागवत भगवत्तत्त्वज्ञानका एक श्रेष्ठ प्रकाशक है। इसकी तुलनामें और कोई भी पुराण नहीं है। इसे पहले-पहल स्वयं भगवान् नारायणने ब्रह्माजीके लिये प्रकट किया था। फिर उन्होंने ही ब्रह्माजीके रूपसे देवर्षि नारदको उपदेश किया और नारदजीके रूपसे भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासको। तदनन्तर उन्होंने ही व्यासरूपसे योगीन्द्र शुकदेवजीको और श्रीशुकदेवजीके रूपसे अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षित्को उपदेश किया। वे भगवान् परम शुद्ध एवं मायामलसे रहित हैं। शोक और मृत्यु उनके पासतक नहीं फटक सकते। हम सब उन्हीं परम सत्यस्वरूप परमेश्वरका ध्यान करते हैं ।।१९।।
नमस्तस्मै भगवते वासुदेवाय साक्षिणे । य इदं कृपया कस्मै व्याचचक्षे मुमुक्षवे ।।२०
हम उन सर्वसाक्षी भगवान् वासुदेवको नमस्कार करते हैं, जिन्होंने कृपा करके मोक्षाभिलाषी ब्रह्माजीको इस श्रीमद्भागवतमहापुराणका उपदेश किया ।।२०।।
योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे । संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत् ।।२१
साथ ही हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजीको भी नमस्कार करते हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवतमहापुराण सुनाकर संसार-सर्पसे डसे हुए राजर्षि परीक्षित्को मुक्त किया ।।२१।।
भवे भवे यथा भक्तिः पादयोस्तव जायते । तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यतः प्रभो ।।२२
देवताओंके आराध्यदेव सर्वेश्वर! आप ही हमारे एकमात्र स्वामी एवं सर्वस्व हैं। अब आप ऐसी कृपा कीजिये कि बार-बार जन्म ग्रहण करते रहनेपर भी आपके चरणकमलोंमें हमारी अविचल भक्ति बनी रहे ।।२२।।
नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ।।२३
जिन भगवान्के नामोंका संकीर्तन सारे पापोंको सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान्के चरणोंमें आत्मसमर्पण, उनके चरणोंमें प्रणति सर्वदाके लिये सब प्रकारके दुःखोंको शान्त कर देती है, उन्हीं परम-तत्त्वस्वरूप श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ ।।२३।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ।।१३।।
इति द्वादशः स्कन्धः समाप्तः
सम्पूर्णोऽयं ग्रन्थः
त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये । तेन त्वदङ्घ्रिकमले रतिं मे यच्छ शाश्वतीम् ।।
हे गोविन्द! आपकी वस्तु आपको ही समर्पण कर रहा हूँ। इसके द्वारा आपके चरणकमलोंमें मुझे शाश्वत प्रेम प्रदान करनेकी कृपा करें।
प्रभु, भागवत समाप्त हो गई पर मेरे प्रश्नों का उत्तर न मिला, और न ही क्या करूं समझ आया। अपनों के कल्याण और मेरी सखी की रक्षा के लिए पढ़ना आरंभ किया था, सबका मार्गदर्शन रहे हो ना?
प्रभु करते वही हो जो तुम्हें अच्छा लगता है और तुम्हारी इच्छा कोई समझ नहीं सकता। इसी विश्वास से तो डर लगता है. पता नहीं और कितना नाचाओगे? निर्णय तो तुम्हारी लाडली को ही लेना है, शक्ति देना। तुम भी तो तब ही गए जब माता ने पत्र भेजा था। मुझे तू बस इतना याद दिला सकता है कि मैं अभी भी मेरी सखी के साथ हूं और चाहे तुम्हारी माया जो भी दिखे तो हम एक ही हैं। हम एक हैं सियाराम के चरणों में।
प्रभु, सब तो तुम ही हो। तुम ही, तुम को, तुम्हें समर्पण
।।हरिः ॐ तत्सत् ।।
D.K.Atray Advocate
भगवान श्री राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया।
परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की.. परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा!! क्या कहूंगा!! यदि बिना बताए जाऊंगा तो रो रोके जान दे देगी और यदि बताया तो साथ जाने की ज़िद्द करने लगेगी और कहेगी कि यदि सीता जी अपने पति के साथ जा सकती हैं तो मैं क्यों नहीं!!
यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- "आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाओ। मैं आपको नहीं रोकुंगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।"
लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया।
वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे!
पत्नी का इतना त्याग और प्रेम देखकर लक्ष्मण जी भी रो पड़े। उर्मिला जी ने एक दीपक जलाया और विनती की कि मेरी इस आस को कभी बुझने नहीं देना।
लक्ष्मण जी तो चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला जी ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।
मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं। तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित हैं।
यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे।
माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है। मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं।
माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?
हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणि उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा।
वे बोलीं- "मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता।
आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं। जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था। इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे।
और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं शक्ति तो राम जी को लगी है। मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा। इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ। सूर्य उदित नहीं होगा।"
वास्तव में सूर्य में भी इतनी ताकत नहीं थी कि लक्ष्मण जी के जागने से पहले वो उदित हो जाते! एक पतिव्रता तपस्विनी का तप उनके सामने खड़ा था। और मेघनाथ को भी लक्ष्मण जी ने नहीं, अयोध्या में बैठी एक तपस्विनी उर्मिला ने मारा।
राम राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं... कभी सीता तो कभी उर्मिला। भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समपर्ण, बलिदान से ही आया ।
*।। जय जय श्री राम ।।*
*।। हर हर महादेव ।।*